उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं है, जैसा कि लोग बताते रहे हैं. फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा के उपन्यास-‘कन्यादान’ पर आधारित है जिसमें बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ भी बन रही थी जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं.
‘कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखा था. ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती है, वहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. प्रसंगवश यह रेणु की जन्मशती वर्ष भी है.
सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- ‘सिनेमा से संवाद’ में ठीक ही नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पाया? क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुए? उल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनीं, जिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहाल, बॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालम, तमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं.
‘कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, पंजाबी, मगही, भोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.
मराठी, बांग्ला, असमिया, भोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैं, एक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सच तो यह है कि सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता भी क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ की खूब चर्चा हुई, पर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि मैथिली सिनेमा के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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