बारह राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित असमिया फिल्मों के निर्देशक जानू बरुआ जीवन के सत्तरवें वर्ष में हैं। ‘सागरलै बहु दूर’ (1995), ‘हालोदिया चराय बाओ धान खाय’ (1987) उनकी बहुचर्चित फिल्में हैं। चालीस साल की फिल्मी यात्रा में उन्होंने समाज के हाशिए के लोगों पर चौदह फिल्में असमिया में बनाई हैं, जिनमें असम का समाज और स्त्री स्वाधीनता का सवाल प्रमुखता से दिखा है। पैरलल सिनेमा की धारा के वह एक प्रमुख फिल्मकार हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा की संस्कृति, समांतर सिनेमा और उनकी लंबी फिल्मी यात्रा के इर्द-गिर्द अरविंद दास ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :
पिछले दिनों गोवा और लद्दाख में हुए फिल्म समारोह में उत्तर-पूर्वी राज्यों की फिल्में दिखाई गईं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में फिल्म निर्माण की संस्कृति को आप कैसे देखते हैं?
मैं इन फिल्म समारोहों में नहीं गया था, इसलिए वहां दिखाई गई फिल्मों के बारे में मैं कुछ
नहीं कह पाऊंगा। आपको समझना होगा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा का बाजार
बहुत छोटा है। लोकल स्तर पर जो फिल्म उद्योग है उस पर सरकार का ध्यान नहीं है। जो
फिल्मकार हैं वे व्यावसायिक फिल्मों की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, उन पर हिंदी फिल्मों का असर है। लेकिन कुछ युवा फिल्मकार
काफी अच्छा काम कर रहे हैं। उन्हें यदि सहायता मिले तो निस्संदेह अच्छी फिल्में
लेकर आएंगे। सिनेमा बाजार पर निर्भर है। उत्तर-पूर्वी राज्यों की फिल्मों के विकास
के लिए वहां के लोगों और सरकार दोनों को ही ध्यान देना होगा।
बाजार विकसित नहीं होने के बाबजूद आप असमिया फिल्म
निर्माण-निर्देशन में पिछले चालीस साल से सक्रिय हैं..
किसी भी अन्य फिल्मकार की तरह मुझे भी काफी संघर्ष
करना पड़ा, पर उसे लेकर कोई मलाल नहीं है। मैं व्यावसायिक
फिल्में नहीं बनाता। मैं जिन सामाजिक मुद्दों को लेकर फिल्म बनाता रहा हूं वे भारत
की किसी भी क्षेत्रीय भाषा में फिल्में बनाने वालों के लिए चुनौतीपूर्ण रहे हैं।
स्त्री-पुरुष संबंध आपकी फिल्मों के केंद्र में हैं।
बात ‘अपरुप’
(1981) की हो,
‘फिरंगति’
(1991) की या हाल ही रिलीज हुई शॉर्ट फिल्म ‘दैट गस्टी मार्निंग’ (2016) की,
इनमें स्त्री पात्र काफी सशक्त दिखाई देते हैं...
हां,
मैं उन सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बनाना पसंद करता
हूं, जो एक फिल्मकार के रूप में मुझे अपील करती हैं और
मुझे लगता है कि उस पर फिल्म बनानी चाहिए। जहां तक स्त्री पात्रों की बात है, असम के समाज में स्त्रियों की स्थिति देश के अन्य
राज्यों से अलग है। यहां स्त्री-पुरुष संबंधों में समानता है। बचपन से मैंने जो
देखा, उसकी तुलना मैं भारतीय सिनेमा में स्त्रियों के
चित्रण से करता रहा हूं। जिस रूप में परदे पर उनका चित्रण होता रहा है उसे देख कर
मुझे दुख है। मैं अपनी मां के काफी करीब रहा हूं। स्त्रियों का चरित्र जब मैं
स्क्रिप्ट में लिखता हूं, अपनी
मां को एक ‘रोल मॉडल’
के रूप में सामने रखता हूं।
न सिर्फ फिल्म में, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर भी आप खुल कर राय
रखते आए हैं। आपने नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ आवाज उठाई थी। हाल ही में
नगालैंड में सेना की गोली से कई निर्दोष लोगों की मौत हुई। आप क्या कहना चाहेंगे?
एक नागरिक के रूप में मुझे लगता है कि यह
दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं इसकी राजनीति में नहीं जाना चाहूंगा। मैं खुद को
मानवतावादी मानता हूं और इस नाते कहीं भी हत्या हो, वह मुझे दुखी करती है। हमें ऐसा कुछ करना चाहिए ताकि
शांतिपूर्ण ढंग से समस्या का समाधान हो सके। हमें हिंसा की तरफ नहीं बल्कि बातचीत
की तरफ बढ़ना चाहिए।
आपकी फिल्म ‘फिरंगति’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘आगंतुक’
को एक साथ राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। आपकी फिल्मों
के बारे में रे की क्या प्रतिक्रिया थी?
मेरी उनसे दो बार मुलाकात थी। कलकत्ता में वह मेरी
फिल्म देखने आए थे। पर कुछ देर के लिए ही- पांच से दस मिनट। एक बार मेरी उनसे
मुलाकात चिदानंद दास गुप्ता ने कराई थी। उन्होंने कहा था, ‘तुममें काफी संभावना है। मैं तुम्हारी फिल्म देख कर
बहुत खुश हूं’। उनसे प्रशंसा के शब्द सुन कर मैं रात भर सो नहीं
सका था। एक तरह से यह मेरे लिए सपने के सच होने जैसा था।
फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे से निकले अडूर गोपालकृष्णन (मलयालम), गिरीश कसरावल्ली (कन्नड़) और आपने खुद असमिया में
पैरलल सिनेमा की धारा को पुष्ट किया है। इस यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?
क्षेत्रीय भाषा के फिल्मकारों में बड़ा स्ट्रॉन्ग
पैशन रहा है कि वे एक अर्थपूर्ण सिनेमा बनाएं जो भारतीय है। यह अडूर गोपालकृष्णन
से शुरू हुआ। असल में समस्या यह रही कि पैरलल सिनेमा ठीक से पंख नहीं फैला सका।
सरकार सहायता के लिए आगे नहीं आई। माफ कीजिएगा, सच यह है कि सरकार की सिनेमा की जो समझ है वह बहुत ही
खराब है। उसे नहीं पता कि देश में इस सशक्त माध्यम का कैसे इस्तेमाल हो। पर ऐसा
नहीं कि पैरलल सिनेमा की धारा सूख गई हो,
वह अभी भी जारी है। असम, बंगाल,
केरल,
मणिपुर,
मेघालय और मराठी सिनेमा के युवा फिल्मकार नए और अलग
विचार लेकर आगे आ रहे हैं।
आहोम साम्राज्य के सेनापति और योद्धा लचित बोरफुकन पर
आप लंबे समय से काम करते रहे है,
कब तक फिल्म पूरी होने की संभावना है?
मैं इस प्रॉजेक्ट के मध्य में हूं। यह एक ऐतिहासिक
फिल्म हैं। इस विषय पर अभी तक सिनेमा नहीं बना है। मैंने स्क्रिप्ट पूरी कर ली है।
उम्मीद करता हूं कि वर्ष 2023 तक
इसे मैं पूरी कर लूंगा।
आप पर किस भारतीय फिल्मकार का प्रभाव रहा है, जिसका
उल्लेख आप करना चाहें?
फिल्म संस्थान, पुणे
के दिनों में और बाद के फिल्मी सफर में मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं प्रभावित रहा
हूं, पर रे और ऋत्विक घटक की फिल्मों में जो पैशन है, उसे
मैं पसंद करता रहा हूं।
(नवभारत टाइम्स, 15 जनवरी 2022)
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