Sunday, July 24, 2022

नदी के लहरों में जीवन संघर्ष

 
कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा प्रदर्शनकारी कला पर पड़ी है. पहली और दूसरी लहर के दौरान नाट्यकर्मियों की सुध लेने वाला कोई नहीं था, ये दर्शकों से दूर थे. सुखद है कि उस दौर को पीछे छोड़ते हुए एक बार फिर से नाट्यकर्मी दर्शकों से आमने-सामने जुड़ रहे हैं. पिछले दिनों दो साल के बाद दिल्ली में महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स एंड फेस्टिवल- (मेटा) का आयोजन किया गया.

इसमें हिंदी, असमिया, मलयालम, बांग्ला के चार नाटकों का मंचन किया गया, जिसे मेटा 2020 में पुरस्कृत किया गया था. सबसे ज्यादा चर्चा साहिदुल हक निर्देशित ‘द ओल्ड मैन’ नाटक की हुई. यह नाटक अर्नेस्ट हेमिंग्वे की प्रसिद्ध कृति ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ पर आधारित है, पर इसकी भावभूमि ब्रह्मपुत्र नदी है और भाषा असमिया है. हेमिंग्वे के मुख्य पात्र सेंटियागो की तरह ही इस नाटक में एक बूढ़ा, वोदाई, बिना कोई मछली पकड़े लगातार 84 दिनों तक नदी से खाली हाथ लौटता है. निराशा और अवसाद के साथ-साथ उसे सामाजिक उपेक्षा भी झेलनी पड़ती है. युवा रोंगमोन को उसके पास नहीं जाने की सलाह दी जाती है. एक तरह से लोग उसे अपशकुन की तरह देखते हैं. पर वोदाई जिजीविषा और संघर्ष से अपनी परिस्थिति पर विजय पाता है.
यह नाटक जहाँ मानवीय भावों के इर्द-गिर्द बुना गया है, वहीँ एक बड़े सवाल जो प्रकृति और मानवीय रिश्तों से से जुड़ा हुआ उसे अपने घेरे में लेता है. इस समय असम में बाढ़ से लाखों लोग बेघर हुए हैं और जान-माल का काफी नुकसान हुआ है. सच तो यह है कि यह तबाही हर साल आती है. जो अपनी जीविका के लिए नदी पर निर्भर हैं, वे नदीपुत्र कैसे जीवन-बसर करते हैं, किस तरह झंझावतों से लड़ते हैं? वोदाई प्रकृति और मानव के बीच संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है. हाल के वर्षों में मुख्यधारा के मीडिया में भले पर्यावरण की चिंता देखने-सुनने को मिल रही हो, पर सिनेमा-नाटक में अभी भी यह विषय अपवाद स्वरूप ही दिखाई देते हैं. ऐसे में 'द ओल्ड मैन’ नाटक अपने विषय-वस्तु की वजह से अलग से रेखांकित किए जाने योग्य है.
इस नाटक की भाषा असमिया है, लेकिन निर्देशक ने रंगयुक्ति के बल पर वाचिक पक्ष को गौण कर दिया और यहाँ आंगिक पक्ष प्रधान है. साथ ही प्रकाश संयोजन इस नाटक का एक सशक्त पक्ष है. नदी में आई बाढ़ की विकरालता, लहरों में फंसे नाव को बिंब और ध्वनि के मेल से बेहद कौशल से निर्देशक ने मंच पर जीवंत किया है. अनायास नहीं कि नाटक देखते हुए सिनेमाई तत्वों का ख्याल मन में आता रहता है, जबकि यहाँ किसी कैमरे या यंत्र की कोई भूमिका नहीं थी. निरंजन नाथ वोदाई की भूमिका में प्रभावी थे. मंच पर साज-सज्जा बेहद सीमित था. एक छोटा सा नाव उनके लिए जीवन-यापन का साधन और घर भी है. असल में नाव अपना रूप बदलता रहता है. साहिदुल कहते हैं कि ‘द ओल्ड मैन’ में वोदाई और रोंगमोन में अपने पिता और खुद को देखते हैं. मूलत: असम से ताल्लुक रखने वाले साहिदुल की ‘बबल्स इन द रिवर’ नाटक भी काफी चर्चित रहा है.

Friday, July 22, 2022

‘पापुलर’ के रास्ते पर आगे बढ़ती दक्षिण भारतीय फिल्में

आज पापुलर मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. वैसे हाल के वर्षों में बाहुबलीपुष्पाआरआरआरकेजीएफ जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर जो धूम मचाई है और हिंदी क्षेत्र में अल्लू अर्जुनरश्मिका मंदानाएनटीआर जूनियरसाई पल्लवी जैसे कलाकारों की जो लोकप्रियता हैवह आश्चर्यचकित करता है. इन फिल्मों को अखिल भारतीय (पैन इंडियन) सिनेमा कहा जा रहा है. इस बात से किसी को इंकार भी नहीं कि जिस तरह पुष्पाद राइज ने लटके-झटकेचरित्र-चित्रण, एक्शनगानों और संवाद से लोगों का मनोरंजन कियाइस फिल्म के दूसरे भाग का दर्शक बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.

पर क्या भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि क्षेत्रीय और तेलुगुतमिलकन्नड़मलयालम के भाषाई इलाके से बाहर निकल कर ये फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बटोर रही हैं पिछले दिनों जब मैंने कन्नड़ सिनेमा के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली से एक बातचीत के दौरान यही सवाल किया तो उनका कहना था कि यह सही है कि इन फिल्मों ने सबका ध्यान दक्षिण भारतीय सिनेमा की तरफ खींचा है और दर्शकों से बड़ी मान्यता पाई है. लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा बहुत पहले से लोगों का ध्यान खींचता आ रहा है. यह कोई हाल की बात नहीं हैअडूर गोपालकृष्णन की बात हो या पट्टाभिरामा रेड्डी की संस्कार (1970)बीवी कारांत की चोमाना डुडी (1975) की. अन्य फिल्मों को भी उनकी सामग्री और कला के लिए अखिल भारतीय पहचान मिली थी. चूंकि इन फिल्मों को कभी बहुत बड़े स्तर पर रिलीज नहीं किया गयाइसलिए उन्हें दर्शकों से इतनी मान्यता नहीं मिलीजितनी आज की फिल्मों को मिल रही है. पिछली सदी के  सत्तर-अस्सी के दशक में खुद कसारावल्ली की घाटश्रद्धा (1977), तबराना कथे (1986) जैसी फिल्मों ने कन्नड़ सिनेमा को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया था. पर अडूरशाजी करुण या कसारावल्ली की फिल्में पापुलर सिनेमा के फ्रेम में नहीं बनाई गई थी. ये फिल्में कला या समांतर सिनेमा के दौर में बनी जिसकी पहुँच एक खास दर्शक वर्ग तक सीमित रही. आज भी हिंदी भाषा में इनकी फिल्में बमुश्किल मिलती हैजबकि दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी जिन फिल्मों की आज चर्चा हो रही हैवे हिंदी भाषा में भी साथ-साथ डब की गई. इन्हें इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म का भी सहयोग मिला है.

बहरहालपिछली सदी में जब तकनीक और मीडिया का विस्फोट नहीं हुआ था तब भी एनटी रामाराव और एम जी रामचंद्रन जैसे अभिनेता-राजनेता की लोकप्रियता अखिल भारतीय स्तर पर थी. प्रसंगवश तेलुगु सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता एनटीआर की इस साल जन्मशती मनाई जा रही है, जहाँ उनके सिनेमा और राजनीतिक जीवन को प्रमुखता से याद किया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि सत्तर साल पहलेवर्ष 1952 में जब भारत के चार महानगरों में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन किया गया (यह एशिया का भी पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव था) तब इसमें राज कपूर की फिल्म आवाराके साथ एनटी रामाराव अभिनीत पाताल भैरवी (तेलुगू)वी शांताराम की अमर भूपाली (मराठी)और अग्रदूत की बाबला (बांग्ला)दिखाई गई थी. इसी तरह रजनीकांतकमल हासनचिरंजीवीममूटी जैसे अभिनेता और मणि रत्नम जैसे निर्देशक हिंदी दर्शकों के दिलों पर राज करते रहे हैं. यह बॉलीवुड का दुर्भाग्य है कि वह इन कलाकारों की प्रतिभा का समुचित इस्तेमाल नहीं कर पाया. यहाँ जोड़ना उचित है कि मणि रत्नम की फिल्में जैसेनायकन (1987)रोजा (1992)बाम्बे (1995) अखिल भारतीय स्तर पर काफी सफल रही थी.

गिरीश कसारावल्ली हालांकि कहते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे इन फिल्मों की सामग्री और कला पक्ष को लेकर चिंता है. इन्हें व्यापक स्तर पर दर्शकों की मान्यता मिलती है और ये बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हैंलेकिन ना तो आपको और ना ही मुझे इससे फायदा होता है. अगर सौंदर्यशास्त्र के नजरिए से कोई फिल्म अच्छी तरह गढ़ी गई है और कुछ सामाजिक मुद्दों को संबोधित करती है (जिन्हें नज़रंदाज किया जा रहा है)तभी मुझे लगता है कि हमें उससे कुछ हासिल होगा.’ ऐसा भी नहीं कि दक्षिण भारतीय सिनेमा पापुलर फ्रेम में ही अवस्थित है. मलयालम में बनी जलीकट्टू’, द ग्रेट इंडियन किचेन तमिल में बनी काला’, ‘ जय भीम और हाल ही में तेलुगु में रिलीज हुई विराट पर्वम’ जैसी फिल्में उदाहरण है कि कलात्मकता और सामाजिक यथार्थ का संयोजन एक साथ संभव है.

पर क्या यह सच नहीं कि दशकों से दर्शक बॉलीवुड की फिल्मों की तरफ इसलिए भागते रहे हैं कि उन्हें रोजमर्रा की कश्मकश और दौड़-भाग से छुटकारा मिले और उनका मनोरंजन हो. पुष्पा क्या हमें बॉलीवुड के 70 और 80 के दशक में बनी व्यावसायिक फिल्मों की याद नहीं दिलाताऐसे में पापुलर’ के रास्ते, तकनीक के सहयोग से आगे बढ़ती हुई ये फिल्में यदि सफल हो रही है तो आश्चर्य कैसा

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, July 10, 2022

विविध समुदायों के बीच मेल-जोल


पिछले दिनों दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के एक कार्यक्रम में चर्चित गायिका शुभा मुद्गल ने जब ‘गजब ढा गयो तोरे नैना मुरारी/ मैं खो अपनी सुध-बुध दिल-ओ-जान हारी’ गजल गाया, तब वह यह जोड़ना नहीं भूली थी कि इसके लेखक अब्दुल हादी ‘काविश’ हैं. यह कार्यक्रम आजादी के पचहत्तरवें वर्षगांठ के तहत आयोजित किया गया जिसमें करीब दो सौ कलाकारों, कवियों, फोटोग्राफरों की एक प्रदर्शनी ‘हम सब सहमत’ नाम से जवाहर भवन में लगी है.

आज देश में जैसा माहौल है लोग सामाजिक सद्भाव, साहित्य या हिंदुस्तानी संगीत की उस परंपरा को याद नहीं करते, जहाँ पर हिंदू-मुस्लिम का राजनीतिक विभाजन मिट जाता है. विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का ऐसा पहलू है जिस पर बहुत कम बातचीत होती है. सहिष्णुता की भावना इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है.
याद आया कि मिथिला के कर्ण कायस्थों में आषाढ़ के महीने में कुल देवता धर्मराज की पूजा की परंपरा रही है, जिसमें बच्चों का मुंडन संस्कार भी करवाया जाता है. इस पूजा में अनेक देवी-देवताओं का आह्वान होता है. ध्यान देने की बात है कि यहाँ पैगंबर हजरत मोहम्मद और मूसा की भी पूजा होती है. यह बात आज भले लोगों को आश्चर्य लगे पर परंपरा के रूप में यह सैकड़ों वर्षों से जारी है. जैसा कि सब जानते हैं कायस्थ कोर्ट-कचहरी में मुस्लिम शासकों के साथ रहते आए हैं, फारसी-उर्दू भी सीखते रहे. खान-पान, पहनावे के साथ-साथ धर्म और संस्कृति का इससे मेल-जोल हुआ. पूजा के अंत में यह विनती पढ़ी जाती है: हजरत छी हजार छी, पहुमीपुर पाटल छी. ओतय दीअ पीठ, अतय दीअ दृष्टि. बार-बार गुनाह माफ करब.”
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में बिहार में कायस्थों का काफी योगदान रहा है. कहा जाता है कि कर्ण कायस्थों के पूर्वज सैकड़ों वर्ष पहले दक्षिण राज्यों से आए थे. मिथिला के इतिहासकार कर्णाट वंश (1097-1325) के शासन के प्रसंग में कायस्थों का उल्लेख करते हैं. सैकड़ों वर्ष पुरानी ‘पंजी प्रथा’ का मुकम्मल अध्ययन अभी बाकी है. मिथिला पर गियासुद्दीन तुगलक के आक्रमण के साथ कर्णाट शासन का अंत हो गया पर बाद के शताब्दी में भी उनका दबदबा बना रहा.
एक यही दृष्टांत नहीं है जिससे विविध संस्कृतियों के आपसी मेल-जोल की झलक मिलती हो. इस लिहाज से चर्चित लेखक-प्रशासक कुमार सुरेश सिंह का 43 खंडों में प्रकाशित ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ काफी महत्व रखता है. इसमें भारत के कुल 4694 समुदायों का अध्ययन किया गया है.
इस अध्ययन की महत्ता को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है कि ‘भारत देश के विभिन्न समुदायों की विविधता, उनकी एकता और उनकी विशिष्टताओं को दर्शाने वाला ऐसा विराट दूसरा कोई शोध-कार्य नहीं हुआ.’ सिंह ने अपने अध्ययन में विभिन्न समुदायों के बीच साझी प्रवृत्तियों का विस्तार से उल्लेख किया है. आजादी के अमृत महोत्सव में विभिन्न समुदायों के बीच संकीर्णता के बदले आपसी सद्भाव के उन पहलूओं पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे कि संघर्ष मिटे और शांति बहाल हो सके.