कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा प्रदर्शनकारी कला पर पड़ी है. पहली और दूसरी लहर के दौरान नाट्यकर्मियों की सुध लेने वाला कोई नहीं था, ये दर्शकों से दूर थे. सुखद है कि उस दौर को पीछे छोड़ते हुए एक बार फिर से नाट्यकर्मी दर्शकों से आमने-सामने जुड़ रहे हैं. पिछले दिनों दो साल के बाद दिल्ली में महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स एंड फेस्टिवल- (मेटा) का आयोजन किया गया.
Sunday, July 24, 2022
नदी के लहरों में जीवन संघर्ष
कोरोना महामारी की मार सबसे ज्यादा प्रदर्शनकारी कला पर पड़ी है. पहली और दूसरी लहर के दौरान नाट्यकर्मियों की सुध लेने वाला कोई नहीं था, ये दर्शकों से दूर थे. सुखद है कि उस दौर को पीछे छोड़ते हुए एक बार फिर से नाट्यकर्मी दर्शकों से आमने-सामने जुड़ रहे हैं. पिछले दिनों दो साल के बाद दिल्ली में महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स एंड फेस्टिवल- (मेटा) का आयोजन किया गया.
Friday, July 22, 2022
‘पापुलर’ के रास्ते पर आगे बढ़ती दक्षिण भारतीय फिल्में
आज पापुलर मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. वैसे हाल के वर्षों में बाहुबली, पुष्पा, आरआरआर, केजीएफ जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर जो धूम मचाई है और हिंदी क्षेत्र में अल्लू अर्जुन, रश्मिका मंदाना, एनटीआर जूनियर, साई पल्लवी जैसे कलाकारों की जो लोकप्रियता है, वह आश्चर्यचकित करता है. इन फिल्मों को अखिल भारतीय (पैन इंडियन) सिनेमा कहा जा रहा है. इस बात से किसी को इंकार भी नहीं कि जिस तरह ‘पुष्पा: द राइज’ ने लटके-झटके, चरित्र-चित्रण, एक्शन, गानों और संवाद से लोगों का मनोरंजन किया, इस फिल्म के दूसरे भाग का दर्शक बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.
पर क्या भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में
ऐसा पहली बार हो रहा है कि क्षेत्रीय और तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम के भाषाई इलाके से बाहर निकल कर ये फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर
सुर्खियाँ बटोर रही हैं? पिछले दिनों जब
मैंने कन्नड़ सिनेमा के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली से एक बातचीत के दौरान यही सवाल किया तो उनका कहना था कि ‘यह सही है कि इन
फिल्मों ने सबका ध्यान दक्षिण भारतीय सिनेमा की तरफ खींचा है और दर्शकों से बड़ी
मान्यता पाई है. लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा बहुत पहले से लोगों का
ध्यान खींचता आ रहा है. यह कोई हाल की बात नहीं है. अडूर गोपालकृष्णन की
बात हो या पट्टाभिरामा रेड्डी की संस्कार (1970), बीवी कारांत की
चोमाना डुडी (1975) की. अन्य फिल्मों को भी उनकी सामग्री और कला के लिए अखिल
भारतीय पहचान मिली थी. चूंकि इन फिल्मों को कभी बहुत बड़े स्तर पर रिलीज नहीं किया
गया, इसलिए उन्हें दर्शकों से इतनी मान्यता नहीं मिली, जितनी आज की फिल्मों
को मिल रही है.’ पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में खुद कसारावल्ली
की घाटश्रद्धा (1977), तबराना कथे (1986) जैसी फिल्मों ने
कन्नड़ सिनेमा को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया था. पर अडूर, शाजी
करुण या कसारावल्ली की फिल्में पापुलर सिनेमा के फ्रेम में नहीं बनाई गई थी. ये
फिल्में कला या समांतर सिनेमा के दौर में बनी जिसकी पहुँच एक खास दर्शक वर्ग तक
सीमित रही. आज भी हिंदी भाषा में इनकी फिल्में बमुश्किल मिलती है, जबकि दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी जिन फिल्मों की आज चर्चा हो रही है, वे हिंदी भाषा में भी साथ-साथ डब की गई. इन्हें इंटरनेट और ओटीटी
प्लेटफॉर्म का भी सहयोग मिला है.
बहरहाल, पिछली सदी में जब
तकनीक और मीडिया का विस्फोट नहीं हुआ था तब भी एनटी रामाराव और एम
जी रामचंद्रन जैसे अभिनेता-राजनेता की लोकप्रियता अखिल भारतीय स्तर
पर थी. प्रसंगवश तेलुगु सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता
एनटीआर की इस साल जन्मशती मनाई जा रही है, जहाँ उनके सिनेमा और राजनीतिक जीवन को प्रमुखता से याद
किया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि सत्तर साल पहले, वर्ष
1952 में जब भारत के चार महानगरों में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन
किया गया (यह एशिया का भी पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म
महोत्सव था) तब इसमें राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ के साथ एनटी रामाराव अभिनीत ‘पाताल भैरवी (तेलुगू)’, वी शांताराम की ‘अमर
भूपाली (मराठी)’ और अग्रदूत की ‘बाबला
(बांग्ला)’ दिखाई गई थी. इसी तरह रजनीकांत, कमल हासन, चिरंजीवी, ममूटी जैसे अभिनेता और मणि रत्नम जैसे निर्देशक हिंदी दर्शकों के दिलों पर
राज करते रहे हैं. यह बॉलीवुड का दुर्भाग्य है कि वह इन कलाकारों की प्रतिभा का
समुचित इस्तेमाल नहीं कर पाया. यहाँ जोड़ना उचित है कि मणि रत्नम की फिल्में जैसे, नायकन (1987), रोजा (1992), बाम्बे (1995) अखिल भारतीय स्तर पर काफी सफल रही थी.
गिरीश कसारावल्ली हालांकि कहते हैं कि ‘व्यक्तिगत तौर पर
मुझे इन फिल्मों की सामग्री और कला पक्ष को लेकर चिंता है. इन्हें व्यापक स्तर पर
दर्शकों की मान्यता मिलती है और ये बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हैं, लेकिन ना तो आपको और
ना ही मुझे इससे फायदा होता है. अगर सौंदर्यशास्त्र के नजरिए से कोई फिल्म अच्छी
तरह गढ़ी गई है और कुछ सामाजिक मुद्दों को संबोधित करती है (जिन्हें नज़रंदाज किया
जा रहा है), तभी मुझे लगता है कि हमें उससे कुछ हासिल होगा.’ ऐसा भी नहीं कि
दक्षिण भारतीय सिनेमा ‘पापुलर फ्रेम’ में ही अवस्थित है. मलयालम में बनी ‘जलीकट्टू’, ‘द ग्रेट इंडियन
किचेन’ तमिल में बनी ‘काला’, ‘ जय भीम’ और हाल ही में तेलुगु में रिलीज
हुई ‘विराट पर्वम’ जैसी फिल्में उदाहरण है कि कलात्मकता और सामाजिक यथार्थ का संयोजन एक साथ
संभव है.
पर क्या यह सच नहीं कि दशकों से दर्शक बॉलीवुड की
फिल्मों की तरफ इसलिए भागते रहे हैं कि उन्हें
रोजमर्रा की कश्मकश और दौड़-भाग से छुटकारा मिले और उनका मनोरंजन हो. ‘पुष्पा’ क्या हमें बॉलीवुड के 70 और 80 के दशक में बनी
व्यावसायिक फिल्मों की याद नहीं दिलाता? ऐसे में ‘पापुलर’ के रास्ते, तकनीक
के सहयोग से आगे बढ़ती हुई ये फिल्में यदि सफल हो रही है तो आश्चर्य कैसा?
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
Sunday, July 10, 2022
विविध समुदायों के बीच मेल-जोल
पिछले दिनों दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के एक कार्यक्रम में चर्चित गायिका शुभा मुद्गल ने जब ‘गजब ढा गयो तोरे नैना मुरारी/ मैं खो अपनी सुध-बुध दिल-ओ-जान हारी’ गजल गाया, तब वह यह जोड़ना नहीं भूली थी कि इसके लेखक अब्दुल हादी ‘काविश’ हैं. यह कार्यक्रम आजादी के पचहत्तरवें वर्षगांठ के तहत आयोजित किया गया जिसमें करीब दो सौ कलाकारों, कवियों, फोटोग्राफरों की एक प्रदर्शनी ‘हम सब सहमत’ नाम से जवाहर भवन में लगी है.