Sunday, May 14, 2023

दो पाटों में बिखरा प्रेम: पोखर के दुनू पार


 कवि आलोकधन्वा ने अपनी चर्चित कविता में वर्षों पहले पूछा था- क्या उस रात की याद आ रही है/जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी/जब भी कोई लड़की घर से भागती थी? युवा निर्देशक पार्थ सौरभ की फिल्म ‘पोखर के दुनू पार’  में प्रियंका (तान्या खान झा) और सुमित (अभिनव झा) भाग कर वापस लौटते हैं, अपने शहर-दरभंगा. घर नहीं, युवा दंपत्ति को मार्क्सवादी पार्टी के हॉस्टल में ठौर मिलती है.

यहाँ रातें नहीं है. बादलों के घेरे हैं, चारों तरफ अंधेरा है. यह अंधेरा कोरोना के बाद ‘लॉकडाउन’ से उपजा है. छोटे शहरों में ‘लॉकडाउन’ समय से परे है, बात जब स्त्रियों की स्वतंत्रता की हो.

पार्थ सौरभ की यह पहली फिल्म है. वे एक संभावनाशील निर्देशक के रूप में सामने आते हैं. इससे पहले अचल मिश्र ने मैथिली में ‘गामक घर’ और ‘धुइन’ फिल्म के लिए भी दरभंगा का समाज चुना था. जहाँ ‘गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती है, वहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है. ‘धुइन’ में बेरोजगारी की समस्या है, ‘पोखर के दुनू पार’ में भी मूल समस्या रोजगार की ही है, लेकिन ताना-बाना प्रेम का है. इस फिल्म की भाषा हिंदी है.

दिल्ली में नौकरी छूटने पर सुमित दरभंगा लौट कर दोस्तों के साथ मशगूल है. उसे नमक, तेल, हल्दी की फिक्र नहीं है. उसके दोस्त भी उसकी तरह ही कुछ काम नहीं  करते. वैसे भी, क्या उनको नौकरी मिल रही है?

प्रियंका के सपने हैं, वह आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली लौटना चाहती है, लेकिन कैसे? दरभंगा जैसे समाज में प्रेम दो युवाओं की स्वतंत्र इच्छा नहीं, बल्कि आज भी विद्रोह है. ऐसे में उनके लिए नाते-रिश्ते, घर-परिवार के रास्ते बंद हो जाते हैं. प्रियंका वापस 'घर' लौटना चाहती है, पर पिता की शर्त है कि वह अकेले आए, बिना सुमित के! फिल्म में प्रियंका अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को तैयार नहीं दिखती. क्या यह प्रेम शौकिया था? क्या पूंजीवादी समाज में बिना संघर्ष के प्रेम संभव है?

यह फिल्म कोई जवाब नहीं देती है. बहुत सारे सवाल छोड़ जाती है. एक तरह से दरभंगा की सामाजिक-सांस्कृतिक हालात पर तल्ख टिप्पणी है. यहाँ विभिन्न शहरों को जाने वाली रेल है, हवाई अड्डा है, विश्वविद्यालय और लड़कियों के लिए साठ साल पुराना कॉलेज हैं, लेकिन सोच सामंती है. 

फिल्म में बारिश के जो दृश्य हैं वह वियोग को दर्शाते हैं. यहाँ संयोग में भी वियोग है! साथ ही कुछ दृश्य जीवन के ठहराव, घुटन को इंगित करने में सफल हैं. एक दृश्य में चहबच्चे में आधा डूबा एक मिनी बस है. एक रिक्शा है जिसमें पहिए नहीं है. रास्ता है, पर मंजिल नहीं. यह फिल्म रास्ते पर ही जाकर खत्म होती है. ऐसे में क्या पलायन ही एकमात्र उपाय है? और जो चाह कर भी भाग नहीं पाते, उनका क्या भविष्य है?  सवाल यह भी है  समाज में प्रेम का क्या भविष्य है?

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