दादा साहब
फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) का आज (14 मई) सौवां जन्मदिन है. पिछले दिनों
इंडिया हैबिटेट सेंटर के फिल्म समारोह में ‘मृणाल सेन रेट्रोस्पेक्टिव’ के तहत उनकी तीन फिल्में-‘एक दिन प्रतिदिन’, ‘एक दिन अचानक’ और ‘खंडहर’ दिखाई गई.
दो साल
पहले एक इंटरव्यू के दौरान जब मैंने मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर
गोपालकृष्णन से उनकी पसंदीदा फिल्मों के बारे में पूछा था तब उन्होंने सत्यजीत रे
की 'अपू त्रयी', 'अपराजितो' के साथ मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और ऋत्विक घटक की 'मेघे ढाका तारा' का जिक्र किया था. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के
अद्वितीय चितेरे सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समकालीन थे. ऋत्विक घटक की ‘नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की ‘पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म ‘रात भोर’ (1956) लेकर आते हैं, लेकिन जहां सत्यजीत रे को
दुनियाभर में पहली फिल्म के साथ ही एक पहचान मिल गयी, वहीं मृणाल सेन को लंबा इंतजार करना पड़ा था.
वर्ष 1969
में आयी हिंदी फिल्म ‘भुवन शोम’ ने भारतीय सिनेमा में सेन को स्थापित कर दिया.
विषय-वस्तु और प्रस्तुति में नवीनता लेकर आई यह फिल्म हिंदी में ‘उसकी रोटी
(मणि कौल)’ और ‘सारा आकाश
(बासु चटर्जी)’ के साथ समांतर सिनेमा (न्यू वेव) का
सूत्रपात करने वाली फिल्म साबित हुई. सेन ने न सिर्फ बांग्ला और हिंदी बल्कि
ओड़िया (माटिर मानिष) और तेलुगू में भी फिल्म बनाई. प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफन
पर आधारित तेलुगू फिल्म ‘ओका उरी कथा’ (1977) हमें गहरे उद्वेलित करती है. इस फिल्म का पात्र
वेंकैया कहता है कि ‘यदि हम
काम नहीं करें, तो भूखे
रहेंगे, वैसे ही
जैसे बेहद कम पगार पर काम करनेवाला मजदूर भूखा रहता है. तो फिर काम क्यों करना?’ उन्होंने बंटे हुए समाज में श्रम
के सवाल को केंद्र में रखा है. भूख और मानवता के लोप को निर्ममता के साथ दर्शाया है.
मृणाल सेन
राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध फिल्मकार थे. पचास साल के अपने फिल्मी जीवन में
उन्होंने 28 फीचर फिल्में बनाई. उनकी सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों वाली फिल्मों में
मानवता, नैतिकता और सत्य की तलाश मुखर होकर सामने आती है.
‘एक दिन
प्रतिदिन (1979)’ उनकी सिनेमा यात्रा में एक अहम मोड़ लेकर आया. इससे पहले वे नक्सलबाड़ी आंदोलन
की पृष्ठभूमि में कोलकाता को केंद्र में रखकर ‘इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 1971’ (1972) और ‘पदातिक’ (1973) नाम से फिल्म त्रयी बना चुके थे, जो उस दौर की
हिंसक राजनीति, युवाओं के
सपने और हताशा को परदे पर चित्रित करती है. साथ ही उनकी फिल्में गरीबी, सामाजिक न्याय, सत्ता के दमन और भूख के सवालों को हमारे सामने रखती
हैं. इन फिल्मों में दर्शकों से निर्देशक का सीधा संवाद है. यहाँ मृणाल सेन
ब्रेख्तियन तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक
उद्वेलित हों.
सेन कभी
मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य नहीं रहे. हां, ऋत्विक घटक की तरह ही इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन
(इप्टा) के साथ उनका जुड़ाव रहा था.
‘एक दिन प्रतिदिन’ में मार्क्सवादी राजनीति से इतर एक
युवती को वे केंद्र में रखते हैं, जो सात लोगों के
परिवार का भरण-पोषण करती है. एक रात जब वह दफ्तर से घर नहीं लौटती है तब (उसकी बहन
को छोड़) आस-पड़ोस से लेकर घर-परिवार के लोग भी उसे संदेह की नज़र से देखते हैं.
उसके संबंधों को लेकर टीका-टिप्पणी करते हैं. कुशलक्षेम की चिंता कोई नहीं करता! एक स्त्री की स्वतंत्रता, अस्तित्व का सवाल
हमें गहरे मथती है. इस फिल्म के निर्माण की पद्धति पहले से भिन्न है. कथा संरचना
में एक प्रवाह में है. यहाँ कोई फ्रीज शॉट या एनिमेशन
नहीं दिखता है.
इस फिल्म में जिस तरह से उन्होंने हवेली के ‘स्पेस’ को फिल्माया है वह अद्भुत है. साथ ही ‘क्लोज अप’ के माध्यम से वे पात्रों की भाव-भंगिमा, अंतर्मन की बुनावट को कुशलता से सामने लाते हैं. कैमरा की गति इस फिल्म को एक लय में रचती है. साथ ही पूरे फिल्म में दर्शक की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि आखिरकार वह स्त्री रात भर रही कहां! इस संदर्भ में चर्चित फिल्म समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता ने सेन के हवाले से लिखा है कि इस फिल्म को देखने के बाद सत्यजीत रे उन्हें फोन कर पूछा कि ‘रात भर लड़की कहाँ थी? सेन का जवाब था, ‘ मुझे नहीं पता’, जिस पर रे ने कहा: ‘तुम डायरेक्टर हो, जानना तुम्हारा व्यापार है.’ चिदानंद टिप्पणी करते हैं कि यह कहानी उन दो निर्देशकों के बीच जो अंतर है उसे किसी भी चीज से ज्यादा स्पष्ट रूप से हमारे सामने रखती है. सेन का सौंदर्य बोध रे से अलहदा था. वे कलात्मकता के पीछे कभी नहीं भागे. रे की ‘गीतात्मक मानवता’ भी उन्हें बहुत रास नहीं आती थी. साथ ही ऋत्विक घटक के मेलोड्रामा से भी उनकी दूरी थी.
‘एक दिन
अचानक’, ‘खारिज’ फिल्म में 'एक दिन प्रतिदिन' ही तरह ही अनुपस्थिति के सहारे उपस्थिति का वृत्तांत जिस कौशल से सेन ने
रचा है, वह भारतीय सिनेमा में दुर्लभ है. यहाँ व्यक्ति
के अंतर्जगत और बहिर्जगत के साथ मध्यवर्ग की नैतिकता, चिंता और पाखंड को हम देखते हैं.
मृणाल सेन ने सिनेमा माध्यम को लेकर जितने प्रयोग किए, कथा कहने की जो प्रविधि अपनाई वह अद्वितीय है. यही वजह है कि तकनीक क्रांति के इस दौर में उनकी फिल्में युवा फिल्मकारों को अपने करीब लगती है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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