उन्नीसवीं सदी के आखिर और पिछली सदी की शुरुआत में जिस समय संचार का साधन अविकसित था, गौहर जान की ख्याति बनारस से दरभंगा, दरभंगा से कलकत्ता, कलकत्ता से मैसूर, पुणे तक पहुँच गई थी. हिंदुस्तानी संगीत की इस स्वर-साधिका की ठुमरी, ख्याल, टप्पे के कद्रदान हर महफिल में पाए जाते थे. गौहर की गायकी के किस्से जितने चर्चित हैं उतनी ही आन-बान-शान के भी.
जीते जी किंवदंती बन चुकी गौहर जान के बारे में संगीत विशेषज्ञ गजेंद्र नारायण सिंह ने लिखा है, ‘अपने जमाने में धन और यश के जिस शिखर पर पहुँची, वह पहुँच अन्य गायिकाओं के लिए ख्वाब थी.’ वह दौर नवाबों, महाराजाओं और रईसों की महफिलों का था, जहाँ तवायफों के माध्यम से हिंदुस्तानी संगीत कला का विकास हुआ. उनकी रची ठुमरी ‘कैसी ये धूम मचाई कन्हैया री’ आज भी सुनाई देती है.
वर्ष 1873 में आजमगढ़ में जन्मी एलीन एंजेलिना योवार्ड अर्मेनियाई रॉबर्ट विलियम योवार्ड और भारतीय मूल की विक्टोरिया हेमिंग्स की बेटी थी, जो बाद में गौहर जान (मलका जान की बेटी) कहलाई. जन्म के 150 साल बाद उनके रोचक व्यक्तित्व और गायकी के किस्सों को दिल्ली के कमानी सभागार में मूर्त देखना फिर से संगीत इतिहास के उन पन्नों में लौटने जैसा था, जिसकी चर्चा आज नहीं होती. गोकि बात जब स्त्रियों के संघर्ष और संगीत के क्षेत्र में योगदान की हो तो आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है. पुरुष प्रधान सामंती समाज में किस तरह एक स्त्री अपनी प्रतिभा और ठसक के बूते दिलों पर राज कर रही थी और आर्थिक रूप से बेहद सफल थी. गौहर की कहानी में तवायफों की आपबीती और जगबीती दोनों एक-दूसरे से गुंफित है.
जिस तरह से सभागार भरा हुआ था, कहा जा सकता है कि यदि विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण में नवीनता हो तो नाटकों के लिए दर्शकों की कमी नहीं है. पिछले दिनों अतुल कुमार के बहुचर्चित नाटक ‘पिया बहरूपिया’ के मंचन के समय में भी मैंने यह नोटिस किया था. बहरहाल, चर्चित नाट्य संस्था ‘प्राइमटाइम थिएटर कंपनी’ ने इसका मंचन किया था. निर्देशन लिलिट दुबे का था और कहानी विक्रम संपत की किताब ‘माय नेम इज गौहर जान’ पर आधारित है, जिसका नाट्य रूपांतरण महेश दत्तानी ने किया था.
पिछले दशक में यूट्यूब पर गौहर जान की बहुत सारी रिकार्डिग उपलब्ध हुए हैं, जिसे सुन कर उनकी गायकी का एक अंदाज लगाया जा सकता है. रिकार्डिंग के अंत में वह कहना नहीं भूलती थी-‘माय नेम इज गौहर जान.’ उस समय कृति की चोरी होने का डर था. उस दौर में गायिकाओं और गायकों के अंदर नई तकनीक का भी भय था कि कहीं वह उनकी गायकी या आवाज को प्रभावित न करे. उस वक्त गौहर जान ग्रामोफोन कंपनी के लिए गीत रिकॉर्ड किए. वर्ष 1902 में उन्होंने ही रिकार्डिंग की पहल की थी और लगभग छह सौ गीत रिकॉर्ड किए थे.
मंच पर गौहर की भूमिका में अभिनेत्री गिरिजा ओक गोडबोले थीं. पिता और ग्रामोफोन कंपनी के गाइसबर्ग की भूमिका में चर्चित रंगकर्मी डेंजिल स्मिथ बेहद प्रभावी थे.
गिरिजा पिछले साल ‘महानगर के जुगनू’ नाटक में भी दिखीं थी. चूँकि इस नाटक में गीत-संगीत का स्थान प्रमुख है, गिरिजा अपने गायन से असर छोड़ती है. हालांकि ऐसा महसूस होता रहा कि कुछ गाने और भी प्रस्तुत किए जाते तो बेहतर होता. नीना कुलकर्णी मलका जान की भूमिका में थी. मलका खुद एक ख्यातनाम ठुमरी गायिका थी और वाजिद अली शाह के दरबार में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी. गौहर को संगीत विरासत में मिला था. गौहर एक साथ कई भाषाओं में गाने की क्षमता रखती थी.
तवायफों के बारे में आज भी कई तरह की समाज में भ्रांतियां हैं. उन्हें वेश्या समझा जाता है, जबकि ऐसा नहीं है. तवायफों के कोठे पर सुगम संगीत की शैलियों का विस्तार हुआ. यह नाटक गौहर जान के जीवन के माध्यम से कई भ्रांतियों को तोड़ती है. एक सफल गायिका होने के बावजूद गौहर जान को एक जीवनसाथी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला. प्रेम प्रसंग ‘दुखांत’ ही रहे. गौहर के माध्यम से यह नाटक उस दौर के समाज पर भी एक टिप्पणी है. अकबर इलाहाबादी ने इसे ही ध्यान में रखकर गौहर के लिए लिखा था:
‘आज अकबर कौन है दुनिया में गौहर के सिवा
सबकुछ खुदा ने दे रखा है एक शौहर के सिवा.’
सामंती समाज में कला के कद्रदान तो मिल जाते थे, पर एक तवायफ के लिए ऐसा प्रेमी जो जीवनसाथी बन सके बेहद दुष्कर था. संबंधों में इन स्त्रियों के लिए शोषण के सिवाय कुछ नहीं था. गौहर के जीवन के ऐसे प्रसंगों को कुशलता से मंच पर लाया गया . निर्देशक और नाटककार ने अपनी कल्पना से भी दृश्य रचे हैं. बनारस के रईस छगन और गौहर के प्रेम प्रसंग के संदर्भ में यह खास कर उल्लेखनीय है. दरभंगा राज की वह दरबारी गायिका थीं जहाँ से उनकी संगीत यात्रा (1887) शुरू हुई और अंतिम समय में मैसूर पैलेस की गायिका रही. वर्ष 1930 में मैसूर में ही उनका निधन हो गया.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में घरानों की बहुत अहमियत है. पर जैसा कि संपत ने लिखा है गौहर और उनकी तरह की अन्य महिला संगीतकारों ने महसूस किया कि संगीत को इन तंग नजरिए, एक भू-भाग और शैलियों में बांध कर नहीं रखा जा सकता है. आपसी मिलन और शैलियों के मेलजोल से खुद की एक शैली विकसित की जा सकती है. गौहर की संगीत यात्रा इसका उदाहरण है. उन्हें सफलता भी इन्हीं रास्तों पर चल कर मिली थी और अपने संघर्ष से संगीतकारों के लिए आगे की राह भी बनाई.