Saturday, September 30, 2023

गौहर जान की याद: आन बान जिया में लागी


 उन्नीसवीं सदी के आखिर और पिछली सदी की शुरुआत में जिस समय संचार का साधन अविकसित था, गौहर जान की ख्याति बनारस से दरभंगादरभंगा से कलकत्ताकलकत्ता से मैसूरपुणे तक पहुँच गई थी. हिंदुस्तानी संगीत की इस स्वर-साधिका की ठुमरीख्यालटप्पे के कद्रदान हर महफिल में पाए जाते थे. गौहर की गायकी के किस्से जितने चर्चित हैं उतनी ही आन-बान-शान के भी.  

जीते जी किंवदंती बन चुकी गौहर जान के बारे में संगीत विशेषज्ञ गजेंद्र नारायण सिंह ने लिखा है, अपने जमाने में धन और यश के जिस शिखर पर पहुँचीवह पहुँच अन्य गायिकाओं के लिए ख्वाब थी.’ वह दौर नवाबों, महाराजाओं और रईसों की महफिलों का थाजहाँ तवायफों के माध्यम से हिंदुस्तानी संगीत कला का विकास हुआ. उनकी रची ठुमरी कैसी ये धूम मचाई कन्हैया री आज भी सुनाई देती है. 

वर्ष 1873 में आजमगढ़ में जन्मी एलीन एंजेलिना योवार्ड अर्मेनियाई रॉबर्ट विलियम योवार्ड और भारतीय मूल की विक्टोरिया हेमिंग्स की बेटी थीजो बाद में गौहर जान (मलका जान की बेटी) कहलाई. जन्म के 150 साल बाद उनके रोचक व्यक्तित्व और गायकी के किस्सों को दिल्ली के कमानी सभागार में मूर्त देखना फिर से संगीत इतिहास के उन पन्नों में लौटने जैसा थाजिसकी चर्चा आज नहीं होती. गोकि बात जब स्त्रियों के संघर्ष और संगीत के क्षेत्र में योगदान की हो तो आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है.  पुरुष प्रधान सामंती समाज में किस तरह एक स्त्री अपनी प्रतिभा और ठसक के बूते दिलों पर राज कर रही थी और आर्थिक रूप से बेहद सफल थी. गौहर की कहानी में तवायफों की आपबीती और जगबीती दोनों एक-दूसरे से गुंफित है.

जिस तरह से सभागार भरा हुआ थाकहा जा सकता है कि यदि विषय-वस्तु और प्रस्तुतीकरण में नवीनता हो तो नाटकों के लिए दर्शकों की कमी नहीं है. पिछले दिनों अतुल कुमार के बहुचर्चित नाटक पिया बहरूपिया के मंचन के समय में भी मैंने यह नोटिस किया था. बहरहालचर्चित नाट्य संस्था प्राइमटाइम थिएटर कंपनी ने इसका मंचन किया था. निर्देशन लिलिट दुबे का था और कहानी विक्रम संपत की किताब माय नेम इज गौहर जान पर आधारित हैजिसका नाट्य रूपांतरण महेश दत्तानी ने किया था.

पिछले दशक में यूट्यूब पर गौहर जान की बहुत सारी रिकार्डिग उपलब्ध हुए हैंजिसे सुन कर उनकी गायकी का एक अंदाज लगाया जा सकता है. रिकार्डिंग के अंत में वह कहना नहीं भूलती थी-माय नेम इज गौहर जान. उस समय कृति की चोरी होने का डर था. उस दौर में गायिकाओं और गायकों के अंदर नई तकनीक का भी भय था कि कहीं वह उनकी गायकी या आवाज को प्रभावित न करे. उस वक्त गौहर जान ग्रामोफोन कंपनी के लिए गीत रिकॉर्ड किए. वर्ष 1902 में उन्होंने ही रिकार्डिंग की पहल की थी और लगभग छह सौ गीत रिकॉर्ड किए थे.

मंच पर गौहर की भूमिका में अभिनेत्री गिरिजा ओक गोडबोले थीं. पिता और ग्रामोफोन कंपनी के गाइसबर्ग की भूमिका में चर्चित रंगकर्मी डेंजिल स्मिथ बेहद प्रभावी थे.

गिरिजा पिछले साल महानगर के जुगनू नाटक में भी दिखीं थी. चूँकि इस नाटक में गीत-संगीत का स्थान प्रमुख है, गिरिजा अपने गायन से असर छोड़ती है. हालांकि ऐसा महसूस होता रहा कि कुछ गाने और भी प्रस्तुत किए जाते तो बेहतर होता. नीना कुलकर्णी मलका जान की भूमिका में थी. मलका खुद एक ख्यातनाम ठुमरी गायिका थी और वाजिद अली शाह के दरबार में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी. गौहर को संगीत विरासत में मिला था. गौहर एक साथ कई भाषाओं में गाने की क्षमता रखती थी.

तवायफों के बारे में आज भी कई तरह की समाज में भ्रांतियां हैं. उन्हें वेश्या समझा जाता हैजबकि ऐसा नहीं है. तवायफों के कोठे पर सुगम संगीत की शैलियों का विस्तार हुआ. यह नाटक गौहर जान के जीवन के माध्यम से कई भ्रांतियों को तोड़ती है. एक सफल गायिका होने के बावजूद गौहर जान को एक जीवनसाथी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला. प्रेम प्रसंग दुखांत ही रहे. गौहर के माध्यम से यह नाटक उस दौर के समाज पर भी एक टिप्पणी है. अकबर इलाहाबादी ने इसे ही ध्यान में रखकर गौहर के लिए लिखा था:

आज अकबर कौन है दुनिया में गौहर के सिवा

सबकुछ खुदा ने दे रखा है एक शौहर के सिवा.

सामंती समाज में कला के कद्रदान तो मिल जाते थे, पर एक तवायफ के लिए ऐसा प्रेमी जो जीवनसाथी बन सके बेहद दुष्कर था. संबंधों में इन स्त्रियों के लिए शोषण के सिवाय कुछ नहीं था. गौहर के जीवन के ऐसे प्रसंगों को कुशलता से मंच पर लाया गया . निर्देशक और नाटककार ने अपनी कल्पना से भी दृश्य रचे हैं. बनारस के रईस छगन और गौहर के प्रेम प्रसंग के संदर्भ में यह खास कर उल्लेखनीय है. दरभंगा राज की वह दरबारी गायिका थीं जहाँ से उनकी संगीत यात्रा (1887) शुरू हुई और अंतिम समय में मैसूर पैलेस की गायिका रही. वर्ष 1930 में मैसूर में ही उनका निधन हो गया. 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में घरानों की बहुत अहमियत है. पर जैसा कि संपत ने लिखा है गौहर और उनकी तरह की अन्य महिला संगीतकारों ने महसूस किया कि संगीत को इन तंग नजरिएएक भू-भाग और शैलियों में बांध कर नहीं रखा जा सकता है. आपसी मिलन और शैलियों के मेलजोल से खुद की एक शैली विकसित की जा सकती है. गौहर की संगीत यात्रा इसका उदाहरण है. उन्हें सफलता भी इन्हीं रास्तों पर चल कर मिली थी और अपने संघर्ष से संगीतकारों के लिए आगे की राह भी बनाई. 

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Monday, September 25, 2023

एक बार फिर से ‘गाइड’: राजू-रोजी की प्रेम कहानी

 


करीब तीस साल पहले मैंने दरभंगा के एक सिनेमाघर में गाइड (1965) फिल्म देखी थी, जिसकी धुंधली सी स्मृति थी. जब जाना कि सदाबहार अभिनेता देवानंद की जन्मशती (1923-2011) के अवसर पर सिनेप्रेमियों के लिए उनकी क्लासिक फिल्मों गाइड, ज्वेल थीप, सीआईडी और जॉनी मेरा नाम देखने का फिर से मौका है, तो मैं गाइड मिस नहीं करना चाहता था.

देश के तीस शहरों के चुनिंदा सिनेमाघरों में इन फिल्मों का प्रदर्शन फिर से हुआ. जवान और गदर-2 के बीच इन फिल्मों के प्रति दर्शकों की दीवानगी कम नहीं थी. कुछ ही घंटों में लगभग सारे टिकट बुक हो गए. सिनेमाघर में एक साथ कई पीढ़ियों को देखना एक सुखद अनुभव था.

देवानंद की फिल्मोग्राफी में गाइड’  (1965का स्थान सबसे ऊपर हैजो मशहूर लेखक आर के नारायण के इसी नाम से लिखे अंग्रेजी उपन्यास पर आधारित है. विजय आनंद(गोल्डी) इस फिल्म के निर्देशक बने.

राजू (गाइड) और रोजी (नर्तकी) के बीच प्रेम संबंध को यह फिल्म जिस अंदाज और फलसफे से परदे पर प्रस्तुत करती है वह इसे क्लासिक बनाता है. देवदासी नर्तकी परिवार से आने वाली रोजी (वहीदा रहमान) एक शादी-शुदा स्त्री है, जिसका ऑर्कोलॉजिस्ट (किशोर साहू) पति अपने काम में इस कदर मुब्तिला है कि उसे अपनी पत्नी की सुध नहीं है. रोजी के घुंघरू उसे पुकारते हैं, पर संबंधों की बेड़ी उसे रोके हुए है. राजू के संग पनपते प्रेम से उसे एक नई पहचान मिलती है. क्या वह एक सफल नर्तकी की पहचान, स्वतंत्रता, शोहरत, धन-दौलत से खुश हैराजू के व्यक्तित्व के भी कई आयाम हैं. उसे एक खांचे में रख कर नहीं देखा जा सकता है. 'तीसरी कसम' (1966) के हीरामन की तरह उसका प्रेम निश्छल नहीं है. न हीं वह रोजी से 'हीराबाई' की तरह बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करता है. प्रेम के स्वरूप का यह द्वैत क्या महज शहरी और ग्रामीण परिवेश से संचालित है? या यह हिंदी के रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' और अंग्रेजी के आर के नारायण के यथार्थबोध का फर्क है?

राजू एक तरफ रोजी (नलिनी) को बुलंदियों की ऊंचाई छूते हुए देखना चाहता है, दूसरी तरफ उसे मुक्त भी नहीं करता. भौतिक सुख-सुविधा दोनों के बीच संबंधों में एक दूरी पैदा करते हैं. क्या राजू हीरो है या एंटी हीरोकिसी भी क्लासिक फिल्म की तरह इस फिल्म की भी समकालीन संदर्भों में कई तरह से व्याख्या की जा सकती है.

फिल्म के आखिर में आत्म की तलाश में भटकता, आस्था’ और खुद से संघर्ष करता हुआ वह जिस रूप में सामने आता है वह एक आधुनिक मनुष्य का द्वंद है. यदि प्रेम लोकमंगल के भाव को समेटे हुए नहीं है, तो फिर उसका क्या अर्थराजू का फलसफा कि न दुख हैन सुख है/न दीन न दुनिया/ न इंसान न भगवान/ सिर्फ मैंमैंमैंआज भी सोचने को उकसाता है. नवकेतन की अन्य फिल्मों की तरह ही यह म्यूजिकल है.

भरतनाट्यम में प्रशिक्षित वहीदा रहमान का नृत्य जिस तरह गाइड में फिल्माया गया है, वैसा उनकी किसी अन्य फिल्म में नहीं दिखाई देता है. वे खुद इस बात को स्वीकारती भी रही हैं. साथ ही एस डी बर्मन और शैलेंद्र का गीत-संगीत किरदारों के मनोभावों को जिस खूबसूरती से बयां करता है, वह हिंदी सिनेमा की कहानी कहने की शैलीगत विशिष्टता को एक ऊंचाई प्रदान करता है. आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है महज एक गाना नहीं है बल्कि इस फिल्म का सूत्र वाक्य है. यह एक स्त्री मन के अनेक भावों को एक साथ अभिव्यक्त करता है. शैलेंद्र के जन्मशती वर्ष में 'गाइड' फिल्म में लिखे उनके गीतों की चर्चा अलग से होनी चाहिए. 'पिया तोसे नैना लागे रे' की रागात्मकता, संगीतात्मकता और शास्त्रीयता का शब्दों में बखान करना मुश्किल है.

उल्लेखनीय है कि जब देवानंद ने नवकेतन की स्थापना वर्ष 1949 में  की तब से ही क्राइम म्यूजिकल पर जोर रहा. आजादी के बाद पचास-साठ के दशक की फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ आदर्शवादी सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. फिल्मों पर जवाहरलाल नेहरू के विचारों की छाप भी स्पष्ट है. ट्रैजडी किंग दिलीप कुमार और शो मैन राज कपूर इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. लेकिन बात जब रोमांटिक छवि वाले अभिनेता की होती है, जेहन में देवानंद का ही नाम आता है. होठों में सिगरेट दबाये, चेहरे पर फ्लर्ट करने वाली मोहक मुस्कान और संवाद अदायगी का अलहदा अंदाजरोमांसिंग विद लाइफ’ वही लिख सकते थे. यह जिजीविषा से भरपूरराजनीतिक रूप से सचेत और आत्ममुग्धता की हद तक आत्मविश्वास से भरे यह एक ऐसे अभिनेता की आत्मकथा है जो जीवन पर्यंत एक अभिनेता और फिल्म निर्देशक के रूप में प्रयोग करने से कभी झिझका नहीं. परदे पर उनके किरदार जीवन के विविध रंग लिए हुए हैं.  

आज भले बॉलीवुड के परदे पर स्त्री के विविध रूप दिखाई देने लगे हैंसाठ के दशक में एक विवाहित स्त्री के अन्य पुरुष के साथ संबंध को परदे पर दिखाना एक तरह से क्रांतिकारी कदम था. यह फिल्म जब बन रही थी तब ही इस फिल्म के बारे में तरह-तरह की बातें की जाने लगी थी. फिल्म को वितरक मिलना मुश्किल हो रहा था. साथ ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय से भी प्रमाण पत्र लेना जरूरी था, क्योंकि यह फिल्म पहले अंग्रेजी में (निर्देशक टैड डेनियलवस्की) बनी थी, जिसे अमेरिका में रिलीज होना था. देवानंद ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इंदिरा गाँधीजो नई सूचना और प्रसारण मंत्री बनी थीको उन्होंने खुद इस फिल्म को देख कर निर्णय लेने को कहा. इस प्रसंग में वे लिखते हैं कि फिल्म देखने के बाद इंदिरा गाँधी ने सिर्फ यह कहा कि आप बहुत तेज बोलते हैं’. 

बहरहालभले यह फिल्म अंग्रेजी में बुरी तरह असफल रही, लेकिन जब हिंदी में रिलीज हुई तब खूब चर्चा हुई थी. साथ ही इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले थे. देवानंद लिखते हैं: ‘व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यह था कि मैंने इस बोल्ड विषय को लेकर दांव लगाया और मुझे सराहना मिली.’  

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

 

Sunday, September 24, 2023

जब बंद हो गए थे आकाशवाणी पर फिल्मी गाने

 

पिछले दिनों हिंदी सिनेमा के चर्चित गीतकार शैलेंद्र (1923-1966) की जन्मशती के अवसर पर उनके लिखे गानों की खूब चर्चा हुई. उनके गाने जीवन और जन से गहरे जुड़े हैं. बोलचाल की भाषा में लिखे और गहरे मानी से सजे न जाने कितने ही गाने आज मुहावरे की शक्ल ले चुके हैं.

आजादी के बाद देश-दुनिया में हिंदी फिल्मी गीतों के प्रसार में रेडियो की प्रमुख भूमिका रही. आज भले दृश्य माध्यम जनसंचार के केंद्र में होलेकिन पिछली सदी के 80 के दशक तक रेडियो ही देश-दुनिया से जुड़ने और मनोरंजन का प्रमुख साधन था. सच तो यह है कि पचास-साठ के दशक में हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत ने एक अलग विधा का रूप ग्रहण किया. फिल्म संगीत के इस स्वर्णकाल में आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) के एक अध्याय पर नज़र डालना जरूरी हैजो आम लोगों की नजर से ओझल ही रहता आया है.

आजाद भारत में सरकार की एक नीति ने रेडियो पर फिल्मी गानों के प्रसार पर ग्रहण लगा दिया था. यह ग्रहण 1952 से 1957 तक लगा रहा. अक्टूबर 1952 में जब बी वी केसकर देश के नए सूचना और प्रसारण मंत्री बने तब उन्होंने ऐलान किया कि ये गाने दिनों दिनों अश्लील होते जा रहे हैं और पाश्चात्य देशों की धुनों का कॉकटेल हैं.’ उस समय हर दिन कुछ घंटे विभिन्न रेडियो स्टेशन से फिल्मी गानों का प्रसार होता था. केसकर ने निर्देश जारी किया कि रेडियो स्टेशन से हिंदी गानों का प्रसार नहीं होगा. हिंदी फिल्मी गानों की लोकप्रियता को देखते हुए सिनेमा उद्योग के लिए यह आघात से कम नहीं था. असल मेंरेडियो के माध्यम से केसकर शास्त्रीय और सुगम संगीत का प्रसार करना चाहते थे. वे कहते थे कि फिल्म संगीत भारतीय संगीत परंपरा से दूर चला गया है. वे खुद शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे.

वे एक तरफ मानते थे कि संगीत लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता हैवहीं दूसरी तरफ लोकप्रिय गीत-संगीत से लोगों को दूर कर रहे थे. संचार के साधनों के समुचित विकास के बाद भी आज देश में शास्त्रीय संगीत का प्रसार एक खास तबके तक ही सीमित रहा हैजबकि फिल्मी गीत-संगीत की पहुँच एक विशाल वर्ग तक हो चुकी है.

इस रोक के बाद फिल्मी गीत-संगीत की तलाश में श्रोताओं ने अन्य रेडियो स्टेशन की खोज शुरू की. यही दौर था जब व्यावसायिक रेडियो सिलोन (श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) क्षितिज पर उभराजहाँ से मुख्यतया फिल्मों गानों का ही प्रसार होता था. सरहद के पारसिलोन भारत में फिल्मी गानों के लिए परिचित नाम हो गया. उद्घोषक अमीन सयानी और 'बिनाका गीतमालाको लोग आज भी याद करते हैं. आकाशवाणी के श्रोताओं की संख्या घटती चली गईमजबूरन सरकार ने अपने फरमान वापस लिए. साथ ही उसी साल संगीत को समर्पित विविध भारती (बंबई) की स्थापना भी की गई. एक तरह से फिल्म गीत-संगीत पर रोक केसरकर और भारत सरकार का शुद्धतावादी रवैया था, जो 'राष्ट्र और नागरिक निर्माण को लेकर अति तत्पर दिखाई देता था.

 

Tuesday, September 19, 2023

The Crisis of Television News and Ravish Kumar

 In the 21st century, television has emerged as an important part of the Indian masses and culture. News can now reach villages, small towns and slums. The public sphere developed along with the making of a network. Those who were far from the centre were brought closer. This has strengthened Indian democracy at the ground-level. Illiteracy is not a barrier to consuming messages from the television. In a country like India, where crores remain illiterate even today, evidently television as a medium has emerged as a substitute of the newspaper. 

There are over 400 news channels in the country. Despite that, when it comes to credibility and consistency of news, people are more inclined to believe the newspapers. Why is that? Why has the TV news industry not been able to establish its credibility among people in the past two decades?

There is also the question of how interested the audience is in watching serious issues concerning public welfare? When late journalist Surendra Pratap Singh (SP Singh) gave Hindi television news a professional turn, people’s attraction towards TV news certainly grew, but later, under the pressures of the market, the government and TRPs, television channels crafted a new definition of news in which the truth and the search for truth did not matter anymore. 

After the arrival of online news websites, the crisis of TV news channels has worsened. Apart from a few exceptions, their financial situation is utterly weak. They have to depend on advertisements for resources. They have to work bearing the pressures of the market and the authorities. Ridden with debt, the founder of NDTV news channel, Prannoy Roy, had to sell his channel to the Adani group after which many well-known journalists, including Ravish Kumar, handed in their resignation letters. 

Some days ago, I saw Vinay Shukla’s documentary “Namaskar, Main Ravish Kumar”. This film has not been officially released in the country yet. Lately, many documentary films made in India may have been discussed in national and international events, but the documentary producers-directors have to always remain in search of audiences and distributors.

As the name conveys, the documentary is centred around Ravish Kumar, star anchor and TV journalist, who was associated with NDTV for about 25 years. The extremist-national cacophony in the Narendra Modi government’s time, and his courageous journalism and life struggles become the subject of this documentary film. Along with this comes the contemporary times and our society. 

The documentary is also a sharp commentary on the workings of the TV news industry. As the TV channel’s resources dried up, the role of the reporter also faded away. Debates and discussions began happening in studios following a pre-designed pattern. Providing credible news and its analysis became unimportant and loud screaming became essential. It is important to note here that TV anchors get big pay cheques for this work.

Whether authority is political or religious, it doesn’t like questions. In a democratic system, mediapersons ask questions to the authorities as representatives of the public. Ravish Kumar presents issues of the people in a simple and witty manner. He asked questions to the authority through his journalism, for which he has paid a price. As his credibility and fame grew among the common people, he kept getting more and more isolated. The way this documentary brings forward his moments with his little daughter is very moving. 

It is unfortunate that he has received many kinds of threats for doing his job. Ravish Kumar is no exception. In the past few years, a system has developed with the government’s support that depends on peddling lies and propaganda. They spread rumours for political ends. Sudhir Mishra’s recent film ‘Afwah’ deals with this issue. They easily target journalists who refuse to bend to their wishes.

Lately, India is being called the ‘Mother of democracy’ on national and international platforms. The media of the biggest and oldest democracy of the world is not independent and this points towards the crisis of democracy. Journalism is public service, but today it’s not easy to pursue journalism as a profession. 

India is ranked 161 out of 180 countries in the World Press Freedom Index. Despite this, we have among us many journalists who stay away from glamour and risk their lives to bring out the truth to the society. In 2019, when Ravish Kumar received the Ramon Magsaysay Award, his journalism was described as “the voice of the voiceless committed to truth.” While Hindi TV news is delivering entertainment and controversies, commitment to truth has been left far behind. 

In the whole world, globalisation has led to the rise of Right-wing forces and extremist nationalism in the past two decades. It is also important to ask what has been the dominant trend of Hindi news channels in these 20 years? Being the major medium of mass communication, did their concerns align with the public? Did they strengthen the public through news and debates so they could fulfil the role of an aware citizen? 

Liberalisation (1991), privatisation, globalisation is the major cause of media capitalism in the open economy. It might have an autonomous culture, but it has remained a part of the corporate world. The changes that the Indian society and politics experienced after globalisation, also impacted media and especially language media. 

This documentary’s effect seems incomplete and scattered. Many questions, like how the NDTV kept getting debt-ridden do not get any commentary. For a complete picture, it is also necessary to question the nexus of capitalism and the media. Whenever we try to analyse the workings of media, we will have to investigate the relations between capitalism and media as well. Just like any other capitalistic venture. The major goal of the TV news industry is getting TRPs and earning profits, due to which the issues of the people and their welfare have been left somewhere far behind. 


(For the Newsclick, Arvind Das | 19 Sep 2023 Translated by Nalini Prateek)

Sunday, September 17, 2023

टेलीविज़न समाचार का संकट और रवीश कुमार

 


इक्कीसवीं सदी में टेलीविजन भारतीय जनमानस और संस्कृति का एक अहम हिस्सा बनकर उभरा है। टेलीविजन की वजह से खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों, झुग्गी-झोपड़ियों तक हुई। पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआ, साथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी। जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए। इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है। टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है। भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं, जाहिर है टेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है।


देश में करीब चार सौ समाचार चैनल हैं। बावजूद इसके जब खबरों की विश्वसनीयता और सटीकता की बात आती है लोग अखबारों पर अधिक भरोसा करते हैं। ऐसा क्यों है? क्यों टीवी समाचार उद्योग पिछले दो दशकों मे दर्शकों के बीच अपनी साख नहीं बना पाया है? सवाल यह भी है कि लोकहित से जुड़े गंभीर-मुद्दों को देखने में दर्शकों की कितनी रुचि है? जब सुरेंद्र प्रताप सिंह (एसपी सिंह) ने पिछली सदी के 90 के दशक में हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को एक पेशेवर अंदाज दिया, तब टीवी समाचार के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ा था, पर बाद में बाजार, सत्ता और टीआरपी के दबाव में टेलीविजन ने खबरों की नयी परिभाषा गढ़ी, जहां तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर जोर नहीं रहा।

ऑनलाइन समाचार वेबसाइट आने के बाद टीवी समाचार चैनलों पर संकट और बढ़ा है। अपवाद छोड़ दिए जाए तो आर्थिक रूप से इनकी स्थिति बेहद कमजोर है। संसाधनों के लिए इन्हें विज्ञापन पर निर्भर रहना पड़ता है। बाजार और राजनीतिक सत्ता के दबाव के बीच इन्हें काम करना पड़ता है। कर्ज से डूबे एनडीटीवी समाचार चैनल के कर्ता-धर्ता प्रणय रॉय को अपना चैनल पिछले साल अडानी समूह को बेचना पड़ा था। रवीश कुमार सहित कई नामी-गिरामी पत्रकारों ने अपना त्यागपत्र दे दिया।

पिछले दिनों विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री ‘नमस्कार, मैं रवीश कुमार’ देखी। औपचारिक रूप से देश में इसका प्रदर्शन अभी नहीं हुआ है। हाल में भारत में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की चर्चा भले देश-विदेश के फिल्म समारोहों में हुई हो, दर्शक वर्ग और वितरकों की तलाश में डॉक्यूमेंट्री निर्माताओं-निर्देशकों को हमेशा रहना पड़ता है।

बहरहाल, जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस वृत्तचित्र के केंद्र में एनडीटीवी इंडिया से लगभग 25 साल जुड़े रहे टेलीविजन के पत्रकार और स्टार-एंकर रवीश कुमार हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में उग्र-राष्ट्रवाद की अनुगूँज के बीच उनकी पत्रकारिता और जीवन-संघर्ष को यह वृत्तचित्र अपना विषय बनाती है। इसमें समकालीन समय और हमारा समाज भी लिपटा चला आता है। साथ ही टीवी समाचार उद्योग की कार्यशैली पर भी यह डॉक्यूमेंट्री एक तीखी टिप्पणी है। जैसे-जैसे टीवी चैनलों का मुनाफा सिमटा, रिपोर्टर की भूमिका भी सिमटती चली गई। बहस-मुबाहिसा एक तयशुदा पैटर्न के तहत स्टूडियो में होने लगी। जहाँ जोर खबरों के प्रसारण और विश्लेषण पर कम और चीख-चिल्लाहट पर ज्यादा है। यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि इस काम के लिए एंकरों को मोटी तनख्वाह मिलती है!

सत्ता चाहे राजनीतिक हो या धर्म की कभी सवालों को पसंद नहीं करती। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडियाकर्मी जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता से सवाल करते हैं। रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं। उनकी पत्रकारिता में भी सत्ता से सवाल पूछना शामिल रहा है, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है। जहाँ आम दर्शकों के बीच उनकी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बढ़ी, वहीँ वे अकेले होते गए। तनाव के बीच छोटी बेटी के साथ खूबसूरत क्षणों को यह वृत्तचित्र जिस तरह सामने लाती है, वह मार्मिक है।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि उन्हें अपने पेशेवर काम के लिए तरह-तरह की धमकियां मिलती रही है। वैसे रवीश कुमार अपवाद नहीं हैं। पिछले वर्षों में सत्ता के सहयोग से एक ऐसा तंत्र विकसित हुआ है, जिसका कारोबार झूठ के प्रचार-प्रसार और प्रोपगैंडा पर टिका है। वे राजनीतिक फायदे के लिए अफवाह फैलाते हैं। पिछले दिनों रिलीज हुई सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘अफवाह’ इन मुद्दों को ही अपने घेरे में लेती है। इनके निशाने पर वे मीडियाकर्मी आसानी से आ जाते हैं जिन्होंने इनके सामने घुटने नहीं टेके हैं।

हाल में देश-विदेश के मंच से भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहा जाने लगा है। विश्व के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र में यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं है, यह लोकतंत्र पर संकट की तरफ इशारा करता है। पत्रकारिता लोक सेवा है, लेकिन आज पत्रकारिता के पेशे को निभाना आसान नहीं है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत का स्थान 161 नंबर पर है। फिर भी संकट के बावजूद हमारे बीच कई ऐसे पेशेवर पत्रकार हैं जो ग्लैमर से दूर रह कर, जान पर खेल कर सत्य को समाज के सामने लाने की कोशिश में रहते हैं। वर्ष 2019 में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने पुरस्कार देते हुए रवीश कुमार की पत्रकारिता को ‘सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाज’ बताया था। हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर है, वहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गई लगती है।

पूरी दुनिया में पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के आने से दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद का उभार हुआ है। सवाल यह भी है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रही? जनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़े? क्या सूचनाओं, विमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत हो? उदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है। उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरू से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है। साथ ही भूमंडलीकरण के बाद भारतीय समाज और राजनीति में जो परिवर्तन आए, वे मीडिया और खास तौर पर भाषाई मीडिया में भी आए।

यह वृत्तचित्र अपने प्रभाव में अधूरा और बिखरा हुआ लगता है। बहुत सारे सवाल, मसलन एनडीटीवी कैसे कर्ज के बोझ से घिरता चला गया इस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं मिलती। एक मुकम्मल तस्वीर के लिए पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों को भी सवालों के घेरे में लिया जाना आवश्यक है। जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी। पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी समाचार उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है, ऐसे में लोकतंत्र का ‘लोक’ और लोकहित के मुद्दे कहीं पीछे छूट गए हैं।

(न्यूजक्लिक वेबसाइट के लिए)

Sunday, September 10, 2023

सरहद पार की दो फिल्में

 


पिछले दिनों एक पाकिस्तानी फिल्म जिंदगी तमाशा को लेकर सोशल मीडिया पर टीका-टिप्पणी दिखी. यूँ तो चार साल पहले ही फिल्म समारोहों में इसे दिखाई गई थीलेकिन सेंसरशिप के कारण इसका प्रदर्शन अटक गया. आखिरकार निर्देशक सरमद खूसट ने यूट्यूब पर रिलीज कर दिया है. इस फिल्म के केंद्र एक अधेड़ पुरुष (राहत) हैं. एक दोस्त के बेटे की शादी के अवसर पर वे एक पुराने गाने पर डांस करते हैंजो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है. घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्तेसामाजिक संबंध इससे किस तरह प्रभावित होते हैंइसे निर्देशक ने बेहद सधे ढंग से फिल्म में दिखाया है. साथ ही राहत के बहाने पाकिस्तानी खुफिया समाज की झलकियाँ यहाँ दिखाई देती है. यहाँ निजताइच्छा-आकांक्षास्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं है.

इसी तरह जॉयलैंड’ को पिछले साल95वें ऑस्कर पुरस्कार में, ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था. यह फिल्म ऑस्कर जीतने में सफल नहीं हुईपर प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित किया गया जहाँ ज्यूरी पुरस्कार मिला था. विभिन्न फिल्म समारोहों में जॉयलैंड’ ने सुर्खियाँ बटोरी लेकिन आम भारतीय दर्शकों के लिए यह फिल्म उपलब्ध नहीं थी. पिछले दिनों अमेजन प्राइम (ओटीटी) पर इसे रिलीज किया गया. युवा निर्देशक सैम सादिक की यह पहली फिल्म हैजहाँ वे संभावनाओं से भरे नज़र आते हैं.

भले ही यह दोनों फिल्में पाकिस्तान में रची-बसी हैलेकिन कहानी भारतीय दर्शकों के लिए जानी-पहचानी है. जिंदगी तमाशा की तरह ही जॉयलेंड के केंद्र में लाहौर में रहने वाला एक परिवार है. इस परिवार का मुखिया एक विधुर है जिसके दो बेटे और बहुएँ हैं. परिवार को एक पोते की लालसा है. बड़ी बहु की तीन बेटियाँ हैं. छोटा बेटा (हैदर) जो बेरोजगार है उसकी नौकरी एक ‘इरॉटिक थिएटर कंपनी’ में लग जाती है. वहाँ वह एक ट्रांसजेंडर डांसर (बीबा) का सहयोगी डांसर होता है. धीरे-धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित होता है. घर में छोटे बेटे की बहु (मुमताज) की नौकरी छुड़वा दी जाती है. घुटन और इच्छाओं के दमन से उसका व्यक्तित्व खंडित हो जाता है.

यह फिल्म भी घर-परिवार के इर्द-गिर्द हैपर किरदारों की इच्छा-आकांक्षा से लिपट कर लैंगिक राजनीतिस्वतंत्रता और पहचान का सवाल उभर कर  सामने आता है. चाहे वह घर का मुखिया होउसका बेटा होबहु हो या थिएटर कंपनी की डांसर बीबा. फिल्म में एक संवाद है-मोहब्बत का अंजाम मौत है!’. सामंती परिवेश में प्रेम एक दुरूह व्यापार हैबेहद संवेदनशीलता के साथ निर्देशक ने इसे फिल्म में दिखाया है.

ट्रांसजेंडर की पहचान और अधिकार को लेकर मीडिया में बहस होने लगी है. सिनेमा भी इससे अछूता नहीं है. फिल्म में अलीना खान ने ट्रांसजेंडर डांसरबीबाकी भूमिका विश्वसनीय ढंग से निभाई है. फिल्म में कोई विलेन नहीं है. पितृसत्ता यहाँ प्रतिपक्ष की भूमिका में है. सवाल बहुत सारे हैंजवाब कोई नहीं. यहाँ किसी तरह का उपदेश या प्रवचन नहीं है. कलाकारों का अभिनय बेहद प्रशंसनीय है. ये फिल्में विषय-वस्तु का जितनी कुशलता से निर्वाह करती हैउसी कुशलता से परिवेशभावनाओं और तनाव को भी उकेरती है. 


Wednesday, September 06, 2023

रेडियो, फिल्म संगीत और इतिहास का एक पन्ना


हिंदी सिनेमा के चर्चित गीतकार शैलेंद्र की जन्मशती के अवसर पर मुख्यधारा और सोशल मीडिया में उनके योगदान की खूब चर्चा हो रही है. इसी सिलसिले में पिछले दिनों आकाशवाणी दिल्ली के रंग भवन सभागार में एक आयोजन किया गया थाजहाँ शैलेंद्र को याद करने जावेद अख्तरइरशाद कामिल जैसे गीतकार मौजूद थे.

30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेंद्र की मुख्तसर सी जिंदगी रही. महज 43 साल. लेकिन इस छोटी सी जिंदगानी’ में उन्होंने करीब आठ सौ गीत लिखेजो आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हैं.

 ‘मेरा जूता है जापानीये पतलून इंग्लिशतानीसर पे लाल टोपी रूसीफिर भी दिल है हिंदुस्तानी या दिल का हाल सुने दिलवालासीधी सी बात न मिर्च मसाला’ (श्री 4201955) वही लिख सकता है जो जीवन और जन से गहरे जुड़ा रहा हो. लोक मन में रचे-बसे ये गाने आजादी के बाद देश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को बखूबी व्यक्त करते हैं. बोलचाल की भाषा में लिखे और गहरे मानी से सजे न जाने कितने ही गाने मुहावरे की शक्ल ले चुके हैं.

बहरहालआजादी के बाद देश-दुनिया में हिंदी फिल्मी गीतों के प्रसार में रेडियो की प्रमुख भूमिका रही. उस दौर में अखबार का प्रसार बेहद कम था. यहाँ तक कि सिनेमाघरों की पहुँच भी देश के कोने-कोने तक नहीं थी. आज टीवी और इंटरनेट के दौर में भले दृश्य माध्यम जनसंचार के केंद्र में होलेकिन पिछली सदी के 80 के दशक तक रेडियो ही देश-दुनिया से जुड़ने और मनोरंजन का प्रमुख साधन था. सच तो यह है कि पचास-साठ के दशक में हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत ने एक अलग विधा का रूप ग्रहण किया. फिल्म संगीत के इस स्वर्णकाल में आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) के एक अध्याय पर नज़र डालना जरूरी हैजो आम लोगों की नजर से ओझल ही रहता आया है.

यूँ तो वर्ष 1936 में ही ऑल इंडिया रेडियो अस्तित्व में आ गया था. पर उस दौर में (विश्व युद्ध के दौरान) अंग्रेज शासक इसका इस्तेमाल प्रोपगेंडा के रूप में करते थे. 40 के दशक में महज दो लाख लोगों के पास ही रेडियो रिसीवर थे. हाल ही में प्रकाशित इसाबेल अलोंसो की किताब-रेडियो फॉर द मिलियंस में रेडियो समाचार और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसंग की विस्तार से चर्चा है. जब देश आजाद हुआ तब मात्र छह रेडियो स्टेशन थे जो वर्ष 1954 में 22 हो गए. जाहिर हैरेडियो सुनने की संस्कृति का विकास 40 और 50 के दशक में होने लगा था.

बहरहालआजाद भारत में सरकार की एक नीति ने रेडियो पर फिल्मी गानों के प्रसार पर ग्रहण लगा दिया था. यह ग्रहण 1952 से 1957 तक लगा रहा. अक्टूबर 1952 में जब बी वी केसकर देश के नए सूचना और प्रसारण मंत्री बने तब उन्होंने ऐलान किया कि ये गाने दिनों दिनों अश्लील होते जा रहे हैं और पाश्चात्य देशों की धुनों का कॉकटेल हैं.’  उस समय हर दिन कुछ घंटे विभिन्न रेडियो स्टेशन से फिल्मी गानों का प्रसार होता था. केसकर ने निर्देश जारी किया कि रेडियो स्टेशन से हिंदी गानों का प्रसार नहीं होगा. हिंदी फिल्मी गानों की लोकप्रियता को देखते हुए सिनेमा उद्योग के लिए यह आघात से कम नहीं था. असल मेंरेडियो के माध्यम से केसकर शास्त्रीय और सुगम संगीत का प्रसार करना चाहते थे. वे कहते थे कि फिल्म संगीत भारतीय संगीत परंपरा से दूर चला गया है. वे खुद शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे.

वे एक तरफ मानते थे कि संगीत लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता हैवहीं दूसरी तरफ सिनेमा गीत-संगीत जैसे जनमाध्यम से लोगों को दूर कर रहे थे. संचार के साधनों के समुचित विकास के बाद भी आज देश में शास्त्रीय संगीत का प्रसार एक खास तबके तक ही सीमित रहा हैजबकि फिल्म संगीत की पहुँच एक विशाल वर्ग तक हो चुकी है.

इस रोक के बाद फिल्मी गीत-संगीत की तलाश में श्रोताओं ने अन्य रेडियो स्टेशन की खोज शुरू की. यही दौर था जब रेडियो सिलोन (श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) क्षितिज पर उभराजहाँ से मुख्यतया फिल्मों गानों का ही प्रसार होता था. सरहद के पारसिलोन भारत में फिल्मी गानों के लिए परिचित नाम हो गया. उद्घोषक अमीन सयानी और 'बिनाका गीतमालाको लोग आज भी याद करते हैं. आकाशवाणी के श्रोताओं की संख्या घटती चली गईमजबूरन सरकार ने अपने फरमान वापस लिए. साथ ही उसी साल संगीत को समर्पित विविध भारती (बंबई) की स्थापना भी की गई.

एक तरह से फिल्म गीत-संगीत पर रोक केसरकर और भारत सरकार का शुद्धतावादी रवैया था जो राष्ट्र और नागरिक निर्माण को लेकर तत्पर दिखाई देता था. ऐसा नहीं कि इस फरमान का विरोध नहीं हुआपर जैसा कि अलोंसो ने लिखा है देश के प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया और केसकर की ही चली थी. 

अंत मे, कहते हैं कि नेहरू शैलेंद्र के लिखे गीतहम उस देश के वासी हैं जिस देश मे गंगा बहती है' (1960) को खूब पसंद करते थे. नेहरू के साथ शैलेंद्र की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर भी खूब शेयर की जा रही है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)