चर्चित फिल्मकार श्याम बेनेगल को ऐतिहासिक, जीवनीपरक विषयों के फिल्मांकन में महारत हासिल है. ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ और ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ जैसी उनकी फिल्में तथा ‘भारत एक खोज’ सीरीज काफी सराही गई. इसी कड़ी में ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ फिल्म है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है, ‘बंगबंधु’ के नाम से चर्चित, बांग्लादेश के प्रथम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता, शेख मुजीबुर्रहमान (1920-1975) ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ फिल्म के केंद्र में हैं.
इस फिल्म के संबंध में बात करते हुए बेनेगल ने मुझे कहा था कि ‘ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है’. साथ ही उन्होंने फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह किया था कि बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म ‘प्रोपगेंडा’ बन जाती है. इस लिहाज से यह फिल्म अपने विषय के साथ न्याय करती है. यह दर्शकों को मुजीब के स्कूल-कॉलेज के दिनों, नए पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर हुए आंदोलन, अवामी लीग के गठन और बांग्लादेश राष्ट्र के निमार्ण में संघर्ष को घेरे में लेती है. इससे लिपट कर मुजीब का परिवार, बीवी-बच्चों के साथ उनके संबंध भी सामने आते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को आम लोगों के करीब लाता है. नए राष्ट्र बांग्लादेश के निर्माण (1971) में धार्मिक अस्मिता से अलग भाषाई अस्मिता सबसे महत्वपूर्ण अवयव रहा. नए राष्ट्र के लिए हुआ आंदोलन उर्दू राष्ट्रवाद के विरोध में था. असल में, धर्म से अलग भाषा की अस्मिता बांग्लादेश राष्ट्र के निर्माण के लिए शुरुआत से ही जुड़ गई थी.
यह फिल्म भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी है, जिसमें दोनों देशों के कलाकारों का योगदान है. पचास साल पहले बनी ऋत्विक घटक की फिल्म ‘तिताश एकटि नदीर नाम’ (1973) अपवाद ही कही जाएगी, जो इस फिल्म की तरह ही भारत और बांग्लादेश सरकार के संयुक्त परियोजना का हिस्सा थी. वैसे भी हिंदुस्तान और बांग्लादेश की संस्कृति की भूमि एक ही है. अनायास नहीं कि फिल्म में रवींद्रनाथ टैगोर, काजी नजरुल इस्लाम की छवियाँ कई बार दिखाई देती है.
बहरहाल, यह फिल्म मुजीब को एक ऐसे नायक के रूप में परदे पर चित्रित करती है जिसके जीवन में कोई फांक या विरोधाभास नहीं था. उनके चरित्र में कोई द्वंद का न होना फिल्म को एकरस बनाती है, जिससे यह कहीं-कहीं बोझिल हो जाती है. हालांकि बेनेगल ने कहा था कि ‘शेख मुजीब की पृष्ठभूमि गाँधी या नेहरू की तरह नहीं थी. वे धनाढ्य या जमींदार नहीं थे. वे एक काम-काजी शख्स थे और मध्यवर्ग से ताल्लुक रखते थे.’ बांग्लादेश के कलाकार अरिफिन शुभो ने मुजीब के किरदार को बखूबी निभाया है. वे इस फिल्म की जान हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है, जब ‘मुक्तिवाहिनी’ योद्धाओ के संघर्ष से हम रू-ब-रू होते हैं. फिल्म में ऐतिहासिक वीडियो फुटेज और तस्वीरों का भी इस्तेमाल किया गया है. शेख मुजीब के भारतीय नेताओं, खासकर इंदिरा गाँधी के साथ मधुर संबंध थे.
मुजीब इस उपमहाद्वीप के एक बेहद खास शख्सियत थे. मुजीब ने एक नए राष्ट्र को जन्म दिया, लेकिन वर्ष 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के ज्यादातर सदस्यों के साथ हत्या कर दी गई. यह फिल्म उनके जीवनवृत्त को संपूर्णता में भले समेटती है, लेकिन यहाँ उनके व्यक्तित्व की आलोचना का अभाव दिखाई देता है. स्वतंत्र बांग्लादेश में उनके शासन के प्रति नागरिक समाज की क्या राय थी? यह फिल्म इस सवाल का जवाब नहीं देती है.
अंत में, इस फिल्म में इस्तेमाल हुए गीत-संगीत की चर्चा जरूरी है. फिल्म का संगीत शांतनु मोइत्रा का है. खास कर रेणु (बेगम फजिलातुन्नेसा) की मुजीब के संग शादी के प्रसंग को लेकर जो लोक गीत का इस्तेमाल किया है वह बेहद खूबसूरत है. इस गीत में कहा गया है कि ‘सीता के लिए कागज पर लिख कर जो सिंदूर भेजा गया है वह सिंदूर लेकर बन्ना आएगा.’ मुस्लिम शादी-विवाह में हिंदू संस्कृति के इस प्रसंग को सुनकर आश्चर्य हो सकता है पर सच है कि सैकड़ों वर्षों से हिंदू-मुस्लिम बांग्लादेश में साथ रहते आए थे. वर्ष 1971 में आजादी के बाद चीजें बदली. प्रसंगवश, मिथिला में शादी के समय वर वालों की तरफ से वधू के लिए जिस कागज में भर कर सिंदूर भेजा जाता है वह मिथिला पेंटिंग (लिखिया) से सजा होता है. कहा जाता है कि सीता की शादी के समय ही राजा जनक ने मिथिला पेंटिंग अपने घर की दीवारों पर करवाई थी, जो परंपरा के रूप में आज भी कायम है. आज जब विभिन्न राष्ट्रों के बीच संघर्ष बढ़े हैं, सिनेमा के माध्यम से दो देशों की संस्कृतियाँ यदि करीब आती है तो इससे अच्छा क्या होगा!
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