सुप्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान को भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है. 85 वर्ष की वहीदा रहमान वर्ष 1955 में तेलुगू फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार नजर आई जो बेहद चर्चित हुई. उस गाने पर फिल्मकार गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए. वर्ष 1956 में ‘सीआईडी’ फिल्म से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है और उन्होंने करीब 90 फिल्मों में काम किया है. अरविंद दास ने पिछले दिनों वहीदा रहमान से बातचीत की. उनसे हुई बातचीत का एक संपादित अंश प्रस्तुत है:
अरविंद दास: वहीदा जी, बहुत बधाई आपको. क्या दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने में देर हुई?
वहीदा रहमान: देखिए, जो जिस वक्त होना होता है वही होता है. आगे हो जाता है तो कहते हैं कि बहुत जल्दी मिल गया, अगर बाद में मिले तो कहते हैं देर हो गया. मैं समझती हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं.
अरविंद दास: पर क्या यह सच नहीं है कि देविका रानी से फाल्के पुरस्कार की शुरुआत हुई और अब तक गिनी चुनी महिला कलाकारों को ही पचास सालों में यह पुरस्कार मिला है, जबकि सिनेमा में उनका योगदान पुरुषों से कम नहीं है...
वहीदा रहमान: ऐसी बात नहीं है. देखिए एक तो मैं एक्सपेक्ट नहीं कर रही थी और यह अचानक हुआ. तो मैंने कहा कि ठीक है- दैट्स ऑल. ऐसी कोई बात नहीं कि आगे, पीछे...विवाद शुरु करने की क्या जरूरत है.
अरविंद दास: इस साल मैंने आपकी फिल्म ‘द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस’ देखी, जिसे अनूप सिंह ने निर्देशित किया. फिल्म में इरफान, जो अब नहीं रहे, और इरानी मूल की फ्रेंच अदाकारा गोलशिफतेह फरहानी भी थी. कैसा अनुभव रहा.
वहीदा रहमान: मेरी अब तक की आखिरी फिल्म है ये. इरफान के साथ कोई दृश्य इसमें नहीं है. छोटा सा गेस्ट रोल था, इस फिल्म में. अनूप सिंह की मैंने ‘किस्सा’ देखी थी, जो मुझे बहुत अच्छी लगी थी, तो यह फिल्म मैंने कर ली. अच्छा अनुभव रहा और क्या कहूँ.
अरविंद दास: सीआईडी (1956) से अब तक लगभग पैंसठ-सत्तर साल का सिनेमाई सफर कैसा रहा है? कैसे मुड़ कर आप अपने करियर को देखती हैं.
वहीदा रहमान: मेरी सिनेमाई यात्रा बहुत ही अच्छी रही. क्या कहूँ, मेरा करियर शुरु से ही बहुत अच्छा रहा. मुझे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा और सब कुछ होता गया. ऊपर वाले की बहुत दया थी, सब कुछ अच्छा, अच्छा ही होता गया.
अरविंद दास: देवानंद की जन्मशती मनाई जा रही है, जिनके साथ आपने सबसे ज्यादा फिल्में की. कैसे को-स्टार थे वे? आप उन्हें ‘डिसेंट फ्लर्ट’ कहती थीं.
वहीदा रहमान: सीआईडी में मैंने पहली बार साथ में काम किया. उन्होंने कहा कि आप मुझे सिर्फ देव कहोगी. मैंने कहा कि ऐसे कैसे मैं कह सकती हूँ, देव साहब. मैंने कहा कि आप मेरे से बड़े है. बड़े स्टार हैं आप और यह मेरी पहली पिक्चर है. उन्होंने कहा कि नहीं, कोई मिस्टर या साहब नहीं. सिर्फ देव कहो. उन्होंने कहा कि यदि यह तकल्लुफ होती है, तो मैं काम नहीं कर सकता..हमें एक-दूसरे का दोस्त होना चाहिए. काम में मदद करनी चाहिए. तो मैंने कहा कि ठीक है. सिर्फ वहीं थे जिन्हें मैं सिर्फ देव कहती थी, नहीं तो राज जी (राज कपूर), दिलीप साहब (दिलीप कुमार), सुनील जी (सुनील दत्त) वगैरह वगैरह... तो एक कंफर्ट लेवल था उनके साथ. हम एक-दूसरे को समझते थे कि कोई प्रॉब्लम हो तो कैसे सुलझाए. वे इतने फ्रेंडली, प्यार से मिलते थे कि कभी नहीं लगा कि फ्लर्ट कर रहे हैं. वे फ्लर्ट नहीं थे, इसलिए मैं उन्हें डिसेंट फ्लर्ट कहती थी (हंसती हैं).
अरविंद दास: आपकी फिल्मोग्राफी में एक से बढ़कर एक फिल्म है, पर ‘गाइड’ का नाम सबसे ऊपर आता है. कैसे आपने इस फिल्म में रोजी के किरदार के लिए खुद को तैयार किया?
वहीदा रहमान: देव जी ने आर के नारायण की किताब भेजी पढ़ने के लिए. इसके बाद उन्होंने स्क्रिप्ट बनाई पर्ल एस बक के साथ मिल कर तो वो भेजा. फिर डायरेक्टर्स को लेकर काफी अदलाव-बदलाव हुआ. आखिर में विजय आनंद आए जिनके साथ काम करके काफी अच्छा लगा. उनके साथ मैंने ‘काला बाजार’ की थी. देव और गोल्डी (विजय आनंद) से सेट पर मिलना जुलना होता था, वे दोस्त थे. मुझे काफी खुशी हुई कि गोल्डी इसे निर्देशित कर रहे थे.
अरविंद दास: एक जगह आपने कहा है कि सत्यजीत रे ‘गाइड’ को लेकर फिल्म बनाना चाह रहे थे, जब आप उनके साथ 'अभिजान (1962)' फिल्म कर रही थी?
वहीदा रहमान: करेक्ट, करेक्ट. मैं तो भूल ही गई थी. अच्छा आपने याद दिलाया.
अरविंद दास: यदि रे ने इसे बनाई होती तो कैसी फिल्म वो होती, किस तरह पर्दे पर उभर कर आती...?
वहीदा रहमान: मुझे नहीं पता, क्योंकि उनका फिल्म बनाने का तरीका, नजरिया हिंदी फिल्मों से बिलकुल अलग था. देखिए, मैं मानती हूँ कि जो होना होता है वही होता है. जिसके नसीब में जो लिखा होता है वही होता है. जब मैं अभिजान कर रही थी तब मिस्टर रे ने कहा कि वहीदा जब वापस बंबई जाओगी तो ये किताब (गाइड) लेकर पढ़ना. मैं फिल्म बनाने की सोच रहा हूँ. मैंने कहा, ग्रेट. फिर कहने लगे कि इसमें डांसिंग रोल है. मैंने कहा, वंडरफुल. मैं बंबई आई, भूल गई. वो भी भूल गए. फिर दो-तीन साल के बाद, वर्ष 1964 में गाइड बननी शुरु हुई तो मैंने कहा कि लो, रोजी मेरे लिए ही लिखी गई थी. सत्यजीत बनाए, या देवानंद बनाएं मुझे ही करना था.
अरविंद दास: उसी दौर में ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म में भी आप काम कर रही थी. एक तरफ ‘गाइड’ में शास्त्रीयता लिए हुए ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ पर डांस कर रही थी, तो दूसरी तरफ ‘तीसरी कसम’ में ‘पान खाए सैंया हमारो’ पर नौटंकी शैली में डांस कर रही थी . कैसे आपने एक साथ शास्त्रीय और लोक को साधा?
वहीदा रहमान: देखिए, एक आर्टिस्ट के रूप में हमें समझना पड़ता है कि हीराबाई गाँव की नौटंकी करती है. उसका डांस करने का अंदाज अलग है. यह क्लासिकल नहीं है. वहीं गाइड में रोजी क्लासिकल डांसर है. वो प्रोफेशनल स्टेज डांसर है. हीराबाई नौटंकी भी स्टेज पर करती है, पर उसका तरीका, रवैया अलग है. ये हमें समझना पड़ता है.
अरविंद दास: गाइड के गीत-संगीत के बारे में आप कुछ हमसे शेयर करना चाहें...
वहीदा रहमान: देव का सेंस ऑफ म्यूजिक बहुत अच्छा था. उनका और एसडी बर्मन के बीच बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. कई बार वो दादा को कहते थे कि मजा नहीं आया इस गाने में. तो बर्मन दा कहते थे, कि क्या बात करता है. तब देव कहते थे कि नहीं, दादा नहीं अच्छा लगा, आप दूसरा बनाओ... बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी दोनों में.
अरविंद दास: उम्र के इस पड़ाव पर क्या आप अपने बचपन को याद करती हैं? कोई स्मृति जो आप साझा करना चाहें?
वहीदा रहमान: बचपन की, ओह माय गॉड. (हंसते हुए) अभी कुछ याद नहीं आ रहा...बचपन बहुत अच्छा था. मां-बाप के साथ हम बहुत खुश रहते थे. पिकनिक पर जाते थे. जब मैं भरतनाट्यम डांस करना चाहती थी, तो मेरे वालिद साहब के दोस्त-रिश्तेदार मना कर रहे थे. जिस पर उन्होंने कहा कि ‘हुनर नहीं खराब होता है, आदमी खराब होता है. आप जिस तरह पेश आते हैं उस तरह प्रोफेशन का नाम होता है’. यह बात मुझे बहुत पसंद आई.
अरविंद दास: बिछड़े सभी बारी बारी. गुरुदत्त बहुत जल्दी चले गए. कैसे आप उन्हें याद करती हैं? गुरुदत्त के साथ बनी आपकी फिल्म ‘प्यासा’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ आज क्लासिक मानी जाती है.
वहीदा रहमान: मैं न्यूकमर थी उस वक्त. मुझे कुछ समझ नहीं थी. उन्होंने एक के बाद एक ऐसी पिक्चर क्लासिक बनाई. जिसका मैं हिस्सा बनी. पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है. मैं लकी थी.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए खास बातचीत, संवाद पथ, अक्टूबर-दिसंबर 2023, पेज 19-21)
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