Sunday, August 25, 2024

अवाम से गुफ्तगू करते गुलजार


गुलजार ने एक बार कहा था कि ‘साहित्य वाले मुझे सिनेमा का आदमी समझते हैं और सिनेमा वाले साहित्य का.’ हो सकता है कि इस कथन में सच्चाई हो पर, हम जैसे साहित्य और सिनेमा प्रेमियों के लिए दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है.
हाल ही में 90 साल पूरे करने वाले गुलजार 60 साल के अपने रचनात्मक जीवन में विभिन्न रूपों मसलन, कवि-लेखक, गीतकार, फिल्म निर्देशक, बच्चों के रचनाकार के रूप में अपनी सतत मौजूदगी के कारण नाम से आगे बढ़ कर एक विशेषण बन चुके हैं. गुलजार के ये ‘अपरूप रूप’ विभिन्न जबानों में छंद और अलंकार बन कर हमारे सामने आते रहे, जिनमें हम अपने जीवन का अर्थ ढूंढ़ते रहे.
जीवन भी तो एक वाक्य ही है-- कभी अधूरा तो कभी पूरा. उन्हीं के शब्दों में-‘दो नैना एक कहानी, थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी’. उनके नज्मों की खूबसूरती उनके अल्फाज में हैं. कभी हमें वे हंसाते हैं, तो कभी रुलाते हैं और कभी बस एक फरियाद बन कर हमसे गुफ्तगू करते हैं.
प्रसंगवश, यह उसी मासूम (1983) फिल्म का गाना है, जिसके किरदारों के लिए गुलजार ने ‘लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा’ अमर गीत लिखा है. उत्तर भारत के घरों में पिछले चालीस सालों में यह गीत बड़े-बूढ़ों की तरह मौजूद रहता आया है.
आजाद भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के बीच गुलजार की मौजूदगी एक बुर्जुग की तरह हमारे लिए आश्विस्तिपरक है. यदि हम गुलजार के गीतों को ध्यान से सुनें तो उनमें सामाजिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूंज सुनाई देगी. उनकी फिल्मों आँधी, माचिस, हू तू तू आदि में यह और भी मुखर होकर सामने आया है. उनकी राजनीतिक चेतना नेहरू युग के आदर्शों से बनी है. यहाँ सांप्रदायिकता का विरोध है और सामासिकता का आग्रह.
बहरहाल, हम यहाँ उनके गीतकार रूप की ही बात करते हैं क्योंकि विभिन्न पीढ़ी के युवाओं के लिए उनके गीतों का रोमांस सबसे ज्यादा है. प्रेम उनके गीतों का स्थायी भाव है.
हम जानते हैं कि गुलजार ने ‘बंदिनी (1963)’ फिल्म में एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में ‘मोरा गोरा अंग लइ ले/मोहे शाम रंग दइ दे/छुप जाऊँगी रात ही में/ मोहे पी का संग दइ दे’ गीत रच कर अपनी सिनेमाई यात्रा शुरू की, लेकिन पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में आरडी बर्मन के संग मिलकर उन्होंने जो रचा है वह देश-काल की सीमा के पार जा कर आज भी कानों में मिसरी घोलता रहता है और आंखों में ख्वाब के दिए जलाता रहता है.
खुसरो, गालिब और मीर की बातें करते-करते न जाने चुपके से कब वे कह देते हैं कि ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन जिंदगी तो नहीं’. इस गाने में जो रोमांस है वह गुलजार आगे बयां करते हैं यह कह कर कि ‘रात को रोक लो, रात की बात है और जिंदगी बाकी तो नहीं.’ याद कीजिए कि कवि घनानंद ने कविता के बारे में कहा था-- ‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’. बाकी लोगों के लिए कविता बनाने की चीज है, पर घनानंद की तरह ही गुलजार के लिए कविता (गीत) ही जीवन है.
इस गीतमय जीवन में बच्चों की निश्छलता है. तभी उम्र के इस पड़ाव पर भी बच्चों के लिए किताब में वे लिख सकते हैं: ‘थोड़े से तो पुराने हैं, लगते क़दीम हैं/ कहते हैं पर अण्टा ग़फ़ील अच्छे हकीम हैं.’ बच्चों के लिए ही नहीं, जब वे युवाओं के लिए भी लिखते हैं तब उसी सहजता से जिसके लिए कबीर ने कहा है- ‘सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय.’ ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है/ सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं/ और मेरे इक खत में लिपटी रात पड़ी है/ वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो’, वे ही लिख सकते हैं. मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति है यहाँ.
इस गाने को जब उन्होंने अपने मित्र आरडी बर्मन को संगीतबद्ध करने कहा तब उन्होंने झुंझला कर कहा था कि क्या वे अखबार की सुर्खियों पर अब उनको गीत कंपोज करने कहेंगे! यह असल में दो प्रगाढ़ मित्रों की आपसी नोंक-झोंक थी, जो वर्षों से चली आ रही थी. इसे आप गीत कहें, कविता या सुर्खियाँ पर इसे गाने के लिए आशा भोंसले को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला.
गीत-संगीत और उनका परदे पर फिल्मांकन हिंदी सिनेमा को विशिष्ट बनाता है. जाहिर है गीत सिनेमा की कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं और किरदारों की पहचान बन कर आते हैं. हिंदी सिनेमा का सौभाग्य है कि उसे शैलेंद्र के बाद गुलजार जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी सर्जक ने अपने शब्दों से ‘गुलजार’ किया है. उनके लिखे गीतों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है.
बात आजाद भारत में जवान होने वाली पीढ़ी की ही नही है, बल्कि ‘मिलेनियल’ की भी है जो कभी ‘छैंया, छैंया’ गाने पर तो कभी ‘कजरा रे कजरा रे’ गाने पर झूमती मिलती है. और हां, जब बात ‘जय हो’ की हो तो फिर ‘कहना ही क्या!’ कभी-कभी वे ‘पर्सनल से सवाल भी करती है’, लेकिन सवालों के जवाब भी हमें गुलजार ही देते हैं यह कहते हुए कि ‘पीली धूप पहन के तुम देखो बाग में मत जाना’.
गुलजार के गीत विभिन्न पीढ़ियों के बीच संवाद करती है. संवादधर्मिता गुलजार की सबसे बड़ी विशेषता है.

Saturday, August 24, 2024

Godawari Dutta: The Model Woman of Mithila painting


Godawari Dutta (1930-2024), the renowned Mithila artist, was among the galaxy of fine artists that Mithila has produced in the past sixty years. With her death, an important chapter of this traditional art form comes to a close, but her legacy lives on.

In 2019, when she was awarded Padma Shri, the Rashtrapati Bhavan’s Twitter handle aptly noted: “A Mithila artist, she has contributed to promoting the traditional art form and has been imparting training and guidance to budding artists.” Besides being an ace painter, she was also an accomplished Shilpa Guru.

 Her granddaughter, Preeti Karn, herself an artist and state awardee, said to me that she was her guru too. “Till her last days, she was very eager to take this traditional art form forward. Since childhood, I have learnt painting under her guidance and participated in many programmes along with her.”

 In 2015, I went to meet Dutta in her village, Ranti, near Madhubani. It is true that since time immemorial, across the Darbhanga-Madhubani region of Bihar, paintings adorned the walls (kohbar) and floors (aripan). However, in the last five decades, the Ranti and Jitwarpur villages of the Madhubani district have emerged as prominent hubs of Mithila painting, which is why the art form got the name ‘Madhubani painting’.

 So far, six artists from these two villages have been awarded Padma Shri. I saw a big Kohbar on the walls of Dutta’s drawing room. She explained to me in detail about the intricacies of Kohbar where newlywed couples spend the first four days after marriage. She had shown me her various paintings, including the one on Buddha and the depiction of a Japanese folk festival which she had recently finished.

 Dutta was born in Bahadurpur village in Darbhanga district. Her mother Subhadra Devi, herself a well-known artist, was her guru. She told me: “My mother’s paintings, and those of Padma Shri awardee Jagdamba Devi of Jitwarpur, had a 'folk touch’ in them. With the advent of modern education, there has been a change in both the subject matter and style.” She said: “No wedding ceremony can be completed in Mithila without painting.”

 In the 1960s, Madhubani paintings transitioned from wall paintings to paper, making them easier to buy and sell. Thanks to pioneer artists such as Jagdamba Devi, Sita Devi, Ganga Devi, Mahasundari Devi, Godawari Dutta and Baua Devi, very soon, it caught the attention of art connoisseurs across the world.

 Like the legendary Mithila artists Ganga Devi and Sita Devi, Dutta’s life was full of hardships. Her father died when she was 10, and after she got married in 1947, her husband left her to marry another woman in Nepal. She raised her son on her own in the village.

Born in a Kayastha family, her painting followed the famous Kachni (line drawing) style. The specialty of Godawari Dutta’s art lies in the clarity of the lines. The use of colours is minimal here.

 When she was awarded Padma Shri, I had interviewed her at length in Maithili. When I asked her what her specialty was, she laughingly replied: ‘How can I say that? You should find it yourself. It’s mother Sita’s blessing.” She travelled to Japan, Germany and various parts of India with her paintings. The Mithila Museum in Japan has many of her paintings. She told me: “I have travelled to Japan seven times. I made a painting of Ardhanarishwar there in which Lord Shankar has a trishul and damru in his hands. Tokio Hasegawa, the director of the Mithila Museum, liked that painting very much. I also liked it.”

 The trishul is 18 feet long. She told me: “After making it, my mind became light and after that I said that the power of Brahma, Vishnu and Mahesh is contained in this trident.”

Even though the subjects of her paintings are related to traditional narratives from Ramayana and Mahabharata, her paintings are close to modern sensibilities. A film named Kalakar Namaskar has also been made on her life. The bitter reality of Dutta’s life in the feudal society of Mithila, combined with her imagination, made her art truly extraordinary.

 

Sunday, August 18, 2024

संघर्ष से उपजी गोदावरी दत्त की कला

मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त (1930-2024), गंगा देवी, सीता देवी  और महासुंदरी देवी की पीढ़ी की थी. उनके निधन से एक युग का अवसान हो गया. पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित गोदावरी दत्त एक दक्ष गुरु भी थीं. मधुबनी जिले के नजदीक रांटी गाँव में रहकर उन्होंने अनेक कलाकारों को मिथिला कला में प्रशिक्षित किया. उनकी पोती, प्रीति कर्ण जो खुद एक पुरस्कृत कलाकार हैं ने बताया कि वे उनकी भी गुरु थीं और आखिरी समय तक कला को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर रही. प्रीति ने कहा कि मैंने उनकी ही देख-रेख में बचपन से ही पेंटिंग करना सीखा है. उनके साथ मैंने कई कार्यक्रम में हिस्सा लिया.

करीब दस वर्ष पहले जब मैं उनसे मिलने उनके गाँव गया तब उन्होंने मिथिला की प्रसिद्ध कोहबर शैली के बारे में विस्तार से बताया था. प्रसंगवश, उनके घर की अंदरुनी दीवार पर एक विशाल कोहबर का चित्रण है. मिथिला में नव वर-वधू के लिए कोहबर लिखने की कला सदियों पुरानी है.

द्त्त ने इस पारंपरिक कला को अपनी माँ सुभद्रा देवी से सीखा था, जो खुद एक चर्चित कलाकार रही थी. वर्ष 2019 में जब उन्हें पद्मश्री मिला तब मैंने उनसे मैथिली में लंबी बातचीत की थी. उन्होंने बताया था कि मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टच’ को लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.’ उन्होंने कहा था कि यह पेंटिंग आज की नहीं हैये हमारी संस्कृति है. बिना पेंटिंग के मिथिला में शादी-विवाह का कोई काम पूरा नहीं हो सकता.

गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं. रामायणमहाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक होंपर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. दत्त की पेंटिंग की प्रदर्शनियां देश-विदेश के कई शहरों में लगाई गई.

जापान स्थित मिथिला म्यूजियम के लिए गोदावरी दत्त ने सात बार जापान की यात्रा की. उन्होंने बताया कि मिथिला पेंटिंग की शैली में उन्होंने जापान स्थित संग्रहालय में 18 फुट लंबा एक त्रिशूल बनाया थाजिसे बनाने में उन्हें छह महीने का वक्त लगा. वहीं पर उन्होंने एक अर्धनारीश्वर की पेंटिंग भी बनाई जिसमें भगवान शंकर के हाथ में त्रिशूल और डमरू है. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन पिछली सदी के साठ के दशक में दिखाया गया है पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है.  उन्होंने कहा था कि  इसे बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था और लोग इसे लिखिया कहते थे.

मिथिला पेंटिंग की अन्य प्रसिद्ध कलाकारों की तरह उनकी जिंदगी भी काफी संघर्षपूर्ण रही. उनके जीवन पर कलाकार नमस्कार’ नाम से एक फिल्म भी बनी है. मिथिला के सामंती समाज में गोदावरी दत्त जैसी स्त्रियों के जीवन का कटु यथार्थ उनकी कल्पना से जुड़ कर इस पारंपरिक कला को असाधारण बनाता रहा है. 

Thursday, August 15, 2024

चुनौती व संभावनाओं के बीच हिंदी सिनेमा


आजाद भारत में  हिंदी सिनेमा का यह सौभाग्य रहा कि उसे दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, गुरु दत्त, विमल राय, वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला जैसे फिल्मकारों-कलाकारों ने सजाया-संवारा. पिछली सदी का पचास-साठ का दशक इन्हीं कलाकारों के नाम रहा. इन दशकों में हिंदी सिनेमा में फार्मूला और मनोरंजन तत्व की प्रधानता  रही, पर बदलते सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. बात पचास के दशक में रिलीज हुई आवारा (1951),  दो बीघा जमीन (1953),  नया दौर या प्यासा (1957) की हो या साठ के दशक में रिलीज हुई गाइड (1965) या तीसरी कसम (1966) की.

यही कारण है कि वर्षों बाद आज भी इन फिल्मों की चर्चा होती है. फिल्मों में इस्तेमाल होने वाला गीत-संगीत और परदे पर इसका चित्रांकन हिंदी सिनेमा का विशिष्ट पहलू रहा है. यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पचास-साठ के दशक में रिलीज हुई फिल्मों का गीत-संगीत हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में अलग से रेखांकित करने योग्य है. यही वजह है कि आज के हिंदी सिनेमा में इन गीतों का इस्तेमाल नए ढंग से होता दिखाई दे जाता है.

पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में नेहरूयुगीन आधुनिकता, राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है.  दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. स्टार तत्व पर जोर देने का हालांकि दुष्परिणाम यह हुआ कि गुरुदत्त जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी फिल्मकार की वर्षों उपेक्षा हुई, जबकि प्यासा, साहब बीवी और गुलाम, कागज के फूल आज विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक मानी जाती है. प्रसंगवश, गुरुद्त का जन्मशती वर्ष मनाया जा रहा है, जरूरत इस बात की है कि उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन हो, समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी विवेचना हो.

साठ के दशक के बाद देश की बदलती परिस्थितियों, युवाओं में मोहभंग, आक्रोश और विश्व सिनेमा आंदोलन के असर से हिंद सिनेमा के युवा स्वरों ने ‘पापुलर’ से एक अलग रास्ता अख्तियार किया जिसे आज हम ‘पैरलल (समांतर)’ सिनेमा के नाम से जानते हैं. इनमें से ज्यादातर फिल्मकार फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित थे, जिन्हें सरकारी संस्था फिल्म वित्त निगम का सहयोग मिला. यहीं से फ्रेंच फिल्मकारों की तरह ही ‘ओतर’ यानी लेखक-निर्देशक की अवधारणा हिंदी और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा में दिखाई दी. इनकी फिल्में कुछ नया रचने से प्रेरित रही.

सत्तर-अस्सी के दशक में मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अडूर गोपालकृष्णन, जानू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली जैसे निर्देशक उभरे जिनकी सामाजिक यथार्थ से जुड़ी फिल्मों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी सुर्खियां बटोरी. इससे पहले अपनी मानवीय दृष्टि और संगीतात्मक संवेदना की वजह से सत्यजीत रे की पहचान दुनिया भर में बन चुकी थी. फिल्म संस्थान से निकले  युवा फिल्मकार हालांकि ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से ज्यादा प्रभावित थे.

नब्बे के दशक में उदारीकरण, निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण की जो हवा चली उससे भारतीय समाज और संस्कृति का हर कोना प्रभावित हुआ. सूचना क्रांति का असर हिंदी सिनेमा पर भी पड़ा. हिंदी सिनेमा का एक धड़ा विदेशों की ओर रुख किया, जिसके केंद्र में भारतीय ‘डायस्पोरा’ रहा. पर 21वीं सदी में एक बार बार फिर से फिल्मकारों ने कैमरे को भारतीय समाज और छोटे शहरों की ओर मोड़ा है. इन्हीं दशक  देश में ‘मल्टीप्लेक्स’ सिनेमाघरों का भी उभार हुआ जिसने सिनेमा निर्माण और प्रदर्शन को काफी प्रभावित किया है. जहाँ प्रयोगशील फिल्मकारों के लिए एक अवसर उभरा वहीं बड़ी लागत से बनने वाली फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस की चुनौती भी लेकर आया. कुछ निर्देशकों की फिल्मों पर समांतर सिनेमा आंदोलन का असर दिखाई देता है.

बहरहाल, नई सदी के दूसरे दशक में ओटीटी के उभार से सिनेमा दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. हिंदी सिनेमा का प्रभुत्व टूटता दिखाई दे रहा है. सब टाइटलिंग और डबिंग की सुविधा से क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों का प्रसारण और दर्शकों तक उनकी पहुँच आसान हो गई है. साथ ही दर्शकों के पास विश्व सिनेमा का आज भंडार उपलब्ध है. ऐसे में हिंदी सिनेमा को फार्मूले से अलग एक नई दृष्टि के साथ मौलिक रचने और गढ़ने की जरूरत है. निस्संदेह कुछ ऐसे फिल्मकार हैं जो समांतर और पापुलर के बीच एक पुल बन कर उभरे हैं. इनकी फिल्में व्यावसायिक और कलात्मक दोनों रूपों में सफल है.

कोरोना महामारी के बाद हिंदी सिनेमा के सामने एक बड़ी चुनौती न्यू मीडिया के इस दौर में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने की है. जैसा कि एक बातचीत में श्याम बेनेगल ने स्वीकार किया कि ‘सिनेमा काफी बदल गया है. जरूरी नहीं कि सिनेमा देखने के लिए हम सिनेमाघर ही जाएँ.  टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म ने सिनेमा का एक विकल्प दिया है.’ 

Sunday, August 11, 2024

शास्त्रीय नृत्य का उत्कर्ष थीं यामिनी कृष्णमूर्ति


 बीसवीं सदी में भारत में नर्तकों और संस्कृतिकर्मियों का एक ऐसा वर्ग उभरा जिसने भारतीय शास्त्रीय नृत्य को पूरी दुनिया में एक नई पहचान दी. परंपरा के साथ आधुनिक भावबोध इसके मूल में रहा. सदियों पुराने पारंपरिक नृत्य मंदिरों, धार्मिक स्थलों से निकल कर मंच और सभागारों तक पहुँचे. लोक से इनका जुड़ाव बढ़ा.

शास्त्रीय नृत्य को आम जन तक ले जाने, लोकप्रिय बनाने में यामिनी कृष्णमूर्ति (1940-2024) का काफी योगदान रहा है. न सिर्फ विदेशों, महानगरों बल्कि छोटे शहरों में भी उन्होंने असंख्य प्रस्तुतियाँ दी थी. दक्षिण के पारंपरिक नृत्य को उत्तर भारत में उन्होंने अपनी कला कौशल से मशहूर किया. यही वजह है कि समकालीन नृत्य परिदृश्य में वे जीते जी एक किंवदंती बन गई थी.
उनके निधन से आधुनिक भारतीय संस्कृति का एक अध्याय समाप्त हो गया. मशहूर नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए लिखा कि ‘भारतीय नृत्य कला जगत में वह एक उल्का की तरह चमकती रही.’ कृष्णमूर्ति की प्रसिद्ध भरतनाट्यम की वजह से थी, लेकिन वे कुचिपुड़ी और ओडिसी नृत्य कला में भी पारंगत थी. नृत्य के जरिए रसिकों और दर्शकों को आनंद की अनुभूति उनके जीवन दर्शन में शामिल था.
एक प्रसिद्ध नृत्यांगना के साथ ही वे एक कुशल शिक्षिका भी थीं. उन्होंने अनेक शिष्यों को पारंपरिक नृत्य में प्रशिक्षित किया. पिछले दशकों में महानगरों में मध्यम वर्ग के बच्चों की रुचि भरतनाट्यम में बढ़ी है. एक नए तरह का ग्लैमर देखने को मिला है. निस्संदेह इसकी एक बड़ी वजह कृष्णमूर्ति जैसी नृत्यांगना रही.
वर्ष 1980 में उन्होंने दिल्ली के हौज खास में ‘यामिनी स्कूल ऑफ डांस’ की स्थापना की. अंतिम दर्शन के लिए वहाँ पहुँची उनकी एक युवा शिष्या और नृत्यांगना आशना प्रियंवदा ने यादों को साझा करते हुए भर्राए स्वर में मुझसे कहा कि ‘मैं उनके लिए पोती की तरह थी. उन्होंने मुझे बहुत प्रेम किया और सिखाया कि आप अपना स्टाइल विकसित कीजिए और मौलिकता को बनाए रखिए.’
सदियों तक देवदासियों ने तमिलनाडु के मंदिरों और दरबारों में नृत्य प्रस्तुत किया. सादिर अट्टम से भरतनाट्यम तक के सफर में काफी कुछ बदला है, लेकिन तकनीक की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण रही है. इसे यामिनी जैसी सिद्ध नृत्यांगना ने वर्षों के अनुभव से साधा. इस नृत्य में पाँवों को तेजी से चलाने और अभिनय पर जोर रहता है. श्रृंगार रस में पगे भाव-अभिनय की प्रधानता इसमें रहती आई है.
आंध्र प्रदेश के मदनपल्ले में जन्मी कृष्णमूर्ति ने बचपन में रुक्मिणी देवी अरुंडेल से भरतनाट्यम का प्रशिक्षण लेना शुरु किया पर आगे चल कर इल्लपा पिल्लै और किट्टपा पिल्लै उनके गुरु बने. सोलह साल की उम्र में पहली बार मंच पर प्रस्तुति दी फिर पीछे मुड़ कर उन्होंने नहीं देखा. पिछली सदी का साठ-सत्तर का दशक उनकी कला यात्रा में खास तौर पर उल्लेखनीय है. नृत्य में अमूल्य योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया.
भरतनाट्यम के साथ ही कुचिपुड़ी को भी कृष्णमूर्ति अपनी प्रतिभा से ऊंचाई पर ले गई. जैसा कि हम जानते हैं कुचिपुड़ी में नृत्य-नाटक पर जोर रहता है. उनकी कई नृत्य प्रस्तुतियाँ आज इंटरनेट पर मौजूद हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी.

Sunday, August 04, 2024

अधूरे अफसाने सी जिंदगी: गुरुदत्त


पिछले साल जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया तब मैंने उनसे बातचीत की थी. मैंने उनसे पूछा था कि ‘आप गुरुदत्त को कैसे याद करती हैं?’ उनका कहना था कि ‘मैं न्यूकमर थी उस वक्त. मुझे कुछ समझ नहीं थी. उन्होंने एक के बाद एक ऐसी क्लासिक पिक्चर बनाई, जिसका मैं हिस्सा बनी. पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है.’ प्रसंगवश, वर्ष 1955 में तेलुगु फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार वह नजर आई जो बेहद चर्चित हुई. उस गाने पर गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए.

वहीदा रहमान की फिल्में, जिसे गुरुदत्त (1925-1964) ने निर्माण-निर्देशित किया, मसलन ‘प्यासा’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक का दर्जा रखती है. महज 39 वर्ष का जीवन ही गुरुदत्त को मिला. लेकिन करीब पंद्रह वर्ष के फिल्मी करियर में गुरुदत्त ने परदे पर एक कलाकार और निर्देशक के रूप में जो कुछ भी रचा उसने हिंदी सिनेमा के मुहावरे को बदल दिया. उनकी अधिकांश फिल्में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही रूपों में सफल रही थी.

साथ ही उनकी बनाई फिल्मों में एक उत्तरोत्तर उठान दिखाई देता है. शुरुआत की फिल्म ‘बाजी’ (1951), जिसे उन्होंने बलराज साहनी के साथ मिल कर लिखा था, से लेकर ‘जाल’, ‘बाज’, ‘आर-पार’, ‘मिस्टेर मिसेज 55’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ तक के सफर में यह दिखाई देता है. उनकी आखिरी फिल्में एक कुशल रचनाकार के ‘स्व’ की खोज की तरफ जाती दिखाई देती है. एक कश्मकश है यहाँ, जो उनके निजी जीवन का भी प्रतिबिंब है. उनका जीवन एक अधूरे अफसाने की तरह रहा, जो हूक पैदा करता है.

गुरुदत्त के जन्मशती वर्ष में एक बार फिर से उनके योगदान की चर्चा अपेक्षित है. गुरुदत्त की फिल्में जितनी मेलोड्रामा के लिए याद रखने योग्य है, उतनी है बिंब के इस्तेमाल को लेकर. उनकी फिल्मों में विभिन्न शॉट्स का संयोजन एक लय की सृष्टि करता है. ‘कागज के फूल’ फिल्म में जिस तरह से कैमरा ने प्रकाश और छाया को कैद किया है, वह अविस्मरणीय है.

उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का प्रयोग अलग से रेखांकित किया जाता रहा है. नसरीन मुन्नी कबीर ने ‘गुरुदत्त: ए लाइफ इन सिनेमा’ में ठीक ही लिखा है कि गानों को परदे पर उतारने में उन्हें महारत हासिल थी, जिससे उनके सहयोगी हमेशा प्रभावित होते थे. अपनी सभी फिल्मों में गुरुदत्त गीतों का इस्तेमाल संवाद के विस्तार के रूप में करते थे. 'मिस्टर एंड मिसेज 55' जैसी कॉमेडी हो या ‘प्यासा जैसी ट्रेजडी फिल्म, इनके गाने साठ-सत्तर साल बाद भी लोगों की जबान पर हैं.

कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे गुरुदत्त का बचपन कोलकाता में बीता था. सत्तरह वर्ष की उम्र में वे प्रसिद्ध नृत्यकार उदय शंकर की संस्था ‘इंडिया कल्चर सेंटर’(अल्मोड़ा) से जुड़े थे. वर्ष 1944 में, दो वर्ष बाद, वे पूना पहुँचे जहाँ वे विश्राम बेडेकर निर्देशित फिल्म ‘लाखारानी (1945)’ में सहायक निर्देशक और एक किरदार की छोटी सी भूमिका में दिखे. यहीं से उनके फिल्मी सफर की शुरुआत हुई, जो मंजिल तक पहुँचे बिना खत्म हुई.