Sunday, August 25, 2024
अवाम से गुफ्तगू करते गुलजार
Saturday, August 24, 2024
Godawari Dutta: The Model Woman of Mithila painting
Godawari Dutta (1930-2024), the renowned Mithila artist, was among the galaxy of fine artists that Mithila has produced in the past sixty years. With her death, an important chapter of this traditional art form comes to a close, but her legacy lives on.
In 2019, when she was awarded Padma
Shri, the Rashtrapati Bhavan’s Twitter handle aptly noted: “A Mithila artist,
she has contributed to promoting the traditional art form and has been
imparting training and guidance to budding artists.” Besides being an ace
painter, she was also an accomplished Shilpa Guru.
Born in a Kayastha family, her
painting followed the famous Kachni (line drawing) style. The specialty of
Godawari Dutta’s art lies in the clarity of the lines. The use of colours is
minimal here.
Even though the subjects of her
paintings are related to traditional narratives from Ramayana and Mahabharata,
her paintings are close to modern sensibilities. A film named Kalakar Namaskar
has also been made on her life. The bitter reality of Dutta’s life in the
feudal society of Mithila, combined with her imagination, made her art truly
extraordinary.
Sunday, August 18, 2024
संघर्ष से उपजी गोदावरी दत्त की कला
मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त (1930-2024), गंगा देवी, सीता देवी और महासुंदरी देवी की पीढ़ी की थी. उनके निधन से एक युग का अवसान हो गया. पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित गोदावरी दत्त एक दक्ष गुरु भी थीं. मधुबनी जिले के नजदीक रांटी गाँव में रहकर उन्होंने अनेक कलाकारों को मिथिला कला में प्रशिक्षित किया. उनकी पोती, प्रीति कर्ण जो खुद एक पुरस्कृत कलाकार हैं ने बताया कि वे उनकी भी गुरु थीं और आखिरी समय तक कला को आगे बढ़ाने के लिए तत्पर रही. प्रीति ने कहा कि ‘मैंने उनकी ही देख-रेख में बचपन से ही पेंटिंग करना सीखा है. उनके साथ मैंने कई कार्यक्रम में हिस्सा लिया.’
करीब दस वर्ष पहले जब मैं उनसे मिलने उनके गाँव गया तब उन्होंने मिथिला की प्रसिद्ध ‘कोहबर शैली’ के बारे में विस्तार से बताया था. प्रसंगवश, उनके घर की अंदरुनी दीवार पर एक विशाल कोहबर का चित्रण है. मिथिला में नव वर-वधू के लिए कोहबर लिखने की कला सदियों पुरानी है.
द्त्त ने इस पारंपरिक कला को अपनी माँ सुभद्रा देवी से सीखा था, जो खुद एक चर्चित कलाकार रही थी. वर्ष 2019 में जब उन्हें पद्मश्री मिला तब मैंने उनसे मैथिली में लंबी बातचीत की थी. उन्होंने बताया था कि ‘मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग ‘फोक टच’ को लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.’ उन्होंने कहा था कि ‘यह पेंटिंग आज की नहीं है, ये हमारी संस्कृति है. बिना पेंटिंग के मिथिला में शादी-विवाह का कोई काम पूरा नहीं हो सकता.’
गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं. रामायण, महाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक हों, पर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. दत्त की पेंटिंग की प्रदर्शनियां देश-विदेश के कई शहरों में लगाई गई.
जापान स्थित मिथिला म्यूजियम के लिए गोदावरी दत्त ने सात बार जापान की यात्रा की. उन्होंने बताया कि मिथिला पेंटिंग की शैली में उन्होंने जापान स्थित संग्रहालय में 18 फुट लंबा एक त्रिशूल बनाया था, जिसे बनाने में उन्हें छह महीने का वक्त लगा. वहीं पर उन्होंने एक ‘अर्धनारीश्वर’ की पेंटिंग भी बनाई जिसमें भगवान शंकर के हाथ में त्रिशूल और डमरू है. बाहरी दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन पिछली सदी के साठ के दशक में दिखाया गया है पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया जाता रहा है. उन्होंने कहा था कि इसे ‘बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था और लोग इसे ‘लिखिया’ कहते थे.
मिथिला पेंटिंग की अन्य प्रसिद्ध कलाकारों की तरह उनकी जिंदगी भी काफी संघर्षपूर्ण रही. उनके जीवन पर ‘कलाकार नमस्कार’ नाम से एक फिल्म भी बनी है. मिथिला के सामंती समाज में गोदावरी दत्त जैसी स्त्रियों के जीवन का कटु यथार्थ उनकी कल्पना से जुड़ कर इस पारंपरिक कला को असाधारण बनाता रहा है.
Thursday, August 15, 2024
चुनौती व संभावनाओं के बीच हिंदी सिनेमा
आजाद भारत में हिंदी सिनेमा का यह सौभाग्य रहा कि उसे दिलीप कुमार, राज कपूर, देवानंद, गुरु दत्त, विमल राय, वहीदा रहमान, वैजयंतीमाला जैसे फिल्मकारों-कलाकारों ने सजाया-संवारा. पिछली सदी का पचास-साठ का दशक इन्हीं कलाकारों के नाम रहा. इन दशकों में हिंदी सिनेमा में फार्मूला और मनोरंजन तत्व की प्रधानता रही, पर बदलते सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति भी यहाँ मिलती है. बात पचास के दशक में रिलीज हुई आवारा (1951), दो बीघा जमीन (1953), नया दौर या प्यासा (1957) की हो या साठ के दशक में रिलीज हुई गाइड (1965) या तीसरी कसम (1966) की.
यही कारण है कि वर्षों बाद आज भी इन फिल्मों की चर्चा होती है. फिल्मों में इस्तेमाल होने वाला गीत-संगीत और परदे पर इसका चित्रांकन हिंदी सिनेमा का विशिष्ट पहलू रहा है. यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पचास-साठ के दशक में रिलीज हुई फिल्मों का गीत-संगीत हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में अलग से रेखांकित करने योग्य है. यही वजह है कि आज के हिंदी सिनेमा में इन गीतों का इस्तेमाल नए ढंग से होता दिखाई दे जाता है.
पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में नेहरूयुगीन आधुनिकता, राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. स्टार तत्व पर जोर देने का हालांकि दुष्परिणाम यह हुआ कि गुरुदत्त जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी फिल्मकार की वर्षों उपेक्षा हुई, जबकि प्यासा, साहब बीवी और गुलाम, कागज के फूल आज विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक मानी जाती है. प्रसंगवश, गुरुद्त का जन्मशती वर्ष मनाया जा रहा है, जरूरत इस बात की है कि उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन हो, समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी विवेचना हो.
साठ के दशक के बाद देश की बदलती परिस्थितियों, युवाओं में मोहभंग, आक्रोश और विश्व सिनेमा आंदोलन के असर से हिंद सिनेमा के युवा स्वरों ने ‘पापुलर’ से एक अलग रास्ता अख्तियार किया जिसे आज हम ‘पैरलल (समांतर)’ सिनेमा के नाम से जानते हैं. इनमें से ज्यादातर फिल्मकार फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित थे, जिन्हें सरकारी संस्था फिल्म वित्त निगम का सहयोग मिला. यहीं से फ्रेंच फिल्मकारों की तरह ही ‘ओतर’ यानी लेखक-निर्देशक की अवधारणा हिंदी और अन्य क्षेत्रीय सिनेमा में दिखाई दी. इनकी फिल्में कुछ नया रचने से प्रेरित रही.
सत्तर-अस्सी के दशक में मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अडूर गोपालकृष्णन, जानू बरुआ, गिरीश कसरावल्ली जैसे निर्देशक उभरे जिनकी सामाजिक यथार्थ से जुड़ी फिल्मों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में काफी सुर्खियां बटोरी. इससे पहले अपनी मानवीय दृष्टि और संगीतात्मक संवेदना की वजह से सत्यजीत रे की पहचान दुनिया भर में बन चुकी थी. फिल्म संस्थान से निकले युवा फिल्मकार हालांकि ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से ज्यादा प्रभावित थे.
नब्बे के दशक में उदारीकरण, निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण की जो हवा चली उससे भारतीय समाज और संस्कृति का हर कोना प्रभावित हुआ. सूचना क्रांति का असर हिंदी सिनेमा पर भी पड़ा. हिंदी सिनेमा का एक धड़ा विदेशों की ओर रुख किया, जिसके केंद्र में भारतीय ‘डायस्पोरा’ रहा. पर 21वीं सदी में एक बार बार फिर से फिल्मकारों ने कैमरे को भारतीय समाज और छोटे शहरों की ओर मोड़ा है. इन्हीं दशक देश में ‘मल्टीप्लेक्स’ सिनेमाघरों का भी उभार हुआ जिसने सिनेमा निर्माण और प्रदर्शन को काफी प्रभावित किया है. जहाँ प्रयोगशील फिल्मकारों के लिए एक अवसर उभरा वहीं बड़ी लागत से बनने वाली फिल्मों के लिए बॉक्स ऑफिस की चुनौती भी लेकर आया. कुछ निर्देशकों की फिल्मों पर समांतर सिनेमा आंदोलन का असर दिखाई देता है.
बहरहाल, नई सदी के दूसरे दशक में ओटीटी के उभार से सिनेमा दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. हिंदी सिनेमा का प्रभुत्व टूटता दिखाई दे रहा है. सब टाइटलिंग और डबिंग की सुविधा से क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों का प्रसारण और दर्शकों तक उनकी पहुँच आसान हो गई है. साथ ही दर्शकों के पास विश्व सिनेमा का आज भंडार उपलब्ध है. ऐसे में हिंदी सिनेमा को फार्मूले से अलग एक नई दृष्टि के साथ मौलिक रचने और गढ़ने की जरूरत है. निस्संदेह कुछ ऐसे फिल्मकार हैं जो समांतर और पापुलर के बीच एक पुल बन कर उभरे हैं. इनकी फिल्में व्यावसायिक और कलात्मक दोनों रूपों में सफल है.
कोरोना महामारी के बाद हिंदी सिनेमा के सामने एक बड़ी चुनौती न्यू मीडिया के इस दौर में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने की है. जैसा कि एक बातचीत में श्याम बेनेगल ने स्वीकार किया कि ‘सिनेमा काफी बदल गया है. जरूरी नहीं कि सिनेमा देखने के लिए हम सिनेमाघर ही जाएँ. टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म ने सिनेमा का एक विकल्प दिया है.’
Sunday, August 11, 2024
शास्त्रीय नृत्य का उत्कर्ष थीं यामिनी कृष्णमूर्ति
बीसवीं सदी में भारत में नर्तकों और संस्कृतिकर्मियों का एक ऐसा वर्ग उभरा जिसने भारतीय शास्त्रीय नृत्य को पूरी दुनिया में एक नई पहचान दी. परंपरा के साथ आधुनिक भावबोध इसके मूल में रहा. सदियों पुराने पारंपरिक नृत्य मंदिरों, धार्मिक स्थलों से निकल कर मंच और सभागारों तक पहुँचे. लोक से इनका जुड़ाव बढ़ा.
Sunday, August 04, 2024
अधूरे अफसाने सी जिंदगी: गुरुदत्त
पिछले साल जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया तब मैंने उनसे बातचीत की थी. मैंने उनसे पूछा था कि ‘आप गुरुदत्त को कैसे याद करती हैं?’ उनका कहना था कि ‘मैं न्यूकमर थी उस वक्त. मुझे कुछ समझ नहीं थी. उन्होंने एक के बाद एक ऐसी क्लासिक पिक्चर बनाई, जिसका मैं हिस्सा बनी. पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है.’ प्रसंगवश, वर्ष 1955 में तेलुगु फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार वह नजर आई जो बेहद चर्चित हुई. उस गाने पर गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए.
वहीदा रहमान की फिल्में, जिसे गुरुदत्त (1925-1964) ने निर्माण-निर्देशित किया, मसलन ‘प्यासा’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक का दर्जा रखती है. महज 39 वर्ष का जीवन ही गुरुदत्त को मिला. लेकिन करीब पंद्रह वर्ष के फिल्मी करियर में गुरुदत्त ने परदे पर एक कलाकार और निर्देशक के रूप में जो कुछ भी रचा उसने हिंदी सिनेमा के मुहावरे को बदल दिया. उनकी अधिकांश फिल्में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही रूपों में सफल रही थी.
साथ ही उनकी बनाई फिल्मों में एक उत्तरोत्तर उठान दिखाई देता है. शुरुआत की फिल्म ‘बाजी’ (1951), जिसे उन्होंने बलराज साहनी के साथ मिल कर लिखा था, से लेकर ‘जाल’, ‘बाज’, ‘आर-पार’, ‘मिस्टेर मिसेज 55’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ तक के सफर में यह दिखाई देता है. उनकी आखिरी फिल्में एक कुशल रचनाकार के ‘स्व’ की खोज की तरफ जाती दिखाई देती है. एक कश्मकश है यहाँ, जो उनके निजी जीवन का भी प्रतिबिंब है. उनका जीवन एक अधूरे अफसाने की तरह रहा, जो हूक पैदा करता है.
गुरुदत्त के जन्मशती वर्ष में एक बार फिर से उनके योगदान की चर्चा अपेक्षित है. गुरुदत्त की फिल्में जितनी मेलोड्रामा के लिए याद रखने योग्य है, उतनी है बिंब के इस्तेमाल को लेकर. उनकी फिल्मों में विभिन्न शॉट्स का संयोजन एक लय की सृष्टि करता है. ‘कागज के फूल’ फिल्म में जिस तरह से कैमरा ने प्रकाश और छाया को कैद किया है, वह अविस्मरणीय है.
उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का प्रयोग अलग से रेखांकित किया जाता रहा है. नसरीन मुन्नी कबीर ने ‘गुरुदत्त: ए लाइफ इन सिनेमा’ में ठीक ही लिखा है कि गानों को परदे पर उतारने में उन्हें महारत हासिल थी, जिससे उनके सहयोगी हमेशा प्रभावित होते थे. अपनी सभी फिल्मों में गुरुदत्त गीतों का इस्तेमाल संवाद के विस्तार के रूप में करते थे. 'मिस्टर एंड मिसेज 55' जैसी कॉमेडी हो या ‘प्यासा जैसी ट्रेजडी फिल्म, इनके गाने साठ-सत्तर साल बाद भी लोगों की जबान पर हैं.
कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे गुरुदत्त का बचपन कोलकाता में बीता था. सत्तरह वर्ष की उम्र में वे प्रसिद्ध नृत्यकार उदय शंकर की संस्था ‘इंडिया कल्चर सेंटर’(अल्मोड़ा) से जुड़े थे. वर्ष 1944 में, दो वर्ष बाद, वे पूना पहुँचे जहाँ वे विश्राम बेडेकर निर्देशित फिल्म ‘लाखारानी (1945)’ में सहायक निर्देशक और एक किरदार की छोटी सी भूमिका में दिखे. यहीं से उनके फिल्मी सफर की शुरुआत हुई, जो मंजिल तक पहुँचे बिना खत्म हुई.