Monday, December 24, 2018

मैथिली सिनेमा में संभावनाएँ बहुत


पिछले दिनों रूपक शरर निर्देशत मैथिली फिल्म प्रेमक बसातको लेकर दिल्ली में रहनेवाले बिहार के लोगों में काफी उत्साह था. बहुत दिनों के बाद किसी मैथिली फिल्म को लेकर प्रवासियों में ऐसा उत्साह दिखा. असल में पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फिल्मों की धमक बढ़ी है. बॉलीवुड की फिल्मों में भी ग्लोबलके बदले लोकलपर जोर बढ़ा है. भूमंडलीकरण-उदारीकरण के साथ आयी नयी तकनीक, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और नवतुरिया लेखकों-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है.

जहां कम लागत, अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी या पंजाबी फिल्में हाल के वर्षों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही हैं, वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फिल्मों की चर्चा नहीं मिलती. 

पाॅपुलर फिल्मों में भी बॉलीवुड से इतर हिंदी समाज से भोजपुरी फिल्मों की ही चर्चा होती है, जबकि दोनों ही भाषाओं में फिल्म निर्माण का काम एक साथ ही शुरू हुआ था. जहां वर्तमान में भोजपुरी सिनेमा एक उद्योग का रूप ले चुकी है, वहीं मैथिली सिनेमा अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो पायी है.

मिथिला में आजादी के बाद से ही फिल्मों के प्रति लोगों की दीवानगी रही है, पर एक घोर वितृष्णा का भाव भी रहा है. यह दुचित्तापन आज भी कायम है.

फिल्म निर्माण-निर्देशन या अभिनय से जुड़ना आवारगी की श्रेणी में ही आता है! पिछले साल आयी फिल्म अनारकली ऑफ आराके निर्देशक अविनाश दास से एक इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि दरभंगा में क्या आप जानते थे कि आप फिल्म बनाना चाहते हैं’, तो उनका जवाब था- हां, लेकिन तब मैंने किसी को बताया नहीं था. मैं नहीं चाहता था कि लोग मेरे ऊपर हंसें.

सोचिए, यदि अविनाश दास ने बताया होता, तो क्या प्रतिक्रिया हुई होती. घर-परिवार, आस-पड़ोस के लोग हंसते और फिर दुत्कारते- अबारा नहितन (आवारा कहीं का)! यदि आप राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मों की सूची देखें, तो मिथिला मखानएकमात्र फिल्म है, जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला है.

ममता गाबए गीतजैसी फिल्म एक अपवाद है, जिसे सिनेमाई भाषा, गीत-संगीत की वजह से मिथिला के समाज में आज भी याद किया जाता है. इस फिल्म में महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फिल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. एक गीत विद्यापति का लिखा भी शामिल था और संगीत श्याम शर्मा ने दिया था.

ममता गाबए गीतके एक निर्माता केदार नाथ चौधरी ने फिल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रसंग में लिखा है कि जब (1964 में) वे फणीश्वर नाथ रेणुसे मिले, तो रेणु ने भाव विह्वल होकर कहा था- अइ फिल्म कें बन दिऔ. जे अहां मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि.’ (इस फिल्म को बनने दीजिये. यदि आप मैथिली में दूसरी फिल्म बनाने की योजना बनायें, तो मेरे पास जरूर आयें. राजकपूर की फिल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं).

इस फिल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी मारे गये गुलफामपर तीसरी कसमनाम से फिल्म बनी. सवाल है कि क्या तीसरी कसममैथिली में बन सकती थी? यदि यह फिल्म मैथिली में बनी होती, तो शायद मैथिली सिनेमा का इतिहास कुछ और होता.

मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय में फिल्मों में इस समाज की अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है. जो इक्का-दुक्का फिल्में बनी भी हैं, उनमें कोई दृष्टि या सिनेमाई भाषा नहीं मिलती है, जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके.

(प्रभात खबर, 23 दिसंबर 2018 को प्रकाशित) 

Friday, December 21, 2018

बेखुदी में खोया शहर का लोकार्पण

लेखक-पत्रकार अरविंद दास की पुस्तक बेख़ुदी में खोया शहर एक पत्रकार के नोट्स का भारतीय टीवी के मशहूर पत्रकार और इंटरव्यूअर करण थापर ने विमोचन किया.

इस कार्यक्रम में वरिष्ठ आलोचक वीर भारत तलवार और राजस्थान पत्रिका के सलाहकार संपादक ओम थानवी भी शामिल थे. 

कार्यक्रम का संचालन हिंदी के लेखक प्रभात रंजन ने किया. तलवार ने लेखक की चेतना को रेखांकित करते हुए उनकी दलित-पिछड़ों और सबाल्टर्न के प्रति संवेदनशील दृष्टि की ओर ध्यान दिलाया.

उन्होंने कहा कि इस किताब में पत्रकारिता और साहित्य का संगम है. 

(राजस्थान पत्रिका, 21 दिसंबर 2018)

Saturday, December 15, 2018

लोकार्पण और चर्चा: बेख़ुदी में खोया शहर

लोकार्पण और चर्चा
बेख़ुदी में खोया शहर
एक पत्रकार के नोट्स: अरविंद दास
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विशिष्ट अतिथि
करण थापर (वरिष्ठ पत्रकार)
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वार्ताकार
प्रोफेसर वीर भारत तलवार (वरिष्ठ आलोचक)
ओम थानवी (सलाहकार संपादकराजस्थान पत्रिका)
प्रभात रंजन (लेखकमॉडरेटर-जानकीपुल)
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तिथि और समय: 

बुधवार, 19 दिसंबर 2018, शाम 5:30 बजे
सेमिनार हॉल नंबर 2, आईआईसी नई दिल्ली


Thursday, November 22, 2018

तथ्य और सत्य के बीच फेक न्यूज


पिछले दिनों बीबीसी ने फेक न्यूज के खिलाफ एक मुहिम शुरु किया है. इसके तहत लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि ‘जो लोग फ़ेक न्यूज़ को बढ़ावा दे रहे हैंवो देशद्रोही हैं.’ साथ ही उन्होंने कहा कि ‘ये प्रोपेगैंडा है और कुछ लोग इसे बड़े पैमाने पर कर रहे हैं.
ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर तक सत्य से वास्ता ना हो फेक न्यूज कहलाता है. ऐसा नहीं है कि खबर की शक्ल में दुष्प्रचार,  अफवाह आदि समाज में पहले नहीं फैलते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैंबारीक फर्क है. वर्तमान में देश की राजनीतिक पार्टियाँ राजनीतिक फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं. बात राष्ट्रवादियों की हो या सामाजवादियों की. उनके पास एक पूरी टीम है जो फेक न्यूज के उत्पादनप्रसारण में रात-दिन जुटी रहती है. जाहिर है, 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए फेक न्यूज एक बड़ी चुनौती है. पर क्या राजनीतिक पार्टियों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे इस चुनौती से निपटेंगे?
फेक न्यूज मूलत: संचार क्रांति के दौर में आई नई तकनीकी से उभरी समस्या है. कंप्यूटरस्मार्ट फोनइंटरनेट (टूजीथ्री जीफोर जी) और सस्ते डाटा पैक की दूर-दराज इलाकों तक पहुँच ने मीडिया के बाजार में खबरों के परोसनेउसके उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया को खासा प्रभावित किया है. अब कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति चाहे तो संदेश का उत्पादन और प्रसारण कर सकता हैइसे एक खबर की शक्ल दे सकता है. कई बार फेक न्यूज की चपेट में मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ जाता है. मेनस्ट्रीम मीडिया पर जैसे-जैसे विश्वसनीयता का संकट बढ़ा हैफेक न्यूज की समस्या भी बढ़ी है.
बीबीसी की साख हिंदी क्षेत्र में काफी है. वह खबरों को विश्वसनीय ढंग से परोसने के लिए वह जानी जाती है. पर सवाल है कि फेकन्यूज क्या महज प्रोपेगैंडा हैयदि हम प्रोपेगैंडा को फेक न्यूज मानें तो इसकी जद में बीबीसी जैसे संगठन भी आ जाएँगे.
फेक न्यूज के पीछे जो तंत्र काम करता है उसकी पड़ताल करते हुए बीबीसी के शोध में पता चला है कि लोग ‘राष्ट्र निर्माण’ की भावना से राष्ट्रवादी संदेशों वाले फ़ेक न्यूज़ को साझा कर रहे हैं और राष्ट्रीय पहचान का प्रभाव ख़बरों से जुड़े तथ्यों की जांच की ज़रूरत पर भारी पड़ रहा है. हालांकि बीबीसी की इस शोध प्रविधि (मेथडोलॉजी) पर सवाल खड़ा किया जा रहा है. राष्ट्रवादी विचारधारा वाले,  बीबीसी के इस शोध को मोदी सरकार के खिलाफ एक प्रोपेगैंडा कह रहे हैं.  बीबीसी ने भारत में महज 40 लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर लोगों के सोशल मीडिया के बिहेवियर को विश्लेषित किया है. बीबीसी का यह निष्कर्ष आधा-अधूरा ही माना जाएगा. हालांकि बीबीसी का कहना है कि फेक न्यूज से जुड़े मनौवैज्ञानिक पहलूओं का अध्ययन इस शोध की विशिष्टता है. पर मीडिया के शोधार्थी हाल के वर्षों में खबरों के उत्पादन और उपभोग में भावनाओं की भूमिका अलग से रेखांकित करते रहे हैं. फेक न्यूज को इसका अपवाद नहीं माना जाना चाहिए. सच तो यह है कि भावनाएँ हर समय खबरों के प्रचार-प्रसार में प्रभावी रही है.
गौरतलब है कि भारत की आजादी के दौरान जब राष्ट्रवाद का उभार हो रहा था तब आधुनिक संचार के साधनों के अभाव मेंमौखिक संचार के माध्यम से फैलने वाली अफवाहों से साम्राज्यवादियों के खिलाफ मुहिम में राष्ट्रवादियों को फायदा भी पहुँचता था. वर्ष 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अफवाह किस तरह लोगों को एकजुट कर रहे थेइतिहासकार रंजीत गुहा ने इस बात को नोट किया है. शाहिद अमीन ने भी चौरी-चौरा के प्रंसग में लिखा है कि किस तरह मौखिक खबरों के माध्यम से अफवाह (गोगा) तेजी से फैल रहे थे.
दूसरी तरफ साम्राज्यवादी ताकतें भी प्रोपेगैंडा से बाज नहीं आ रही थी. याद कीजिए कि बीबीसी में काम करते हुए लेखक-पत्रकार जार्ज ऑरवेल ने क्या लिखा था. उन्होंने बीबीसी के प्रोपेगैंडा से आहत होकर,  1943  में अपने इस्तीफा पत्र में लिखा था- “मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपेगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा,जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके.” साथ हीनहीं भूलना चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर कियाप्रोपगैंडा में भाग लिया,उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है.
वर्तमान में हिंदी में ऑनलाइन न्यूज मीडिया के जो वेबसाइट हैंवहाँ क्लिकबेट (हेडिंग में भड़काऊ शब्दों का इस्तेमाल ताकि अधिकाधिक हिट मिले) और सोशल मीडिया (फेसबुक,ट्विटर आदि) पर खबरों के शेयर करने की योग्यता (शेयरेबिलिटी) पर ज्यादा जोर रहता है. निस्संदेह ऑनलाइन मीडिया की वजह से बहस-मुबाहिसा का एक नया क्षेत्र उभरा है जिससे लोकतंत्र मजबूत हुआ हैपर कई बार जल्दीबाजी में या जानबूझ कर जो असत्यापित या अपुष्ट खबरें (फेक न्यूज?)दी जाती है वह इन्हीं सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुँचती है. ऐसे कई उदाहरण है जिसमें हाल के दिनों में बीबीसी भी इससे नहीं बच पाया है.
असल मेंफेक न्यूज की वजह से फेसबुकव्हाट्सऐपट्विटर जैसे प्लेटफार्म की विश्वसनीयता पर भी संकट है. बड़ी पूंजी से संचालित इन न्यू मीडिया पर राष्ट्र-राज्य और नागरिक समाज की तरफ से भी काफी दबाव है. खबरों के मुताबिक गुजरात सरकार सोशल मीडिया पर फेक न्यूज की बढ़त को रोकने के लिए कानून लाने का विचार कर रही है. मीडिया पर किस तरह की कानूनी बंदिश लोकतंत्र के लिए मुफीद नहीं है. पर फेक न्यूज की समस्या और उसके स्रोत को वामपंथी और दक्षिणपंथी खांचे में बांट कर देखना, जैसा कि बीबीसी अपने शोध में करता दिख रहा है, विषय को विचारधारात्मक नजरिए से देखने का नतीजा है. इससे भारत में फेक न्यूज का सवाल राजनीतिक रंग लेता दिख रहा है. और शायद इसी वजह से सूचना एवं प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बीबीसी के फेक न्यूज पर दिल्ली में हुए कांफ्रेंस में आखिरी समय में भाग लेने से इंकार कर दिया.  ठीक इसी समय ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने कहा कि फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है. हाल-फिलहाल फेक न्यूज की समस्या का सीधा हल भले ही नहीं दिखे, यदि मुख्यधारा का मीडिया नागरिक समाज और सरकार के साथ मिल कर,एकजुट होकर इस दिशा में सार्थक पहल करे तो कोई रास्ता जरूर निकल आएगा.
(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Tuesday, November 20, 2018

उम्मीद-ए-सहर की बात


दीवाली के हफ्ते भर पहले से पांच साल की कैथी कुछ पंक्तियां गुनगुना रही थी- चकरी, बम, हवाई इनसे बचना भाई/ दीवाली आयी, खुशियों की बहार है लायी. मैंने उससे पूछा कि कहां से सीखी? उसने कहा कि स्कूल में मैडम ने सिखाया. फिर उसने मुझे दीवाली में बम-पटाखों से होने वाले ध्वनि और वायु प्रदूषण, बड़े-बूढ़ो को आने वाली दिक्कतें और इसकी वजह से जानवरों के अंदर होने वाले भय के बारे में बताया. आश्चर्य हुआ मुझे कि उसने मुझसे ग्रीन पटाखों के बारे में बात की और कहा कि अगले साल से हम उसे जलायेंगे.

 उच्चतम न्यायालय ने इस साल दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की ब्रिकी और इस्तेमाल पर रोक लगा दिया था और सिर्फ ग्रीन पटाखे की इजाजत दी थी.

 साथ ही रात आठ से दस बजे के बीच ही पटाखे फोड़ने की समय सीमा तय कर दी थी. काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के नेशनल इनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट की वैज्ञानिक डॉक्टर साधना रायलु से फोन पर जब मैंने पिछले दिनों बात की थी, तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वर्तमान में भारत में ग्रीन पटाखों का उत्पादन नहीं होता है.

 इस दीवाली कैथी ने कोई भी पटाखा खरीदने की जिद नहीं की. पर दीवाली की रात ऐसा लगा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना जम कर हुई और लोगों ने मन से आतिशबाजी की. मीडिया में जो रिपोर्ट आयी, उसमें मास्क पहन कर लोग पटाखे जलाने में मशगूल दिखे. जाहिर है पहले से ही दिल्ली की प्रदूषित हवा, दीवाली की सुबह अवैध पटाखोंकी वजह से फैली गर्दो-गुबार से और भी प्रदूषित हुई.

 क्या पर्यावरण की चिंता सिर्फ न्यायालय की है? क्या इसमें नागरिकों और नागरिक समाज की कोई भूमिका नहीं है? स्पष्ट है कि न्यायालय की बात और आदेश का असर आम नागरिकों पर नहीं पड़ा और राजनीतिक पार्टियों में भी पर्यावरण के मुद्दों पर कोई आम सहमति नहीं दिखती. 

मैं कई ऐसे बुर्जुगों को जानता हूं जो दशकों से दिल्ली में रहते आए हैं, पर हाल के वर्षों में, दीवाली के दौरान, दिल्ली-एनसीआर छोड़ कर हफ्ते-दस दिन के लिए शहर से बाहर चले जाते हैं.  पर उनका क्या हाल है जो शहर छोड़ने में असमर्थ हैं? उन गर्भवती महिलाओं और गर्भ में पल रहे बच्चों की किसे चिंता है जो  प्रदूषण की मार झेल रहे हैं?

मुझे ऐसा लगा कि पांच साल की एक बच्ची जो बात आसानी से समझ सकती है, वह तथाकथित पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के पल्ले नहीं पड़ा. पर्यावरण उनकी चिंता का विषय है ही नहीं. खाओ, पीओ और ऐश करो को मंत्र की तरह दुहारने वाला और वर्तमान में जीने वाला यह वर्ग, भविष्य के प्रति न तो संवेदनशील है, न हीं समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार. फिर उम्मीद किस से है? मेरी समझ से उम्मीद स्कूली शिक्षा ले रहे इन्हीं बच्चों से है.

(प्रभात खबर, 20 नंवबर 2018 को प्रकाशित)

Thursday, November 15, 2018

दिल्ली में दरभंगा घराना


किसी भी राज्य और समाज की आर्थिक बदहाली की कहानी सांस्कृतिक बदहाली से भी गहरे जुड़ी होती है. जहाँ आर्थिक बदहाली के आंकड़े अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और मीडिया के लिए महत्वपूर्ण होते हैं वहीं सांस्कृतिक रुग्णता इनके सरोकार का हिस्सा नहीं बन पाते. यह स्थिति कहीं भी देखी जा सकती है. लेकिन अगर बिहार की बात करूँ तो जैसे-जैसे वहाँ की आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितयाँ प्रतिकूल होती गई, सदियों पुरानी शास्त्रीय संगीत की परंपरा भी सिमटती चली गई. बिहार की राज्य सत्ता और समाज अपनी परंपरा को सहेज नहीं सका. इन सब बातों को लक्ष्य कर दरभंगा-अमता घराने में प्रशिक्षितध्रुपद के गायक और लेखक जर्मनी के पीटर पानके ने दरभंगा घराने के ऊपर लिखी अपनी किताब का नाम सिंगर्स डाई ट्वाइस रखा है.  ऐसा लगता है कि पिछली सदी में दरभंगा ध्रुपद घराने के चर्चित कलाकारों की इहलौकिक मौत के बाद बिहार राज्य और समाज की नजर में उनकी स्मृति शेष हो गई.

पर परंपरा से नि:सृत प्रतिभाएँ समय और स्थान से प्रभावित भले हो, विषम परिस्थितियों में भी वह अपना रास्ता तलाश लेती है. पिछले दिनों दिल्ली ध्रुपद घराने के युवा कलाकार प्रशांत और निशांत मल्लिक को सुनना अह्लादकारी अनुभव रहा. जहाँ बिहार की एक अन्य ध्रुपद शैली- बेतिया घराने की परंपरा सिमट रही हैवहीं दरभंगा घराना के युवा कलाकार देश-विदेश में एक बार फिर से अपनी छाप छोड़ रहे है. गौरतलब है कि दरभंगा ध्रुपद घराने के संगीतकार खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं.

दरभंगा संगीत घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर दरभंगा राज की जमींदारी के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया.

कहते हैं कि सत्यजीत राय की फ़िल्म जलसाघर’ (1958) दरभंगा राज घराने से ही प्रेरित है. ध्रुपद गायक प्रेम मल्लिक के पुत्र और विदुर मल्लिक के पौत्र प्रशांत और निशांत इस घराने की तेरहवीं पीढ़ी के गायक हैं. हालांकि जब मैंने प्रशांत और निशांत मल्लिक के ध्रुपद कार्यक्रम के आख़िर में विद्यापति’ सुनने की फरमाइश की तो उनका कहना था कि ध्रुपद शैली पर यह प्रोग्राम आयोजित किया गया है और मंच को देखते हुए यह उचित नहीं. उन्होंने मुझे यह कहीं और सुनाने की बात कहीं. निश्चित रूप से इसके पीछे कोई वाजिब वजह होगी.

दरअसल, दरभंगा घराना के संगीतज्ञ अपनी गायकी के आख़िर में विद्यापति के पद गाया करते थे और इस वजह से ही मैंने फरमाइश की थी. दो साल पहले जब मैं दरभंगा घराने के वयोवृद्ध गायकसंगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पंडित अभय नारायण मल्लिक से मिला था तब उन्होंने भी मुझे उगना रे मोर कतय गेला’ गाकर सुनाया था. शायद ये उनकी परंपरा थी. दरभंगा घराने के गायक जिस रागात्मकता से ध्रुपद गाते थे उसी रागात्मकता से विद्यापति के पद भी. मल्लिक बंधुओं की प्रस्तुति सुन कर मुझे ऐसा लगा कि उनके गायन में ध्रुपद का नोम-तोम था पर मैथिल मिठास गायब थी. साथ ही उस लयकारी का अभाव था जिसकी वजह से दरभंगा घराना पूरे देश में पिछले तीन सौ वर्षों में अपनी विशिष्टता बनाए रखा.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. पखावज के नामी वादक पंडित रामाशीष पाठक दरभंगा घराने से ही थे. ध्रुपद के सिरमौर राम चतुर मल्लिक (पद्मश्री) के बारे में बड़े-बड़े संगीत साधक आज भी आदर से बात करते हैं. संगीत समीक्षक गजेंद्र नारायण सिंह (पद्मश्री) ने उनके बारे में लिखा है- रामचतुर दरअसल गानचतुर थे. गायकी की हर विधा पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी.
रामचतुर मल्लिक के छोटे भाई विधुर मल्लिक 80 के दशक में वृदांवन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी. वर्ष 2002 में उनकी मौत हो गई. बातचीत के दौरान प्रशांत मल्लिक ने बताया कि हर राज्य के आयोजक और वहाँ के सांस्कृतिक विभाग अपने राज्य के कलाकारों को पहले आगे करते हैं, लेकिन अफसोस यह है कि बिहार सरकार और बिहार के आयोजकों ने कभी अपने कलाकारों की अहमियत नहीं समझी.’ बहरहाल, निस्संदेह विधुर मल्लिक ने कई योग्य शिष्यों को ध्रुपद गायकी में प्रशिक्षित किया जिनमें पंडित सुखदेव चतुर्वेदी और पंडित वृज मोहन गोस्वामी आदि प्रमुख हैं. पर यह यह घराना अपने सामाजिक आधार का विस्तार नहीं कर सका.

मशहूर शास्त्रीय संगीतकार और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता टीएम कृष्णा कर्नाटक संगीत में सामाजिक विस्तार और समरसता की वकालत करते हैं, ताकि शास्त्रीय संगीत में वर्ग और जाति के वर्चस्व को तोड़ा जा सके. समकालीन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी यह ज़रूरत है. दरभंगा घराना यदि इस दिशा में पहल करे तो उसकी परंपरा की जड़ और मजबूत होगी.
(जनसत्ता, 15 नवंबर 2018 को, संस्कृति और सरोकार शीर्षक से प्रकाशित)