Tuesday, August 30, 2022

दिल्ली क्राइम सीजन 2: इच्छा-आकांक्षा में लिपटी हिंसा


पिछले दशकों में भारत में सामाजिक-आर्थिक स्तर पर काफी बदलाव देखने को मिला है. इसके साथ ही समाज में आर्थिक विषमता भी बढ़ी है. अर्थशास्त्री इस ओर इशारा करते रहे हैं कि जहाँ जिनके पास धन है वे और धनवान हुए हैं, जबकि गरीब और गरीबइच्छा और आकांक्षा की पूर्ति के लिए संघर्ष के साथ-साथ हिंसा का हथियार भी समाज में लोगों के हिस्से आया. गरीबी में निहित असहायता और आक्रोश की तरफ पॉपुलर मीडिया का कम ही ध्यान जाता है. सवाल है कि क्या धनाढ्यों के ऊपर होने वाली हिंसा के पीछे समाज के हाशिए पर रहे लोग जिम्मेदार हैंक्यों हमेशा शक की सुई उन पर जा टिकती है, जिसे ऐतिहासिक रूप से समाज में हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया?

वेब सीरीज दिल्ली क्राइम का दूसरा सीजन नेटफ्लिक्स पर इन दिनों स्ट्रीम हो रहा है, जो इन्हीं सवालों को अपने घेेरे में लेता है. वर्ष 2019 में रिची मेहता निर्देशित इस सीरीज के पहले सीजन की काफी चर्चा हुई थी. इसे बेस्ट ड्रामा सीरीज’ में प्रतिष्ठित एमी पुरस्कार से नवाजा गया था. जाहिर है दूसरे सीजन को लेकर काफी अपेक्षा थी. यह सीजन पहले की तरह ही संवेदनशीलता के साथ, दिल्ली को केंद्र में रखते हुए, समाज में अपराध और पुलिस की कार्रवाई को हमारे सामने लाती है. तनुज चोपड़ा इस सीजन के निर्देशक हैं.

यह सीरीज हिंसा के प्रति हमारे समाज में जो स्टीरियोटाइप है, उस पर सवाल खड़े करती है. मीडिया भी यहाँ कटघरे में खड़ा दिखता है. साथ ही यह सीरीज समाज में व्याप्त हिंसा के तत्वों की पड़ताल भी करती है, हालांकि इसे विस्तार नहीं दिया गया है. पर बिना कुछ कहे सीरीज में जो फुटपाथ-गलियों के दृश्य हैं, वे सामाजिक विभेद को सामने लाने में सफल हैं.

जहाँ दिल्ली में वर्ष 2012 में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार की घटना (निर्भया कांड) पर पहला सीजन आधारित थावहीं दूसरे भाग में दक्षिणी दिल्ली के पॉश कॉलोनी में बूढ़ों के साथ होने वाली हिंसा को आधार बनाया गया है. 90 के दशक में भी दिल्ली में बुर्जुगों की नृशंस हत्या का मामला सामने आया था, जिसके पीछे कच्छा-बनियान’ गैंग का हाथ था. हर एपिसोड में अपराध के लिए जो तौर तरीके अपनाए गए हैं वे एक जैसे हैं.

दिल्ली महानगर में कई नगर हैं. आप भले दशकों से इस शहर में रह रहे हो, पर जरूरी नहीं कि अपने वर्गीय-जातीय पूर्वग्रह को छोड़ कर, आस-पड़ोस से इतर दिल्ली को जानते हों. पाँच एपिसोड का यह सीरीज हिंसा, अपराधियों तक पुलिस के पहुंचने की कोशिश के साथ-साथ समाज में आर्थिक विभेदअपराधियों के प्रति एक वर्ग के नजरिए को भी सामने लाता है. सीरीज के मुख्य कलाकार शेफाली शाहरसिका दुग्गल,  आदिल हुसैनराजेश तैलंग आदि की प्रमुख भूमिका इस सीरीज में भी है. तिलोत्तमा शोम के साथ कुछ और नए किरदार भी इसमें जुड़े हैं. चूँकि पहले सीजन में डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी (शेफाली शाह) और उनकी टीम से हम परिचित रहे हैं, इसलिए सीरीज बिना किसी भूमिका के शुरू होती है. संपादन काफी चुस्त रखा गया है. कैमरा दिल्ली की सड़कोंगलियों को यथार्थपूर्ण ढंग से फिल्माने में सफल है. हालांकि यह सीरीज भावनात्मक रूप से पहले सीरीज की तरह बांध कर नहीं रख पाती. यह भी सच है कि निर्भया कांड की भयावहता झकझोरने वाली थीअपराधियों तक पुलिस की पहुँच की कहानी में एक नाटकीयता थी, दर्शकों के लिए एक तरह का कैथारसिस (विरेचन) था. इस कारण पहले सीरीज से तुलना करने पर यह कमतर ठहरती है. हालांकि शेफाली शाह पहली सीरीज की तरह ही अपनी भूमिका में अत्यंत प्रभावी है. इस सीरीज में उनकी बेटी को परिवार से दूर रखा गया है.

कम संसाधनों के बीच पुलिस के ऊपर जो काम का दबाव है उसे नीति सिंह (रसिका दुग्गल) के पारिवारिक रिश्तों के माध्यम से दिखाया गया है. नीति सिंह अब शादी-शुदा है और वर्तिका की टीम का प्रमुख हिस्सा है पर अपने पेशे और परिवार के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश में उसकी जिंदगी बिखर रही है. एक कश्मकश है यहाँ. इस सीरीज में पुलिस पर मीडिया और राजनीतिक दबाव को भी दिखाया गया है.

मुख्य किरदारों के साथ ही छोटी-छोटी भूमिकाओं में आए हर कलाकारों ने अपनी छाप छोड़ी है. तिलोत्तमा शोम अपनी अदाकारी के लिए खास तौर से उल्लेखनीय है. उसका भावहीन चेहरा नैतिक-अनैतिक के द्वंद से परे है. जो अपने सपने को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है.

(नेटवर्क 18 हिंदी)

Sunday, August 28, 2022

बॉलीवुड में विचारों की कमी है


हिंदी के कवि  और राजनेता  श्रीकांत वर्मा ने राजनीतिक सत्ता को लक्ष्य करते हुए अपनी एक कविता में लिखा था कि कोसल में विचारों की कमी है. जिस तरह से बॉलीवुड की बड़े बजट की फिल्में इन दिनों बॉक्स ऑफिस पर पिट रही है, ऐसा लगता है कि कोसल की तरह बॉलीवुड में भी विचारों की कमी है. आमिर खान की रिलीज हुई बहु प्रतीक्षित लाल सिंह चड्ढा भी इसी श्रेणी में शामिल है.

हॉलीवुड की चर्चित और पुरस्कृत फिल्म फॉरेस्ट गंप (1994) को भारतीय समाज और समय के अनुकूल बना कर लाल सिंह चड्ढा में प्रस्तुत किया गया है. एक तरफ यह फिल्म मानवीय भावनाओं, निश्छल प्रेम के फिल्मांकन की वजह से मर्म को छूती है, वहीं दूसरी तरफ पिछले पैंतालिस साल के सम-सामयिक घटनाक्रमों का महज एक 'कोलाज' बन कर रह गई है. फिल्म में आपातकाल, ऑपरेशन ब्लू स्टार, बाबरी मस्जिद विध्वंस, कारगिल युद्ध और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभार आदि की झलक मिलती है, हालांकि वह फिल्म की कथा वस्तु में पैबंद की तरह जुड़ा है. साथ ही आमिर खान और करीना कपूर भी अपने अभिनय में कुछ नया आयाम लेकर प्रस्तुत नहीं होते.

उदारीकरण (1991) के बाद भारत आर्थिक रूप से दुनिया में शक्ति का एक केंद्र बन कर उभरा हैलेकिन जब हम सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) की बात करते हैं तब बॉलीवुड ही जेहन में आता है. दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में भारत में ही बनती हैं, जिसमें हिंदी फिल्मों की एक बड़ी भूमिका है. ऐसे में बॉलीवुड पर छाया संकट चिंता का विषय है. पिछले तीस साल से आमिर खान, सलमान और शाहरुख खान जैसे सितारे बॉलीवुड के आकाश में छाए रहे हैं, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि इनके पास बतौर अभिनेता दर्शकों के लिए कुछ नया देने को रहा नहीं है. पिछले दिनों रिलीज हुई सलमान खान की फिल्में भी फ्लॉप हुई और शाहरुख खान भी जूझ रहे हैं.

बॉलीवुड से अलग हिंदी में पिछले कुछ सालों में जिन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया वह स्वतंत्र फिल्मकारों की फिल्में ही रही, जहाँ सितारों पर जोर नहीं था. इन फिल्मों की कहानियाँ उनका सबसे मजबूत पक्ष रहा है. पर बॉलीवुड उद्योग का सारा दारोमदार बॉक्स ऑफिस की सफलता-असफलता पर टिका है, जिसके केंद्र में स्टार रहे हैं. बात सिर्फ आमिर, सलमान और शाहरुख खान की ही नहीं है. पिछले दिनों रिलीज हुई रणवीर सिंह की 83, रणवीर कपूर की शमशेरा, अक्षय कुमार की रक्षाबंधन, सम्राट पृथ्वीराज आदि फिल्में भी दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने में असफल रही.

असल में इंटरनेट पर देश-विदेश की बेहतरीन फिल्मों को देखने की सहूलियत इन दिनों दर्शकों को हो गई है. वे हमेशा विषय-वस्तु में नएपन की तलाश में रहते है. कोरोना महामारी के दौरान बॉलीवुड पर जो संकट के बादल छाए उससे उबरने की फिलहाल कोई सूरत नज़र नहीं आती. ऐसे में बॉलीवुड को नए विचारों, कहानियों की सख्त जरूरत है, जो दर्शकों के बदलते मिजाज के साथ तालमेल बना कर चल सके.

Saturday, August 20, 2022

आजाद भारत में बॉलीवुड का सफर

युवा अर्थशास्त्री श्रयना भट्टाचार्य ने हाल में ही प्रकाशित किताब डिस्परेटली सीकिंग शाहरुखमें उदारीकरण के बाद भारतीय महिलाओं की जिंदगी, संघर्ष और ख्वाबों का लेखा-जोखा बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है. खास बात यह है कि इस किताब में देश के विभिन्न भागों और वर्गों की महिलाओं की जिंदगी में साझेदारी फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को लेकर बनती है, जो उनकी फैंटेसीऔर आजादीको पंख देता है.

इस बात पर शायद ही किसी को असहमति हो कि आजाद भारत में बॉलीवुड ने देश को एक सूत्र में बांधे रखने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है. भले बॉलीवुड के केंद्र में मनोरंजन और स्टारका तत्व हो, पर ऐसा नहीं कि आजादी के 75 वर्षों में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से इसने नजरें चुराई हैं. खासकर, पिछले दशकों में तकनीक और बदलते बाजार ने इसे नए विषय-वस्तुओं को टटोलने, संवेदनशीलता के प्रस्तुत करने और प्रयोग करने को प्रेरित किया है-स्त्री स्वतंत्रता का सवाल हो या समलैंगिकता का!

आधुनिक समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. आजादी के तुरंत बाद से सरकार ने देश में सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली. वर्ष 1949 में सिनेमा उद्योग की वस्तुस्थिति की समीक्षा के लिए फिल्म इंक्वायरी कमेटीका गठन किया गया था. इस समिति ने सिनेमा के विकास के लिए सुझाव दिए थे. इसी के सुझाव के आधार पर फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन’, जो बाद में नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशनके नाम से जाना गया, का गठन 1960 में किया गया. साथ ही सिनेमा के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए पुणे में फिल्म संस्थान (1960) की स्थापना हुई. क्या यह आश्चर्य नहीं कि बॉलीवुड की मुख्यधारा धारा से इतर भारत में जो समांतर सिनेमा (न्यू वेब सिनेमा) की शुरुआत हुई उसमें इन सरकारी संस्थानों की बड़ी भूमिका रही है!

तत्कालीन पीएम नेहरू देश-दुनिया के सामने सिनेमा के माध्यम से एक स्वतंत्र राष्ट्र की ऐसी छवि प्रस्तुत करना चाह रहे थे जो किसी महाशक्ति के दबदबे में नहीं है. वर्ष 1952 में देश के चार महानगरों में किए गए पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहके आयोजन को हम इस कड़ी के रूप में देख-परख सकते हैं. साथ ही देश के फिल्मकारों और सिनेमा प्रेमियों को विश्व सिनेमा की कला से परिचय और विचार-विमर्श का एक मंच उपलब्ध कराना भी उद्देश्य था. वे सिनेमा के कूटनीतिक महत्व से परिचित थे. तभी से सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल किया जाता रहा है.

पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. फिल्मों पर नेहरू के विचारों की स्पष्ट छाप है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. हालांकि राज कपूर, देवानंद, गुरुदत्त जैसे अभिनेताओं की एक विशिष्ट पहचान थी.

सत्तर-अस्सी के दशक में अमिताभ बच्चन की सिनेमा-यात्रा देश में नक्सलबाड़ी आंदोलनकी पृष्ठभूमि से होते हुए युवाओं के मोहभंग, आक्रोश और भ्रष्टाचार को अभिव्यक्त करता है. हालांकि इसी दशक में देश-दुनिया में भारतीय समांतर सिनेमा की धूम रही. बॉलीवुड में शुरुआत से ही पॉपुलरके साथ-साथ गाहे-बगाहे पैरेललकी धारा बह रही थी, पर इन दशकों में पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित युवा निर्देशकों, तकनीशियनों के साथ-साथ नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, स्मिता पाटील जैसे कलाकार उभरे. सिनेमा सामाजिक यथार्थ को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने लगा. हम कह सकते हैं कि समांतर सिनेमा का सफर 21वीं सदी में भी जारी है, भले स्वरूप में अंतर हो.

नब्बे के दशक में उदारीकरण (1991) और भूमंडलीकरण के बाद देश में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए उसे शाहरुख, सलमान, आमिर खान, अक्षय कुमार, अजय देवगन की फिल्मों ने पिछले तीन दशकों में प्रमुखता से स्वर दिया हैं. अमिताभ बच्चन भी नए रूप में मौजूद हैं. यकीनन, बॉलीवुड मनोरंजन के साथ-साथ समाज को देखने की एक दृष्टि भी देता है.

कोई भी कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में भी आज राष्ट्रवादी भावनाएं खूब सुनाई दे रही है. आजादी के तुरंत बाद बनी फिल्मों में भी राष्ट्रवाद का स्वर था, हालांकि तब के दौर का राष्ट्रवाद और आज के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. यह एक अलग विमर्श का विषय है.

उदारीकरण के बाद भारत आर्थिक रूप से दुनिया में शक्ति का एक केंद्र बन कर उभरा है, लेकिन जब हम सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पॉवर) की बात करते हैं तब बॉलीवुड ही जेहन में आता है. आजाद भारत में यह बॉलीवुड के सफर की सफलता है.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Friday, August 19, 2022

शहरनामा-झंझारपुर



जिले की चाह लिए एक कस्बा

गाँवों से घिरा झंझारपुर एक कस्बा हैजो शहर होना चाहता है. बिहार के मधुबनी जिले के इस सब डिवीजन के अंदर जिला बनने की ख्वाहिश कई दशक से है. जैसा कि छोटे कस्बों में रहने वालों की चाह होती हैस्कूल से पढ़-लिखकर हर कोई दरभंगा-दिल्ली की रेलगाड़ी पकड़ना चाहता है. अब तो दरभंगा में हवाईअड्डा भी है! क्या यह शहर हैयह सवाल बहुत बाद में हमारे मन में आयाजब हमने शहरों को देखा और वहीं के होकर रह गए. लेकिन हमारे बचपन का तो यही पहला शहर है. यहाँ थाना हैबाजार हैकोर्ट--कॉलेज हैस्टेडियम भी है. हांयहां के बांस टॉकीज’ में ही हमने पहली फिल्म देखी. माँ भी कहती है कि मैथिली की पहली फिल्म कन्यादान’ उन्होंने वर्ष 1972-73 में बांस टॉकीज में ही देखी थी.

जिसके आंगन बहती है नदी

झंझारपुर के आंगन में नदी बहती है. असल में कमला और बलान नदियों के तट पर बसा यह शहर राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण रहा है. यह लोकसभा क्षेत्र भी है जहाँ से चुनकर देवेंद्र यादव जैसे सांसद केंद्र सरकार में मंत्री बने. पर बिहार के राजनीतिक इतिहास में यह पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की वजह से जाना जाता हैजो झंझारपुर विधानसभा से चुन कर बिहार के मुख्यमंत्री बनते रहे. लंगड़ा चौक पर बैठ कर राष्ट्रीय जनता दल के नेताप्रोफेसर रामदेव भंडारी को अखबार बांचते हमने देखा और बाद में राज्यसभा में भी. यहीं हमने राजीव गाँधीचंद्रशेखरवी पी सिंह और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता को देखा-सुना. दादी के मुँह से लाट साहबों से किस्से सुने.  भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वर्ष 1942 में झंझारपुर स्थित थाने को घेरने-जलाने की बात भी मैंने स्वतंत्रता सेनानियों के मुँह से सुनी है. किसी इतिहासकार को इस शहर के राजनीतिक इतिहास को पंक्तिबद्ध करनी चाहिए.

सांस्कृतिक एकता का पुल

बीसवीं सदी की शुरुआत में कमला-बलान नदी पर करीब दो सौ बीस फीट लंबा रेल बिज्र बना कर अंग्रेजों ने झंझारपुर को अन्य शहरों से जोड़ा था. 1970 के दशक की शुरुआत में इस पुल को रेल-सह-सड़क में तब्दील कर दिया गया, जो दशकों तक लोगों के लिए कौतुक का केंद्र बना रहा. ट्रैफिक के कारण और बाढ़ के दिनों में यह अक्सर परेशानी का सबब भी रहा. अब यह पुल इतिहास के पन्नों में है. पिछले दिनों इसी पुल के समांतर रेलवे ने एक ब्रिज तैयार कर दिया. वैसे दस-बारह साल पहले ही राष्ट्रीय राजमार्ग 57 ने इस ‘अजीबोगरीब पुल’ की अहमियत कम कर दी थी. कोसी के किनारे बसे शहर अब कमला-बलान के करीब आ गए हैं. रेलमार्ग और राजमार्ग मिथिला की सांस्कृतिक एकता के पुल हैजो शहर के कारोबारियों के लिए भी नए अवसर लेकर आया है.

कला पारखी की तलाश में

मधुबनी मिथिला पेंटिंग का दूसरा नाम है, हालांकि यह नाम मिथिला पेंटिंग के साथ न्याय नहीं करता. झंझारपुर के आस-पड़ोस के लगभग हर गाँव में मिथिला पेंटिंग होती है. दरभंगा-मधुबनी से दूरी होने की वजह से कलाकारों की पहुँच सत्ता केंद्रों तक नहीं हो पाती है. मधुबनी जिले के रांटी’ और जितवारपुर’  गांव राष्ट्रीय पटल पर छा गएझंझारपुर के गाँव उसी तरह कला पारखियों के इंतजार में हैं. क्या पता कोई सीता देवीगंगा देवीदुलारी देवी भविष्य के गर्भ में छिपी हो?

मिथिला के इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने लिखा है कि झंझारपुर के बने कांस्य-पीतल के बर्तनों की मांग दक्षिणी राज्यों में थी. आज भी बाजार में कुशल कारीगर मौजूद हैंलेकिन वस्तुओं की मांग नहीं है. बाजार में गहमागहमी रहती हैपर वह रौनक नहीं जो तीन दशक पहले तक थी. कई मारवाड़ी उद्यमी शहर छोड़ कर दिल्लीसूरतमुंबई जा बसे हैं.

बेलारही का पुस्तकालय

शहरी क्षेत्र से सटे गांव बेलारही में 85 साल पुराना एक पुस्तकालय है, मिथिला मातृ-मंदिर. पिछले दिनों इसे सांसद-विधायक विकास निधि से किताबों की आमद हुई है. शहर में एक भी पुस्तकालय न होना अखरता है, जबकि ललित नारायण जनता कॉलेज करीब साठ साल पुराना है. केजरीवाल और टेवरीवाल हाईस्कूल से निकले पुराने छात्र पूरे देश में मौजूद हैंलेकिन अपनी मातृ संस्था की सुध किसे है! कहते हैं प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर डी एन झा ने अपनी नौकरी की शुरुआत झंझारपुर से ही की थी. यशवंत सिन्हा ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के दौरान अपना पहला प्रशिक्षण नजदीक के 'सिमरा' गाँव के निवासी आइएएस भागीरथ लाल दास के साथ किया था. शांति स्वरूप भटनागर सम्मान से सम्मानित गणितज्ञ अमलेंदु कृष्ण भी इसी जगह से ताल्लुक रखते हैं.

कोई भी बन जाए भोजन भट्ट

मिथिला अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता की वजह से पूरी दुनिया में जाना जाता है. शहर में ‘पग-पग पोखर माछ मखान’ है. तरह-तरह की मछलीकिस्म-किस्म के चावलचूड़ासाग-सब्जीआम के विभिन्न प्रकार किसी को भी भोजन भट्ट’ बनाने के लिए पर्याप्त हैं. अब स्ट्रीट फूड- मुरहीचूड़ाकचरीचप के साथ-साथ चाउमीन और चाट भी नुक्कड़-चौराहे पर मिलने लगे हैं.

आस-पड़ोस के लोग शहर छोड़कर महानगरों में जा बसे हैंलेकिन वे शादी-ब्याहछठ आदि में गामक घर’ देखने जरूर आते हैं. यदि यहाँ स्वास्थ्य सुविधा बहाल हो जाए तो आने वाले सालों में लोग वापस अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपने अनुभव से इस शहर को संवृद्ध करेंगे. यूं एक मेडिकल कॉलेज का निर्माण कार्य जोर-शोर से चल रहा है.

{आउटलुक (5 सितंबर 2022)}

Sunday, August 07, 2022

अमृत महोत्सव में आलोचक की याद


हिंदी के आलोचक और झारखंड के चर्चित बुद्धिजीवी वीर भारत तलवार अपने पचहत्तरवें वर्ष में हैं. लोकतंत्र में आलोचना को केंद्रीयता हासिल है, ऐसे में आजादी के अमृत महोत्सव में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को याद करना जरूरी है. तलवार जैसा जीवन बहुत कम बौद्धिकों को नसीब होता है. जमशेदपुर में जन्मे, सत्तर के दशक में उन्होंने धनबाद के कोयला-खदान के मजदूरों और राँची-सिंहभूम के आदिवासियों के बीच काम किया. झारखंड राज्य आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में रहे. फिर अस्सी के दशक में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नामवर सिंह के निर्देशन में प्रेमचंद के साहित्य पर शोध किया और वहीं भारतीय भाषा केंद्र में छात्रों के चहेते शिक्षक भी बने. उन्होंने हिंदी नवजागरण को आधार बना कर ‘रस्साकशी’ जैसी मौलिक शोध पुस्तक की रचना की और हिंदी नवजागरण को प्रश्नांकित किया है. वे इसे ‘हिंदी आंदोलन’ कहने के हिमायती हैं क्योंकि इसका ‘यही लक्ष्य था’.
देश में 19वीं सदी का नवजागरण उनकी चिंता के केंद्र में रहा है. उन्होंने ‘हिंदू नवजागरण की विचारधारा’ में लिखा है: ‘अपनी परंपरा, धर्म, रीति-रिवाजों और सामाजिक संस्थाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना, उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर जांच कर ठुकराना या अपने समय के मुताबिक सुधारना हर नवजागरण -चाहे वह यूरोपीय हो या भारतीय- की सबसे केंद्रीय विशेषता रही है.’ उनके शोध को पढ़ कर हम समकालीन सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखने लगते हैं. तलवार की रचनाओं में शोध और आलोचना का दुर्लभ संयोग मिलता है. इस लिहाज से उनकी किताब ‘सामना’ खास तौर पर उल्लेखनीय है. इस किताब में शामिल ‘निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र’ अपनी पठनीयता और आलोचनात्मक दृष्टि की वजह से काफी चर्चित रहा है. उनकी आलोचना भाषा सहजता और संप्रेषणीयता की वजह से अलग से पहचान में आ जाती है. यहाँ बौद्धिकता का आतंक या दर्शन की बघार नहीं दिखती. अकारण नहीं कि उनके लिखे राजनीतिक पैम्फलेट भी काफी चर्चित रहे हैं.
वाम आंदोलन के दिनों में तलवार ने फिलहाल (1972-74) नाम से जो राजनीतिक पत्र का संपादन किया उसका ऐतिहासिक महत्व है. इसके चुने हुए लेख ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’ किताब में संग्रहित हैं. इसी तरह उन्होंने ‘झारखंड वार्ता’ और ‘शालपत्र’ का भी संपादन किया. ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच एक एक्टिविस्ट के नोट्स’ में उनके अनुभव संकलित हैं. इस किताब को उनके ‘झारखंड में मेरे समकालीन किताब’ के साथ रख कर पढ़ना चाहिए. खास तौर पर इस किताब में संकलित रामदयाल मुंडा पर लिखा उनका विश्लेषणात्मक निबंध उल्लेखनीय है.
जेएनयू में उनके जैसा शिक्षक और गाइड बहुत कम थे. शोध के प्रसंग में अक्सर मंत्र की तरह कहा करते थे- ‘ढूंढ़ो, खोजो, पता लगाओ’. जब भी उनसे बातचीत होती है वे सबसे पहले पूछते हैं: अच्छा, आज कल क्या लिख-पढ़ रहे हो.’ सिनेमा से तलवार जी का काफी लगाव है. उनका ‘सेवासदन पर फिल्म: राष्ट्रीय आंदोलन का एक और पक्ष’ लेख (राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य) एक साथ कई विषयों को समेटे है. ‘सेवासदन’ फिल्म (1934) के बहाने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उठे सांस्कृतिक आंदोलन और उसकी असफलता को वे रेखांकित करते हैं. वे सवाल उठाते हैं कि इन वर्षों में हिंदी फिल्में क्यों हिंदी जगत की संस्कृति और परंपराओं से दूर रही?

Wednesday, August 03, 2022

अमृतकाल में जनता के कवि आलोकधन्वा


हिंदी के चर्चित और विशिष्ट कवि आलोकधन्वा जीवन के 75वें वर्ष में हैं. कम ऐसे रचनाकार हुए हैं जिन्होंने बहुत कम लिख कर पाठकों की बीच इस कदर मकबूलियत पाई हो. पचास वर्षों से आलोकधन्वा रचनाकर्म में लिप्त हैंपर अभी तक महज एक कविता संग्रह- दुनिया रोज बनती हैप्रकाशित है. सच तो यह है कि इस किताब को छपे भी करीब पच्चीस साल हो गए.

वर्ष 1972 में फिलहाल और वाम पत्रिका में उनकी कविता गोली दागो पोस्टर’ और जनता का आदमी प्रकाशित हुई थी. राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर आधारित फिलहाल पत्रिका खुद वर्ष 1972 में ही प्रकाश में आई थी. इस पत्रिका के संपादक वीर भारत तलवार थेजो उन दिनों पटना में रह कर वाम आंदोलन से जुड़े एक्टिविस्ट थे. उनकी कविता की भाषा-शैलीआक्रामकता और तेवर को लोगों ने तुरंत नोटिस कर लिया था. 70 का दशक देश और दुनिया में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था.

आजादी के बीस साल बाद देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन की गूंज उठी थी. युवाओं में सत्ता और व्यवस्था के प्रति जबरदस्त आक्रोश था. साथ ही सत्ता का दमन भी चरम पर था. सिनेमा में इसकी अभिव्यक्ति मृणाल सेन अपनी कलकत्ता त्रयी फिल्मों में कर रहे थे. भारतीय भाषाओं के साहित्य में नक्सलबाड़ी आंदोलन की अनुगूंज पहुँच रही थी. आलोकधन्वापाश (पंजाबी), वरवर राव (तेलुगू) जैसे कवि अपनी धारदार लेखनी से युवाओं का स्वर बन रहे थे. वीर भारत तलवार ने अपनी किताब नक्सलबाड़ी के दौर में लिखा है: ‘आलोक की कविता में बेचैनी भरी संवेदनशीलता के साथ प्रतिरोध भाव और आक्रामक मुद्रा होती थी. वाणी में ओजस्वितारूप विधान में कुछ भव्यता और शैली में कुछ नाटकीयता होती थी.’ गोली दागो पोस्टर में वे लिखते हैं:

यह कविता नहीं है

यह गोली दागने की समझ है

जो तमाम क़लम चलानेवालों को

तमाम हल चलानेवालों से मिल रही है.

इसी कम्र में भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’, ‘कपड़े के जूते जैसी उनकी कविताएँ काफी चर्चित हुई थी. भागी हुई लड़कियाँ कविता सामंती समाज में प्रेम जैसे कोमल भाव को अपनी पूरी विद्रूपता के साथ उजागर करती है.

आलोकधन्वा की कविताओं में एक तरफ स्पष्ट राजनीतिक स्वर हैजो काफी मुखर है, वहीं प्रेमकरुणास्मृति जैसे भाव हैं जो उनकी कविताओं को जड़ों से जोड़ती हैं. महज चार पंक्तियों की रेल शीर्षक कविता में हर प्रवासी मन की पीड़ा है. एक नॉस्टेलजिया हैजड़ों की ओर लौटने की चाह है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है

जो माँ के घर की ओर जाती है

सीटी बजाती हुई

धुआँ उड़ाती हुई.

इसी तरह एक और उनकी रचना हैएक जमाने की कविता. आलोकधन्वा ने लिखा है:

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती

गुनगुनाती रहती

हम माँ को तंग करते

उसे दुल्हन कहते

माँ तंग नहीं होती

बल्कि नया गुड़ देती

गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते.

एक ज़माने की कविता’ पढ़ते हुए मैं अक्सर भावुक हो जाता हूँ. एक बार मैंने उनसे पूछा था क्या लिखते हुए आप भी भावुक हुए थेउन्होंने कहा- "स्वाभाविक है. कविता अंदर से आती है. मेरी माँ 1995 में चली गई थीजिसके बाद मैंने यह कविता लिखी. अब माँ तो सिर्फ एक मेरी ही नहीं है. भावुकता स्वाभाविक है.

फिर मैंने पूछा कि क्या यह नॉस्टेलजिया नहीं हैतब उन्होंने जवाब दिया कि नहींयह महज नॉस्टेलजिया नहीं है. आलोकधन्वा ने कहा कि जो आदमी माँ से नहीं जुड़ा हैअपने नेटिव से नहीं जुड़ा है वह इसे महसूस नहीं कर सकता है. वह इस संवेदना को नहीं समझ सकता है. अपने नेटिव से जुड़ाव हर बड़े कवि के यहाँ मिलता है. चाहे वह विद्यापति होरिल्के हो या नेरुदा.

आलोकधन्वा की कविता में जीवन का राग हैलेकिन यह राग उनके जीवन के अमृत काल में भी विडंबना बोध के साथ उजागर होता है. हाल ही में साहित्य वार्षिकी (इंडिया टुडे) पत्रिका में छपी उनकी ये पंक्तियाँ इसी ओर इशारा करती है:

अगर भारत का विभाजन नहीं होता

तो हम बेहतर कवि होते

बार-बार बारुद से झुलसते कत्लगाहों को पार करते हुए

हम विडंबनाओं के कवि बनकर रह गए.

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है. आजादी के साथ देश विभाजन की विभीषिका लिपटी हुई चली आई थीउस त्रासदी का दंश आज भी कवि भोग रहा है.

आलोकधन्वा कविता पाठ करते हुए अक्सर इसरार करते हैं कि ताली मत बजाइएगा’. उनकी कविताएँ मेहनतकश जनता की कविताएँ हैं, यहाँ जीवनसंघर्ष और प्रतिरोध समानार्थक हैं.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)