साल के आखिर में खबर आई कि ऑस्कर पुरस्कार के लिए पान नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को शॉर्टलिस्ट किया गया है. भारत की ओर से यह फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. साथ ही बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाने वाली एसएस राजामौली की ‘आरआरआर’ (तेलुगु) के गाने ‘नाटू-नाटू’ को भी ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट किया गया.
Friday, December 30, 2022
वर्षांत 2022: दक्षिण भाषाई फिल्मों के दबदबे में रहा बॉलीवुड
साल के आखिर में खबर आई कि ऑस्कर पुरस्कार के लिए पान नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को शॉर्टलिस्ट किया गया है. भारत की ओर से यह फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. साथ ही बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाने वाली एसएस राजामौली की ‘आरआरआर’ (तेलुगु) के गाने ‘नाटू-नाटू’ को भी ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट किया गया.
Friday, December 23, 2022
पुष्पेंद्र सिंह का सिनेमा संसार: सौंदर्य का संगीत
पिछले महीने युवा फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह ने फेसबुक पर लिखा कि जो दोस्त मुझसे मेरी फिल्मों के बारे में पूछते रहते हैं, उनके लिए मेरी फिल्म देखने का मौका ‘मूबी’ (ऑनलाइन वेबसाइट) पर है. असल में उनकी दो फिल्मों—‘लजवंती’ (2014) और ‘अश्वात्थामा’ (2017) के साथ ‘मारु रो मोती’ (2019) डॉक्यूमेंट्री स्ट्रीम हो रही है. पुष्पेंद्र सिंह हमारे समय के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं. पुष्पेंद्र की फिल्में देश-विदेश के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों का हिस्सा भले रही है, पर आम जनता के लिए उसका प्रदर्शन नहीं हो पाया है.
इससे पहले सितंबर-अक्टूबर में न्यूयॉर्क के ‘द म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा)’ में नई पीढ़ी के भारतीय स्वतंत्र फिल्मकारों की जो फिल्में दिखाई गई उसमें ‘लजवंती’ और ‘लैला और सात गीत (2020)’ भी शामिल थी. आगरा के नजदीक सैंया कस्बे में जन्मे और राजस्थान में पले-बढ़े, पुष्पेंद्र ने पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से अभिनय में प्रशिक्षण लिया और फिर चर्चित फिल्मकार अनूप सिंह (किस्सा और सांग ऑफ स्कॉर्पियंस) के सहायक रहे. अमित दत्ता (हिंदी), गुरविंदर सिंह (पंजाबी), उमेश विनायक कुलकर्णी (मराठी), चैतन्य ताम्हाणे (मराठी) जैसे फिल्मकारों की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्में समकालीन भारतीय सिनेमा और उसकी परंपरा के उज्ज्वल पक्ष को अपनी कला में समाहित करती हैं.
‘लैला और सात गीत’ और ‘लजवंती’ राजस्थान के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा (बिज्जी) की कहानियों पर आधारित है. ‘लैला और सात गीत’ ‘केंचुली’ कहानी को आधार बनाती है, लेकिन उसकी कथाभूमि राजस्थान न होकर जम्मू-कश्मीर है. जाहिर है कथाभूमि बदलने से विषय-वस्तु के निरूपण और परदे पर उसके फिल्मांकन में भी बदलाव आया है, हालांकि स्त्री के मनोभाव, इच्छा, द्वंद और स्वतंत्रता की आकांक्षा सार्वभौमिक है. यहाँ जंगल में एक जलता हुए पेड़ भी है जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को इंगित करता है. पुलिस राजसत्ता का प्रतीक है और लैला कश्मीर का रूपक.
सब जानते हैं कि बिज्जी लोक-कथा को आधुनिक रंग में अपनी कहानियों में ढालने में सिद्धस्थ थे. यही कारण है कि मणि कौल (दुविधा, 1973), श्याम बेनेगल (चरणदास चोर, 1975) से लेकर पुष्पेंद्र जैसे युवा फिल्मकार भी उनकी कहानियों की ओर रुख करते रहे हैं. प्रसंगवश, एक मुलाकात में जब मैंने मणि कौल से पूछा था कि क्या वे बिज्जी की किसी और कहानी पर फिल्म बनाना चाह रहे थे? उन्होंने कहा था कि ‘हां, चरण दास चोर पर मैं फिल्म बनाना चाह रहा था पर श्याम ने उस पर फिल्म बना ली थी.’
पुष्पेंद्र की पहली फिल्म ‘लजवंती’ (बिज्जी की इसी नाम से कहानी है) राजस्थान के थार मरुस्थल को केंद्र में रखती है. फिल्म के लैंडस्केप में रेत के धोरों, खेजड़ी का पेड़, पवनचक्की का सौंदर्य शामिल है. यहाँ ऊंट, बकरी और कबूतर भी लोक में घुले-मिले हैं. घूंघट काढ़े एक शादी-शुदा स्त्री की पितृसत्तात्मक बंधन में जकड़न, प्रेम की उत्कट चाह और मुक्ति की चेतना को फिल्म ने खूबसूरत दृश्यों से रचा है. ‘दुविधा’ की तरह (जहाँ भूत भी एक प्रेमी हो सकता है) ‘लजवंती’ पाठ का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि गल्प को बिंबों और ध्वनि के सहारे परदे पर उकेरती है. जिस तरह मणि कौल अपनी फिल्मों में ध्वनि पर खास जोर देते थे, उसी तरह पुष्पेंद्र की फिल्मों में ध्वनि का संयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. महिलाओं के परिधान में यहां चटक रंगों के इस्तेमाल के साथ सफेद कबूतरों की सोहबत में नायक (पुष्पेंद्र सिंह) का सफेद लिबास अंतर्मन और बहिर्मन के द्वंद्व को उभारने में सहायक है.
भारतीय कला सिनेमा के चर्चित नाम कुमार शहानी, मणि कौल की परंपरा में ही पुष्पेंद्र की फिल्में आती हैं. कई दृश्यों के संयोजन में भी इन निर्देशकों का असर दिखाई पड़ता है. उनकी फिल्मों के कई दृश्य देशी-विदेशी पेंटिंग ( भारतीय मिनिएचर और यूरोपीय नवजागरण की पेंटिंग) से भी प्रभावित हैं, जिसे पुष्पेंद्र स्वीकारते भी हैं. दोनों ही फिल्मों में लोक गीत-संगीत का प्रयोग फिल्म के विन्यास के साथ गुंथा हुआ है. साथ ही फिल्म में जिस तरह से दृश्य को फ्रेम किया गया है, वह संगीतात्मकता और काव्यात्मकता से ओत-प्रोत है. ‘लैला और सात गीत’ देखते हुए मणि कौल की ‘सिद्धेश्वरी’ और कुमार शहानी की 'विरह भरयो घर आंगन कोने’ वृत्तचित्र की याद आती रही.
जहाँ ‘लाजवंती’ की भाषा हिंदी और मारवाड़ी है वहीं ‘लैला और सात गीत’ में हिंदी और गूजरी का प्रयोग है. ‘लजवंती’ से हट कर यह फिल्म कहानी के मूल को विस्तार देती है और यहाँ फिल्म में समकालीन राजनीतिक घटनाओं की ध्वनि जुड़ती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस फिल्म के केंद्र में लैला है (कहानी में लाछी) जो अपने पति के साथ रहती है पर उसके मन में एक ‘दुविधा’ है, उथल-पुथल है. यह प्रेम की अतृप्ता से उपजी है. पर पूरा होने पर क्या प्रेम बचा रहता है?
निर्देशक ने कहानी को खानाबदोश जनजाति--बकरवाल के जीवन यथार्थ के बीच अवस्थित किया है. पहाड़, जंगल, बकरे और जीव-जंतुओं के संग बसा घर-परिवार एक ठहराव के साथ लांग शॉट्स के माध्यम से हमारे सामने आता है. लैला का सौंदर्य उसकी वेशभूषा, बोली-वाणी, हाव-भाव में है. निर्देशक ने ‘क्लोज-अप’ से परहेज किया है.
पति के दब्बूपन के प्रति लैला के स्वाभिमानी व्यक्तित्व में एक तरह का विद्रोह है. पर इस विद्रोह की क्या दिशा होगी? इस कहानी में लाछी एक जगह कहती है: औरतों की इस जिंदगी में वह इस जकड़ से कभी मुक्त होगी कि नहीं?". फिल्म को क्रमश: सात अध्यायों में बांटा गया है- सांग ऑफ मैरिज, सांग ऑफ माइग्रेशन, सांग ऑफ रिग्रेट, सांग ऑफ प्लेफुलनेस, सांग ऑफ एक्ट्रैक्शन, सांग ऑफ रियलाइजेशन और सांग ऑफ रिनंसीएशन. आखिर में घर-परिवार, नाते-रिश्ते को छोड़, निर्वसन लैला प्रकृति के साथ एकमेक हो जाती है. मणि कौल की फिल्मों की ‘बालो’, ‘मल्लिका’ और ‘लच्छी’ की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्मों की लजवंती (संघमित्रा हितैषी) और लैला (नवजोत रंधावा) अंतर्मन के द्वंद के साथ स्वतंत्रता की चेतना और मुक्ति कामना से लैस है.
Sunday, December 11, 2022
टेलीविजन न्यूज चैनल के सितारे: रवीश कुमार का इस्तीफा
हिंदुस्तान में टेलीविजन न्यूज चैनल के 'स्टार एंकर' फिल्म सितारे से कम लोकप्रिय नहीं हैं. असल में, टीवी के पास महज एक परदा है जिसके मार्फत पिछले दो दशक से ये एंकर रोज हमारे ड्राइंग रूम में हाजिर होते रहे हैं. टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित टेलीविजन के चर्चित पत्रकार-एंकर रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. पिछले दिनों देश के एक प्रमुख समाचार चैनल एनडीटीवी इंडिया से उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस चैनल से वे करीब पच्चीस वर्षों से जुड़े थे. इस्तीफे के बाद सोशल मीडिया पर रवीश के प्रति लोगों का प्रेम उमड़ पड़ा. साथ ही मीडिया और पूंजी के गठजोड़ को लेकर भी आलोचना हुई. यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भले एक एंकर की भूमिका समाचार चैनल में प्रमुख हो, पर जहाँ ‘स्टार वैल्यू’ से उनका कद बढ़ा वहीं टीवी समाचार उद्योग की निर्भरता भी इन पर बढ़ती चली गई. टीआरपी के पीछे आज जो भागदौड़ दिखती है वह भी इसी से जुड़ी हुई है. एनडीटीवी के पूर्व रिपोर्टर संदीप भूषण ने अपनी किताब ‘द इंडियन न्यूजरूम’ में एनडीटीवी के हवाले से स्टार एंकरों के बारे में विस्तार से लिखा है कि किस तरह इनकी वजह से टीवी उद्योग में आज रिपोर्टर की भूमिका सिमट कर रह गई है. किताब में एनडीटीवी की आलोचना भी शामिल है.
Wednesday, December 07, 2022
आलाप लेते ऋषिकेश मुखर्जी के अमिताभ
पिछले
दिनों अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर ‘आनंद’ फिल्म का जिक्र करते हुए एक
वाकया का उल्लेख किया था कि किस तरह उनके ‘लाल होठों’ को लेकर
फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी सेट पर बिफर पड़े थे. उन्हें लगा था कि अमिताभ ने
लिपस्टिक लगा रखी है. यह फिल्म जितना उस दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना के लिए याद
की जाती है उतना ही उभरते हुए अदाकार अमिताभ बच्चन के लिए. सही मायनों में
व्यावसायिक रूप से सफल इस फिल्म से ही अमिताभ पहचाने गए.
ऋषिकेश
मुखर्जी (1922-2006) का यह जन्मशती
वर्ष भी है. पिछली सदी के सत्तर के दशक में अमिताभ की जो फिल्में आई उसमें ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ आदि ने उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि में
बांध दिया. आज यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि
ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके
चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ ही
थे. और ये फिल्में उथल-पुथल से भरे सत्तर के दशक में बन रही थी. हालांकि खुद
मुखर्जी अमिताभ की ‘स्टारडम’ की छवि से खुश नहीं थे. वे कहते थे कि मसाला फिल्मों
के निर्देशकों ने अमिताभ को ‘स्टंटमैन’ बना दिया है. असल में, साफ-सुथरी और सहज शैली उनके
फिल्मों की विशेषता थी, जो मारधाड़, हिंसा से कोसो दूर रही. परिवार और घर इन फिल्मों के केंद्र में है. ये
ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जो अमिताभ को शास्त्रीय संगीत प्रेमी के रूप में परदे पर
लाने का हौसला रखते थे.
सत्तर के
दशक में हिंदी सिनेमा में एक साथ तीन धाराएँ-मेनस्ट्रीम, पैरलल और
मिडिल प्रवाहित हो रही थी. प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई
जैसे निर्देशको के साथ, समांतर सिनेमा के मणि कौल, कुमार शहानी के लिए यह दशक जितना जाना जाता है, उतना ही मुखर्जी की ‘मध्यमार्गी’ फिल्मों के लिए भी.
सिनेमा के
अध्येता जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब-‘द वर्ल्ड ऑफ ऋषिकेश मुखर्जी’ में उल्लेख
किया है कि मुख्यधारा के फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई और समांतर सिनेमा के
निर्देशक कुमार शहानी दोनों के ही मुखर्जी के साथ सहज रिश्ते थे. यह उनके
व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जिसकी स्पष्ट छाप उनकी फिल्मों पर है. इस
किताब में वर्ष 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा को याद करते हुए शहानी ऋषि दा के घर (अनुपमा) पर जमावड़े का उल्लेख करते हैं: “वहां सौ-दो सौ युवा, अधेड़ फिल्मकारों का जमावड़ा
था. हमने आपातकाल का विरोध करते हुए एक पत्र इंदिरा गाँधी के नाम तैयार किया. ऐसा
नहीं कि उससे कुछ निकला हो, पर देश में जो राजनीतिक
माहौल था उसे लेकर ऋषि दा बहुत चिंतित थे.” उल्लेखनीय
है कि अमिताभ बच्चन-रेखा अभिनीत ‘आलाप (1977)’ फिल्म की
असफलता के लिए वे आपातकाल को जिम्मेदार ठहराते थे. मुखर्जी की फिल्मोग्राफी में भी
इस फिल्म का जिक्र नहीं होता, लेकिन यह एक उल्लेखनीय फिल्म
है जहाँ अमिताभ 'स्टार' छवि से अलग एक
अभिनेता के रूप में सामने आते हैं.
इस फिल्म
में अमिताभ एक शास्त्रीय संगीत प्रेमी की भूमिका में हैं, जो पिता की
इच्छा के विरुद्ध जाकर वकालत नहीं करता है. यहाँ वकील पिता (ओम प्रकाश) एक
पितृसत्ता के रूप में आते हैं, जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा
है. आलोक (अमिताभ) कहता है: “मेरी जिंदगी कोई
झगड़े में फंसी जमीन तो नहीं है कि पिताजी कानूनी खेल दिखा कर उसके बारे में जो
चाहे फैसला कर लें. ये मुकदमा वो नहीं जीत सकते.” इस फिल्म
में एक कलाकार अन्याय के खिलाफ खड़ा है. प्रसंगवश, वर्ष 1977 में मनमोहन देसाई की ‘अमर अकबर
एंथनी’ फिल्म भी रिलीज हुई थी जो उस साल की सबसे सफल फिल्म रही थी. गीत-संगीत के
लिहाज से भी यह एक बेहतरीन फिल्म है. यहाँ ‘आलाप’ लेते अमिताभ ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं है बल्कि आलोक हैं! इससे पहले ‘अभिमान (1973)’ में वे जया भादुड़ी के साथ एक
गायक के रूप में दिखे थे.
70 के दशक
में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में मध्यवर्ग को संबोधित करती है. ‘चुपके-चुपके’,
‘गोल माल’, ‘गुड्डी’ में हास्य के साथ मध्यवर्गीय ताने-बाने, ड्रामा
को जिस खूबसूरती से उन्होंने रचा है, वह पचास वर्ष बाद
भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है. बिना ताम-झाम के कहानी कहने की
सहज शैली, सामाजिकता और नैतिकता का ताना-बाना उन्हें
समकालीन फिल्मकारों से अलग करता है. मध्यमार्गी सिनेमा के योगदान के लिए मुखर्जी
को वर्ष 1999 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उल्लेखनीय है
कि आनंद (1971) फिल्म से पहले मुखर्जी दिलीप कुमार, राज
कपूर, देवानंद, गुरुदत्त
जैसे अभिनेताओं को निर्देशित कर चुके थे.
मुखर्जी
जितने कुशल फिल्म निर्देशक थे उतने की कुशल संपादक भी. उन्होंने विमल रॉय की
चर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’, ‘मधुमती’ का
संपादन किया था. वे विमल रॉय की फिल्मों में सहायक निर्देशक भी थे. वर्ष 1957 में
वे पहली फिल्म ‘मुसाफिर’ के साथ निर्देशन के क्षेत्र में
उतरे पर राज कपूर-नूतन अभिनीत ‘अनाड़ी (1959)’ के निर्देशन के साथ उनकी प्रसिद्धि फैलती गई. उन्होंने करीब 40 फिल्मों का
निर्देशन किया और वर्ष 1998 में रिलीज हुई 'झूठ बोले
कौआ काटे' उनकी आखिरी फिल्म थी.
सिंह लिखते हैं कि एक बार सत्तर के दशक में कुमार शहानी ने मुखर्जी से पूछा था कि तकनीक और सिनेमा के अद्यतन सिद्धांतों की जानकारी के बावजूद वे और प्रयोगात्मक चीजों की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए? उन्होंने कहा था कि 'हमारा परिवेश एक सीमा के बाद इसकी इजाजत नहीं देता'. यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मुखर्जी की फिल्में बॉलीवुड की सीमा का अतिक्रमण कर संभावनाओं का विस्तार करती है. उनकी फिल्मों में जो जिंदगी का फलसफा है वह आज भी दर्शकों को अपनी ओर खींचता है.