The noted film-maker discusses IPTA’s achievements and growing rifts in Indian society.
Tuesday, May 30, 2023
Today’s Communalism is Worse Than Pre-Partition Times: MS Sathyu
The noted film-maker discusses IPTA’s achievements and growing rifts in Indian society.
Sunday, May 28, 2023
कान में मणिपुरी फिल्म 'इशानो'
मणिपुर के सिनेमा की चर्चा आम तौर पर मुख्यधारा के मीडिया में नहीं होती. मणिपुरी फिल्मों का हालांकि पचास साल पुराना इतिहास है. दुर्भाग्य से पिछले दिनों मीडिया में मणिपुर में हुई जातीय हिंसा की खबरें ही छाई रही. ऐसे में प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह (16-27 मई) में मणिपुर के प्रतिष्ठित फिल्मकार अरिबम स्याम शर्मा की फिल्म ‘इशानो’ का दिखाया जाना सुखद है. इसे समारोह के ‘क्लासिक खंड’ में दिखाया गया.
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित यह फिल्म वर्ष 1991 में कान समारोह में 'उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित की गई थी. ‘फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन’ और मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सहयोग से इस फिल्म को फिर से संजोया और संरक्षित किया गया है. अरिबम स्याम शर्मा के पोते ध्रुव शर्मा कहते हैं कि ‘इस फिल्म ने खुशी मनाने की हमें एक वजह दी है’.
इस समारोह में भाग लेने अरिबम स्याम शर्मा को जाना था, पर अस्वस्थ होने की वजह से वे नहीं गए. ध्रुव कहते हैं कि इस खबर से दादाजी बहुत ही खुश हैं. इस फिल्म के मुख्य अभिनेता कंगबाम तोम्बा बॉलीवुड के अभिनेताओं, निर्देशकों के संग कान में मौजूद थे और वहाँ ‘रेड कारपेट’ पर चहलकदमी करते हुए उनकी तस्वीरें दिखाई दी.
वर्ष 1936 में इंफाल में जन्मे शर्मा मणिपुर सिनेमा के ख्यात निर्देशक के साथ कुशल अभिनेता और संगीतकार भी हैं. ‘इशानो’ के अलावा ‘इमागी निंग्थेम’, ‘ओलांगथामी वांगमदुसू’, ‘सनाबी’ आदि उनकी चर्चित फिल्में हैं. इन फिल्मों को देश-विदेश में कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया है.
इशानो की कहानी के केंद्र में एक स्त्री थाम्फा (अनुबाम किरणमाला) है, जो मणिपुर के एक गाँव में अपने पति और बेटी के साथ रहती है. अचानक से उसके व्यक्तित्व में बदलाव दिखाई देता है. यह बदलाव उसे माइबी धार्मिक समुदाय की स्त्रियों के पास ले जाता है. वे गुरु की तलाश में अपने परिवार को छोड़ देती है. लोक में व्याप्त विश्वास, अध्यात्म के सहारे प्रेम और वियोग को खूबसूरती से यह फिल्म हमारे सामने लाती है. मैतेई भाषा में बनी इस फिल्म में मणिपुर के जीवन और संस्कृति से हम रू-ब-रू होते हैं. संगीत इस फिल्म का विशिष्ट पहलू है.
मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सचिव और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि ‘इशानो एक बेहद महत्वपूर्ण मणिपुरी फिल्म है जो मणिपुर के जीवन और जटिलताओं को सामने लाती है.’ उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा निर्माण की एक परंपरा रही है, हालांकि उनका बाजार बहुत छोटा है. वर्तमान में कई युवा फिल्मकार मणिपुरी में अच्छी फिल्में बना रहे हैं लेकिन संसाधनों के अभाव से वे जूझ रहे हैं. सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि ‘अत्याधुनिक तकनीक का हमारे पास अभाव है’. वे खास कर हाउबम पवन कुमार और रोमी मैतेई जैसे युवा निर्देशकों की तारीफ करते हैं. पिछले साल गोवा में हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में मणिपुर की फीचर और गैर-फीचर फिल्मों का प्रदर्शन किया गया था, जिसमें ‘इशानो’ भी शामिल थी.
उम्मीद करते हैं कि कान समारोह में 'इशानो' के प्रदर्शन के बाद दर्शकों की नजर मणिपुर के सिनेमा और समकालीन फिल्मकारों पर जाएगी.
Friday, May 19, 2023
हिंसा की खबर के बीच मणिपुर के फिल्म की कान समारोह में चर्चा
पिछले दिनों मणिपुर से लगातार जातीय हिंसा की खबरें आती रही है. ऐसे में प्रतिष्ठित कान अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के ‘क्लासिक खंड’ में मणिपुर की एक फिल्म का प्रदर्शन होना सुखद है. चर्चित फिल्मकार अरिबम स्याम शर्मा की फिल्म ‘इशानो’ क्लासिक खंड में दिखाई गई. उल्लेखनीय है वर्ष 1991 में कान समारोह में इसे ‘उन सर्टेन रिगार्ड’ में प्रदर्शित की गई थी. अरिबम स्याम शर्मा के पोते ध्रुव कहते हैं कि ‘इस फिल्म ने खुशी मनाने की हमें एक वजह दी है’.
इस समारोह में भाग लेने अरिबम स्याम शर्मा को
जाना था, पर अस्वस्थ होने की वजह से वे नहीं गए.
साथ ही बात करने में भी वे असमर्थ हैं. हालांकि ध्रुव कहते हैं कि इस खबर से
दादाजी बहुत ही खुश हैं. इस फिल्म के मुख्य अभिनेता कंगबाम तोम्बा बॉलीवुड के
अभिनेताओं, निर्देशकों के संग कान में मौजूद हैं
और वहां ‘रेड कारपेट’ पर चहलकदमी करते हुए उनकी तस्वीरें
दिखाई दे रही हैं.
1936 में इंफाल में जन्मे शर्मा मणिपुर सिनेमा के
ख्यात निर्देशक के साथ एक संगीतकार भी हैं, जिनकी फिल्में दुनिया भर के फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी हैं. ‘इशानो’ के अलावा ‘इमागी
निंग्थेम’, ‘ओलांगथामी वांगमदुसू’, ‘सनाबी’ आदि उनकी चर्चित फिल्में हैं. इन फिल्मों को देश-विदेश में कई
पुरस्कारों से भी नवाजा गया है.
‘इशानो’ की
कहानी के केंद्र में एक महिला थाम्फा (अनुबाम किरणमाला) है, जो मणिपुर के एक गांव में अपने पति और
बेटी के साथ रहती है. अचानक से उसके व्यक्तित्व में बदलाव दिखाई देता है. यह बदलाव
उसे माइबी धार्मिक समुदाय की स्त्रियों के पास ले जाता है. वे गुरु की तलाश में
अपने परिवार को छोड़ देती है. लोक में व्याप्त विश्वास, तंत्र-मंत्र के सहारे प्रेम और वियोग
को खूबसूरती से यह फिल्म हमारे सामने लाती है. मैतेई भाषा में बनी इस फिल्म में
मणिपुर के जीवन और संस्कृति से हम रू-ब-रू होते हैं.
‘फिल्म हेरिटेज फाउण्डेशन’ और मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के सहयोग से इस फिल्म को
फिर से संजोया और संरक्षित किया गया है. मणिपुर स्टेट फिल्म डेवलपमेंट सोसाइटी के
सचिव और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते
हैं कि उनकी संस्था मणिपुर की फिल्म विरासत को संभालने में लगी हैं.
बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि ‘इशानो’ एक बेहद महत्वपूर्ण मणिपुरी फिल्म है जो मणिपुर के जीवन और जटिलताओं
को सामने लाती है.’ अभी
यह फिल्म आम दर्शकों के लिए उपलब्ध नहीं है, लेकिन बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि कान और अन्य फिल्म समारोहों मे दिखाई
जाने के बाद यह ओटीटी प्लेटफॉर्म पर भी आएगी.
उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा निर्माण की एक
लंबी परंपरा रही है, हालांकि
उनका बाजार बहुत छोटा है. यह एक वजह है कि राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में इन
फिल्मों की चर्चा नहीं हो पाती. उल्लेखनीय है कि मणिपुर सिनेमा का इतिहास पचास साल
पुराना है. वर्ष 1972 में बनी ‘मातमगी मणिपुर’ पहली फिल्म थी, जिसे देवकुमार बोस ने निर्देशित किया
था. प्रसंगवश, इस फिल्म में अरिबम स्याम शर्मा की
प्रमुख भूमिका थी. इस फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म समारोह में राष्ट्रपति पदक से
सम्मानित किया गया. पिछले साल मणिपुरी सिनेमा की स्वर्ण जयंती मनाई गई थी. साथ ही
गोवा में हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में मणिपुर की फीचर
और गैर-फीचर फिल्मों का प्रदर्शन भी किया गया था, जिसमें ‘इशानो’ भी शामिल थी.
वर्तमान में कई युवा फिल्मकार मणिपुरी में फिल्म बना रहे हैं लेकिन संसाधन के अभाव से वे जूझ रहे हैं. सुंजू बाचस्पतिमयूम कहते हैं कि ‘हमारे फिल्म निर्देशक का ध्यान बाहर के बाजार पर नहीं है और इस वजह से वे कई बात उतनी उत्कृष्ट फिल्म नहीं बन पाते हैं. अत्याधुनिक तकनीक का भी हमारे पास अभाव है.’ फिर भी डिजिटल तकनीक के सहारे पिछले कुछ सालों में युवा फिल्मकार ने अच्छी फिल्में बनाई हैं जिसकी फिल्म समारोहों में चर्चा भी हुई है. वे खास कर हाउबम पवन कुमार (लोकटक लैरेम्बी) और रोमी मैतेई (स्नेक अंडर द बेड) जैसे निर्देशकों की तारीफ करते हैं.
सिनेमा किसी भी समाज की संस्कृति, परंपरा को बिंबो, ध्वनियों के माध्यम से संग्रिहत करने
और संजोने का काम करता है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की फिल्मों में
उत्तर-पूर्व की संस्कृति नहीं दिखती है. साथ ही वहाँ के कलाकार भी गिने-चुने ही
जगह बना पाते हैं.
हम उम्मीद करते हैं कि कान अंतरराष्ट्रीय फिल्म
समारोह में ‘इशानो’ फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों की नजर मणिपुर के सिनेमा और
समकालीन फिल्मकारों पर जाएगी.
Sunday, May 14, 2023
एक प्रतिबद्ध,प्रयोगधर्मी फिल्मकार की जन्मशती: मृणाल सेन का सिनेमा
दादा साहब
फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) का आज (14 मई) सौवां जन्मदिन है. पिछले दिनों
इंडिया हैबिटेट सेंटर के फिल्म समारोह में ‘मृणाल सेन रेट्रोस्पेक्टिव’ के तहत उनकी तीन फिल्में-‘एक दिन प्रतिदिन’, ‘एक दिन अचानक’ और ‘खंडहर’ दिखाई गई.
दो साल
पहले एक इंटरव्यू के दौरान जब मैंने मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर
गोपालकृष्णन से उनकी पसंदीदा फिल्मों के बारे में पूछा था तब उन्होंने सत्यजीत रे
की 'अपू त्रयी', 'अपराजितो' के साथ मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और ऋत्विक घटक की 'मेघे ढाका तारा' का जिक्र किया था. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के
अद्वितीय चितेरे सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समकालीन थे. ऋत्विक घटक की ‘नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की ‘पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म ‘रात भोर’ (1956) लेकर आते हैं, लेकिन जहां सत्यजीत रे को
दुनियाभर में पहली फिल्म के साथ ही एक पहचान मिल गयी, वहीं मृणाल सेन को लंबा इंतजार करना पड़ा था.
वर्ष 1969
में आयी हिंदी फिल्म ‘भुवन शोम’ ने भारतीय सिनेमा में सेन को स्थापित कर दिया.
विषय-वस्तु और प्रस्तुति में नवीनता लेकर आई यह फिल्म हिंदी में ‘उसकी रोटी
(मणि कौल)’ और ‘सारा आकाश
(बासु चटर्जी)’ के साथ समांतर सिनेमा (न्यू वेव) का
सूत्रपात करने वाली फिल्म साबित हुई. सेन ने न सिर्फ बांग्ला और हिंदी बल्कि
ओड़िया (माटिर मानिष) और तेलुगू में भी फिल्म बनाई. प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफन
पर आधारित तेलुगू फिल्म ‘ओका उरी कथा’ (1977) हमें गहरे उद्वेलित करती है. इस फिल्म का पात्र
वेंकैया कहता है कि ‘यदि हम
काम नहीं करें, तो भूखे
रहेंगे, वैसे ही
जैसे बेहद कम पगार पर काम करनेवाला मजदूर भूखा रहता है. तो फिर काम क्यों करना?’ उन्होंने बंटे हुए समाज में श्रम
के सवाल को केंद्र में रखा है. भूख और मानवता के लोप को निर्ममता के साथ दर्शाया है.
मृणाल सेन
राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध फिल्मकार थे. पचास साल के अपने फिल्मी जीवन में
उन्होंने 28 फीचर फिल्में बनाई. उनकी सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों वाली फिल्मों में
मानवता, नैतिकता और सत्य की तलाश मुखर होकर सामने आती है.
‘एक दिन
प्रतिदिन (1979)’ उनकी सिनेमा यात्रा में एक अहम मोड़ लेकर आया. इससे पहले वे नक्सलबाड़ी आंदोलन
की पृष्ठभूमि में कोलकाता को केंद्र में रखकर ‘इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 1971’ (1972) और ‘पदातिक’ (1973) नाम से फिल्म त्रयी बना चुके थे, जो उस दौर की
हिंसक राजनीति, युवाओं के
सपने और हताशा को परदे पर चित्रित करती है. साथ ही उनकी फिल्में गरीबी, सामाजिक न्याय, सत्ता के दमन और भूख के सवालों को हमारे सामने रखती
हैं. इन फिल्मों में दर्शकों से निर्देशक का सीधा संवाद है. यहाँ मृणाल सेन
ब्रेख्तियन तकनीक का इस्तेमाल करते हैं. वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक
उद्वेलित हों.
सेन कभी
मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य नहीं रहे. हां, ऋत्विक घटक की तरह ही इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन
(इप्टा) के साथ उनका जुड़ाव रहा था.
‘एक दिन प्रतिदिन’ में मार्क्सवादी राजनीति से इतर एक
युवती को वे केंद्र में रखते हैं, जो सात लोगों के
परिवार का भरण-पोषण करती है. एक रात जब वह दफ्तर से घर नहीं लौटती है तब (उसकी बहन
को छोड़) आस-पड़ोस से लेकर घर-परिवार के लोग भी उसे संदेह की नज़र से देखते हैं.
उसके संबंधों को लेकर टीका-टिप्पणी करते हैं. कुशलक्षेम की चिंता कोई नहीं करता! एक स्त्री की स्वतंत्रता, अस्तित्व का सवाल
हमें गहरे मथती है. इस फिल्म के निर्माण की पद्धति पहले से भिन्न है. कथा संरचना
में एक प्रवाह में है. यहाँ कोई फ्रीज शॉट या एनिमेशन
नहीं दिखता है.
इस फिल्म में जिस तरह से उन्होंने हवेली के ‘स्पेस’ को फिल्माया है वह अद्भुत है. साथ ही ‘क्लोज अप’ के माध्यम से वे पात्रों की भाव-भंगिमा, अंतर्मन की बुनावट को कुशलता से सामने लाते हैं. कैमरा की गति इस फिल्म को एक लय में रचती है. साथ ही पूरे फिल्म में दर्शक की उत्सुकता यह जानने में रहती है कि आखिरकार वह स्त्री रात भर रही कहां! इस संदर्भ में चर्चित फिल्म समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता ने सेन के हवाले से लिखा है कि इस फिल्म को देखने के बाद सत्यजीत रे उन्हें फोन कर पूछा कि ‘रात भर लड़की कहाँ थी? सेन का जवाब था, ‘ मुझे नहीं पता’, जिस पर रे ने कहा: ‘तुम डायरेक्टर हो, जानना तुम्हारा व्यापार है.’ चिदानंद टिप्पणी करते हैं कि यह कहानी उन दो निर्देशकों के बीच जो अंतर है उसे किसी भी चीज से ज्यादा स्पष्ट रूप से हमारे सामने रखती है. सेन का सौंदर्य बोध रे से अलहदा था. वे कलात्मकता के पीछे कभी नहीं भागे. रे की ‘गीतात्मक मानवता’ भी उन्हें बहुत रास नहीं आती थी. साथ ही ऋत्विक घटक के मेलोड्रामा से भी उनकी दूरी थी.
‘एक दिन
अचानक’, ‘खारिज’ फिल्म में 'एक दिन प्रतिदिन' ही तरह ही अनुपस्थिति के सहारे उपस्थिति का वृत्तांत जिस कौशल से सेन ने
रचा है, वह भारतीय सिनेमा में दुर्लभ है. यहाँ व्यक्ति
के अंतर्जगत और बहिर्जगत के साथ मध्यवर्ग की नैतिकता, चिंता और पाखंड को हम देखते हैं.
मृणाल सेन ने सिनेमा माध्यम को लेकर जितने प्रयोग किए, कथा कहने की जो प्रविधि अपनाई वह अद्वितीय है. यही वजह है कि तकनीक क्रांति के इस दौर में उनकी फिल्में युवा फिल्मकारों को अपने करीब लगती है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
दो पाटों में बिखरा प्रेम: पोखर के दुनू पार
कवि आलोकधन्वा ने अपनी चर्चित कविता में वर्षों पहले पूछा था- क्या उस रात की याद आ रही है/जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी/जब भी कोई लड़की घर से भागती थी? युवा निर्देशक पार्थ सौरभ की फिल्म ‘पोखर के दुनू पार’ में प्रियंका (तान्या खान झा) और सुमित (अभिनव झा) भाग कर वापस लौटते हैं, अपने शहर-दरभंगा. घर नहीं, युवा दंपत्ति को मार्क्सवादी पार्टी के हॉस्टल में ठौर मिलती है.
यहाँ रातें नहीं है. बादलों के घेरे हैं, चारों तरफ अंधेरा है. यह अंधेरा कोरोना के बाद ‘लॉकडाउन’ से उपजा है. छोटे शहरों में ‘लॉकडाउन’ समय से परे है, बात जब स्त्रियों की स्वतंत्रता की हो.
पार्थ सौरभ की यह पहली फिल्म है. वे एक संभावनाशील निर्देशक के रूप में सामने आते हैं. इससे पहले अचल मिश्र ने मैथिली में ‘गामक घर’ और ‘धुइन’ फिल्म के लिए भी दरभंगा का समाज चुना था. जहाँ ‘गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती है, वहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है. ‘धुइन’ में बेरोजगारी की समस्या है, ‘पोखर के दुनू पार’ में भी मूल समस्या रोजगार की ही है, लेकिन ताना-बाना प्रेम का है. इस फिल्म की भाषा हिंदी है.
दिल्ली में नौकरी छूटने पर सुमित दरभंगा लौट कर दोस्तों के साथ मशगूल है. उसे नमक, तेल, हल्दी की फिक्र नहीं है. उसके दोस्त भी उसकी तरह ही कुछ काम नहीं करते. वैसे भी, क्या उनको नौकरी मिल रही है?
प्रियंका के सपने हैं, वह आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली लौटना चाहती है, लेकिन कैसे? दरभंगा जैसे समाज में प्रेम दो युवाओं की स्वतंत्र इच्छा नहीं, बल्कि आज भी विद्रोह है. ऐसे में उनके लिए नाते-रिश्ते, घर-परिवार के रास्ते बंद हो जाते हैं. प्रियंका वापस 'घर' लौटना चाहती है, पर पिता की शर्त है कि वह अकेले आए, बिना सुमित के! फिल्म में प्रियंका अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को तैयार नहीं दिखती. क्या यह प्रेम शौकिया था? क्या पूंजीवादी समाज में बिना संघर्ष के प्रेम संभव है?
यह फिल्म कोई जवाब नहीं देती है. बहुत सारे सवाल छोड़ जाती है. एक तरह से दरभंगा की सामाजिक-सांस्कृतिक हालात पर तल्ख टिप्पणी है. यहाँ विभिन्न शहरों को जाने वाली रेल है, हवाई अड्डा है, विश्वविद्यालय और लड़कियों के लिए साठ साल पुराना कॉलेज हैं, लेकिन सोच सामंती है.
फिल्म में बारिश के जो दृश्य हैं वह वियोग को दर्शाते हैं. यहाँ संयोग में भी वियोग है! साथ ही कुछ दृश्य जीवन के ठहराव, घुटन को इंगित करने में सफल हैं. एक दृश्य में चहबच्चे में आधा डूबा एक मिनी बस है. एक रिक्शा है जिसमें पहिए नहीं है. रास्ता है, पर मंजिल नहीं. यह फिल्म रास्ते पर ही जाकर खत्म होती है. ऐसे में क्या पलायन ही एकमात्र उपाय है? और जो चाह कर भी भाग नहीं पाते, उनका क्या भविष्य है? सवाल यह भी है समाज में प्रेम का क्या भविष्य है?
Sunday, May 07, 2023
अभिनेता इरफान की आखिरी फिल्म
काश, अनूप सिंह द्वारा निर्देशित ‘द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस’ इरफान (1967-2020) के रहते रिलीज होती! यह फिल्म लोकार्नो,
सिंगापुर अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में वर्ष 2017 में ही दिखाई
जा चुकी थी, लेकिन इसे भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज होने के
लिए लंबा इंतजार करना पड़ा.
इरफान की तीसरी पुण्यतिथि पर अंततः यह फिल्म भारत में रिलीज हुई है. लोग
अपने प्रिय अभिनेता को फिर से याद कर रहे हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी)
से प्रशिक्षित इरफान एक ऐसे फिल्म अभिनेता थे, जिनके अभिनय कौशल की
चर्चा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई. उनकी हँसी, आँखों की भाव-भंगिमा, संवाद अदायगी का
अंदाज उन्हें आम दर्शकों के करीब ले आता था. ‘द सॉन्ग ऑफ
स्कॉर्पियंस’ में भी उनके सहज अभिनय के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं.
उनकी संवाद अदायगी में एक लय है और चाल-ढाल में एक राग.
राजस्थान (जैसलमेर) में अवस्थित इस फिल्म की कहानी एक दंतकथा के सहारे बुनी
गई है, जिसके केंद्र में बिच्छुओं के डंक को अपने गीत के
सहारे दूर करने वाली दादी जुबैदा (वहीदा रहमान) और उसकी खूबसूरत पोती नूरन
(गोलशिफतेह फरहानी) है. उनके जीवन में गीत है, वहीं रेगिस्तान में
ऊंट का व्यापारी आदम (इरफान) के जीवन में न सुर है, न संगीत! आदम की नजर
नूरन पर टिकी है. वह किसी भी सूरत में उसे पाना चाहता है.
नूरन के मन में भी आदम के प्रति एक आकर्षण है, लेकिन
उसे पाने की चाहत आदम को हिंसा की तरफ मोड़ती है. नूरन से जीवन छीन जाता है. संगीत
छूट जाता है. क्या आदम को नूरन मिलती है? फिल्म ‘प्रेम की पीर’ को सूफियाने ढंग से, धोरों के बीच गीत के सहारे आगे ले जाती है. इसकी भाव-भूमि हालांकि सामंती
नहीं, हमारा आधुनिक समाज है. यहां हिंसा है, छल-प्रपंच है. आधुनिक समय में भी स्त्री को लेकर सामंती दृष्टि कायम है. इस
फिल्म में इरफान का किरदार सफेद और स्याह दोनों ही रंग लिए हुए हैं.
अनूप सिंह एक ऐसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार हैं जहाँ भूगोल और लैंडस्केप का
काफी महत्व है. इस फिल्म के बारे में बातचीत करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था: “रेगिस्तान में जहर और बाम दोनों होते हैं. हम रेगिस्तान को कैसे देखना
चुनते हैं, शायद यह हमें बताता है कि हम खुद को कैसे देखते हैं.
हम क्या देखना चुनते हैं- बिच्छू या गीत?”
अनूप सिंह के इस वक्तव्य के सहारे यदि हम आदम के चरित्र को देखें तब पता
चलता है कि क्यों आदम के प्रति दर्शकों के मन में कोई विद्वेष नहीं रह पाता. इससे
पहले वर्ष 2013 में अनूप सिंह इरफान के साथ ‘किस्सा’ (द टेल ऑफ ए लोनली घोस्ट) बना चुके थे, जिसकी काफी चर्चा भी
हुई. पिछले साल अपने अभिनेता मित्र को याद करते हुए उन्होंने ‘इरफान: डॉयलाग्स विद द विंड’ किताब भी लिखी थी. इस किताब को पढ़ने पर एक अभिनेता
के रूप में इरफान की तैयारी, कार्यशैली और उनका क्राफ्ट सामने आता है. इरफान एक ऐसा संभावनाशील अभिनेता
थे, जिन्हें अभी लंबा सफर तय करना था. आज जब इरफान हमारे बीच
नहीं हैं, इस फिल्म से बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती.