हिंदी में लुगदी साहित्य की चर्चा गाहे-बगाहे होती है, पर लुगदी सिनेमा का जिक्र नहीं होता. असल में मुख्यधारा (पॉपुलर) और समांतर (पैरलल) के बीच सिनेमा की एक और धारा हिंदी में रही है जिसे ‘पल्प सिनेमा’ कहा जाता रहा है.
Wednesday, January 25, 2023
पल्प की शोधपरक कहानी: सिनेमा मरते दम तक
हिंदी में लुगदी साहित्य की चर्चा गाहे-बगाहे होती है, पर लुगदी सिनेमा का जिक्र नहीं होता. असल में मुख्यधारा (पॉपुलर) और समांतर (पैरलल) के बीच सिनेमा की एक और धारा हिंदी में रही है जिसे ‘पल्प सिनेमा’ कहा जाता रहा है.
Sunday, January 22, 2023
'आरआरआर’ से ऑस्कर की उम्मीद
पैन नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को मार्च में होने वाले 95वें ऑस्कर पुरस्कार के लिए भले ही शॉर्टलिस्ट किया गया हो, लेकिन सबकी नज़र एस एस राजामौली की तेलुगू फिल्म ‘आरआरआर’ पर है. भारत की ओर से ‘छेल्लो शो’ फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटू-नाटू’ को ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की श्रेणी में शॉर्टलिस्ट किया गया है. गौरतलब है कि अभी तक किसी भी भारतीय फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार नहीं मिल सका है, जबकि दुनिया में आज सबसे ज्यादा फीचर फिल्म भारत में ही बनती हैं.
Friday, January 13, 2023
‘गोल्डन ग्लोब’ में नाटू-नाटू की सफलता और विस्मृति में एम एम करीम
तेलुगू फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटू-नाटू’ को सर्वश्रेष्ठ ‘ओरिजिनल सॉन्ग-मोशन पिक्चर’ श्रेणी में प्रतिष्ठित ‘गोल्डन ग्लोब’ पुरस्कार मिला है. ‘नाटू नाटू’ के संगीतकार एम. एम. कीरावानी हैं और इसे काल भैरव और राहुल सिप्लिगुंज ने स्वर दिया है. ‘बाहुबली’ फेम के एस एस राजामौली की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफलता के परचम फहराने के बाद पश्चिमी देशों के फिल्म समारोहों में अपनी दावेदारी पेश कर रही है. मार्च में होने वाले प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार समारोह के लिए भी ‘नाटू-नाटू’ को ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट किया गया है.
बॉलीवुड सहित दक्षिण भारतीय सिनेमा में ‘स्टार’ पर इतना जोर रहा है कि समीक्षक गीत-संगीत पर कम ही बात करते हैं, जबकि गीत-संगीत का फिल्मों में केंद्रीय महत्व रहा है. कई फिल्म तो बॉक्स ऑफिस पर असफल होने के बाद भी सिर्फ गीत-संगीत की वजह से ही लोगों के जुबान पर दशकों बाद भी रहती आई है. खुद एम. एम. कीरावानी हिंदी प्रदेश के लिए अपरिचित नाम नहीं है. एम एम करीम नाम से उन्होंने पिछली सदी के नब्बे के दशक में कुछ हिंदी फिल्मों में बेहतरीन संगीत दिया है. ‘तुम मिले दिल खिले और जीने को क्या चाहिए (क्रिमनल)’, ‘चुप तुम रहो चुप हम रहें, खामोशी को खामोशी से ज़िंदगी को ज़िंदगी से बात करने दो (इस रात की सुबह नहीं)’, ‘जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला (जख्म)’ जैसे गीत आज भी लोगों को याद हैं, भले करीम को भूल गए! इस विस्मृति के क्या कारण हैं?
आरआरआर एक ‘एक्शन ड्रामा’ फिल्म है जिसे इतिहास, मिथक के इर्द-गिर्द भव्य स्तर पर रचा गया है. जिस ताम-झाम और तकनीक (वीएफएक्स) कौशल का यह सहारा लेती है उसका इस्तेमाल हॉलीवुड वर्षों से करता रहा है. असल में आरआरआर फिल्म के वितरण और प्रचार-प्रसार ने इसे देश-विदेश के एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाया है. पिछले दिनों लॉस एंजेलिस (अमेरिका) में प्रदर्शन के दौरान इस फिल्म के प्रति लोगों में जो उत्साह था वह सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी रही. पिछले दिनों जर्मनी के एक समाजशास्त्री, प्रोफेसर माइकल बौरमैन ने मुलाकात के दौरान जब आरआरआर के बारे में बातचीत की तो मुझे आश्चर्य हुआ था. हालांकि उनकी दिलचस्पी के केंद्र में फिल्म में जिस तरह से राष्ट्रवाद को परोसा गया है वह थी. इस फिल्म की राजनीति पर बात नहीं होती. फिल्म में अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई के दौरान जिस तरह धार्मिक मिथकों, प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है वह आलोचना से परे नहीं है.
बहरहाल, पिछली सदी में उदारीकरण-भूमंडलीकरण के बाद यह चिंता जताई जा रही थी कि हॉलीवुड, अमेरिकी पॉप म्यूजिक कहीं भारतीय समाज को अपने घेरे में न ले ले. अखबारों-पत्रिकाओं में एमटीवी, विसंस्कृतिकरण के खतरे के बारे में लेख लिखे जा रहे थे. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मंच में एक भारतीय फिल्म की मौजूदगी और पुरस्कृत होना उल्टी बयार को दिखाता है. भूमंडलीकरण भारतीय फिल्मों के लिए अवसर भी लेकर आया है जहाँ उसकी प्रतिस्पर्धा विश्व के बेहतरीन फिल्मकारों के साथ है.
यहां पर यह नोट करना उचित होगा कि कीरावानी की प्रतिस्पर्धा टेलर स्विफ्ट, रिहाना और लेडी गागा जैसे चर्चित संगीतकारों से थी. ऐसे में उनकी इस जीत को कम कर नहीं आंकना चाहिए. हालांकि संगीत के जानकारों का मानना है कि कीरावानी (करीम) का यह सर्वश्रेष्ठ नहीं है, न ही भारतीय सिने संगीत का सर्वश्रेष्ठ ही है.निस्संदेह एनटीआर जूनियर और राम-चरण ने नाटू-नाटू गाने में डांस के माध्यम से जो ऊर्जस्विता दिखाई है वह लोगों को लुभाता है. इंटरनेट और सोशल मीडिया ने इस गाने को फिल्म से अलग जीवन प्रदान किया है.
हिंदी के कवि और सिनेमा के गहरे जानकार विष्णु खरे ने एक जगह लिखा है: “1950-60 के बाद फिल्म संगीत ने भारतीय युवक-युवतियों की निम्न मध्यवर्गीय भावनाओं को जो अभिव्यक्ति दी है, वह विश्व के किसी भी लोकप्रिय संगीत में मिलना असंभव है.” हिंदी फिल्मों की ही बात करें तो कई ऐसे संगीत निर्देशक हुए हैं जिनके भावपूर्ण गीत-संगीत दशकों से लोगों के दिलों पर राज करती हैं और लोक स्मृति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. यह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भारतीय फिल्म संगीतकारों को और बेहतरीन संगीत रचने को प्रेरित करेगा. साथ ही उम्मीद की जानी चाहिए कि बॉलीवुड कीरावानी (करीम) की प्रतिभा का समुचित इस्तेमाल कर पाएगा.
Sunday, January 08, 2023
सिनेमा का सम्मोहन: एक फिल्मकार की स्मृतियों में ‘छेल्लो शो’
सिनेमा का सम्मोहन किसमें होता है? देखने वालों में, जिसे सहृदय कहा जाता है. हालांकि यह सम्मोहन साहित्य या चित्रकला से अलग होता है. सिनेमा संगीत की तरह समय में आबद्ध होता है, पर असल में सिनेमा एक ऐसी कला है जिसमें तकनीक का हस्तक्षेप रहता है. यही कारण है कि तकनीक बदलने के साथ फिल्में पुरानी भी पड़ जाती है. मसलन पचास साल पहले फिल्में भले अच्छी बनी हो लेकिन वह आज हमें उस रूप में आकर्षित नहीं करती जिस रूप में वह रिलीज होने के वक्त थी. अपवाद भले हों. फिल्में हालांकि हमारी स्मृतियों का हिस्सा बनी रहती हैं.
पिछली पीढ़ी के पास सिनेमा देखने के अपने किस्से हैं. हाल ही में टेलीविजन पर ‘खानदान’ (1965) फिल्म देखते हुए माँ ने कहा कि ‘यह फिल्म मेरी शादी के आस-पास रिलीज हुई थी. तुम्हारे पापा ने इसे दरभंगा में देखा था और मुझसे देखने कहा था. मैंने इसे गाँव के पास के कस्बे सकरी के सिनेमा घर में देखा था. उस समय एक रुपए का टिकट होता था.’ अब जब पापा नहीं रहे यह फिल्म माँ की स्मृतियों में नॉस्टेलजिया की तरह आया है. सवाल है कि एक फिल्मकार किस रूप में सिनेमा के साथ अपने संबंध को देखता है? जाहिर है एक निर्देशक पर सिनेमा का जादू आम दर्शक से भिन्न होता है.
पैन नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को ऑस्कर के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया है. भारत की ओर से यह फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. ‘छेल्लो शो’ नौ साल के ऐसे बच्चे की कहानी है जो आगे चल कर एक फिल्मकार बनता है. उस बच्चे के सिनेमा के प्रति सम्मोहन, दुर्निवार आकर्षण को फिल्म खूबसूरत ढंग से चित्रित करती है. एक निश्छलता है यहां.
इस फिल्म से पहले ‘संसार (2001)’ और ‘वैली ऑफ फ्लावर (2006)’ से पैन नलिन की अंतरराष्ट्रीय फिल्म जगत में काफी प्रतिष्ठा मिली थी. दोनों ही फिल्में सेक्स के अकुंठ चित्रण को ले कर दर्शकों के बीच काफी चर्चा में रही थी. ये फिल्में फ्रांस, जापान और जर्मनी के सहयोग से बनी थी, जो पश्चिमी दर्शक वर्ग के लिए बनाई गई प्रतीत होती है. इसके उलट ‘छेल्लो शो’ में एक कस्बाई बच्चा, समय, सिनेमा के जादू में इस कदर गिरफ्तार है कि उसे पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता. गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में वह स्कूल से भाग कर, रेल पकड़ कर नजदीक के कस्बे में सिनेमा देखने आता है. यहाँ उसकी दोस्ती एक प्रोजेक्शनिस्ट (जो प्रक्षेपण के माध्यम से परदे पर सिनेमा दिखाने के लिए जिम्मेदार होता था) से होती है. अपने ‘लंच बॉक्स’ की अदला-बदली से उसे मुफ्त में फिल्म को देखने मिल जाती है. यहाँ वह प्रकाश और फिल्म के खेल को समझता है.
इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. यहाँ रेल की यात्रा सिनेमा की यात्रा प्रतीत होती है. असल में, यह एक आत्म-कथात्मक फिल्म है. पैन नलिन आज अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्म निर्देशक हैं. उनका जन्म गुजरात के एक गाँव में हुआ. पिता रेलवे कैंटीन चलाते थे और उनका बचपन रेलगाड़ी के सानिध्य में बीतता था. सिनेमा बनाने की इच्छा ने उन्हें आगे के अध्ययन के लिए बड़ौदा जाने को प्रेरित किया.
समय (भाविन रबारी) अपने पिता से कहता है: “मैं प्रकाश का अध्ययन करना चाहता हूँ. प्रकाश से वार्ता (स्टोरी) बनती है. और वार्ता से फिल्म.” यह फिल्म जहाँ एक निर्देशक के आत्म का निरूपण है वहीं सिनेमा प्रक्षेपन की तकनीक में आए बदलाव को भी खूबसूरती से दिखाती है. साथ ही रील से गायब होने से एक फिल्मकार की नजर में रंगों की दुनिया कैसी बदली इसे भी आखिर में कलात्मकता के साथ फिल्माया गया है. यहाँ संवाद बेहद कम हैं. सिनेमा का समाज में ‘आर्काइवल’ (संग्रहण) महत्व भी है, ‘छेल्लो शो’ फिल्म यह बखूबी हमारे सामने लेकर आती है.
पिछली सदी के आखिरी दशक में भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीक ने समाज के हर हिस्से को प्रभावित किया है. सिनेमा पर इसका प्रभाव खास तौर पर पड़ा. न सिर्फ सिनेमा बनाने की तकनीक (सेल्यूलाइड से डिजिटल की यात्रा) को इसने प्रभावित किया है, बल्कि वितरण, सिनेमा देखने-दिखाने को भी. अब सिनेमा देखने के लिए सिनेमाहॉल के बंद कमरे की जरूरत नहीं रही, इसे घर बैठे टेलीविजन, मोबाइल-लैपटॉप पर बार-बार देखा जा सकता है. बार-बार इसे स्ट्रीम किया जा सकता है. ‘छेल्लो’ शो भी सिनेमाहॉल से उतर कर आज नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. इस फिल्म में प्रोजेक्शनिस्ट फजल समय से कहता है कि ‘भविष्य कहानी कहने वालों की है’. सिनेमा का भविष्य भी बदलते तकनीक से जुड़ा है. कहानी किस रूप में कही जाएगी यह भी भविष्य के गर्भ में है, पर एक बात स्पष्ट है कि कहानी कहने का वही रूप नहीं रह जाएगा जो डिजिटल के पहले था.
यह फिल्म एक तरह से पूर्व के फिल्मकारों को श्रद्धांजलि भी है. अनायास नहीं कि आखिर में हम सत्यजीत रे, गुरुदत्त, फेलिनी, गोदार, आजेंस्टाइन, चार्ली चैपलिन जैसे फिल्मकारों का नाम सुनते हैं. ‘छेल्लो शो’ देखते हुए इटालियन निर्देशक जिएसेपे टोर्नटोर की ऑस्कर विजेता फिल्म ‘सिनेमा पैराडिसो’ (1988) की याद आती है. विषय-वस्तु में समानता भले दिखे, गुजरात का लैंडस्केप, रंग और ध्वनि इस फिल्म को ठेठ भारतीय बनाता है. गुजराती फिल्म का इतिहास भारतीय सिनेमा जितना ही पुराना है, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में इसकी चर्चा नहीं होती.
Sunday, January 01, 2023
प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकारों का सिनेमा
बॉलीवुड और हाल की पापुलर दक्षिण भारतीय फिल्मों की सफलता की पीछे वितरण का तंत्र और प्रचार का भारी योगदान रहा है, जिसका लाभ प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकार नहीं उठा पाते हैं. उनके पास प्रचार के लिए बजट नहीं होता. जब अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इन फिल्मकारों की चर्चा होती है, तब ही मुख्यधारा के मीडिया में इन्हें नोटिस लिया जाता है.