Friday, March 24, 2023

क्या ‘द एलीफेंट व्हिस्परर्स' की सफलता डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन का रास्ता खोलेगी?


भारत के हिस्से आई ऑस्कर पुरस्कारों की चर्चा सब तरफ है, जिसका इंतजार दशकों से था. 95वें ऑस्कर समारोह में 'आरआरआर' फिल्म के 
नाटू-नाटू गाने से काफी उम्मीद थी, पर द एलीफेंट व्हिस्परर्स' डॉक्टूमेंट्री (शार्ट) के लिए कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिला ऑस्कर बहुत से लोगों के लिए अप्रत्याशित है. इसके साथ ही अचानक सिनेमा प्रेमियों, समीक्षकों का ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. नेटफ्लिक्स पर इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को देखने वालों की होड़ लगी है. मुदुमलाई नेशनल पार्क में स्थित इस वृत्तचित्र के केंद्र में एक हाथी (रघु) और उसे पालने वाले आदिवासी समुदाय के बोम्मन और बेली हैं. बेहद संवेदनशीलता से यह वृत्तचित्र पर्यावरण, वन्यजीवों के संरक्षण, इंसान और जानवरों के बीच आत्मीय संबंध को दिखाती है.

ऑस्कर पुरस्कार की घोषणा से पहले इस कॉलम में मैंने लिखा था कि इस बार डॉक्यूमेंट्री फिल्मों से काफी उम्मीद है. द एलीफेंट व्हिस्परर्सके साथ-साथ शौनक सेन की ऑल दैट ब्रीदस (फीचर) की भी ऑस्कर पुरस्कार के लिए दावेदारी थी. ऑल दैट ब्रीदस की तरह पिछले साल भी रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायरको ऑस्कर के डॉक्यूमेंट्री (फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. पिछले कुछ सालों में देश में युवा वृत्तचित्र फिल्मकारों का एक समूह उभरा है जिसने दुनियाभर के फिल्मकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा है.

असल में, नई तकनीक की उपलब्धता ने भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को प्रेरित किया है. पिछले दिनों रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष ने लिखा कि जब उनसे स्टीवन स्पीलबर्ग ने पूछा कि उनकी फिल्म की यात्रा में सबसे ज्यादा चकित करने वाली क्या बात रही?’ उन्होंने कहा था कि एक बैकपैक में समा जाने वाले साजो-समान के साथ तीन लोगों की एक टीम ने इस फिल्म पर काम किया, जो ऑस्कर के लिए नॉमिनेट हुई है!’ स्पीलबर्ग ने इस पर आश्चर्य जाहिर किया था.

पर ऐसा नहीं कि भारतीय वृत्तचित्रों की चर्चा विश्व पटल पर पहले नहीं हुई हो. बॉलीवुड का इतना दबदबा है कि सिनेमा के ज्यादातर समीक्षक डॉक्यूमेंट्री की बात नहीं करते, जबकि आनंद पटवर्धनअमर कंवर संजय काकमाइक पांडेय, मेघनाथ, कमल स्वरूप जैसे वृत्तचित्र निर्देशकों को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. समांतर सिनेमा के ख्यात निर्देशक मणि कौल, कुमार शहानी, श्याम बेनेगल आदि ने भी कई चर्चित वृत्तचित्रों का निर्माण किया है. कम संसाधनों में बनी इन वृत्तचित्रों के विषय और शैली में पर्याप्त विविधता है.

भारत में गैर फीचर फिल्मों की यात्रा फीचर फिल्मों के साथ-साथ चलती रही. देश की आजादी के बाद वृत्तचित्रों की भूमिका जनसंचार और शिक्षा तक सीमित रही. बाद के दशक में सामाजिक यथार्थ, विषमता को दिखाने पर फिल्मकारों का जोर बढ़ा. ऑस्कर की ही बात करें तो वर्ष 1978 में विधु विनोद चोपड़ा की मुंबई के स्ट्रीट चिल्ड्रेन पर बनी शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री चेहरा (एन एनकाउंटर विद फेसेस) को ऑस्कर के लिए नामांकित किया गया था. इससे दस साल पहले वर्ष वर्ष 1968 में फली बिलिमोरिया की डॉक्यूमेंट्री द हाउस दैट आनंद बिल्ट भी ऑस्कर के लिए शार्ट डॉक्यूमेंट्री खंड में नामांकित हुई थी. इन दोनों वृत्तचित्रों को भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन ने तैयार किया था. दोनों डॉक्यूमेंट्री यूट्यूब पर देखी जा सकती है.

क्या यह आश्चर्य नहीं ऑल दैट ब्रीदस और 'राइटिंग विद फायर' विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित होने के बावजूद आज भी भारत में प्रदर्शित नहीं हुई है? हम यह उम्मीद नहीं कर रहे कि इसे हम नजदीक सिनेमाघरों में देख पाएँगे पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो रिलीज हो ही सकती है. असल में, डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रसारण को लेकर अभी भी समस्या बनी हुई है. ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म भी बड़े स्टारों की फिल्मों को लेकर जितने तत्पर रहते हैं उतने प्रयोगधर्मी फिल्मों या वृत्तचित्रों को लेकर नहीं. पिछले दिनों एक बातचीत में प्रयोगधर्मी युवा फिल्म और वृत्तचित्र निर्देशक पुष्पेंद्र सिंह ने कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म उनकी फिल्मों के लिए जो पैसा उन्हें दे रही है वह हास्यास्पद है. औने-पौने दाम में वे इसे खरीदने के लिए तत्पर रहते हैं.’

ऐसे में ज्यादातर डॉक्यूमेंट्री फिल्में फिल्म समारोहोंकॉलेज-विश्वविद्यालयों में या निर्देशकों के व्यक्तिगत प्रयास से ही उपलब्ध होती रही हैं. जाहिर है इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाताजैसा फीचर फिल्मों का होता है. फलस्वरूप ये आम दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं. पिछले वर्षों में कोरोना महामारी की वजह से देश में ज्यादातर फिल्म समारोह भी स्थगित ही रहे और ये डॉक्यूमेंट्री मुट्ठी भर दर्शकों तक ही सीमित रही. सच यह है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. क्या द एलीफेंट व्हिस्परर्सकी सफलता संसाधनों को आकर्षित करने के साथ-साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए रास्ते खोलेगी

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