‘द
एलीफेंट विस्परर्स' डॉक्युमेंट्री (शार्ट) के लिए
कार्तिकी गोंसाल्वेस (निर्देशक) और गुनीत मोंगा (निर्माता) को मिले ऑस्कर पुरस्कार के बाद अचानक सिनेमा प्रेमियों, समीक्षकों का
ध्यान भारत में बनने वाली डॉक्युमेंट्री फिल्मों की ओर गया है. इस साल शौनक सेन
की ‘ऑल दैट ब्रीदस’ और पिछले साल रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्युमेंट्री 'राइटिंग विद फायर' को ऑस्कर के डॉक्युमेंट्री
(फीचर) वर्ग में अंतिम पाँच में नामांकित किया गया था. नई तकनीक की उपलब्धता ने
भारत के युवा वृत्तचित्र निर्माता-निर्देशकों को विश्वस्तरीय वृत्तचित्र बनाने को
प्रेरित किया है. मेघनाथ पिछले चालीस
सालों से डॉक्युमेंट्री निर्माण में सक्रिय हैं. उन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा
चुका है. ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’, ‘विकास बंदूक की नली से’, ‘नाची से बांची (बीजू टोप्पो के साथ)’ आदि उनकी चर्चित डॉक्युमेंट्री है. भारत में डॉक्युमेंट्री की स्थिति, युवा फिल्मकारों, प्रदर्शन
की समस्या को लेकर अरविंद
दास ने उनसे बातचीत की. प्रस्तुत है मुख्य अंश:
पहली बार किसी डॉक्युमेंट्री (‘द एलीफेंट विस्परर्स)' को ऑस्कर पुरस्कार मिला है. आप इस सफलता को कैसे देखते हैं?
मुझे खुशी है कि ‘द एलीफेंट विस्परर्स को ऑस्कर
पुरस्कार मिला. आज से तीस साल पहले आम लोगों को डॉक्युमेंट्री के बारे में पता
नहीं था. फिल्म्स डिवीजन में, सरकार प्रायोजित फिल्म
समारोहों में डॉक्युमेंट्री दिखाई देती थी. इसका बाजार कभी नहीं बन पाया. एलीफेंट
विर्सपरर्स नेटफ्लिक्स की फिल्म है तो हम उम्मीद करते हैं कि ऑस्कर मिलने के बाद आने वाले समय में
ओटीटी प्लैटफॉर्म डॉक्युमेंट्री फिल्मों को महत्व देंगे.
क्या यह सच है कि तकनीक में आए बदलाव ने डॉक्युमेंट्री बनाना आसान कर दिया है?
बिल्कुल, चालीस साल पहले कुछ नहीं था. सैल्यूलाइड पर हम फिल्में बनाते
थे. बीटा और डिजिटल के आने के बाद डॉक्युमेंट्री बनाना और उसे संपादित करना आसान
हो गया. तकनीक का आज विकेंद्रीकरण हो गया है. इससे डॉक्युमेंट्री बनाने और दिखाने
दोनों में ही सुविधा हो गई है. मास कम्यूनिकेशन के संस्थानों में वृत्तचित्रों के
लिए माहौल बना है, छात्रों की रुचि इसमें जगी है. लेकिन अभी और
माहौल बनाने की जरूरत है ताकि लोग समझें कि मनोरंजन के अलावा भी सिनेमा के कई रूप
हैं. मनोरंजन के अलावे सिनेमा के सामाजिक, शैक्षणिक मूल्य भी हैं.
‘द एलीफेंट विस्परर्स', ‘ऑल दैट ब्रीदस’ पर्यावरण को आधार बनाती है. 'राइटिंग विद फायर' एक अखबार ‘खबर लहरिया’ के प्रिंट से डिजिटल के सफर के इर्द-गिर्द है. पायल कपाड़िया की ‘ ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ फिल्म संस्थान को
आधार बनाती है. इन युवा फिल्मकारों के बारे में आप क्या सोचते हैं?
पिछले दस-पंद्रह सालों में जो युवा फिल्मकार आए हैं, उनकी प्रशंसा करता हूँ.
चालीस साल पहले हमने जब डॉक्युमेंट्री बनाना शुरु किया था तबसे गुणवत्ता कहीं बेहतर
हुई है. तकनीक और सौंदर्य काफी अच्छा हो गया है. पहले फिल्म्स डिवीजन की फिल्में होती थी, जो
कभी कभी बोरिंग भी हो जाती थी. डॉक्युमेंट्री
कोई एक विषय आधारित तो होती नहीं. कोई पर्यावरण को लेकर, तो
कोई स्त्री मुद्दो को लेकर तो कोई राजनीतिक मुद्दों को लेकर ये फिल्में बनाते हैं.
आपके पसंदीदा डॉक्युमेंट्री फिल्मकार कौन रहे
है?
मैं दो नाम लूंगा. एक आनंद पटवर्धन, दूसरा तपन बोस (जो मेरे गुरु
है). लेकिन सबसे ज्यादा मैं बोलूंगा के पी शशि के बारे में जो पिछले दिनों गुजर
गए. चालीस के करीब उन्होंने वृत्तचित्र बनाई. 80 के दशक में ही वह समय से आगे डॉक्युमेंट्री
बना रहे थे. न्यूक्लियर रेडिएशन को लेकर ‘लिविंग इन फियर’, नर्मदा को लेकर ‘ए वैली रिफ्यूजेज
टू डाई’ और इसी तरह उन्होंने ‘वी हू मेक
हिस्ट्री, और ‘द नेम ऑफ मेडिसिन’ जैसी डॉक्युमेंट्री
बनाई. उन्होंने दो फिक्शन भी बनाई. आनंद पटवर्धन, तपन बोस जब
फिल्म निर्माण में सामाजिक यथार्थ को लेकर आए तो डॉक्युमेंट्री में एक नई रंगत आई.
समांतर सिनेमा के फिल्मकार मसलन, श्याम बेनेगल, मणि कौल, कुमार शहानी भी वृत्तचित्र बना रहे थे उस
दौर में...
हां, वो फिक्शन में बना रहे थे. जैसा कि हम कहते हैं कि साइंस पढ़
रहे हैं पर उसके अंदर फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी है... तीनों ही एक-दूसरे से अलग हैं. इसी तरह से डॉक्युमेंट्री
सिनेमा में दो धाराएं रही हैं. मैं यह नहीं कहता कि कौन अच्छा है, कौन बुरा. हम उसमें नहीं जाते हैं. दोनों की अपनी महत्ता है.
इतने सालों के बाद आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन आसान नहीं हो पाया है, कोई
नेटवर्क नहीं है. कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद भी ‘ऑल दैट ब्रीदस’, 'राइटिंग विद फायर', ‘ ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ आम लोगों के देखने के लिए उपलब्ध नहीं है...
हां, हम वृत्तचित्र बनाने वाले एक नेटवर्क नहीं बना पाए. इन
फिल्मकारों के बीच कोई कोऑर्डिनेशन नहीं है, जो दुखद है.
हमारी भी कमजोरी रही. पीएसबीटी ने बहुत वृत्तचित्र बनाई और प्रोमोट किया. इसी तरह
फिल्म्स डिवीजन भी अपने तरीके से काम कर रहा था, हम उनके
शुक्रगुजार हैं. नेहरू के पास सिनेमा को लेकर एक दृष्टि थी. ब्रिटिश जब जा रहे थे, उनका जो 'लेफ्टओवर प्रोपेगैंडा' था उसे वह फिल्म्स डिवीजन में
लेकर आए. दुर्भाग्य से बाद में राजनीतिक समुदाय की सिनेमा की समझ बहुत परिष्कृत
नहीं रही.
युवा डॉक्युमेंट्री फिल्मकारों के लिए आपकी क्या सलाह है?
मैं युवा फिल्मकारों की प्रशंसा करता हूँ. पिछले बीस सालों में सिनेमा की क्वॉलिटी
में बदलाव आया है. हम बस यह कहना चाहेंगे उनसे की आप ‘गुड आइडिया’ को ‘बैड फार्म’ से संप्रेषित नहीं कर सकते.
उन्हें फॉर्म को महत्व देना होगा. मसलन, मैंने
शशि के साथ ‘गाँव छोड़ब नाहि’ बनाई जो मात्र छह मिनट की फिल्म
थी.
(नवभारत टाइम्स के लिए)
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