दिल्ली में लगा विश्व पुस्तक मेला इस हफ्ते में समाप्त हो जाएगा. तीन साल बाद लगे इस मेले का इंतजार प्रकाशक, लेखक और पुस्तक प्रेमी शिद्दत से कर रहे थे.
इंटरनेट क्रांति ने पिछले दो दशक में हमारे पढ़ने-लिखने, प्रकाशन और ज्ञान उत्पादन के तरीकों को काफी प्रभावित है. मध्यमवर्ग के पास किताब पढ़ने के लिए समय की कमी हुई है, साथ ही पाठकों का समय ऑनलाइन सर्फिंग, वीडियो देखने, ऑडियो सुनने में जाया होता है. यह समय पुस्तक संस्कृति के लिए चुनौती का है, लेकिन तकनीक ने संभावनाओं का विस्तार भी किया है. किताबों के किंडल, ई बुक, ऑडियो संस्करण आने लगे हैं. प्रकाशकों के लिए सोशल मीडिया किताबों के प्रचार-प्रसार का एक अच्छा मंच बन कर उभरा है. साथ ही यहाँ पुस्तक प्रेमी किताबों की समीक्षा और टीका-टिप्पणी करते रहते हैं.
हिंदी क्षेत्र में जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर सुधरा है, नए पाठक वर्ग भी उभरे हैं जिनमें पढ़ने की खूब ललक है. आर्थिक विकास से मध्यवर्ग की आमदनी में बढ़ोतरी भी हुई. यह अलग बात है कि कोरोना महामारी ने अर्थव्यवस्था को झटका दिया जिससे मध्य और निम्न मध्यवर्ग खूब प्रभावित हुआ. इसका असर इस साल पुस्तक मेले में भी दिखा. पुस्तक मेले में शनिवार-रविवार के दिन चहल-पहल थी, पर बाकी दिनों में रौनक नहीं दिखा. हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने पाठकों की अरुचि को कोरोना से जोड़ कर देखा, जिसने किताब पढ़ने की संस्कृति को प्रभावित किया है.
बहरहाल, किताब पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति की शुरुआत बचपन से होती है. इंटरनेट, मोबाइल के दौर में बच्चों को किस तरह से किताब पढ़ने की तरफ मोड़े यह एक चुनौती है. पर क्या हिंदी के प्रकाशक की चिंता में पाठकों का यह वर्ग है? अंग्रेजी या बांग्ला में जिस तरह से बाल साहित्य दिखाई देता है, वैसा हिंदी में नहीं दिखता. ऐसा क्यों? हिंदी के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान के स्टॉल पर बच्चों के लिए कुछ भी दिखाई नहीं देता.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में अठारह साल से कम उम्र के करीब सैंतालीस करोड़ बच्चे हैं. जाहिर है, एक बहुत बड़ा बाजार है जो प्रकाशकों के इंतजार में है. ऐसा नहीं हिंदी में बच्चों के लिए किताबें नहीं छपती है. नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) से कम कीमत पर विभिन्न विषयों पर किताबें दिखती रही हैं. साथ ही नेहरू बाल पुस्तकालय के तहत भी एनबीटी ने खूब किताबें छापी हैं. पर बच्चों की किताबों में चित्रों, रेखांकन पर जोर होना चाहिए, जिसका अभाव यहाँ हैं. साथ ही नए विषयों को समाहित करने, प्रकाशन मे प्रयोग करने की कोशिश भी यहाँ नहीं दिखती है. फिर भी मेले में एनबीटी के स्टॉल पर भीड़ दिखाई दे रही थी. पर यहां बच्चे कम और उनके अभिभावक ज्यादा थे.
हाल में एकलव्य, इकतारा, कथा, प्रथम जैसी संस्थाओं में हिंदी में रचनात्मक और सुरुचिपूर्ण किताबें छापी हैं. इन किताबों की कीमत भी ठीक-ठाक है. अच्छी बात यह है कि इकतारा ट्रस्ट से प्रकाशित किताबों में चर्चित साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, स्वयं प्रकाश, प्रियंवद आदि का लिखा बाल साहित्य दिखाई देता है.
विनोद कुमार शुक्ल को पिछले दिनों साहित्य में योगदान के लिए पेन/नाबाकोव पुरस्कार मिला जिसकी चर्चा अंतरराष्ट्रीय जगत में है. वे पहले भारतीय एशियाई मूल के लेखक हैं जिन्हें पचास हजार डॉलर का यह सम्मान मिला है. जहाँ उनके लिखे ‘नौकर की कमीज’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसे उपन्यास, 'महाविद्यालय' और 'पेड़ पर कमरा' जैसे कहानी संग्रह, ‘लगभग जय हिंद’, ‘सब कुछ बचा रहेगा’ जैसे कविता संग्रह की चर्चा हो रही है वहीं पिछले एक दशक में उन्होंने जो बाल साहित्य लिखा है उसकी चर्चा नहीं होती. मेले में इकतारा के स्टॉल पर बच्चों के लिए उनका लिखा ‘एक चुप्पी जगह’, ‘तीसरा दोस्त’ गोदाम, , एक कहानी, ‘घोड़ा और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘बना बनाया देखा आकाश: बनता कहां दिखा आकाश’ (कविता संग्रह) आदि दिखाई दिया.
यह पूछने पर कि उम्र के इस पड़ाव पर उन्होंने कैसे बाल साहित्य लिखने की सोचा, शुक्ल ने एक बातचीत में मुझसे कहा: “बच्चों के बारे में मैं लिखता नहीं था, पर साइकिल पत्रिका (इकतारा) के संपादक सुशील शुक्ल ने मुझे बच्चों के बारे में लिखने को कहा. मैंने कभी बच्चों के लिए लिखा नहीं था. मैंने अपने लेखन में कभी नहीं सोचा कि इसका पाठक कौन होगा. मैंने कहा कि अब मुझे सोच करके लिखना पड़ेगा कि मेरे पाठक बच्चे हैं. कितनी उम्र के बच्चे पढ़ेंगे और कैसे पढ़ेंगे. फिर उन्होंने कहा कि किसी भी विषय पर लिखिए-हाथी पर, घोड़े पर, चींटी पर, मछली पर.” इसके बाद उन्होंने बच्चों की पत्रिका प्लूटो, साइकिल आदि के लिए लिखना शुरु किया. 86 वर्षीय शुक्ल इन दिनों बच्चों के लिए ही लिख रहे हैं. बाल साहित्य के लिए यह आश्वस्तिकारक और अन्य रचनाकारों के लिए प्रेरणादायक है.
हर बड़े रचनाकार के दिल में एक बच्चा छिपा बैठा रहता है. दिक्कत यह है कि हिंदी के प्रकाशक उन्हें टटोलने की जहमत नहीं उठाते हैं, उन्हें रचने के लिए प्रेरित नहीं करते. पुस्तक मेला वयस्कों का ही नहीं, बच्चों का भी है. भविष्य में पुस्तक संस्कृति कौन सा रूप लेगी आज के बच्चे ही इसके जिम्मेदार होंगे.
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