दिल्ली के कला समारोहों में शास्त्रीय नृत्य दिखाई देती रहती है, पर लोक नृत्य नजरों
से ओझल ही रहता है. ऐसे में पिछले दिनों महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्डस
(मेटा) के तहत हुए नाट्य समारोह में लावणी नृत्य और गीत-संगीत को देखना सुखद था.
महाराष्ट्र के लोकप्रिय नृत्य लावणी का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है, लेकिन अभी भी उसे वह
रुतबा हासिल नहीं है जो शास्त्रीय नृत्य को. देश की आजादी के बाद शास्त्रीय
नृत्य-संगीत को जहाँ राज्य से सुविधा और प्रश्रय हासिल हुआ वहीं लोक नृत्य-संगीत
पिछड़ते गए. सच तो यह है कि आधुनिक समय में लोक नृत्य की कई संवृद्ध परंपरा क्षीण
हो रही है. इसके लिए ‘राजसत्ता’ और ‘जनसत्ता’ दोनों ही जिम्मेदार
हैं.
लावणी के साथ शुरुआती दौर से (19वीं सदी में पेशवा के समय) से स्त्रियों की
यौनिकता (सेक्सुअलिटी), उनकी अदम्य इच्छा की खुली अभिव्यक्ति जुड़ी रही है. यह नृत्य मातृसत्तात्मक
समाज की उपज है, जिससे समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्ग जुड़े रहे हैं और उनके जीवन-यापन का
साधन रहे हैं. इनके उपभोक्ता (द्ष्टा) पुरुष ही होते रहे हैं और गीतकार भी. इसे एक
बड़े दर्शक समूह (पाडाची) और प्राइवेट दर्शक (बैठक) दोनों के लिए खेला जाता रहा
है. दोनो शैली में पर्याप्त भिन्नता रहती है.
आजादी के बाद वर्ष 1948 में बाम्बे स्टेट (वर्तमान महाराष्ट्र) के
मुख्यमंत्री बाळासाहेब खेर ने इस नृत्य पर फूहड़ता और अश्लीलता के आरोप लगने के
बाद प्रतिबंध लगा दिया था. बाद में हालांकि प्रतिबंध हटा दिया गया पर इसे ‘साफ-सुथरा’ बना दिया गया!
अश्लीलता के साथ-साथ लावणी के साथ कई और मिथक जुड़ते गए. एक पक्ष स्त्री कलाकारों
के शोषण का भी है.
तमाम वाद-विवादों के बावजूद 21वीं सदी में यह नृत्य महाराष्ट्र के शहरों, कस्बों में और टीवी-सिनेमा के
माध्यम से मनोरंजन का साधन बना रहा है. हाल में लावणी के लिए नए गीत भी लिखे जा
रहे हैं. मराठी फिल्मों के लिए भी इसे तैयार किया जा रहा है. बॉलीवुड भी
गाहे-बगाहे लावणी नृत्य को समाहित करता रहा है, पर उसमें लावणी की
मात्र एक झलक ही दिखती रही जिसकी आलोचना होती रहती है.
सवाल है कि 21वीं सदी में किस रूप में लावणी को देखे-परखें? हिंदी-मराठी में लिखे ‘लावणी के रंग’ नाटक में लावणी से जुड़े सवालों, मिथकों, इतिहास
और आधुनिक समय में इसकी पहचान को बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया गया. ‘लावणी के रंग’ के लेखक-निर्देशक
भूषण कोरगांवकर लावणी के शोध से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. इससे पहले उन्होंने
लावणी को लेकर एक वृत्तचित्र ‘नटले तुम्च्यासाठी’ (बिहाइंड द अडोर्नड
वेल) भी बनाई थी और साथ ही मराठी में ‘संगीत बारी’ नाम से एक किताब भी
लिखी.
इस नाटक में ठेका मालकिन बनी अभिनेत्री गीतांजली कुलकर्णी सूत्रधार के रूप
में मंच पर आती है जो दर्शकों को लावणी के इतिहास, रूप-रंग, विविध प्रकार से
परिचय कराती हैं. आम धारणा से उलट वर्तमान में लावणी से पुरुष कलाकार भी जुड़ने
लगे हैं. साथ ही इसमें सिर्फ कामोत्तेजक गीत-संगीत आधारित नृत्य ही नहीं होता है.
सच है कि लावणी में श्रृंगारिक पक्ष प्रभावी रहा है, पर ऐसा नहीं कि पर
इसमें सामाजिक सच्चाई की अभिव्यक्त नहीं होती रही है. नाटक के दौरान एक गीत-नृत्य
में दिखाया गया कि किस तरह एक औरत अपने शराबी पति के शराब से छुटकारा पाने पर खुश
है. साथ ही बेमेल विवाह की समस्या भी यहाँ दिखाई देती है. होली के प्रसंग को
दिखाता एक नृत्य में हिंदुस्तानी सुगम गीत-संगीत की छाप दिखाई दिया. समय के बदलाव
के साथ इस नृत्य के सामाजिक-राजनीतिक आयाम भी जुड़ते गए हैं. स्त्री यौनिकता के
साथ स्त्री स्वतंत्रता का सवाल भी है!
जाहिर है लावणी में नृत्य-संगीत के विभिन्न प्रकारों का समावेश होता रहा
है. संगीत बारी की बैठकी में गीत-संगीत और अदाकारी पर जोर रहता है. नाटक में
कुलकर्णी के अलावे संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत चर्चित अभिनेत्री शकुंतलाबाई
नागरकर, गौरी जाधव, पुष्पा सातारकर और अक्षय मावलंकर गायक-नर्तक थे. ढोलक की थाप के संग लावणी
के इन पेशवर नर्तकों के घुंघरुओं से बंधे पाँव मंच पर जादू जगाते हैं. यह नाटक
लावणी को लेकर जो लोक मन में भ्रांति है उसे तोड़ने में सफल है.
नाटक के दौरान दर्शकों की फरमाइश पर भी नृत्य पेश किए गए. अच्छी बात यह थी
कि इस पूरे नाटक में गायकों-नर्तकों का संवाद दर्शक के साथ कायम रहा.
भूषण कोरगांवकर बातचीत में कहते हैं कि ‘लावणी पिछले कुछ
सालों में पापुलर हो रही है पर जो पारंपरिक रूप से लावणी करते रहे हैं उन्हें वह
लोकप्रियता नहीं मिल रही है जबकि दूसरे वर्ग के लोग इसे सीख कर प्रदर्शित कर रहे
हैं उन्हें लोकप्रियता मिल रही है.’ वे जोड़ते हैं कि ‘इससे लावणी महज एक शैली, जो
कि ‘फास्ट-पेस्ड’ है और फिल्मी आइटम नंबर के करीब है, में सिमट रही है
और विविधता दिखाई नहीं देती.’
उम्मीद करते हैं कि दर्शकों के साथ इस नाटक का संवाद भविष्य में कायम रहेगा
और वे लावणी के विविध स्वरूप से परिचित होंगे. पारंपरिक लावणी का लावण्य और
लालित्य बना रहेगा.
No comments:
Post a Comment