Friday, December 03, 2010

Wake up call from Niira?



Had Natha died in 'Peepali Live' would it have been a good copy for media?

Few months ago, while watching 'Peepali Live' this thought was coursing through my mind time and again.

Rakesh, a sensitive and ambitious vernacular journalist, breaks the story of a poor, debt-ridden farmer, Natha’s intended suicide to the 'national media'. All sudden Natha is a news maker. News channels, in various shape and size hurriedly reached Natha’s nondescript village, followed by 'Babus and Netas'.

Many of us might not have known about Natha, if there was no Rakesh. After the demise of Rakesh, who will report to us about Nathas?

Death of a vernacular journalist is no news!

For last few days all these thoughts have been coming to my mind again. Suddenly, India’s well known journalists are making news. They are making news because they are well known, perhaps!
In the beginning of this decade I was attending India’s premier media school. We would ask to journalists and teachers, 'what is news, Sir?' And the answer always used to be: good news is no news!

Obviously, there is something seriously wrong with Indian media when 'Icons' like Barkha Dutt and Vir Sanghvi and his ilks are in news. They are explaining to their audience what they did and what they didn’t do, rather than exposing and analyzing deeds of others.

In public perception most of Indian journalists are either 'power broker' or trying to be one. Because of this image vernacular journalists have been at the receiving end for long.

'Niira Radia tapes' and the news of national (?) journalists playing in the hands of corporate honchos and lobbyists and ministers no longer surprise them.

In the last decade Indian media have seen a phenomenal growth. But growth doesn’t always entail development.Indian media have redefined the news all along these years. Now news means, 'Paid news' or 'Good news (Khushkhabar)'.

Indian media is going through a 'legitimacy crisis'. Leading journalist P Sainath once commented, "The media have lost their compass and, with it, their compassion."

If journalism is 'literature in a hurry' and journalists are writers, then we must also remember that writers don’t have luxury to change their persona every now and then, like our leaders or lobbyists.
Perhaps, Niira’s call is last wake up call for Indian journalists…

(In the pic, Journalism students at Indian Institute of Mass Communication, Delhi)

Friday, November 05, 2010

मगध की शांति

सन् 1991 की मई की गर्मियों में लोकसभा चुनाव की लहर थी. हज़ारों लोगों की हुजूम के साथ मैं भी राजीव गाँधी को सुनने गया था.

सच कहूँ तो सुनने से ज्यादा दरअसल देखने गया था. इतना याद है कि किसी ने मुझे अपने कंधे पर बिठा कर राजीव गाँधी को दिखाया था. वे झंझारपुर आए थे, मेरे गाँव का कस्बा. इसी झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव जीत कर जगन्नाथ मिश्र बिहार में राज करते रहे.

राजीव गाँधी को देख कर मैं बहुत खुश हुआ था. लेकिन तब तक हमारे स्कूल की दीवारों पर राजीव गांधी और कांग्रेस के विरोध में नारे दिखने लगे थे. बाल मन में जब हम उन नारों के मायने ढूँढ़ रहे थे, उसी दौरान बिहार में सत्ता समीकरण भी बदला था. लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता संभाल ली थी.

चरवाहा विद्यालय जैसी योजनाओं और आम जनों की भाषा में बात करने की अपनी विशिष्ट शैली की वजह से देश-विदेश की मीडिया की नजरों में वे तुरंतहीरोबन गए थे. एक नए विहान की आस लोगों के मन में जगी थी. लेकिन उसके बाद मीडिया में बिहार की जो छवि बनती गई वह अब एक इतिहास है.

बिहार में हर चुनाव विशिष्ट रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के बारे में दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने लिखा था कि 'बिहार में यदि चुनाव नहीं देखा तो क्या देखा.' एक बार फिर से बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव पर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया की निगाहें टिकी है. विकास के मुद्दे और जातीय समीकरणों के बीच इस बार कांग्रेस की अलख जगाने पार्टी के महासचिव युवराजराहुल गाँधी बिहार चुनाव के मैदान में उतरे हैं. लेकिन 20 वर्षों में बिहार के राजनीतिक समीकरणों में गाँधी परिवार का करिश्मा अब धूमिल पड़ गया है. हेलिकॉप्टरों से उड़ती धूल से बिहार की जनता की आँखें अब नहीं चौधियाती. इन वर्षों में जो लोग कांग्रेसी थे उन्होंने भी पाले बदल लिए. झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र विधानसभा चुनाव जीते थे, पर वे कांग्रेस से नहीं, बल्कि फिर इस बार की तरह जनता दल (एकी) से चुनाव लड़े थे.

मीडिया में विकास पुरूषनीतिश कुमार के विकास कार्यों की तारीफ हो रही है. चुनावी पंडित कह रहे हैं कि इस बार चुनाव में जातीय समीकरण नहीं, विकास की बातें वोटरों के मन में है. लेकिन विकास की बात सड़कों से शुरू होकर सड़कों पर ही खत्म हो जा रही है.

मेरे गाँव की सड़क जो अधपकी बीच में ही बन कर रह गई थी वह पिछले 20 वर्षों में वैसी ही है. बिजली कभी-कभी अतिथि सा आ जाती है. प्राथमिक स्कूल में मास्टर साहब बच्चों को हांकते रहते हैं. इन्हें देख नागार्जुन के दुखरन मास्टर की याद ताजा हो जाती है. गंदगी में पनपते मलेरिया के मच्छरों के बीच लोग रामभरोसे जी रहे हैं. पूरे इलाक़े के लिए एक खस्ताहाल अस्पताल है जिसमें किसी गर्भवती महिला या मरीज के लिए खून देने की भी व्यवस्था नहीं है. ऐसा लगता है कि इन वर्षों में रेणु के मैला आंचल में और ज्यादा धूल भर गई हो.

नब्बे के दशक में बिहार से छात्रों का दूसरे राज्यों में जो पलायन शुरू हुआ वह बदस्तूर जारी है. इन वर्षों में उच्च शिक्षा की बदहाली जिस कदर हुई वह किसी से छुपी नहीं है. इसका दंश सबसे ज्यादा हमारी पीढ़ी ने भोगा है. हां, हाल के वर्षों में बीच-बीच में बिहार में प्रस्तावित नालंदा विश्वविद्यालय और इससे जुड़ी गौरव की चर्चा हो जाती है, बस!

हम जैसे मध्यम वर्ग से आए लोग जिनके पास सांस्कृतिक पूँजी और आय थी, मौक़ा मिलते ही महानगर की ओर भाग लिए और भूमंडलीकरण-उदारीकरण के रथ पर चढ़ने की कोशिश में है. पर मेरे साथ गाँव की स्कूल में पढ़ने और खेलने वाले मेरे दोस्त नथुनी पासवान और मदन मंडल वहीं कहीं छूट गए. जो किसान और खेतिहर मज़दूर काम की तलाश में शहर आए वे एक स्लम से निकल कर दूसरे स्लम में फँसेHh हैं.

बिहार में जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था नहीं सुधरेगी तब तक विकास की कोई भी बात बेमानी है. लेकिन जैसा कि मगध कविता संग्रह की एक कविता में श्रीकांत वर्मा ने लिखा है: कोई छींकता तक नहीं/ इस डर से/ कि मगध की शांति भंग ना हो जाए/ मगध को बनाए रखना है, तो/ मगध में शांति रहनी ही चाहिए.

ऐसा लगता है चुनावी महापर्व में वर्षों बाद बिहार में आई शांति को मीडिया अपने सवालों से भंग नहीं करना चाहता.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 4 नवंबर 2010 को प्रकाशित)

Saturday, October 16, 2010

जर्द पत्तों का वन

पिछले साल इन्हीं दिनों हम श्रीनगर में थे. शरद ने शहर में दस्तक दे दी थी. चिनार के पत्ते सुर्ख होने लगे थे. कश्मीर की हमारी यह पहली यात्रा थी. मकसद कश्मीर विश्वविद्यालय में होने वाले एक सम्मेलन में भाग लेना था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हमारे मन में वर्षो से कश्मीर देखने की चाह थी. एक तरफ बचपन से एक कहावत की तरह हम सुनते आ रहे थे कि, 'धरती पर अगर स्वर्ग कहीं है तो यहीं है', दूसरी तरफ नब्बे के दशक में जवान हो रही हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर हिंसा और संघर्ष का पर्याय रहा है. इस द्वैत के बीच कश्मीर हमारी जेहन में आकार लेता रहा.

जम्मू-कश्मीर की कमान युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने हाथों में पिछले साल ही ली थी. फिज़ां में बदलाव की एक उम्मीद थी और इस उम्मीद को सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए उन्होंने दुहराया भी था. लेकिन पिछले तीन महीनों से कश्मीर घाटी में हो रहे 'इंतिफादा' और पुलिस बलों की कार्रवाई लोगों की उम्मीद के लिए जैसे एक बार फिर छलावा साबित हुई है.

इन दिनों मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा है कि दिल्ली में और देश के अन्य भागों में अपनी-अपनी दुनिया में मस्त, सपनों और अरमानों के पीछे भागते हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर के नौजवानों की मौत के क्या मायने हैं? इन सपनों के मारे जाने से क्या कहीं हमारे सपने भी टूटते है या हमारे लिए यह महज एक ख़बर है, एक दुर्घटना. जैसा कि सुदूर किसी अन्य देश में हो रही दुर्घटना या हिंसा की कोई ख़बर आने पर हमारी प्रतिक्रया होती है. हम दुखी होते हैं, पर वह हमारे भावबोध का हिस्सा नहीं बन पाती.

बेंडिक्ट एंडरसन ने लिखा है कि 'राष्ट्र कि परिकल्पना हमारी कल्पना में ही साकार होती है'. यात्रा के दौरान मिले पत्रकार प्रेम शंकर झा ने कहा था कि 'कश्मीर से बाहर रहने वाले आपकी पीढ़ी के लिए कश्मीर की यात्रा अमूमन पहली ही होती है'. एक-दो अपवाद को छोड़ कर मुझे याद नहीं है कि कश्मीर में हुई हिंसा के विरोध का स्वर हमने किसी अन्य विश्वविद्यालय में सुना हो या उनकी चिंताओं को लेकर हमने कभी कोई सार्थक पहल की हो.

सच तो यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों में कश्मीर के लोगों से हमारी पहचान नहीं के बराबर होती है और हम इसे टटोलने की कोशिश भी कभी नहीं करते कि ऐसा क्यों है. इस बार देश की प्रतिष्ठित आईएएस परीक्षा में कश्मीर के एक प्रतियोगी शाह फैसल ने जब पहला स्थान पाया तो सबकी नज़र एकाएक कश्मीरी युवाओं की प्रतिभा की ओर गई. ऐसा ही भाव युवा पत्रकार बशारत पीर की अंग्रेजी में प्रकाशित किताब कर्फ्यूड नाइटकी चर्चा होने पर हमारे मन में हुआ.

कश्मीर विश्वविद्यालय में जब मैं कुछ छात्रों से मिला तो मुझे एक अजीब- सी उलझन होने लगी. मेरे अंदर एक अपराध बोध हुआ कि कहीं ना कहीं इनके दुख और वेदना के लिए हम जिम्मेदार हैं. कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों के चेहरे पर आक्रोश, वेदना और हताशा एक साथ दिखी. कोई भी छात्र मुझे ऐसा नहीं मिला जिसके पास दुख और दर्द के किस्से ना हो. किसी के भाई, किसी के पिता-चाचा, तो किसी की बहन के साथ ऐसी अनहोनी घटी थी जिसके बारे में बात करते-करते उनकी आवाज भारतीय राज्य और सत्ता के प्रति तल्ख हो उठती थी.

दिल्ली से गए कुछ दोस्तों के साथ छावनी में तब्दील श्रीनगर में घूमते हुए एक अजीब सी दहशत हमारे मन में थी. गोकि पिछले साल कश्मीर में हिंसा नहीं के बराबर हुई थी और माहौल शांत था लेकिन शांति की इस चादर के नीचे छिपी बेचैनी और गुस्से की झलक हर किसी से बात करने पर मिलती थी. कर्फ़्यू के बिना भी एक अलिखित कर्फ़्यू का माहौल हर जगह था चाहे वह डल झील हो या हजरत बल. हर तरफ लोहे की कंटीली बाड़ और सरकारी बंदूकें सिर उठाए हमारा स्वागत कर रही थी. मैंने अपने जीवन में बस एक बार 1992 के दिसंबर में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद कर्फ़्यू झेला था. किशोर उम्र की वह दहशत आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है.

एक ऑटोवाले से बात करते हुए जब मैंने कश्मीर के हालात के बारे में पूछा तो साफ कश्मीरी जबान में जो कुछ भी उन्होंने कहा उसका तर्जुमा मैंने अपने तई कुछ यों किया- साहब, ये चिनार का पेड़ आप देख रहे हैं... जितने पत्ते इस पेड़ में लगे हैं और जितने नीचे बिखरें हैं उतनी ही दर्द की दास्तान आपको यहाँ मिलेंगी.

पिछले तीन महीनों में पुलिस बलों की गोलीबारी से सौ से ज्यादा मारे गए युवाओं की दास्तान फिर से अलिखित रह गई. हम शायद ही जान पाएँ कभी कि इन युवाओं के सपने क्या थे, प्रेम और कविता को लेकर उनके क्या विचार थे, उनके लिए आजादी का क्या मतलब था. एक बार फिर शरद के आते ही जर्द पत्तों के वन में उनके सपने दफन कर दिए जाएँगे. हमारी दुनिया में, हमारे सपनों में भी क्या किसी टूटे हुए पत्ते की सरसराहट सुनाई देगी?

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 7 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित)

Friday, September 03, 2010

आशियाने की तलाश में एक कवि

हिंदी साहित्य के हलकों में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' भले ही अनजान हों, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रों के बीच इस कवि की कविताएँ ख़ासी लोकप्रिय रही है.
प्रगतिशील चेतना और वाम विचारधारा का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू कैंपस में 'विद्रोही' ने जीवन के कई वसंत गुज़ारे हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से वहां की फ़िज़ा में उनकी कविता नहीं गूंजती. अब वे एक आशियाने की तलाश में भटक रहे हैं.
पिछले हफ़्ते जेएनयू प्रशासन ने अभद्र और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग के आरोप में तीन वर्ष के लिए परिसर में उनके प्रवेश पर पांबदी लगा दी है.
जेएनयू का छात्र समूह प्रशासन के इस रवैए का पुरज़ोर विरोध कर रहा है. उनका कहना है कि पिछले तीन दशकों से विद्रोही ने जेएनयू को घर समझा है और कैंपस से बेदखली उनके लिए मर्मांतक पीड़ा से कम नहीं है.
उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर ज़िले के रहने वाले विद्रोही का अपना घर-परिवार है, लेकिन अपनी कविता की धुन में छात्र जीवन के बाद भी उन्होंने जेएनयू कैंपस को ही अपना बसेरा माना.
प्रगतिशील चेतना

वाम आंदोलन से जुड़ने की ख़्वाहिश और जेएनयू के अंदर के लोकतांत्रिक माहौल ने वर्षों से 'विद्रोही' को कैंपस में रोक रखा है. शरीर से कमज़ोर लेकिन मन से सचेत और मज़बूत इस कवि ने अपनी कविताओं को कभी कागज़ पर नहीं उतारा. मौखिक रूप से वे अपनी कविताओं को छात्रों के बीच सुनाते रहे हैं.
जेएनयू के एक शोध छात्र बृजेश का कहना है, "मैं पिछले पाँच वर्षों से विद्रोही जी को जानता हूँ. उनकी कविता का भाव बोध और तेवर हिंदी के कई समकालीन कवियों से बेहतर है."
उनकी कविताओं में वाम रुझान और प्रगतिशील चेतना साफ़ झलकती है. वाचिक पंरपरा के कवि होने की वजह से उनकी कविता में मुक्त छंद और लय का अनोखा मेल दिखता है.
विद्रोही कहते हैं, "मेरे पास क़रीब तीन-चार सौ कविताएँ हैं. कुछ पत्रिकाओं में फुटकर मेरी कविता छपी है लेकिन मैंने ज्यादातर दिल्ली और बाहर के विश्वविद्यालयों में ही घूम-घूम कर अपनी कविताएँ सुनाई हैं."
'विद्रोही' बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे हैं. हालांकि कैंपस के पुराने छात्र उनकी मानसिक अस्वस्थता के बारे में भी जिक्र करते हैं, पर उनका कहना है कि कभी भी उन्होंने किसी व्यक्ति को क्षति नहीं पहुँचाई है, न हीं अपशब्द कहे हैं.
मानसिक अस्वस्थता के सवाल पर विद्रोही कहते हैं, "हर यूनिवर्सिटी में दो-चार पागल और सनकी लोग रहते हैं पर उन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की जाती. मुझे इस तरह निकाला गया जैसे मैं जेएनयू का एक छात्र हूँ."
ख़ुद को नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, और कबीर की परंपरा से जोड़ने वाला यह कवि जेएनयू से बाहर की दुनिया के लिए अब तक अलक्षित रहा है, पर फिलहाल इनकी ख़्वाहिश कैंपस में लौटने की है जहाँ से कविता और ख़ुद के लिए वे जीवन रस पाते रहे हैं.

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कुछ कविताएँ

नई खेती
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
औरतें
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.
मोहनजोदाड़ो
...और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियाँ
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियाँ बिखेरना
जन-गण-मन
मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा
(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, 31 अगस्त 2010 को प्रकाशित)

Saturday, August 21, 2010

ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा

वर्षों बाद जेएनयू को एक 'आउटसाइडर' की तरह देखा...

इस 'लेट मानसून' में सब तरफ़ हरी भरी पेड़-पत्तियों पर झीर झीर बारिश की बूँदों के बीच नवल-नवेलियाँ रंग-बिरंगे छाता लिए पगडंडियों से स्कूल की तरफ जा रही थी...उनकी कतार में अपना रास्ता ढूँढ़ता मैं भी था.

लाल ईटों का रंग एक बार फिर सुर्ख दिखा. सजीले अशोक के पेड़ों की हरियाली और निखरी दिखी.

रंग-बिरंगे पोस्टरों पर बिखरे क्रांति के गीत को टप-टप करती बूंदों ने जैसे एक धुन दे दिया हो. जागते ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा यह जेएनयू फिर से अपना लगा.

मनीष, तुम्हें याद है अभी-अभी तो हम मिले थे एड ब्लॉक पर, एडमिशन लेते हुए. यही मौसम था. आठ बरस बीत गए... नहीं तो!!!

कल जेएनयू की वेब साइट पर एक फोन नंबर ढूँढ़ रहा था तो पता चला कि प्रोफेसर उत्सा पटनायक रिटायर हो गई, दीपांकर गु्प्ता चले गए...

जीपी देशपांडे, मैनेजर पांडेय, कांति वाजपेयी को लोग अब कैंपस में कहां देखेंगे-सुनेंगे...सीआईएल में दुलारे जी मिले, रिटायर हो गए इस जनवरी...बकौल दुलारे जी, नामवर सिंह के साथ ही उन्होंने सेंटर ज्वाइन किया था...अज्ञेय और नामवर के कई किस्से अनकही रह गई...

वो कमरा याद हो आया. उन दीवारों पर लिखे हर्फ़ तो वहीं छूट गए. पता नहीं उन हर्फ़ों पर कुछ और रंग चढ़ गया हो.

हर्फ़ों में बसी उन खूशबूओं को हम ढूँढा करेंगे, जब जब दिल्ली में मानसून की बारिश होगी...

(नोट: जब नामवर सिंह जोधपुर में थे , दुलारे जी उनके रसोइया थे. उससे पहले वे अज्ञेय के साथ रहते थे. नामवर जी जब दिल्ली आए तो उनका रसोई दुलारे जी के ही कब्जे में रहा)

Sunday, August 08, 2010

Remembering People's Poet Nagarjun



























Hindi and Maithili poet Baba Nagarjun was born on 25 June 1911. His birth centenary is being celebrated in 2010-2011. These pictures depict his parental home, a library (in his name) in his village Tarauni and nearby railway station Sakri in Darbhanga district of Bihar. In the last picture Blogger is sitting with Baba Nagarjun's youngest son Shyamakant Mishra.

Saturday, August 07, 2010

नागार्जुन: सच का साहस

दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में बंबईआम तो नहीं दिखता पर कलकतियाऔर सरहीकी भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं...हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बादमें प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता सरल सूत्र उलझाऊहै.

नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. युवा कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)...तब आश्चर्य नहीं कि ...बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को...सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी!

उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखीहै. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है परम सत्यजिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, , , थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.)

नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.देखा है, यह सुनी सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे अनभै सांचाकहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है.

कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेलछी हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है.

असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. सिके हुए दो भुट्टेसामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की गुलाबी चूड़ियाँउन्हें मोह जाती है. काले काले घन कुरंगउन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे.

नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता है जन के प्रति और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.

नागार्जुन जीवन पर्यंत सत्ता और व्यवस्था के आलोचक रहे. जन्मशती वर्ष में यदि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें याद नहीं करें तो बात समझ में आती है, पर जिस जनको उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया उसने उन्हें कैसे भूला दिया?

(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 7 अगस्त 2010 को प्रकाशित, चित्र : नागार्जुन के गाँव तरौनी में उनकी प्रतिमा)

Wednesday, July 14, 2010

फिल्मी जुनून के पचास साल




पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीच्यूट ने भारतीय सिनेमा को कई बेहतरीन कलाकार और फिल्मकार दिए. समांतर सिनेमा का तो जैसे वह सूत्रधार ही रहा है. तकनीक के क्षेत्र में भी इसका योगदान कम नहीं. पचास साल पूरा करने पर इस संस्थान के सफरनामे का जायजा ले रहे हैं अरविंद दास. (जनसत्ता रविवारी, 4 जुलाई 2010)
फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) की फिजा में मानसून की पहली बौछार की खुशबू है. पुणे स्थित इस कैंपस के अंदर पुराने बरगद और आम के पेड़ों की हरियाली लौट आई है. किंवदंती बन चुके आम के पेड़ बोधवृक्ष पर बैठी कोयल की बोली एक अलग राग छेड़ती है. इस राग में कई धुन और कई किस्से हैं. सामने प्रभात स्टूडियो से बीच-बीच में, कैमरा! एक्शन! कट! की आवाज मेरे कानों में आती रहती है. इन वादी और प्रतिवादी स्वरों में एक अजीब आकर्षण है.

मेरा मन कई वर्ष पहले की ओर लौट चला है. उस साल गाँव में नाटक नहीं खेला गया था. पुस्तकालय के आहते में बड़े परदे पर एक फिल्म दिखाई गई थी. मैंने भी वह फ़िल्म देखी थी. फ़िल्म का नाम और कथानक याद नहीं, लेकिन उस फ़िल्म में टेढ़-मेढ़े रास्तों से घने जंगलों में भागते घोड़े मेरे सपनों में अब भी दौड़ते हैं. घोड़ों की टाप मेरे कानों में अब भी सुनाई पड़ती है.
समकालीन समय और समाज में शायद ही ऐसा कोई हो जो कभी न कभी सिनेमा के इस जादुई सम्मोहन की गिरफ्त में नहीं आया हो. सिनेमा आधुनिक कला का सबसे बड़ा तिलिस्म है, लेकिन इस विधा को लेकर जो जुनून और दीवानगी भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में दिखती है वह और कहीं नहीं. एफटीआईआई की दीवारों पर बने चित्रों, पोस्टरों और नारों से यह बात बखूबी झलकती है. फिल्म के अलावे कुछ भी नहीं,एफटीआईआई में महज एक नारा नहीं है, बल्कि यहाँ के छात्रों-शिक्षकों का जीवन बन चुका है. पिछले पचास साल में हिंदुस्तानी समाज और सिनेमा ने बहुत कुछ बदलाव देखा, लेकिन ऐसा लगता है कि इस कैंपस में आकर समय स्टिल फोटोग्राफ -सा ठहर गया है.

पंडित नेहरू के ख्वाबों की ताबीर इस संस्थान को तत्कालीन सोवियत संघ की राजधानी मास्को स्थित सरगी ग्रासीमोव फिल्म संस्थान की तर्ज पर भारत सरकार ने वर्ष 1960 में जब स्थापित किया तो उसका मूल उद्देश्य भारतीय सिनेमा उद्योग को दक्ष कलाकार और तकनीशियन मुहैया कराना था. वर्ष 1961 से फिल्म शिक्षण-प्रशिक्षण की विधिवत पढ़ाई यहाँ शुरू हुई तो संस्थान अपने उद्देश्य से कहीं आगे जाकर भारतीय सिनेमा जगत का एक अलग अर्थ और भाषा गढ़ने लगा, जो कमोबेश आज भी कायम है. असल में इस संस्थान को रचनात्मक ऊर्जा थाती में मिली, जिसका भरपूर इस्तेमाल यहाँ के छात्रों ने किया.

अमृत मंथन, संत तुकाराम, मानुष जैसी बेहद चर्चित फिल्में देने वाले प्रभात स्टूडियो का बन-बनाया लोकेशन, आधुनिक साज-सज्जा वाला ध्वनि उपकरण, संपादन की तकनीक वगैरह संस्थान को विरासत में मिली. वर्ष 1953 में जब प्रभात स्टूडियो बंद हुआ तो भारत सरकार ने इसे खरीद लिया और फिल्म संस्थान के रूप में तब्दील करने का निश्चय किया. पुराने छात्रों ने अपनी फिल्में प्रभात स्टूडियो में मौजूद इन्हीं तकनीक और लोकेशन के सहारे बनाई.

शुरूआती दिनों से ही इस संस्थान में रचनात्मक स्वतंत्रता ऐसी थी कि वह छात्रों को अलग रास्ता चुनने और अपनी पहचान खुद बनाने के लिए प्रेरित करती रही. दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन बताते हैं, कालेज के दिनों में मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने फिल्म संस्थान में वर्ष 1962 में दाखिला लिया वहाँ देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूँ.

संस्थान को ऋत्विक घटक, भाष्कर चंद्रावरकर और सतीश बहादुर जैसे मंजे निर्देशक-अध्येता शुरूआती दौर में मिले. असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ बताते हैं, मैं जिंदगी में पहली बार ऐसे आदमी (ऋत्विक घटक) से मिला जिसके लिए खाना-पीना, सोना, उठना-बैठना सब कुछ सिनेमा था. हमें प्रोफेसर सतीश बहादुर ने सिखाया कि सिनेमा मनोरंजन से आगे भी बहुत कुछ है. संस्थान में आने से पहले मैं फिल्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता था.ऋत्विक घटक के बिना इस संस्थान के बारे में कोई भी बात अधूरी रहेगी. वर्षों बाद आज भी उनकी उपस्थिति कैंपस के अंदर महसूस की जा सकती है. वर्ष 1964-65 में ऋत्विक घटक संस्थान में उप प्राचार्य के रूप में आए और उन्होंने भारतीय सिनेमा की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया. 70 के दशक में व्यावसायिक फिल्मों से अलग समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट करने वाले डूर गोपालकृष्णन, मणि कौल, और कुमार साहनी खुद को ऋत्विक घटक की संतान कहलाने में फक्र महसूस करते हैं.

हते हैं प्रतिभाएँ अक्सर अराजकता लिए हुए होती है. ऋत्विक घटक एक ऐसी ही प्रतिभा थे. एक बार फिल्म निर्देशक सईद मिर्जा ने उनसे पूछा कि आपकी फिल्मों का प्रेरणास्रोत क्या है? उनका जवाब था, एक पॉकेट में शराब की बोतल दूसरे में बच्चों जैसी संवेदनशीलता. अराजकता उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा भले रही हो, पर उनकी फिल्मों और शिक्षण से वह कोसो दूर रही. फिल्म निर्देशक और अध्येता अरूण खोपकर ऋत्विक घटक के साथ बिताए रसरंजन की शामों को याद करते हुए कहते हैं, उपनिषद का एक मतलब गुरू के नजदीक या उसके पैरों के पास बैठना होता है. हमने बोधवृक्ष के नीचे ऋत्विक दा के साथ बैठकर दुनिया और सिनेमा के बारे में बहुत कुछ सीखा. वे उपनिषैदिक गुरू थे.मणि कौल कहते हैं, अब भी मैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नवयथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.वर्षों तक भारतीय फिल्म अध्येताओं और सिनेप्रेमियों की नज़र से ओझल रहने वाले भारतीय सिनेमा के इस मनीषी के सम्मान में स्वर्ण जयंती वर्ष में संस्थान ने उनके नाम पर एक अकादमिक पीठ स्थापित करने का निर्णय लिया है.

भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक विभाग के रूप में जब इस संस्थान को स्थापित किया गया तब शुरूआत में निर्देशन, सिनेमैटोग्राफी, ऑडियोग्राफी और फिल्म संपादन में प्रशिक्षण दी जाती थी. स्थापना के दो वर्ष के बाद यहाँ पर अभिनय में प्रशिक्षण की भी शुरूआत हुई, लेकिन दूसरे विभागों के साथ सामंजस्य के अभाव में और आपसी विवाद के चलते इसे वर्ष 1976 में बंद कर दिया गया. तब तक जया भादुड़ी, शबाना आजमी, शत्रुघ्न सिन्हा, टाम अल्टर, नसीरूद्दीन शाह, ओमपुरी जैसे अभिनेताओं की एक पूरी खेप तैयार हो चुकी थी. जब वर्ष 1974 में दिल्ली के टेलीविजन प्रशिक्षण केंद्र को इस संस्थान से जोड़ दिया गया तब से यह संस्थान भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के नाम से जाना जाने लगा है. काफी लंबे समय तक टेलीविजन प्रशिक्षण के तहत मुख्य रूप से भारत सरकार के दूरदर्शन के अधिकारियों और कर्मचारियों को यहाँ पर प्रशिक्षित किया जाता रहा, लेकिन वर्ष 2003 से सामान्य छात्रों के लिए टेलीविजन के विभिन्न आयामों में एक वर्षीय पाठ्यक्रम की शुरूआत की गई. साथ ही समय के साथ हो रहे बदलाव की वजह से संस्थान में पटकथा लेखन और एनीमेशन में शिक्षण-प्रशिक्षण की भी शुरूआत की गई है. हालांकि नए पाठयक्रम और छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी से पूरी तरह से आवासीय इस कैंपस में मौजूद मूलभूत सुविधाओं पर दबाव बढ़ा है.

वर्तमान में संस्थान सरकारी उपेक्षा का शिकार दिखता है. यह उपेक्षा छात्र-छात्राओं के लिए हॉस्टलों की कमी, विभन्न विभागों में शिक्षकों की कमी से लेकर फिल्म-टेलीविजन प्रशिक्षण के लिए जरूरी अति आधुनिक तकनीक की अनुपलब्धता में दिखती है. निर्देशन विभाग में महज एक शिक्षक स्थायी हैं. यही हाल कमोबेश, अभिनय और पटकथा लेखन विभाग का भी है. संस्थान के रजिस्टार के राजशेखरन कहते हैं, हर विभाग में शिक्षकों की कमी है. कोई क्यों आएगा यहाँ. कोई इनसेंटिव, सुविधा नहीं है. यहां पर कई शिक्षक लेक्चरर बन कर आए और लेक्चरर बन कर सेवानिवृत्त भी हुए. कई शिक्षकों ने इस संस्थान को छोड़ कर निजी संस्थान ज्वॉइन कर लिया है. आज जो शिक्षक हैं यहाँ वह अंतिम पीढ़ी के हैं जिन्हें संस्थान से जुड़ाव है. इसके बाद पता नहीं क्या होगा.

असल में इतने साल बाद भी यहाँ का प्रशासन एक सरकारी विभाग की तरह काम करता है. उदारीकरण के इस दौर में भी नौकरशाही रवैया बरकरार है. वर्षों से इस शिक्षण संस्थान के निदेशक के रूप में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही काम-काज संभाल रहे हैं. वर्ष 1971 में गठित खोसला समिति ने इस संस्थान को एक स्वायत्त संस्थान के रूप में पुनर्गिठत करने और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ संबद्ध करने की मांग की थी लेकिन वह मांग अब तक पूरी नहीं हुई. अलबत्ता वर्ष 1974 में संस्थान को एक स्वायत्त सोसायटी के रूप में गठित किया गया. अब संस्थान से जुड़े सारे निर्णय गवर्निंग काउंसिल के सदस्य मिल कर करते हैं. वर्तमान में कन्नड़ भाषा के प्रसिद्ध लेखक यूआर अनंतमूर्ति इस कौंसिल के चेयरमैन है. निर्देशन के छात्र अमन वधान कहते हैं, एफटीटीआई के इतिहास में पहली बार छात्रों को बाहर किराए के मकान में रहना पड़ रहा है. डिप्लोमा फिल्म बनाने के लिए अपने घर से छात्रों को पैसा लगाना पड़ रहा है.

संस्थान के निदेशक पंकज राग मूलभूत सुविधाओं की कमी की बात स्वीकार करते हैं, लेकिन उनका कहना है कि संस्थान को भूमंडीलय स्तर पर (ग्लोबल स्कूल) अपग्रेड किया जा रहा है जिसके तहत नए भवन, कक्ष बनाए जाएँगे. लेकिन छात्रों का कहना है सरकार का जोर संस्थान का निजीकरण करने पर है. अब तो प्रशासन ने सभी पाठ्यक्रमों की फीस में बढ़ोतरी कर दी है. अमन कहते हैं, ग्लोबल स्कूल में बिजनेस मीडिया, ब्राडकास्टिंग जर्नलिज्म, एडवरटाइजिंग की पढ़ाई होगी. यह संस्थान फिल्म-टेलीविजन में शिक्षण-प्रशिक्षण को लेकर जाना जाता है. मीडिया के लिए देश में दूसरे संस्थान हैं, फिर इसकी यहाँ क्या जरूरत है.

संस्थान के छात्र रहे युवा फिल्म निर्देशक गुरविंदर कहते हैं कि जो कुछ इस संस्थान ने दिया वह अब महज इतिहास बन कर रह गया है. पिछले दो दशक में संस्थान के प्रशिक्षण स्तर, छात्रों के चयन, डिप्लोमा फिल्मों के निर्माण सभी में गिरावट आई है. पहले संस्थान में छात्र बाहरी दुनिया से अनुभव लेकर आते थे. उनकी औसत उम्र 28-30 वर्ष होती थी. अब संस्थान का जोर कालेज से तुरंत निकले स्नातकों को नामांकन देने पर है. वे कहते हैं कि यदि यहाँ के छात्र कुछ अच्छा कर रहे हैं तो अपनी प्रतिभा के बूते, इसमें संस्थान का कोई योगदान नहीं है.

लंबे अरसे से संस्थान से जुड़े रहे प्रोफेसर सुरेश छाबरिया कहते हैं, उदारीकरण के बाद दुनिया काफी बदल गई है. कला और मौलिकता पर बाजार हावी है. ऐसे में खास कर निर्देशन के छात्रों को वर्तमान में काफी संघर्ष करना पड़ रहा है. हम अपने छात्रों से कहते हैं कि बाहर जाकर रोजी-रोटी के लिए कुछ भी कीजिए, लेकिन यहाँ पर एक कला के रूप में सिनेमा को अच्छी तरह से आत्मसात कर लीजिए.

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो यह सच है कि पिछले कुछ वर्षों में संस्थान के छात्रों ने फिल्म निर्देशन या अभिनय के क्षेत्र में भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ नया आयाम नहीं जोड़ा है. वर्ष 2004 में अभिनय में प्रशिक्षण की फिर से भले ही शुरूआत हुई हो, यह पाठयक्रम अभी तक गति और लय नहीं पकड़ पाया है. हालांकि छात्रों का मानना है कि संस्थान में इस पाठयक्रम का होना जरूरी है. संस्थान की छात्र रह चुकी प्रसिद्ध अभिनेत्री शाबाना आजमी कहती हैं, मैं हमेशा मानती रही हूँ कि भले ही आपमें अभिनय की प्रतिभा हो, लेकिन उसे धार देने की जरूरत होती है. प्रशिक्षण संस्थान आपमें धार पैदा करता है. एफटीटीआई ने मेरे व्यक्तित्व को सवांरा.”

कैंपस से निकलने पर फिल्मी दुनिया में पूछ बढ़ जाती है, लेकिन लंबे संघर्ष करने के लिए सबको तैयार रहना पड़ता है. अभिनय-निर्देशन के क्षेत्र में यह बात ज्यादा सच है. हालांकि पिछले दशकों में टेलीविजन के क्षेत्र में काफी अवसर बढ़े है जिसका फायदा छात्रों को मिल भी रहा है. ध्वनी संयोजन, कैमरा और संपादन के क्षेत्र में भारतीय फिल्म और टेलीविजन उद्योग में शुरूआती दिनों से ही एफटीटीआई के छात्रों का बोलबाला रहा है.

जब रेसुल पोकुटी को स्लमडॉग मिलिनेयर में ध्वनी संयोजन के लिए वर्ष 2009 में ऑस्कर से नवाजा गया तब सबकी नजर एफटीआईआई की ओर गई. वे इस संस्थान के छात्र रह चुके हैं. रेसुल पोकुटी का नाम लेते ही संस्थान के शिक्षकों, छात्रों और कर्मचारियों की आँखें खुशी और गर्व से चमक उठती हैं. भूमंडलीकरण के इस दौर में भारतीय फिल्में भारतीयता की एक पहचान बन चुकी है. देश-विदेश में इस पहचान को पुख्ता करने में निस्संदेह इस संस्थान की प्रमुख भूमिका रही है. लेकिन क्या इसका भी वही हश्र होगा जो आजाद भारत में अन्य शिक्षण संस्थानों का हुआ है?

कीमती संग्रह
सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सिनेमा को संरक्षित करने के उद्देश्य से फिल्म संस्थान की स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद 1964 में पुणे स्थित फिल्म संस्थान में ही राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना की गई. अपने आप में देश में यह एक मात्र ऐसा संस्थान है जो फिल्मो के संग्रहण, प्रसार और संरक्षण में जुटा है. वर्ष 1973 तक संग्रहालय का कार्यालय और भवन फिल्म संस्थान के कैंपस में ही था जहाँ पर फिल्मों के रख-रखाव के लिए अनुकूल सुविधा नहीं थी. फिल्मों को बेतरतीब ढंग से एक टीन शेड में, बिना किसी वैज्ञानिक सूझ-बूझ के रखा जाता था. लेकिन वर्ष 1991 से यह संस्थान एफटीआईआई से कुछ फर्लांग की दूरी पर एक अलग भवन में काम कर रहा है जहाँ पर भूमिगत वाल्ट का निर्माण कर देश-विदेश की पुरानी और नई फिल्मों का वैज्ञानिक तरीके से संरक्षण किया जा रहा है. साथ ही संग्रहालय भवन में फिल्मों के प्रदर्शन के लिए आधुनिक उपकरणों से सज्जित एक थिएटर है, जहाँ पर समय- समय पर एफटीआईआई के छात्रों के लिए फिल्मों का प्रदर्शन, फिल्म समारोह होता रहता है.अब तक संग्रहालय में देश-विदेश की क़रीब छह हज़ार पाँच सौ फिल्में संग्रहित हैं. इनमें फीचर, डॉक्यूमेंट्री और एनिमेशन फिल्में शामिल हैं.

भारत में हर साल करीब 1000 फिल्में बन रही है, इस लिहाज से यह संग्रहण बेहद कम है. संग्रहालय के निदेशक विजय जाधव कहते हैं, भारतीय फिल्म उद्योग से जिस तरह के सहयोग की अपेक्षा की जा रही है वह नहीं मिल रही है. अभी हमारा जोर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्मों, सामाजिक मूल्यों, नैतिक विषयों को लेकर बनने वाली फिल्मों पर ज्यादा है. पिछले दो वर्षों से संग्रहालय में फिल्मों, पोस्टर, पैंफलेट को डिजिटल रूप में बदलने की प्रक्रिया शुरू की गई है.

पिछले 35 साल से संग्रहालय एफटीआईआई के साथ मिलकर सिने प्रेमियों, पत्रकारों और फिल्म अध्येताओं के लिए हर साल मई-जून में एक महीने की अवधि का फिल्म एप्रीसिएशन पाठयक्रम का आयोजन पुणे स्थित एफटीटीआई कैंपस में करता रहा है. पाठयक्रम के संयोजक प्रोफेसर सुरेश छाबरिया कहते हैं, दुनिया में अपने आप में यह अनूठा कोर्स है जिसमें हम सिनेमा के इतिहास, सिनेमा के सिद्धांत, सिनेमा की भाषा और आधुनिक कला के एक माध्यम के रूप में इसके प्रभाव और कला के अन्य माध्यमों से सिनेमा के रिश्ते से प्रतिभागियों को अवगत कराते हैं. साथ ही देश-विदेश की दुर्लभ फिल्मों का प्रदर्शन और परिचर्चा इस पाठयक्रम का महत्वपूर्ण भाग है.

'आजादी और माहौल देते हैं'
एफटीआईआई की स्वर्ण जयंती किस रूप में मनाई जा रही है?
हमने मार्च में तीन दिनों का एक कार्यक्रम किया था जिसमें पहले बैच के छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों का सम्मान किया गया. संस्थान से प्रकाशित होने वाली लेंस साइट पत्रिका के विशेष अंक का विमोचन किया गया. आगे कई योजनाएँ हैं. अगस्त महीने में हम सांप्रदायिकता के विरुद्ध सिनेमा विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करेंगे, साथ ही कई अन्य विषयों पर भी संगोष्ठी की योजना है. सितंबर महीने में पहली बार अंतराष्ट्रीय छात्र फिल्म समारोह का आयोजन किया जाएगा साथ ही एफटीआईआई के इस ऐतिहासिक सफर पर एक किताब भी प्रकाशित की जाएगी.

पचास साल के इस सफर को आप किस रूप में देखते हैं?
इस संस्थान ने भारतीय सिनेमा जगत को समांतर सिनेमा की एक अलग धारा दी. यह एक बड़ा योगदान है. संस्थान ने भारतीय सिनेमा को अलग विधा दी जो व्यावसायिक नहीं थी. निर्देशन, अभिनय, संपादन, कैमरा, ध्वनी पाठ्यक्रम के छात्रों ने अपने ढंग से भारतीय फिल्म जगत को संमृद्ध किया है और लगातार कर रहे हैं. संस्थान के छात्र रहे रेसुल पोकुट्टी को जब पिछले वर्ष फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर में ध्वनी संयोजन के लिए ऑस्कर दिया गया तब हमारे लिए यह गौरव का क्षण था. वर्तमान में कला और व्यावसायिक फिल्मों का विभाजन खत्म हो चुका है. संस्थान के छात्र इस बदलते समय में अपना रचनात्मक योगदान दे रहे हैं.

एफटीआईआई का माहौल कैसा है?
एफटीआईआई की एक विशिष्ट संस्कृति है. यहाँ पर छात्रों को पूरी आजादी मिलती है, ताकि वे अपनी रचनात्मकता का बेहतरीन इस्तेमाल कर सकें. उन्हें अपनी पसंद की फिल्में बनाने के लिए अनूकूल माहौल मिलता है. इसे हम रचनात्मक स्वंतंत्रता कह सकते हैं. पिछले कुछ सालों में देश के सभी शिक्षण संस्थानों में छात्रों की रूचि पढ़ने में कम हुई है, यह बात इस संस्थान पर भी लागू होती है. हमारी कोशिश है कि छात्रों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए. फिल्मों से जुड़े विषयों पर शोध के लिए हम तीन छात्रवृत्ति इस वर्ष से दे रहे हैं. यह संस्थान के बाहर के शोधार्थी भी इसका लाभ उठा सकते हैं.

संस्थान मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझ रहा है. ऐसे में इस संस्थान का विस्तार और पुनर्गठन कैसे होगा?
हमने इस संस्थान को एक डीम्ड विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दिलवाने के लिए आवेदन किया था जो स्वीकृत नहीं हुआ. हमारी कोशिश है कि यहाँ पर छात्रों को जो डिप्लोमा दी जा रही है उसे डिग्री के रूप में स्वीकार किया जाए. संस्थान को हम वैश्विक स्तर पर अपग्रेड कर रहे हैं और योजना आयोग से जिसकी स्वीकृति भी मिल चुकी है. इस योजना के तहत नए स्टूडियो, डिजीटल लैब, कक्षा भवन बनाए जाएँगे. इसमें समय लगेगा. निर्देशन पाठयक्रम में स्थायी शिक्षकों की कमी है, लेकिन गेस्ट फैकल्टी समय-समय पर संस्थान में आकर छात्रों को प्रशिक्षित करते हैं.

(एफटीआईआई के निदेशक पंकज राग से बातचीत)