Friday, December 03, 2010
Wake up call from Niira?
Friday, November 05, 2010
मगध की शांति
सच कहूँ तो सुनने से ज्यादा दरअसल देखने गया था. इतना याद है कि किसी ने मुझे अपने कंधे पर बिठा कर राजीव गाँधी को दिखाया था. वे झंझारपुर आए थे, मेरे गाँव का कस्बा. इसी झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव जीत कर जगन्नाथ मिश्र बिहार में राज करते रहे.
राजीव गाँधी को देख कर मैं बहुत खुश हुआ था. लेकिन तब तक हमारे स्कूल की दीवारों पर राजीव गांधी और कांग्रेस के विरोध में नारे दिखने लगे थे. बाल मन में जब हम उन नारों के मायने ढूँढ़ रहे थे, उसी दौरान बिहार में सत्ता समीकरण भी बदला था. लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता संभाल ली थी.
‘चरवाहा विद्यालय’ जैसी योजनाओं और आम जनों की भाषा में बात करने की अपनी विशिष्ट शैली की वजह से देश-विदेश की मीडिया की नजरों में वे तुरंत ‘हीरो’ बन गए थे. एक नए विहान की आस लोगों के मन में जगी थी. लेकिन उसके बाद मीडिया में बिहार की जो छवि बनती गई वह अब एक इतिहास है.
बिहार में हर चुनाव विशिष्ट रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के बारे में दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने लिखा था कि 'बिहार में यदि चुनाव नहीं देखा तो क्या देखा.' एक बार फिर से बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव पर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया की निगाहें टिकी है. विकास के मुद्दे और जातीय समीकरणों के बीच इस बार कांग्रेस की अलख जगाने पार्टी के महासचिव ‘युवराज’ राहुल गाँधी बिहार चुनाव के मैदान में उतरे हैं. लेकिन 20 वर्षों में बिहार के राजनीतिक समीकरणों में गाँधी परिवार का करिश्मा अब धूमिल पड़ गया है. हेलिकॉप्टरों से उड़ती धूल से बिहार की जनता की आँखें अब नहीं चौधियाती. इन वर्षों में जो लोग कांग्रेसी थे उन्होंने भी पाले बदल लिए. झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र विधानसभा चुनाव जीते थे, पर वे कांग्रेस से नहीं, बल्कि फिर इस बार की तरह जनता दल (एकी) से चुनाव लड़े थे.
मीडिया में ‘विकास पुरूष’ नीतिश कुमार के विकास कार्यों की तारीफ हो रही है. चुनावी पंडित कह रहे हैं कि इस बार चुनाव में जातीय समीकरण नहीं, विकास की बातें वोटरों के मन में है. लेकिन विकास की बात सड़कों से शुरू होकर सड़कों पर ही खत्म हो जा रही है.
मेरे गाँव की सड़क जो अधपकी बीच में ही बन कर रह गई थी वह पिछले 20 वर्षों में वैसी ही है. बिजली कभी-कभी अतिथि सा आ जाती है. प्राथमिक स्कूल में मास्टर साहब बच्चों को हांकते रहते हैं. इन्हें देख नागार्जुन के ‘दुखरन मास्टर’ की याद ताजा हो जाती है. गंदगी में पनपते मलेरिया के मच्छरों के बीच लोग रामभरोसे जी रहे हैं. पूरे इलाक़े के लिए एक खस्ताहाल अस्पताल है जिसमें किसी गर्भवती महिला या मरीज के लिए खून देने की भी व्यवस्था नहीं है. ऐसा लगता है कि इन वर्षों में रेणु के ‘मैला आंचल’ में और ज्यादा धूल भर गई हो.
नब्बे के दशक में बिहार से छात्रों का दूसरे राज्यों में जो पलायन शुरू हुआ वह बदस्तूर जारी है. इन वर्षों में उच्च शिक्षा की बदहाली जिस कदर हुई वह किसी से छुपी नहीं है. इसका दंश सबसे ज्यादा हमारी पीढ़ी ने भोगा है. हां, हाल के वर्षों में बीच-बीच में बिहार में प्रस्तावित ‘नालंदा विश्वविद्यालय और इससे जुड़ी गौरव की चर्चा हो जाती है, बस!
हम जैसे मध्यम वर्ग से आए लोग जिनके पास सांस्कृतिक पूँजी और आय थी, मौक़ा मिलते ही महानगर की ओर भाग लिए और भूमंडलीकरण-उदारीकरण के रथ पर चढ़ने की कोशिश में है. पर मेरे साथ गाँव की स्कूल में पढ़ने और खेलने वाले मेरे दोस्त नथुनी पासवान और मदन मंडल वहीं कहीं छूट गए. जो किसान और खेतिहर मज़दूर काम की तलाश में शहर आए वे एक स्लम से निकल कर दूसरे स्लम में फँसेपHh हैं.
बिहार में जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था नहीं सुधरेगी तब तक विकास की कोई भी बात बेमानी है. लेकिन जैसा कि ‘मगध’ कविता संग्रह की एक कविता में श्रीकांत वर्मा ने लिखा है: कोई छींकता तक नहीं/ इस डर से/ कि मगध की शांति भंग ना हो जाए/ मगध को बनाए रखना है, तो/ मगध में शांति रहनी ही चाहिए.
ऐसा लगता है चुनावी महापर्व में वर्षों बाद बिहार में आई ‘शांति’ को मीडिया अपने सवालों से भंग नहीं करना चाहता.
Saturday, October 16, 2010
जर्द पत्तों का वन
पिछले साल इन्हीं दिनों हम श्रीनगर में थे. शरद ने शहर में दस्तक दे दी थी. चिनार के पत्ते सुर्ख होने लगे थे. कश्मीर की हमारी यह पहली यात्रा थी. मकसद कश्मीर विश्वविद्यालय में होने वाले एक सम्मेलन में भाग लेना था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हमारे मन में वर्षो से कश्मीर देखने की चाह थी. एक तरफ बचपन से एक कहावत की तरह हम सुनते आ रहे थे कि, 'धरती पर अगर स्वर्ग कहीं है तो यहीं है', दूसरी तरफ नब्बे के दशक में जवान हो रही हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर हिंसा और संघर्ष का पर्याय रहा है. इस द्वैत के बीच कश्मीर हमारी जेहन में आकार लेता रहा.
जम्मू-कश्मीर की कमान युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने हाथों में पिछले साल ही ली थी. फिज़ां में बदलाव की एक उम्मीद थी और इस उम्मीद को सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए उन्होंने दुहराया भी था. लेकिन पिछले तीन महीनों से कश्मीर घाटी में हो रहे 'इंतिफादा' और पुलिस बलों की कार्रवाई लोगों की उम्मीद के लिए जैसे एक बार फिर छलावा साबित हुई है.
इन दिनों मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा है कि दिल्ली में और देश के अन्य भागों में अपनी-अपनी दुनिया में मस्त, सपनों और अरमानों के पीछे भागते हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर के नौजवानों की मौत के क्या मायने हैं? इन सपनों के मारे जाने से क्या कहीं हमारे सपने भी टूटते है या हमारे लिए यह महज एक ख़बर है, एक दुर्घटना. जैसा कि सुदूर किसी अन्य देश में हो रही दुर्घटना या हिंसा की कोई ख़बर आने पर हमारी प्रतिक्रया होती है. हम दुखी होते हैं, पर वह हमारे भावबोध का हिस्सा नहीं बन पाती.
बेंडिक्ट एंडरसन ने लिखा है कि 'राष्ट्र कि परिकल्पना हमारी कल्पना में ही साकार होती है'. यात्रा के दौरान मिले पत्रकार प्रेम शंकर झा ने कहा था कि 'कश्मीर से बाहर रहने वाले आपकी पीढ़ी के लिए कश्मीर की यात्रा अमूमन पहली ही होती है'. एक-दो अपवाद को छोड़ कर मुझे याद नहीं है कि कश्मीर में हुई हिंसा के विरोध का स्वर हमने किसी अन्य विश्वविद्यालय में सुना हो या उनकी चिंताओं को लेकर हमने कभी कोई सार्थक पहल की हो.
सच तो यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों में कश्मीर के लोगों से हमारी पहचान नहीं के बराबर होती है और हम इसे टटोलने की कोशिश भी कभी नहीं करते कि ऐसा क्यों है. इस बार देश की प्रतिष्ठित आईएएस परीक्षा में कश्मीर के एक प्रतियोगी शाह फैसल ने जब पहला स्थान पाया तो सबकी नज़र एकाएक कश्मीरी युवाओं की प्रतिभा की ओर गई. ऐसा ही भाव युवा पत्रकार बशारत पीर की अंग्रेजी में प्रकाशित किताब ‘कर्फ्यूड नाइट’ की चर्चा होने पर हमारे मन में हुआ.
कश्मीर विश्वविद्यालय में जब मैं कुछ छात्रों से मिला तो मुझे एक अजीब- सी उलझन होने लगी. मेरे अंदर एक अपराध बोध हुआ कि कहीं ना कहीं इनके दुख और वेदना के लिए हम जिम्मेदार हैं. कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों के चेहरे पर आक्रोश, वेदना और हताशा एक साथ दिखी. कोई भी छात्र मुझे ऐसा नहीं मिला जिसके पास दुख और दर्द के किस्से ना हो. किसी के भाई, किसी के पिता-चाचा, तो किसी की बहन के साथ ऐसी अनहोनी घटी थी जिसके बारे में बात करते-करते उनकी आवाज भारतीय राज्य और सत्ता के प्रति तल्ख हो उठती थी.
दिल्ली से गए कुछ दोस्तों के साथ छावनी में तब्दील श्रीनगर में घूमते हुए एक अजीब सी दहशत हमारे मन में थी. गोकि पिछले साल कश्मीर में हिंसा नहीं के बराबर हुई थी और माहौल शांत था लेकिन शांति की इस चादर के नीचे छिपी बेचैनी और गुस्से की झलक हर किसी से बात करने पर मिलती थी. कर्फ़्यू के बिना भी एक अलिखित कर्फ़्यू का माहौल हर जगह था चाहे वह डल झील हो या हजरत बल. हर तरफ लोहे की कंटीली बाड़ और सरकारी बंदूकें सिर उठाए हमारा स्वागत कर रही थी. मैंने अपने जीवन में बस एक बार 1992 के दिसंबर में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद कर्फ़्यू झेला था. किशोर उम्र की वह दहशत आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है.
एक ऑटोवाले से बात करते हुए जब मैंने कश्मीर के हालात के बारे में पूछा तो साफ कश्मीरी जबान में जो कुछ भी उन्होंने कहा उसका तर्जुमा मैंने अपने तई कुछ यों किया- ‘साहब, ये चिनार का पेड़ आप देख रहे हैं... जितने पत्ते इस पेड़ में लगे हैं और जितने नीचे बिखरें हैं उतनी ही दर्द की दास्तान आपको यहाँ मिलेंगी.’
पिछले तीन महीनों में पुलिस बलों की गोलीबारी से सौ से ज्यादा मारे गए युवाओं की दास्तान फिर से अलिखित रह गई. हम शायद ही जान पाएँ कभी कि इन युवाओं के सपने क्या थे, प्रेम और कविता को लेकर उनके क्या विचार थे, उनके लिए आजादी का क्या मतलब था. एक बार फिर शरद के आते ही जर्द पत्तों के वन में उनके सपने दफन कर दिए जाएँगे. हमारी दुनिया में, हमारे सपनों में भी क्या किसी टूटे हुए पत्ते की सरसराहट सुनाई देगी?
Friday, September 03, 2010
आशियाने की तलाश में एक कवि
रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कुछ कविताएँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फिर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियाँ बिखेरना
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा
Saturday, August 21, 2010
ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा
इस 'लेट मानसून' में सब तरफ़ हरी भरी पेड़-पत्तियों पर झीर झीर बारिश की बूँदों के बीच नवल-नवेलियाँ रंग-बिरंगे छाता लिए पगडंडियों से स्कूल की तरफ जा रही थी...उनकी कतार में अपना रास्ता ढूँढ़ता मैं भी था.
लाल ईटों का रंग एक बार फिर सुर्ख दिखा. सजीले अशोक के पेड़ों की हरियाली और निखरी दिखी.
रंग-बिरंगे पोस्टरों पर बिखरे क्रांति के गीत को टप-टप करती बूंदों ने जैसे एक धुन दे दिया हो. जागते ख्वाबों में खोया सा, अधमुंदी आँखों में सोया सा यह जेएनयू फिर से अपना लगा.
मनीष, तुम्हें याद है अभी-अभी तो हम मिले थे एड ब्लॉक पर, एडमिशन लेते हुए. यही मौसम था. आठ बरस बीत गए... नहीं तो!!!
जीपी देशपांडे, मैनेजर पांडेय, कांति वाजपेयी को लोग अब कैंपस में कहां देखेंगे-सुनेंगे...सीआईएल में दुलारे जी मिले, रिटायर हो गए इस जनवरी...बकौल दुलारे जी, नामवर सिंह के साथ ही उन्होंने सेंटर ज्वाइन किया था...अज्ञेय और नामवर के कई किस्से अनकही रह गई...
वो कमरा याद हो आया. उन दीवारों पर लिखे हर्फ़ तो वहीं छूट गए. पता नहीं उन हर्फ़ों पर कुछ और रंग चढ़ गया हो.
हर्फ़ों में बसी उन खूशबूओं को हम ढूँढा करेंगे, जब जब दिल्ली में मानसून की बारिश होगी...
(नोट: जब नामवर सिंह जोधपुर में थे , दुलारे जी उनके रसोइया थे. उससे पहले वे अज्ञेय के साथ रहते थे. नामवर जी जब दिल्ली आए तो उनका रसोई दुलारे जी के ही कब्जे में रहा)
Sunday, August 08, 2010
Remembering People's Poet Nagarjun
Saturday, August 07, 2010
नागार्जुन: सच का साहस
दरभंगा जिले में सकरी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए जैसे ही हम नागार्जुन के गाँव तरौनी की ओर बढ़ते हैं, मिट्टी और कंक्रीट की पगडंडियों के दोनों ओर आषाढ़ के इस महीने में खेतिहर किसान धान की रोपनी करने में जुटे मिलते हैं. आम के बगीचे में ‘बंबई’ आम तो नहीं दिखता पर ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ की भीनी सुगंध नथुनों में भर जाती है. कीचड़ में गाय-भैंस और सूअर एक साथ लोटते दिख जाते हैं. तालाब के महार पर कनेल और मौलसिरी के फूल खिले हैं...हालांकि यायावर नागार्जुन तरौनी में कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे छूटा भी नहीं. तरह-तरह से वे तरौनी को अपनी कविताओं में लाते हैं और याद करते हैं. लोक नागार्जुन के मन के हमेशा करीब रहा. लोक जीवन, लोक संस्कृति उनकी कविता की प्राण वायु है. लोक की छोटी-छोटी घटनाएँ उनके काव्य के लिए बड़ी वस्तु है. नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता, ‘अकाल और उसके बाद’ में प्रयुक्तत बिंबों, प्रतीकों पर यदि हम गौर करें तो आठ पंक्तियों की इस कविता पर हमें अलग से टिप्पणी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व में कोई फांक नहीं है. उनका कृतित्व उनके जीवन के घोल से बना है. यह घलुए में मिली हुई वस्तु नहीं है. नागार्जुन की रचना जीवन रस से सिक्त है जिसका उत्स है वह जीवन जिसे उन्होंने जिया. सहजता उनके जीवन और साहित्य का स्वाभाविक गुण है. इसमें कहीं कोई दुचित्तापन नहीं. लेकिन यह सहजता ‘सरल सूत्र उलझाऊ’ है.
नागार्जुन कबीर के समान धर्मा हैं. नामवर सिंह ने उन्हें आधुनिक कबीर कहा है. सच कहने और गहने का साहस उन्हें दूसरों से अलगाता है. युवा कवि देवी प्रसाद मिश्र की एक पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो उनमें ‘सच को सच की तरह कहने और सच को सच की तरह सुनने का साहस था’. नागार्जुन दूसरों की जितनी निर्मम आलोचना करते हैं, खुद की कम नहीं. जो इतनी निर्ममता से लिख सकता है- ‘कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप (कर्म का फल भोगे बूढ़े पिता)...’ तब आश्चर्य नहीं कि ...बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को...’सरीखी पंक्तियाँ उन्होंने कैसे लिखी होगी!
उनकी यथार्थदृष्टि उन्हें आधुनिक मन के करीब लाती है. यही यथार्थ दृष्टि उन्हें कबीर के करीब लाती है. यथार्थ कबीर के शब्दों का इस्तेमाल करें तो और कुछ नहीं-आँखिन देखी’ है. नागार्जुन को भी इसी आँखिन देखी पर विश्वास है, भरोसा है. मैथिली में उनकी एक कविता है ‘परम सत्य’ जिसमें वे पूछते हैं-सत्य क्या है? जवाब है-जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है. जीवन सत्य है. संघर्ष सत्य है. (हम, अहाँ, ओ, ई, थिकहुँ सब गोट बड़का सत्य/ सत्य जीवन, सत्य थिक संघर्ष.)
नागार्जुन की एक आरंभिक कविता है- बादल को घिरते देखा है.’ देखा है, यह सुनी सुनाई बात नहीं है. अनुभव है मेरा. इस तरह का अनुभव उसे ही होता है जिसने अपने समय और समाज से साक्षात्कार किया हो. कबीर ने किया था और सैकड़ों वर्ष बाद आज भी वे लोक मन में जीवित हैं. कबीर ने इसे ‘अनभै सांचा’ कहा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मुताबिक यह अनुभव से उपजा और अनभय सत्य है.
कवि नागार्जुन में साहस है. सत्य का अनुभव है. सत्य के लिए वे न तो शास्त्र से डरते हैं, न लोक से. जिस प्रकार कबीर की रचना में भक्ति के तानेबाने से लोक का सच मुखरित हुआ है, उसी प्रकार नागार्जुन ने आधुनिक राजनीति के माध्यम से लोक की वेदना, लोक के संघर्ष, लोक-चेतना को स्वर दिया है. बात 1948 के तेलंगाना आंदोलन की हो, 70 के दशक के नक्सलबाड़ी जनान्दोलन की या 77 के बेलछी हत्याकांड की, नागार्जुन हर जगह मौजूद हैं. सच तो यह है कि नागार्जुन इस राजनीति के द्रष्टा ही नहीं बल्कि भोक्ता भी रहे हैं. स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनैतिक उतार-चढ़ाव, उठा-पठक, जोड़-तोड़ और जनचेतना का जीवंत दस्तावेज है उनका साहित्य. नागार्जुन के काव्य को आधार बना कर आजाद भारत में राजनीतिक चेतना का इतिहास लिखा जा सकता है.
असल में साधारणता नागार्जुन के काव्य की बड़ी विशेषता है. ‘सिके हुए दो भुट्टे’ सामने आते ही उनकी तबीयत खिल उठती है. सात साल की बच्ची की ‘गुलाबी चूड़ियाँ’ उन्हें मोह जाती है. ‘काले काले घन कुरंग’ उन्हें उल्लसित कर जाता है. उनके अंदर बैठा किसान मेघ के बजते ही नाच उठता है. नागार्जुन ही लिख सकते थे: पंक बना हरिचंदन मेघ बजे.
नागार्जुन जनकवि हैं. वे एक कविता में लिखते हैं: जनता मुझसे पूछ रही है/ क्या बतलाऊँ/ जनकवि हूँ मैं साफ कहूँगा/ क्यों हकलाऊँ. नागार्जुन में जनता का आत्मविश्वास बोलता है. नागार्जुन की प्रतिबद्धता है जन के प्रति और इसलिए विचारधारा उन्हें बांध नहीं सकी. न हीं उन्होनें कभी इसे बोझ बनने दिया. नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा किसके प्रति? उन्हीं के शब्दों में: बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’, उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति-‘लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.’
नागार्जुन जीवन पर्यंत सत्ता और व्यवस्था के आलोचक रहे. जन्मशती वर्ष में यदि सत्ता प्रतिष्ठान उन्हें याद नहीं करें तो बात समझ में आती है, पर जिस ‘जन’ को उन्होंने अपना पूरा जीवन दिया उसने उन्हें कैसे भूला दिया?