Monday, December 22, 2014

पी साइनाथ की पहल

पी साइनाथ
भारतीय साहित्य और राजनीति की भाषा में गाँव अभी भले जीवित हो, महानगरीय पत्रकारिता से गाँव-देहात गायब हो चला है. जब कभी हजारों किसान-मजदूर दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के लिए आते हैं, तो अखबारों, टेलीविजन चैनलों में खबरें इन लोगों की वजह से प्रभावित होने वाले ट्रैफिक की होती है. हमें पता भी नहीं चलता कि इनकी माँगें क्या थी? किन समस्याओं को लेकर ये दिल्ली आए थे? ऐसे में गाँव और उसके बदलते यर्थाथ को विश्वविद्यालयों में होने वाले समाजशास्त्रीय अकादमिक अध्ययनों के लिए छोड़ दिया गया है.

भारतीय गाँव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से पिछले दिनों पी साईंनाथ की पहल से पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडियानामक एक वेब साइट शुरु की गई (http://www.ruralindiaonline.org/) है. इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा है. इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ विषय वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं. इस पर उपलब्ध सामग्री, फोटो, वीडियो का इस्तेमाल कोई भी मुफ्त में कर सकता है. साथ ही कोई भी इस वेबसाइट के लिए सामग्री मुहैया करा सकता है और इसके लिए पेशेवर पत्रकारीय कौशल की जरुरत नहीं है. इस वेबसाइट को चलाने के लिए पी साईंनाथ किसी राजनीति या कारपोरेट जगत से धन नहीं लेना चाहते, बल्कि आम जनों के सहयोग की उन्हें दरकार है.

कई बार सोचता हूँ कि यदि हमारे समय में पी साइनाथ नहीं होते तो क्या हम भारतीय गाँव-देहातों, किसानों की खबरों से रू-ब-रू हो पातेक्या उदारीकृतवैश्विक अर्थव्यवस्था में किसानों की समस्या, उनकी आत्महत्या के कारणों, विषम परिस्थितियों में खेतीबाड़ी को जान पाते? टाइम्स ऑफ इंडिया और द हिंदू में पत्रकारीय कार्य के दौरान उनकी रिपोतार्जों का कोई सानी नहीं है. उनकी लिखी चर्चित किताब एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्रॉट’ पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए एक टेक्स्ट बुक की तरह है.

जनसत्ता, 25 दिसंबर 2014
किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं से मीडिया की बेरुखी और लाइफ स्टाइल, फैशन, फिल्मी शख्सियतों की जिंदगी में अतिरिक्त रूचि पर व्यंग्य करते हुए पी साइनाथ ने वर्ष 2005 में अपने एक लेख में लिखा था: 1991-2005 के दौरान लगभग 80 लाख किसानों ने खेतीबाड़ी छोड़ दी लेकिन वे कहाँ गए इसकी चिंता कोई नहीं करता. कोई व्यवस्थित काम इस सिलसिले में नहीं किया गया है. मीडिया की इसमें कोई रुचि नहीं है. हां, भले ही हम आपको यह बता सकते हैं कि पैरिस हिल्टन कहाँ हैं. पिछले सालों में भारतीय मीडिया में ना सिर्फ खबर बदले हैं, बल्कि खबरों की नई परिभाषा भी गढ़ी गई है. 

जन्मभूमि और कर्मभूमि आप खुद नहीं चुनते, वो आपको चुनती है. मेरा जन्म मिथिला के एक पिछड़े गाँव में हुआ और मेरी बेटी कैथी पिछले वर्ष दिल्ली में जन्मी. मेरे लिए गाँव एक जीवित यर्थाथ है जहाँ देश की आबादी के करीब 70 फीसद लोग रहते हैं. पर पता नहीं बीस-तीस साल बाद मेरी बेटी के लिए गाँव का मानचित्र कैसा हो!

मुझे गाँव छोड़े लगभग बीस साल हो गए. पर गाँव अभी छूटा नहीं है. बरस-दो बरस में एक-दो बार गाँव चला ही जाता हूँ. जब गाँव से शहर की ओर लौटता हूँ तो लगता है कि कुछ छूट रहा है. बचपन की कुछ स्मृतियां, सपने, रंग और आबोहवा. जो बचा है मन उसे तेजी से समेट लेना चाहता है. निस्संदेह मेरे जैसे हजारों लोगों के लिए यह पहल इस गुजिश्ता साल की एक सुखद भेंट हैं. पर इस भेंट को आने वाली पीढ़ी के लिए संभालने का जिम्मा भी हम जैसे लोगों पर ही है, जो मुख्यधारा की मीडिया के बरक्स न्यू मीडिया से बदलाव लाने की अपेक्षा पाले बैठे हैं!

Saturday, November 22, 2014

मार खा रोई नहीं

पत्रकार को पिटती पुलिस
हरियाणा के सतलोक आश्रम में रामपाल की गिरफ्तारी को लेकर पुलिस की कार्रवाई का खबरिया चैनलों पर शोर था, तभी अचानक स्क्रीन पर पत्रकारों की पिटाई के दृश्य आने लगे. लेकिन भाजपा की नई मनोहर लाल खट्टर सरकार की देखरेख में पुलिस की इस अप्रत्याशित और निंदनीय कार्रवाई के खिलाफ एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार के कार्यक्रम जैसे एक-दो अपवाद को छोड़ मुख्यधारा के मीडिया में कोई बहस-मुबाहिसा नहीं है. हां, सोशल मीडिया में जरुर लोग इस घटना की चर्चा कर रहे हैं पर चटखारे लेकर. इस भाव से की अच्छा ही हुआ! ये चैनल वाले इसी काबिल हैं!  

भारत में सोशल मीडिया पर जो चर्चा देखी जाती है वह आम तौर पर माई वे या हाइ वे के बीच  बहस के लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ती. पर मुख्यधारा के मीडिया में पुलिस की इस कार्रवाई को लेकर, बहस, प्रतिक्रिया, आलोचना क्यों गायब है? ऐसा क्यों लग रहा है कि सबकी खबर देने वाला मीडिया अपनी खबर देना भूल गया. कुछ ही दिन पहले जब सोनिया गाँधी के दामाद और कारोबारी रॉबर्ट वॉडरा ने एक एजेंसी के पत्रकार को जब झिड़का और रिकॉर्ड किया गया फुटेज डिलीट करने को विवश किया तो टेलीविजन चैनलों, अखबारों और सरकार ने मिल कर ठीक ही इस कृत्य की चौतरफा निंदा की थी. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ. ना किसी को लोकतंत्र पर हमला दिखा ना हीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा. पुलिस से पत्रकारों की पिटाई के बाद जिस तरह की शांति  छाई रही उससे यह पंक्ति याद आई-- मार खा रोई नहीं’! 

जनसत्ता, 24 नवंबर 2014
लोकतांत्रिक समाज के बने रहने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक जरुरी शर्त है. आजाद भारत में मीडिया को वैधता सरकार, समाज और आम लोगों से मिलती रही है. नेहरू के दौर में मीडिया राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में अपना सहयोग दे रहा था. आधुनिक लोकतंत्र के निर्माण में मीडिया की विचारधारा राष्ट्र-राज्य से मेल खाती रही. गाहे-बगाहे मीडिया पहरुए की भूमिका में रहा पर मीडिया की स्वतंत्र आवाज कहीं दब गई थी. इंदिरा गाँधी के शासन काल में, खास तौर पर आपातकाल के दौरान मुख्यधारा का मीडिया झुक गया, या लालकृष्ण आडवाणी के शब्दों में कहें तो रेंगने लगा था. पर उसके बाद भाषाई पत्रकारिता के उभार से पहली बार मीडिया अपनी पहचान के साथ सत्ता के बरक्स खड़ा होता दिखा. पिछले दो दशकों में भूमंडलीकरण के बाद पत्रकारिता पर सरकार का दबदबा कम जरुर हुआ है, पर वह पूंजी की गिरफ्त में आ गया. बाजार के इशारों पर खबरों का उत्पादन होने लगा. अखबारों और चैनलों में खबर और विचार की संस्कृति समकालीन समाज की जरुरतों से कम ब्रांड की जरुरतों से ज्यादा परिचालित होने लगी.   

इस बार आम चुनाव में जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों, खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने मीडिया मैनेज किया,  वह अलग अध्ययन का विषय है. इस चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रुप में उभरे जिसे मीडिया ने खूब भुनाया. इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि इस चुनाव में मीडिया के अधिकांश घराने एक सहयोगी राजनीतिक पार्टी की भूमिका में थे! विशेष रूप से खबरिया चैनलों की भूमिका संदिग्ध रही.

हालांकि पिछले छह महीने की मोदी सरकार का मुख्यधारा के मीडिया को लेकर जो रवैया रहा है उससे ऐसा लगता है कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार मीडिया के साथ एक निश्चित दूरी बरत रही है और सरकार सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय है.

ऐसे में मुख्यधारा का मीडिया अपनी भूमिका तय नहीं कर पा रहा है कि वह किसके साथ है-- सरकार के या समाज के. आम जन से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी वैधता पर ही सवाल खड़े करता है. पिछले छह महीनों में यदि मीडिया की विषय वस्तु का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि सरकार की नीतियों और काम काज के तरीकों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया के भीतर एक भय और बिन माँगे सरकार के समर्थन का रुख है.

Wednesday, February 19, 2014

German Media, Bosnia & Kosovo Wars


A review of German Print Media Coverage in the Bosnia and Kosovo Wars of the 1990s, by Margit Viola Wunsch.

http://dissertationreviews.org
Margit Viola Wunsch’s dissertation is an important scholarly addition to the study of the media in conflict zones. Wunsch has thoroughly and rigorously analyzed how the German press reported and interpreted the two epochal wars of modern times, namely the war in Bosnia (1992-95) and Kosovo (1998-99). In the course of her research she has closely examined visual and textual coverage of nine national publications over a condensed period of time. The research sheds light on “how the events were covered, what sources were used and what insights the publications conveyed” (p. 2). It must be noted here that the Bosnia and Kosovo wars have played a significant role in shaping and influencing Germany’s foreign policy in later years and thus this work becomes equally important for our understanding of the current socio-political dynamics of the European Union.

This research work is divided broadly into two parts. The first section concentrates on the Bosnia War, while the second section dwells upon the Kosovo War. Both sections follow a similar pattern of tracing the initial phase of each conflict, one atrocity – the Srebrenica massacre in Bosnia and the Račak incident in Kosovo – and, lastly, the international involvement in the war.

Chapter 1, “Background: Key Historical Milestones,” deals briefly with the historical moorings of the troubled region since the medieval ages to World War II. Here the researcher takes note of the battle of Kosovo in 1389 and the role of religion therein. She sums up: “Tito ruled this Socialist Federal Republic of Yugoslavia under the mantra ‘Unity and Brotherhood’. By superimposing Communism on the diverse republics, which in some 63 cases were at enmity with one another, academics generally agree that tensions stemming from various historical eras ranging from the Middle Ages to the Second World War, subsided. However, after Tito’s death in 1980, a decade of political instability and conflict ensued, which escalated in the 1990s” (pp. 62-63). During this period, however, the USSR, Germany and Eastern Europe were in great upheaval. Wunsch subtly situates her study in the larger context of these events which had great implications worldwide.

Chapter 2, “1991-1992: The Descent into War – Early German Press Coverage,” takes us to the main part of the dissertation. Wunsch underlines Slobodan Milosevic’s ascendancy in Yugoslavia in 1989, the consequent declaration of Slovenia and Croatia as independent republics in 1991 and Germany’s support of their self-determination. Bosnia also declared its independence on 1 March 1992 and, subsequently, Yugoslavia waged war that lasted for nearly four years in Bosnia and Croatia. This chapter delves deep into German print media coverage of the initial weeks of the Bosnian War by exploring the German press’ explanations for the violence, the role of the Yugoslav Peoples’ Army (JNA), while also examining issues such as language and authorship.

Chapter 3, “July 1995: Srebrenica – Reporting Genocide,” first takes into account the secondary literature available on the war and goes on to analyze the Srebrenica massacre through textual and visual coverage in the print media. The author places particular emphasis on the Holocaust memory and its ramification in the political and public sphere. Apart from qualitative analysis, Wunsch also focuses on the quantitative aspects of press articles, slant and semantics of the “genocide/ethnic cleansing.”

Chapter 4, “November-December 1995: Peace in Bosnia – The Dayton Agreement,” analyzes the aftermath of the Srebrenica massacre and the peace treaty under the supervision of the international community which was held in Dayton. In this chapter the author looks at Germany’s role in the peace process, how the media downplayed it and how Slobodan Milosevic’s perceptions by the press ranged from “war monger” to “seasoned politician.” She also examines Germany’s recurring past memory, military intervention, foreign policy and “Genocide Clause.”

Chapter 5, “March-June 1998: Renewed Violence – The Kosovo Conflict,” is the first chapter of the second section. It deals with the Kosovo conflict which started merely two months after the Dayton agreement. The Kosovo Liberation Army used violent means to attain Kosovo’s independence from Serbia. Some of the questions addressed in this chapter are: What was the cause of this conflict? Was Milosevic the main culprit?  How did the press compare this conflict with the Bosnian War and World War II? This chapter tries to decipher the German press’ responses to these questions while analyzing the historical background and the language of the press articles.  As in the first section, here too, the author takes into account in her analysis both the visual and textual coverage.

Chapter 6, “January 1999: The ‘Račak Massacre,’” examines events from the vantage point of a Kosovo-Albanian village, Račak, where 45 people were killed. It deals with the violence and the response of German publications. As the researcher notes, “In spite of this increased international interest and the importance of Račak attributed by the secondary literature, this controversial incident has not received much attention in the field of media analyses” (p. 245). This chapter examines in further detail the coverage of the Račak incident, the autopsy examination and the domestic debate surrounding the German involvement in a potential NATO intervention.

Chapter 7, “March-May 1999: Reporting ‘War’ – The NATO-Intervention in Kosovo and Serbia,” is the last chapter of the dissertation. Like the Dayton agreement in the Bosnian war, this chapter deals with the intervention of the international forces and, in particular, with the German military’s response to the conflict. It takes into account the public opinion and political debate regarding the intervention, which was without UN mandate, and the German print media’s coverage. The author also discusses the depiction of Milosevic and the language used by the press.

Based on a sound methodology and using primary and secondary sources, this dissertation is a major study on the interplay of media, politics and the history of wars. It paves the way for the further media analysis in conflict zones, where the cobweb of conflicting interest often overshadows the truth. Wunsch has skillfully presented and analyzed the German press’ varied interpretations of the conflict. This valuable work will be of interest to scholars, media practitioners and the general public alike.
Arvind Das
ITV, Senior Researcher, New Delhi
arvindkdas@gmail.com
Primary Sources
Die Welt
Frankfurter Allgemeine Zeitung (FAZ)
die tageszeitung (taz)
BILD-Zeitung
Der Spiegel, etc.
Dissertation Information
The London School of Economics and Political Science. 2012. 377 pp. Primary Advisor: Maria-José Rodriguez-Salgado.

(Published in Dissertation review: http://dissertationreviews.org/archives/7149 )

Friday, January 31, 2014

हक़ अदा ना हुआ...

वीर भारत तलवार
आज प्रो. वीर भारत तलवार का जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में विदाई समारोह था। उनके छात्र के नाते मैंने भी वहाँ अपनी कुछ बातें शेयर की...

1992 मैंने दसवीं पास किया। उसी साल मेरे बड़े भाई, नवीन, हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टियों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

एक शिक्षक के रुप में तलवार जी के साथ यह मेरी पहली पहचान थी।

2002 में जेएनयू में एम. फिल में जब दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जी जब कहानी पढ़ाते थे तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते कि हमारी रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे। विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते। फिर भी तलवार जी इस बात को स्वीकार करते कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा। वे कहते कि कहानी जीवन का एक टुकड़ा है….

एम फिल और पीएचडी के लिए जब शोध निर्देशक के रुप में मैंने तलवार जी को चुना तो सीनियरों और सहपाठियों ने बताया कि सर के साथ काम करना दुष्कर है। सर बहुत तंग करते हैं। उनके साथ काम करके आप किसी भी परीक्षा की तैयारी नहीं कर सकते। वगैरह, वगैरह।

पर मैं उनकी प्रतिबद्धता और उनके लोकतांत्रिक चरित्र का  हमेशा कायल रहा। एक शिक्षक और आलोचक के रुप में वो हमेशा प्रश्न पूछने के लिए हमें प्रेरित करते रहे। क्लास के अंदर और बाहर भी। ढूँढो, खोजो, पता लगाओ उनका प्रिय जुमला रहता था। सर ने ना सिर्फ मेरी शोध प्रगति पर लगातार नजर रखी बल्कि समय से पूरा करवाया।

एक बार पता नहीं क्यों मैं सर से अपनी पीएचडी को लेकर उलझ पड़ा। सर ने अपने स्वभाव के अनुकूल बहुत शांत स्वर में कहा: ऐसा है ना अरविंद कि यदि तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सुपरवाइजर तुमसे ठीक से पेश नहीं आ रहा है तो तुम मेरे खिलाफ कहीं पर भी जा सकते हो। यूनिवर्सिटी में बहुत सारे फोरम हैं.’ मेरे चेहरे का रंग उड़ गया। मैं माफी माँगते हुए कहा कि ‘सर, ऐसा तो मैंने कुछ नहीं कहा है।’ उन्होंने कहा-" नहीं, नहीं, ऐसा कुछ मत सोचो। मैं बस यह कह रहा हूँ कि यह तुम्हारा डेमोक्रेटिक राइट है!" सर जैसे शिक्षकों की वजह से ही जेएनयू की लोकतांत्रिक छवि आज भी कायम है।

तलवार जी जैसा जीवन बहुत कम लोगों को मिल पाता है। वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता रहे। फिर अध्यापक बने। एक आलोचक-अध्येता के रुप में सर के काम का मूल्यांकन अभी बाकी है। मुझे लगता है कि सर की शोध पुस्तक 'रस्साकशी' अंग्रेजी में आई होती तो उसका reception ज्यादा विवेक सम्मत होता। हिंदी जगत ने उसका मूल्यांकन कम, अपना राग-द्वेष ज्यादा जोड़ दिया है।


तलवार जी संगीत और सिनेमा के बेहद शौकीन हैं। उनके साथ कई फिल्में देखने, संगीत समारोह में जाने का मुझे मौका मिला। और हां, सर के हाथों का बना खाना भी हमने कई बार खाया है।

सर उस समय Indian Institute of Advanced Studies में fellow थे। जेएनयू में खबर आई कि सर को जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने in absentia प्रोफेसरशिप ऑफर किया है। मैं घबराया, सर को फोन किया ‘सर, आप जब चले जाएँगे तो मैं किसके साथ पीएचडी करुँगा।’ सर ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘जेएनयू छोड़ कर कहां जाऊंगा.’

आज सर जेएनयू से विदा हो गए। पर क्या हम अपना हक अदा कर पाए...

Thursday, January 30, 2014

अंतिम प्रणाम



वे दिन फाख्ताओं के पीछे भागने के थे. आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों पर चढ़ने के थे. डिबिया (ढिबरी) और लालटेन की रोशनी में अक्षरों और शब्दों से खेलने के थे. 

स्कूल से आते-जाते किसी और के खेतों से मटर और छिमियाँ हम उखाड़ लाते. किसी के पेड़ से आम तोड़ लाते.  स्कूल नहीं जाने के दस बहाने करते. हम भाई-बहनों की इस खेल में दादी, जिसे हम दाय कहते थे, हर पल शामिल रहती थी, गोइयां की तरह.
 
बाबा जब गुजरे तब मैं बहुत छोटा था, वो मुझे याद नहीं. दाय के आँचल में ही हमने जीवन के पहले गीत सुने-पाथेर पांचाली. मुझे याद नहीं कि दादी ने कभी राजा-रानियों की कहानी हमें सुनाई हो. दादी की कहानियाँ उसके जीवन संघर्ष की कहानियाँ होती थी. 

दाय निरक्षर पर जहीन थी. लोक अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहाँ शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है! जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हँसते हुए हमें लिख कर दिखाया करती- जानकी. पर यह नाम उसे पसंद नहीं था. वो कहती कि जानकी के जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है. मिथिला में सीता स्त्री दुख का एक रुपक है!  

दाय के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, गोकि उसके दोनों छोटे भाई बिहार सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थे. जब हम उससे पूछते कि तुमने क्यों नहीं पढ़ाई की, वो कहती कि उस समय में लोग कहते थे कि पढ़ाई करने से वैध्वय मिलता है’.  जिस समाज में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषियों के किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम हो वहाँ कैसे इस तरह की स्त्री विरोधी, प्रतिगामी विचारों ने जगह बनाई होगी आश्चर्यचकित करता है. यदि दाय की पीढ़ी को मिथिला में औपचारिक शिक्षा मिली होती तो मिथिला के सामंती समाज का चेहरा इतना विद्रूप नहीं होता.

दाय घड़ी देख कर समय का हिसाब नहीं लगाती. सूर्य को देख कर कहती- एक पहर बीता, दो पहर बीता. अपने जन्म का हिसाब वो 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप से लगाती. दाय कहती 1934 में जब भारी भूकंप आया था तब मैं 10-12 वर्ष की थी. शादी के बाद जिस घर में वो आई उसने कई रुप बदले. लेकिन वह लकड़ी का तामा, जो दाय के गाँव से आया था पिछले 75 सालों से आज भी घर में है. उस जमाने में तामा से नाप-तौल होता था. कवि विद्यापति ने अपनी एक कविता में लिखा है:  मांगि-चांगि लयला महादेव धान ताम दुई हे. दादी कहती उस जमाने में गाँव में कहीं-कहीं चूल्हा जलता था, पर लोग मिल-बांट कर खाते थे. जब भी हम उससे आज की गरीबी की बात करते तो वह कहती नहीं, पहले जैसी स्थिति नहीं है. अब सब घर में चूल्हा तो जलता है. औपनिवेशिक दौर में पली-बढ़ी उस पीढ़ी के लिए भूख सबसे बड़ा सच था.

पहली बार विस्थापन की पीड़ा हमने दाय से ही जानी. भले ही 75 वर्ष पहले वो गौने होकर आई पर उसका अपना गाँव, नैहर उससे मरते समय तक नहीं छूटा. जब कभी हम पूछते गाँव चलोगी? एक चमक उसकी आँखों में कौंध उठती.  

हम रोजी-रोटी के लिए इस शहर उस शहर भटकते रहे. दाय खूंटे की तरह अपनी जमीन से गड़ी रही. जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरने समय क्या मगहर जाऊँगी. हम एक बछड़े की तरह छह महीने, साल में उस खूंटे की ओर दौड़ पड़ते. 

उस दिन पापा ने फोन पर कहा, माँ गुज़र गई’. निस्तब्ध, मुझे लगा खूंटा उखड़ गया. अपनी ज़मीन से नमी चली गई. 

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 'अंतिम पहर बीता' शीर्षक से 6.02.14 को प्रकाशित)

Tuesday, January 14, 2014

ओम दर-ब-दर



सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों और न्यू मीडिया पर इन दिनों ओम दर-ब-दर की खूब चर्चा है. पिछले दिनों जब मैंने एक मित्र से इस फिल्म के बारे में बताया तो उसने हँसते हुए कहा कि यह फिल्म है भी या नहीं इस पर बहस जारी है!’ 25 वर्ष पहले नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन (एनएफडीसी) के सहयोग से बनी यह फिल्म 17 जनवरी को पहली बार रुपहले पर्दे पर आ रही है. 

असल में बॉलीवुड की मसाला फिल्मों से अलग यह फिल्म एक नए सौंदर्यबोध की माँग करती है. समांतर सिनेमा के दौर में बनी मणि कौल की उसकी रोटी या कुमार साहनी की मायादर्पण की तरह ही यह फिल्म फिल्म व्याकरण को धता बताते हुए दर्शकों के धैर्य की परीक्षा करती है. पर अंत में हम एक ऐसे अनुभव से भर उठते हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क पर वर्षों तक छाया रहता है.

भारतीय फिल्म के सौ सालों के इतिहास में भले ही आम दर्शकों के बीच यह फिल्म चर्चित नही हुई हो, लेकिन कमल स्वरुप निर्देशित इस फिल्म को बॉलीवुड और भारतीय फिल्म के अवांगार्द फिल्ममेकरों के बीच कल्ट फिल्म का दर्जा प्राप्त है. वर्तमान में अनुराग कश्यप से लेकर अमित दत्ता तक की फिल्मों पर इस फिल्म की छाया दिखती है. पुणे स्थित फिल्म और टेलीविजन संस्थान में तो इस फिल्म की चर्चा के बिना कोई बात ही पूरी नहीं होती. खुद कमल स्वरुप इस संस्थान के स्नातक रहे हैं और मणि कौल के साथ काम किया है.

पर इस फिल्म की कहानी क्या है? इस आसान से सवाल का जवाब बेहद मुश्किल है. अजमेर-पुष्कर इलाके में किशोर और युवा की वयसंधि पर खड़ा ओम और उसके आस पास के जीवन की यह कहानी है.  फिर सवाल राना टिगरीना या उस मेढ़क का बचा रह जाता है जिसके पेट में हीरा भरा है! सवाल बाबूजी, गायत्री और जगदीश के प्रेम संबंधों का भी है!

असल में इस फिल्म में कोई एक कहानी नहीं है, कई कहानियाँ हैं. यह एक साथ कई रेखाओं में यात्रा करती है. यदि फिल्म दृश्य, विंब और ध्वनि का संयोजन कर एक कला की सृष्टि करती है तो निस्संदेह इस फिल्म के माध्यम से एक अलहदा अनुभव संसार हमारे सामने दरपेश होता है.

इस फिल्म का एक सिरा एबसर्ड से जुड़ता है तो दूसरी ओर एमबिग्यूटीके सिद्धांतों से. हिंदी सिनेमा के अवांगार्द फिल्म मेकर इसे एक उत्तर आधुनिक फिल्म मानते हैं. भूमंडलीकरण के इस दौर में जिसे हम ग्लोकलकहते हैं उसकी छाया इस फिल्म में दिखती है. एक साथ इस फिल्म में विटोरियो डी सिका की बाइसिकिल थिव्स की झलक है तो दूसरी ओर मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास में आए मारगांठ की. फिल्म के संवाद भारतीय सामाजिक संरचना, राजनीतिक चेतना और अंतर्राष्ट्रीय हालात पर एक साथ टिप्पणी करते हैं. इस सार्थक-निरर्थक संवाद के बीच दर्शक व्यंग्य और हास्य बोध से भर उठता है. 

एक साथ मिथक, विज्ञान, अध्यात्म, ज्योतिष, लोक और शास्त्र के बीच जिस सहजता से यह फिल्म आवाजाही करती है वह भारतीय फिल्मों के इतिहास में मिलना दुर्लभ है. 

करीब दस साल पहले पुणे फिल्म संस्थान के कुछ स्नातकों और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर के साथ मैंने यह फिल्म जेएनयू में देखी थी. उसके बाद सवाल-जवाब के क्रम में कमल स्वरुप अपने बेलौस अंदाज में जितनी सहजता से दर्शकों के सवाल को स्वीकार रहे थे, उसी सहजता से नकार भी रहे थे. बिलकुल कुछ देर पहले देखी फिल्म की तरह!

पर उन्होंने माना था कि ओम दर-ब-दरमेरा पासपोर्ट है... और इस बात से किसी को इंकार भी नहीं!

(जनसत्ता में समांतर स्तंभ के तहत 16 जनवरी 2014 को प्रकाशित)