Sunday, October 30, 2022

बॉलीवुड के 'आइकन' अमिताभ बच्चन


हिंदी सिनेमा के इतिहास में ऐसे अभिनेता कम ही हुए हैं, जिन्हें अस्सी साल की उम्र में केंद्रीय भूमिका मिलती रही हो. फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन की नई फिल्म ‘गुडबाय’ कुछ दिन पहले आई है. विकास बहल निर्देशित इस ‘ट्रेजीकॉमेडी’ में एक भी ऐसा दृश्य नहीं है, जिसमें वे नहीं हो. यह मनोरंजक फिल्म पारिवारिक रिश्तों को समेटे है. फिल्म में नीना गुप्ता, रश्मिका मंदाना, आशीष विद्यार्थी, सुनील ग्रोवर की भी प्रमुख भूमिका है, लेकिन परिवार के मुखिया अमिताभ बच्चन की चिर-परिचित आवाज सब पर भारी है.

अमिताभ बच्चन पचास साल से ज्यादा समय से बॉलीवुड में सक्रिय हैं. हमारी पीढ़ी ने पिछली सदी में 70 के दशक के अमिताभ को परदे पर नहीं देखा. हमने जब होश संभाला तब तक ‘दीवार’, ‘जंजीर’, ‘शोले’ आदि फिल्में हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गई थी. अस्सी के दशक के आखिर में, बिहार के एक छोटे कस्बे में जब दस-बारह साल की उम्र में अमिताभ को ‘शहंशाह’, ‘तूफान’, ‘जादूगर’ में देखा, तब उनका ‘स्टारडम’ ढलान पर था और फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट रही थी. ‘मैं आजाद हूं’ (1989) फिल्म में मसीहाई अंदाज में वे दिखते हैं. ऐसा लगने लगा था कि इस दशक के अमिताभ की आभा क्षीण हो गई.
सत्तर के दशक में अमिताभ ने ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि में आम आदमी के असंतोष, क्षोभ, हताशा, सपने और मोहभंग को स्वर दिया. ‘दीवार’ (1975) फिल्म का विजय व्यवस्था से विद्रोह करता हुआ, हाशिये पर पड़ा एक आम आदमी है. देश के सामाजिक-राजनीतिक हालात के साथ ही इसमें लेखक सलीम-जावेद की जोड़ी की भी प्रमुख भूमिका रही. अस्सी के दशक में इसे हम समांतर सिनेमा की धारा में ओम पुरी अभिनीत ‘आक्रोश’, ‘अर्धसत्य’ जैसी फिल्मों में देखते हैं, जहाँ व्यवस्था से विद्रोह मुखर है.
हमारी पीढ़ी के लिए 90 के दशक में शाहरुख-आमिर-सलमान खान ही बॉलीवुड के हीरो रहे, हालांकि अमिताभ ‘अग्निपथ’, ‘अजूबा’, ‘मेजर साहब’ जैसी फिल्मों के माध्यम से मौजूद थे. सही मायनों में 21वीं सदी में ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो में कंप्यूटर जी’ से संवाद करते जब वे रुपहले परदे से उतर कर ड्राइंग रूम में पहुंचे तब उनसे हमारा परिचय हुआ. प्रसंगवश, ‘गुडबाय’ फिल्म में अमिताभ बच्चन एक जगह इस शो के इर्द-गिर्द एक चुटकुले का जिक्र भी करते हैं!
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद आई संचार क्रांति ने सिनेमा की विषय-वस्तु को भी गहरे प्रभावित किया. सिनेमा ने सामाजिक बदलावों को अंगीकार किया है. मनोरंजन के साथ समाज को देखने का निर्देशक-लेखक का नजरिया बदला है. जाहिर है, ऐसे में अमिताभ के लिए लेखक ने नए किरदार गढ़े. ‘सरकार’, ‘चीनी कम’, ‘पा’,’ पीकू’, ‘पिंक’, ‘गुलाबो सिताबो’, ‘झुंड’ आदि फिल्में इसका उदाहरण है. इन फिल्मों में अमिताभ अपने ‘स्टार’ छवि से अलग होकर एक किरदार के रूप में हमसे जुड़ते हैं.
पचास साल तक लगातार लोगों का मनोरंजन करना आसान नहीं है. इस मायने में वे बॉलीवुड के 'आइकन' है, जिन्होंने दो पीढ़ी के दर्शकों और कलाकारों को प्रभावित किया है. हालांकि यहाँ पर यह जोड़ना उचित होगा कि यदि वे एक कलाकार के रूप में राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर गाहे-बगाहे अपनी आवाज बुलंद करते तब वे हमारे समय के और करीब होते.

Tuesday, October 25, 2022

अनूठे लेखक निर्मल वर्मा से अधूरा साक्षात्कार: हियर एंड हियरआफ्टर

 

चर्चित कवि आलोकधन्वा ने लिखा है-मीर पर बातें करो/ तो वे बातें भी उतनी ही अच्छी लगती हैं/ जितने मीर.  हाल ही में प्रकाशित विनीत गिल की किताब- हियर एंड हियरआफ्टरनिर्मल वर्माज लाइफ इन लिटरेचर (Here and Hereafter: Nirmal Verma’s Life in Literature)पढ़ते हुए ये पंक्तियाँ याद आती रही. यह किताब हिंदी के अनूठे लेखक निर्मल वर्मा (1929-2005) के जीवन और साहित्य को समेटे है. इस किताब को लेखक ने दीवानगी की सादगी’ में लिखा है. इसमें आलोचना नहीं हैखंडन-मंडन नहीं है. हिंदी साहित्य संसार से दूर रह कर निर्मल वर्मा से प्रेम करने वाले विनीत अकेले नहीं हैं. हिंदी और हिंदी के अलावे विभिन्न भाषाओं में निर्मल वर्मा के प्रशंसकों की एक अलग दुनिया है. इस किताब में युवा लेखक निर्मल के लेखन की गलियों से गुजर कर अपने लिए एक ठौरआइकन की तलाश में दिखता है.   

हिंदी में निर्मल वर्मा के साहित्य के ऊपर पर्याप्त विवेचन-विमर्श उपलब्ध है, पर ऐसा नहीं कि निर्मल को लेकर अंग्रेजी में लेखन नहीं हुआ है. ज्ञानपीठ और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित वे अंग्रेजी की दुनिया में भी एक परिचित नाम हैं. उनके लेखन का विपुल मात्रा में अंग्रेजी अनुवाद भी उपलब्ध है. शिमला में जन्मेनिर्मल की शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी माध्यम में ही हुई थी. सेंट स्टीफेंस कॉलेज से इतिहास में उन्होंने एमए किया था और पिछली सदी में 60 का पूरा दशक यूरोप में बिताया था. वर्ष 1972 में वे दिल्ली लौटे थे.

निर्मल वर्मा ने कहानीउपन्यासयात्रा वृत्तांतनिबंधआलोचनाडायरी जैसी विधाओं में भरपूर लेखन किया. साथ ही यूरोप प्रवास में उन्होंने चेक साहित्य का अनुवाद भी कियापर उन्होंने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी. वे कहते थे: ‘सिद्धांततमुझे नहीं लगता कि एक लेखक को आत्मकथा लिखनी चाहिए. मुझे अपना जीवन सार्वजनिक करने में गहरा संकोच होता है.” वैसे भी अधिकांश आत्मकथा लेखन आत्मश्लाघा ही होता है. ऐसे में निर्मल वर्मा की मुकम्मल जीवनी का अभाव है. हियर एंड हियरआफ्टर’ किताब भी इस मामले में निराश ही करती है.

आत्मकथा को लेकर निर्मल में जैसा संकोच का भाव थाउसी तरह विनीत में भी जीवनी लेखन को लेकर एक संकोच दिखता है. वे इस किताब को साहित्यिक जीवनी’ के करीब रखने के हिमायती है. वे निर्मल के लेखकीय व्यक्तित्व, परिवेश (शिमला-दिल्ली-यूरोप) भाव बोध के निर्माणसर्जना और उनके ऊपर लेखकों के प्रभाव का जिक्र करते हैं, लेकिन एक 'अधूरे साक्षात्कार' की तरह ही. किताब में उनके प्राग (चेकोस्लोवाकिया) प्रवास का विवरण रोचक है. 

प्रसंगवशपिछले दिनों ही पत्रकार अक्षय मुकुल ने हिंदी के रचनाकार अज्ञेय की जीवनी राइटररेबेलसोल्‍जरलवर: द मैनी लाइव्ज़ ऑफ अज्ञेय’ नाम से लिखी हैजो अज्ञेय के निजी जीवन, साहित्यसमाज और एक युग के राजनीतिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को विस्तार से हमारे सामने लेकर आती है. विनीत इस किताब में निर्मल वर्मा को अज्ञेय का असली वारिस कहते हैंपर किताब में आगे वे यह भी जोड़ते हैं कि  सच्चाई यह है कि वर्मा का लेखन किसी तयशुदा परंपरा में नहीं आता और इस अर्थ में उनका लेखन प्रामाणिक तौर पर भारतीय और यूरोपीय दोनों ही है.”  असल मेंनिर्मल वर्मा हिंदी साहित्य के इतिहास में नयी कहानी आंदोलन के कहानीकार के रूप में समादृत रहे हैं. उनकी 'परिंदेकहानी हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती है. उनकी कहानियों में मानवीय अनुभूतियों, व्यक्ति के अकेलापनअवसादघनीभूत पीड़ा का चित्रण मिलता है. शहरी मध्यवर्गीय जीवन, स्त्री-पुरुष संबंध, घर की तलाश अधिकांश कहानी के केंद्र में है. उनकी कहानियों में परिवेश मुखर होकर सामने आता है.

वर्ष 1958 में प्रकाशित उनकी बहुचर्चित कहानी संग्रह परिंदे के बारे में नामवर सिंह ने लिखा था: “फकत सात कहानियों का संग्रह परिंदे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है बल्कि जिसे हम नयी कहानी कहना चाहते हैंउसकी भी पहली कृति है.”   बाद में हालांकि आलोचकों ने नामवर सिंह की इस स्थापना पर सवाल उठाया था. 50 के दशक में नयी कहानी आंदोलन में इलाहाबाद के साहित्यकारों (अमरकांतशेखर जोशीमार्कण्डेय) की बड़ी भूमिका थी. निर्मल वर्मा उनसे दूर दिल्ली में थे.

नामवर सिंह के ही संपादन में  आलोचना पत्रिका (1989) के निर्मल वर्मा पर केंद्रित अंक में लिखे शोध लेख ('निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र') में वीर भारत तलवार ने नोट किया है कि नई कहानी के दूसरे सभी कहानीकारों और निर्मल की कहानियों के बीच बहुत अधिक फर्क है...निर्मल की कहानियों का अनूठापन मुख्यततीन बातों में है-काव्यात्मक भाषाचमत्कारपूर्ण कल्पना और रहस्यात्मकता. यही तीन मुख्य विशेषताएं हैं जो उन्हें नई कहानी के दूसरे सभी कहानीकारों सेऔर शायद हिंदी की पूरी कथा-परंपरा सेअलग करती हैं.”  निर्मल वर्मा के लेखन में शब्द और स्मृति बीज पद की तरह आते हैं. उनकी कहानियों में भी स्मृतियों की बड़ी भूमिका है जो परिंदे से लेकर कव्वे और काला पानी तक में मौजूद है. 

निर्मल वर्मा के लेखन से जो मोहाविष्ट हैं उन्हें काव्यात्मक भाषाबिंबों की असंगततारहस्यीकरण के मद्देनजर तलवार के लेख को पढ़ना चाहिए. उन्होंने कहानियोंलेखों से उदाहरण देकर निर्मल की जीवन दृष्टि और कला को रेखांकित किया हैसाथ ही विस्तार से उसे प्रश्नांकित भी किया है. विनीत ने अपनी किताब में निर्मल वर्मा के एक पत्र के हवाले से लिखा है कि वे आलोचना के इस अंक से खुश नहीं थे. साहित्य में सामाजिक यथार्थ भाषा के माध्यम से ही व्यक्त होता हैआश्चर्यजनक रूप से विनीत अपनी किताब में निर्मल वर्मा की भाषा पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते. एक चुप्पी है यहां.

निर्मल वर्मा की कहानियों को रंगमंच पर भी प्रस्तुत किया गया. खास कर धूप का एक टुकड़ाडेढ़ इंच मुस्कानवीकएंडदूसरी दुनिया इनमें प्रमुख हैं. उनकी कहानी माया दर्पण पर समांतर सिनेमा के चर्चित निर्देशक कुमार शहानी ने इसी नाम फिल्म भी बनाई. एक बातचीत में शहानी ने मुझसे कहा था कि निर्मल ने अनेक बार यह फिल्म देखीपर उन्हें पसंद नहीं आईयह काफी अजीब था.’ निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ में सामंतवाद के खिलाफ विरोध नहीं दिखता, जबकि इस फिल्म के अंत में यह स्पष्ट है.

विनीत गिल ने किताब की भूमिका में वैश्वीकरण के इस दौर में 'विश्व साहित्य' की अवधारणा पर सवाल उठाया है. हिंदी में लिखा साहित्य विश्व साहित्य क्यों नहीं है? गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास 'रेत समाधि' (टूम ऑफ सैंड, अनुवाद डेजी रॉकवेल) को मिले अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के बाद यह सवाल 'बीच बहस में' है-- खास कर अंग्रेजी 'पब्लिक स्फीयर' (लोक वृत्त) में. 

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

 

Saturday, October 22, 2022

मैथिली सिनेमा: 'कन्यादान' से कान तक का सफर


दो साल पहले इन्हीं पन्नों पर जब मैंने लिखा था कि मैथिली फिल्में
 ‘देस की तलाश में हैमुझे इस बात का अंदाजा नहीं था वे इतनी जल्दी विदेश पहुँच जाएगी. फ्रांस का प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह ने इसी साल 75वीं वर्षगांठ मनायावहाँ भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में अचल मिश्र की मैथिली फिल्म धुइन (धुंध)’ दिखाई गई. यह मैथिली सिनेमा के इतिहास में  एक गौरवपूर्ण और अभूतपूर्व घटना है. समारोह के दौरान मैथिली के अलावे हिंदीमराठीतमिलमलयालम और मिशिंग भाषा की पाँच अन्य फिल्में भी दिखाई गईं. मराठीबांग्लाअसमियातेलुगूतमिलमलयालमभोजपुरीमैथिली सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैंएक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति और सौंदर्यशास्त्र से परिचित होते रहते हैं. लोकतांत्रिक भारत में बहुलतावाद को इससे बढ़ावा मिलता है.

आज मीडिया में दक्षिण भारतीय सिनेमा की चर्चा हर तरफ है. वहाँ के निर्देशकों और कलाकारों की अखिल भारतीय लोकप्रियता आश्चर्यचकित करता है. कहा तो यह भी जा रहा है कि दक्षिण की तरफ से आ रही इस तेज बयार में कहीं बॉलीवुड बिखर न जाए. इस बात से इंकार नहीं कि सबटाइटल’ और ‘डबिंग’ के मार्फत क्षेत्रीय सिनेमा के प्रसार से देश में जो भाषाई विभाजन हैवह मिटने लगा है. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता हैपर मैथिली सिनेमा भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है जिस पर कहीं कोई बातचीत नहीं होती. मैथिली सिनेमा के इतिहास और वर्तमान से दूसरी भाषाओं के दर्शकों के साथ-साथ सिनेमा उद्योग से जुड़े निर्माता-निर्देशक और वितरक भी सर्वथा अपरिचित ही हैं.

मैथिली सिनेमा का अतीत

मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:

रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज

(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)

मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)

हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे,  जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा थालेकिन मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक ‘द्विरागमन’ के समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में पहली मैथिली फिल्म बनीजो वर्ष 1971 में 'कन्यादान' नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं हैहालांकि बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई. असल में पिछले दशकों में हमने भारत की सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) के तौर पर बॉलीवुड को ही देखा-समझा!

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी ‘कन्यादान फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं हैजैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. पिछली पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थी, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए.  ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.

इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को दिखाया गया है. एक उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुष की एक अशिक्षित स्त्री से शादी हो जाती है. इससे उत्पन्न समस्या और मिथिला की सामाजिक कुरीतियों को फिल्म में हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाया गया है. जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ सी परमानंद के निर्देशन में भी बन रही थीजो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर वर्ष 1982 में रिलीज हुई. अस्सी के दशक के मध्य में हमने दूरदर्शन पर इस फिल्म को देखा था. इस फिल्म के निर्माता रहे केदारनाथ चौधरी ने अपनी मैथिली किताब ‘अबारा नहितन’ में फिल्म निर्माण से जुड़े प्रसंगों और संघर्ष को खूबसूरती से पंक्तिबद्ध किया है.

कन्यादान’ की तरह ही ‘ममता गाबए गीत फिल्म के प्रिंट भी दुर्लभ हैं. इस फिल्म को लोग गीत-संगीत के लिए आज भी याद करते हैं. महेंद्र कपूरगीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खोछोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोरबौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी फिल्म में शामिल था. मैथिली भाषा अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध है. संवाद के लिए यह फिल्म खास तौर पर उल्लेखनीय है.

कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. इस फिल्म में पटकथा नवेंदु घोष और संवाद हिंदी के चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने लिखे थे. हम जानते हैं कि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में इससे पहले उन्होंने साथ काम किया था. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही बिहार का वृहद समाज भी उदासीन ही रहा! जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती हैवहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. इसकी क्या वजह है? 

इस फिल्म में स्त्रियों के हास-परिहाससभागाछीशादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेलागोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदीउर्दूबंगलामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदीउर्दूबांग्लामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह मैथिली से भिन्न भाषा के लोगों ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी.

सवाल उठता है कि क्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुएजबकि बिहार में सिनेमा के प्रदर्शन और देखने की परंपरा मूक फिल्मों के दौर से रही हैयहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनींजिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. सवाल यह भी है क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थीजब मैंने यह सवाल केदारनाथ चौधरी से पूछा तब उन्होंने कहा- ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ (1966) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता. सी परमानंद की इस फिल्म में छोटी भूमिका थीजहाँ वे अपने संवाद मैथिली में बोलते हैं. यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘न्यू थिएटर्स स्टूडियो' की देवकी बोस के निर्देशन में हिंदी और बांग्ला में बनी ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? इस फिल्म में एक भी गीत विद्यापति के नहीं थे!

मैथिली सिनेमा का वर्तमान

कन्यादान’ और ‘ममता गाबए गीत’ के बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुईलेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है. इन फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कखन हरब दुख मोरजैसी फिल्में बाद के दशक में आई पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई. ये फिल्में पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों को समेटे हुई थी. फिल्मांकन और कहानी कहने का ढंग (नैरेटिव) हिंदी सिनेमा से ही प्रेरित रहा.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015)रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018) रिलीज हुई. इन दोनों फिल्मों पर भी बॉलीवुड का स्पष्ट प्रभाव है. प्रसंगवश, ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है.

अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (2019) फिल्म समारोहों में सराही गई और पुरस्कृत हुई है. मीडिया में भी इसकी खूब चर्चा हुई. पिछले दिनों इस फिल्म को म्यूजियम ऑफ मार्डन आर्ट, न्यूयॉर्क में भी समकालीन भारतीय सिनेमा के तहत प्रदर्शित किया गया. इससे पहले फिल्म को ऑनलाइन ‘मूबी’ प्लेटफार्म पर रिलीज किया गया थासंक्षेप में, ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म हैजिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. अचल मिश्र मैथिली सिनेमा के युवा स्वर हैंजिनसे काफी उम्मीदें हैं. ‘गामक घर’ की तरह ही धुइन’ भी प्रतिष्ठित मुंबई फिल्म समारोह में इस वर्ष दिखाई गई थी. जहाँ गामक घर’ की कथा गाँव के जीवन और बाद में पलायन को समेटती हैवहीं ‘धुइन’ की कथा दरभंगा शहर में अवस्थित है. 

कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली कमर्शियल फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन और ‘स्टार’ तत्व हावी रहा है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालममराठीअसमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. 'धुइन' फिल्म इसी कड़ी में शामिल है. धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज हैजो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना हैपर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैंपर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने बेरोजगारी को लेकर उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.


इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता हैतब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’ ‘धुइन देखते हुए सत्यजीत रे की फिल्म प्रतिद्वंदी’ (1970) की याद आती है. ‘प्रतिद्वंदी’ कलकत्ता (कोलकाता) में अवस्थित है. फिल्म का नायक सिद्धार्थ (धृतमन चटर्जी) एक शिक्षित बेरोजगार युवक है, जिसे नौकरी की तलाश हैलेकिन वाम विचारधारा के कारण उसे बार-बार असफलता हाथ लगती है. देश-काल के बदलते यथार्थ की वजह से उसका व्यक्तित्व अशांत और अस्थिर है. इस फिल्म में रे ने उन्हीं तकनीकों का इस्तेमाल किया गया है जिसमें मृणाल सेन सिद्धहस्त थे. हिंदी के आलोचक  प्रोफेसर वीर भारत तलवार बातचीत में अक्सर कहते हैं कि 'रे की फिल्मों में कलात्मक संयम दिखाई देता है'. सिनेमा तकनीक आधारित कला है जो समय के साथ पुरानी पड़ जाती है. ‘प्रतिद्वंदी’ फिल्म अपनी विषय-वस्तु की वजह से पचास साल बाद भी मौजूं हैभले ही राजनीतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया हो. इस वर्ष कान फिल्म समारोह में 'प्रतिद्वंदीभी दिखाई गई थी. सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के ऐसे पुरोधा है जिनसे फिल्मकार हमेशा प्रेरणा ग्रहण करते हैंअचल मिश्र अपवाद नहीं हैं. ‘गामक घर’ के एक दृश्य के माध्यम से उन्होंने उनकी फिल्म पाथेर पांचाली’ को याद किया है. अचल मिश्र की फिल्मों में बिंब और ध्वनि के संयोजन में कलात्मकता है. यहाँ कोई ताम-झाम नहीं है, एक सादगी है.

 

बहरहालजहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर थावहीं ‘धुइन’ में हराही पोखर’ हैदरभंगा राज का किला हैहवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता हैपर वहाँ रह रहे कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी हैजो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र ने बातचीत में मुझसे कहा भी कि उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय हैजहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं. कम बजट की ये फिल्में लोकेशन पर शूट की गई है.

 

मैथिली सिनेमा का भविष्य


आधुनिक समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा सिनेमा का प्रभाव बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. पिछले पचास वर्षों में मैथिली में साठ से ज्यादा फिल्में बनी हैंलेकिन इन दशकों में मैथिली फिल्मों को लेकर निर्माताओं-वितरकों में कोई  उत्साह नहीं रहा. जहाँ भोजपुरी सिनेमा का एक बाजार हैवहीं मैथिली सिनेमा एक बाजार विकिसित करने में नाकाम रहा है, जबकि दोनों ही भाषाओं में सिनेमा निर्माण एक साथ ही पिछली सदी के साठ के दशक में शुरु हुआ था. भोजपुरी और मैथिली फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा इन दिनों  मैथिली में जैक्शन हॉल्ट’ के निर्माण में लगे हैं और लोगों से फिल्म पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता (क्राउडफंडिंग) की मांग कर रहे हैंताकि वे इस साल फिल्म रिलीज कर सकें. उन्हें आम जनता से हालांकि उत्साहवर्धक सहायता नहीं मिल रही है. उन्होंने ‘मिथिला मखान’ के लिए भी लोगों से सहायता की अपील की थी. मिथिला मखान’ को जब नेटफ्लिक्सअमेजन प्राइमहॉटस्टार आदि ओटीटी प्लेटफॉर्म प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे चार साल बादवर्ष 2020 में एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्मबेजोड़पर रिलीज करने का फैसला किया. 'मिथिला मखानमिथिला में रोजगार की समस्यापलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैंभले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. इस भाषा पर एक जाति विशेष का दबदबा हमेशा रहा है. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो बहुसंख्यक जनता के सरोकार मैथिली साहित्य और सिनेमा से नहीं जुड़ पाए हैं. साथ ही मैथिली फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्लेटफार्म’ का अभाव भी एक बड़ी समस्या रही है. पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली ने मुझे बताया कि केरल सरकार ने हाल में एक ओटीटी प्लेटफॉ़र्म चालू किया हैजिस पर मलयालम की मुख्यधारा से अलग फिल्में दिखाई जाएंगी. यह वैसी फिल्में होंगीजिन्हें आलोचकों ने सराहा है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन्होंने ध्यान खींचा है. इस मामले में केरल ने नेतृत्व किया हैदूसरे राज्यों को उसका पालन करना चाहिए.” क्या बिहार सरकार कसारावल्ली के सुझाव पर अमल करेगी?

आखिर मेंपिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकीमल्टीप्लेक्स सिनेमाघरओटीटी प्लेटफॉर्म और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता के बल पर कम लागत में फिल्में बनाई जा रही हैं. अचल मिश्र की फिल्में इसका खूबसूरत उदाहरण है. जाहिर है मैथिली सिनेमा के भविष्य का सफर संघर्षों से भरा हैलेकिन सफलता भी इन्हीं पगडंडियों से होकर जाती है. कान इस सफर में एक अहम मुकाम है, जो युवा फिल्मकारों को मैथिली में फिल्म निर्माण-निर्देशन के लिए प्रोत्साहित करेगा


(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2022)