Monday, October 30, 2023

बंगबंधु मुजीब के जीवन को रचती फिल्म

 


चर्चित फिल्मकार श्याम बेनेगल को ऐतिहासिक, जीवनीपरक विषयों के फिल्मांकन में महारत हासिल है. ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ और ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ जैसी उनकी फिल्में तथा ‘भारत एक खोज’ सीरीज काफी सराही गई. इसी कड़ी में ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ फिल्म है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है, ‘बंगबंधु’ के नाम से चर्चित, बांग्लादेश के प्रथम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता, शेख मुजीबुर्रहमान (1920-1975) ‘मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन’ फिल्म के केंद्र में हैं.

इस फिल्म के संबंध में बात करते हुए बेनेगल ने मुझे कहा था कि ‘ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है’. साथ ही उन्होंने फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह किया था कि बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म ‘प्रोपगेंडा’ बन जाती है. इस लिहाज से यह फिल्म अपने विषय के साथ न्याय करती है. यह दर्शकों को मुजीब के स्कूल-कॉलेज के दिनों, नए पाकिस्तान में बांग्ला भाषा को लेकर हुए आंदोलन, अवामी लीग के गठन और बांग्लादेश राष्ट्र के निमार्ण में संघर्ष को घेरे में लेती है. इससे लिपट कर मुजीब का परिवार, बीवी-बच्चों के साथ उनके संबंध भी सामने आते हैं, जो उनके व्यक्तित्व को आम लोगों के करीब लाता है. नए राष्ट्र बांग्लादेश के निर्माण (1971) में धार्मिक अस्मिता से अलग भाषाई अस्मिता सबसे महत्वपूर्ण अवयव रहा. नए राष्ट्र के लिए हुआ आंदोलन उर्दू राष्ट्रवाद के विरोध में था. असल में, धर्म से अलग भाषा की अस्मिता बांग्लादेश राष्ट्र के निर्माण के लिए शुरुआत से ही जुड़ गई थी.

यह फिल्म भारत और बांग्लादेश के सरकार के सहयोग से बनी है, जिसमें दोनों देशों के कलाकारों का योगदान है. पचास साल पहले बनी ऋत्विक घटक की फिल्म ‘तिताश एकटि नदीर नाम’ (1973) अपवाद ही कही जाएगी, जो इस फिल्म की तरह ही भारत और बांग्लादेश सरकार के संयुक्त परियोजना का हिस्सा थी. वैसे भी हिंदुस्तान और बांग्लादेश की संस्कृति की भूमि एक ही है. अनायास नहीं कि फिल्म में रवींद्रनाथ टैगोर, काजी नजरुल इस्लाम की छवियाँ कई बार दिखाई देती है.

बहरहाल, यह फिल्म मुजीब को एक ऐसे नायक के रूप में परदे पर चित्रित करती है जिसके जीवन में कोई फांक या विरोधाभास नहीं था. उनके चरित्र में कोई द्वंद का न होना फिल्म को एकरस बनाती है, जिससे यह कहीं-कहीं बोझिल हो जाती है. हालांकि बेनेगल ने कहा था कि ‘शेख मुजीब की पृष्ठभूमि गाँधी या नेहरू की तरह नहीं थी. वे धनाढ्य या जमींदार नहीं थे. वे एक काम-काजी शख्स थे और मध्यवर्ग से ताल्लुक रखते थे.’ बांग्लादेश के कलाकार अरिफिन शुभो ने मुजीब के किरदार को बखूबी निभाया है. वे इस फिल्म की जान हैं. मध्यांतर के बाद फिल्म गति पकड़ती है, जब ‘मुक्तिवाहिनी’ योद्धाओ के संघर्ष से हम रू-ब-रू होते हैं. फिल्म में ऐतिहासिक वीडियो फुटेज और तस्वीरों का भी इस्तेमाल किया गया है. शेख मुजीब के भारतीय नेताओं, खासकर इंदिरा गाँधी के साथ मधुर संबंध थे.

मुजीब इस उपमहाद्वीप के एक बेहद खास शख्सियत थे. मुजीब ने एक नए राष्ट्र को जन्म दिया, लेकिन वर्ष 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के ज्यादातर सदस्यों के साथ हत्या कर दी गई. यह फिल्म उनके जीवनवृत्त को संपूर्णता में भले समेटती है, लेकिन यहाँ उनके व्यक्तित्व की आलोचना का अभाव दिखाई देता है. स्वतंत्र बांग्लादेश में उनके शासन के प्रति नागरिक समाज की क्या राय थी? यह फिल्म इस सवाल का जवाब नहीं देती है.

अंत में, इस फिल्म में इस्तेमाल हुए गीत-संगीत की चर्चा जरूरी है. फिल्म का संगीत शांतनु मोइत्रा का है. खास कर रेणु (बेगम फजिलातुन्नेसा) की मुजीब के संग शादी के प्रसंग को लेकर जो लोक गीत का इस्तेमाल किया है वह बेहद खूबसूरत है. इस गीत में कहा गया है कि ‘सीता के लिए कागज पर लिख कर जो सिंदूर भेजा गया है वह सिंदूर लेकर बन्ना आएगा.’ मुस्लिम शादी-विवाह में हिंदू संस्कृति के इस प्रसंग को सुनकर आश्चर्य हो सकता है पर सच है कि सैकड़ों वर्षों से हिंदू-मुस्लिम बांग्लादेश में साथ रहते आए थे. वर्ष 1971 में आजादी के बाद चीजें बदली. प्रसंगवश, मिथिला में शादी के समय वर वालों की तरफ से वधू के लिए जिस कागज में भर कर सिंदूर भेजा जाता है वह मिथिला पेंटिंग (लिखिया) से सजा होता है. कहा जाता है कि सीता की शादी के समय ही राजा जनक ने मिथिला पेंटिंग अपने घर की दीवारों पर करवाई थी, जो परंपरा के रूप में आज भी कायम है. आज जब विभिन्न राष्ट्रों के बीच संघर्ष बढ़े हैं, सिनेमा के माध्यम से दो देशों की संस्कृतियाँ यदि करीब आती है तो इससे अच्छा क्या होगा!

Sunday, October 29, 2023

हिंसा के बीच द्रौपदी के सवाल

 


मशहूर फ्रेंच दार्शनिक रोलां बार्थ ने मिथक के प्रसंग में भाषा के रूपक का इस्तेमाल किया है, जिसका अर्थ इस्तेमाल करने पर ही हमारे सामने स्पष्ट होता है. महाभारत महाकाव्य की ‘द्रौपदी’ एक ऐसी मिथकीय चरित्र है जो लेखकों, कलाकारों को बार-बार अपनी तरफ आकृष्ट करती रही हैं. नए संदर्भों में इस चरित्र की सवर्था नई व्याख्या होती रही हैं. स्त्री विमर्श के इस दौर में द्रौपदी महज द्रुपद की बेटी, पांचाली या पांडवों की पत्नी नहीं है. वह अपनी पहचान और सवालों को लेकर उपस्थित होती है. महाभारत के युद्ध के केंद्र में द्रौपदी का चरित्र है. प्रतिशोध और हिंसा के बीच न्याय का सवाल बार-बार सामने आता है. क्यों द्रौपदी को युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है? क्यों द्रौपदी को अपना पति चुनने का अधिकार नहीं दिया गया? हिंसा के बाद आखिर क्या शांति स्थापित हो पाई?


पिछले दिनों दिल्ली के श्रीराम सेंटर सभागार में युवा नाट्यकर्मियों की संस्था ‘ट्रेजर आर्ट एसोसिएशन’ ने ‘अग्निसुता द्रौपदी’ नाटक का मंचन किया, जिसके केंद्र में द्रौपदी और उसके सवाल ही थे. इस नाटक को युवा रंगकर्मी मोहन जोशी ने लिखा है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित जॉय माईस्नाम और साजिदा की जोड़ी इस नाटक के पीछे थी. जहाँ परिकल्पना और निर्देशन जॉय का था, वहीं मंच पर साजिदा थी. इससे पहले मैंने इस टीम का प्रॉडक्शन-‘तमाशा-ए-नौंटकी’ और ‘अंधा युग’ देखा था और प्रभावित हुआ था.

द्रौपदी के चरित्र के माध्यम से हमारे समय में हिंसा के बीच अपने अस्तित्व और पहचान के सवाल को उठाया गया है. मणिपुर हो यूक्रेन या फिलिस्तीन सब जगह हिंसा के दृश्य दिखाई दे रहे हैं, ऐसे में महाभारत के विभिन्न प्रसंग, चरित्र उभर कर हमारे सामने आ जाते हैं. साथ ही युद्ध और शांति के सवाल भी हमें मथते रहते हैं. क्या महाभारत से हम कोई सबक ले पाएँ हैं?

महाभारत जैसे महाकाव्य को एक निश्चित समयावधि में मंच पर कुशल रूप में प्रस्तुत करना किसी भी निर्देशक के लिए एक चुनौती है. इस नाटक को देखते हुए लगता रहा है कि दृश्य बहुत तेजी से मंच पर घटित हो रहे हैं और अभिनेता हड़बड़ी में हैं. फिर भी इस नाटक के कई दृश्यों का संयोजन बेहद कुशलता से किया गया था और वे आकर्षक थे. चौसर के खेल और द्रौपदी को दांव पर लगाने के प्रसंग के लिए निर्देशक ने सवर्था नई युक्ति का सहारा लिया है. इसमें मिजोरम के प्रसिद्ध बांस नृत्य की झलक दिखाई देती हैं. खुद जॉय मणिपुर के हैं. महाभारत के विभिन्न प्रसंगों को निर्देशक ने बेहद कम साजो-सामान के साथ मंच पर प्रस्तुत किया. अवतार साहनी की प्रकाश परिकल्पना नाटक के अनुकूल थी.

दिल्ली या देश किसी भी शहर में आज व्यावसायिक थिएटर करना आसान नहीं है. संसाधनों के अभाव में गैर पेशवर या नौसिखुए कलाकारों से ही अभिनय करवाना पड़ता है. इस नाटक में भी युवा नाट्यकर्मियों के जुनून मंच पर दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन्हें अभी और अभ्यास और कला के प्रति समर्पण की जरूरत है.

Friday, October 20, 2023

Celebrating A Classic: Mani Kaul's Duvidha

 


In June 2010, when I was attending the Film Appreciation course at the Film and Television Institute of India (FTII), Pune, avant-garde film director Mani Kaul came for a valedictory lecture and interacted with us. The coordinator of the course, Professor Suresh Chabria, introduced Mani as ‘‘the best film director of our time.’’ Many of us in the batch had not seen Kaul’s movies as they were not easily available. I remember during our course his documentary Siddheshwari was screened at the Film Archives auditorium and we were mesmerised by its form and aesthetics. It felt like we were watching a long poem gently unfold on celluloid.

 I wanted to talk with Mani about his movies but unfortunately, he passed away a year later in Gurgaon. Recently, while watching his movie Duvidha (Dilemma) again, I remembered a long meeting which I had, when he was the creative director of Osian Film Festival in Delhi, in 2006. I was doing my Ph.D research at Jawaharlal Nehru University (JNU) at that time and Mani talked to me like a friendly teacher. Besides being an auteur, he was a great teacher as well.

During our conversation at a hotel lobby in Delhi, he remarked self-depreciatingly, “Mujhse zyada extreme mein bahut kam log gaye, jitni bhi filmein banayi saari flop” (Very few people went to the extreme I did; all of my films flopped). It’s a pity that his films didn’t get box-office release but they won national and international awards and were screened at film festivals worldwide. With the digital revolution his films have become available online for interested viewers. Many young film-makers from FTII swear by his name. Avant-garde contemporary film-makers like Amit Dutta, Gurvinder Singh and Pushpendra Singh’s movies are influenced by his aesthetics and minimalistic style.

Mani Kaul is hailed as a pioneer of the parallel cinema movement in India. After graduating from the Film Institute, Pune, where he was ace dir­ector Ritwik Ghatak’s favourite pupil, he directed Uski Roti (1969) based on a short story of the same name by Hindi fiction writer Mohan Rakesh. It is known for its formalist experimentation in New Indian Cinema. Later, he made Ashad ka Ek Din (1971) based on Rakesh’s eponymous play, and Duvidha (1973). His first colour feature film, Duvidha, which is now fifty years old, asks for critical engagement afresh, particularly when Bollywood is witnessing the emergence of a new kind of woman on screen. Duvidha is adapted from famous Rajasthani writer Vijaydan Detha’s folk tale of the same name.

It’s interesting to note that almost all of Kaul’s feature films are based on Hindi literature. He said, “I think and write in Hindi only.” Among his earlier three films named above, Duvidha is the most accomplished and nuanced work that he directed. The film revolves around a newly-wed young woman named Lachhi (Raisa Padamsee), whose husband (Ravi Menon) leaves for a business tour without consummating their marriage. The son of a Baniya (merchant), he is more concerned about the khata-bahi (ledger) than the beauty of his bride. In the husband’s absence, a ghost impersonates the husband and starts living with the bride. Although enamoured by the young beauty, the ghost doesn’t hide his identity from her. Lachhi doesn’t resist the relationship. Does she have any agency? In the course of time, a child is born to her and the ghost. Subsequently, the husband also returns to the haveli. Finally, in accordance with the justice meted out by a shepherd, the ghost is imprisoned in a leather bag and thrown into a well and thus the dilemma is resolved. Is it really resolved though? No one asks about the wishes and desires of the woman. The film is a feminist tale about agency and the choices available to women. Through its unique non-linear narrative style, the film treads between the real and the imaginary. In the short story, Detha writes, “Kahin ye dulhan ke mann ka hi bhoot tho nahi tha, jo sakar roop dhar kar prakat hua?” (Was the ghost the bride’s imagination?).

Speaking before the screening of Siddheshwari in his characteristic humorous style, Mani had remarked, ‘‘If you don’t get a few points, don’t fret over it. It’s not that important.’’ Mani’s story-telling technique always asks for the audience’s active participation. He emphasised that a movie is an amalgamation of image and sound and should be read in that way only.

We find women protagonists waiting in different time/space in three of his movies. Be it Balo (Uski Roti), Mallika (Ashad ka Ek Din) or Lachhi (Duvidha). When I asked him about the ‘waiting’ in his films he said, ‘‘This waiting takes us away from experiential/empirical time, when even one minute can be an hour.’’ Later, he told me when he was learning classical music (he was an accomplished Dhrupad singer) that he used to feel this very strongly in the interval of Sam and Visham.

In Mani’s films, landscape is very important. Duvidha was shot in Detha’s village, Borunda (Rajasthan). Born in Jodhpur, Mani was familiar with this landscape. Also, he was very much immersed in Indian poetics and aesthetics, in particular, he emphasised dhwani (sound), which gets reflected in his movies. While seeing Duvidha, the way he captures the beauty of the veiled Lachhi (Raisa Padamsee) in the palanquin, the ancient Maithili court poet Vidyapati comes to mind, “Sundari tu mukh mangal data” (O, beautiful lady your face is auspicious). It has been said that the images in this film resemble miniature paintings. Talking about the colour (red) and form (object-landscape), film director and Mani’s colleague Kamal Swaroop recalls famous painter—and Raisa’s father—Akbar Padamsee calling him Mani’s ‘Guru’. In fact, during 1969-72, Mani Kaul and Kumar Shahani, who made Maya Darpan (1972) based on Nirmal Verma’s short story, were part of Padamsee’s Inter Art Vision Exchange Workshop in Bombay. Padamsee lent his support to the movie and it was financed by Film Finance Corporation of India (FFC). Here, it’s pertinent to note that the cinematography of this movie was done by multi-faceted artist Navroze Contractor who passed away recently in a road accident.

Mani talked to me about the influence of film-makers like Robert Bresson, Andrei Tarkovsky and artist Henri Matisse. He said, “I still learn a lot from Ritwik da. He took me out of the neorealist stream.” Despite various influences, the ‘space’ in which Mani created his art is very personal, which can be felt in every shot and frame of his films. He emphasised ‘svabhava’ (nature/temperament). Mani’s films are not only influenced by painting but by literature, music and architecture too. Even in his later phase, he made a film on famous Hindi writer Vinod Kumar Shukla’s Naukar ki Kameez (The Servant’s Shirt) and was planning to make Khilega toh Dekhenge (Will See When it Blossoms) into a movie. He also wanted to direct Detha’s story ‘Charandas Chor’ but Shyam Benegal had already adapted it into a movie.

Mani always struggled to raise funds for his movies. Even today, when we talk to young independent film-makers they too bemoan the lack of resources. In a recent interview, Pushpendra Singh, who made Lajwanti (The Honour Keeper) and Laila aur Satt Geet (The Shepherdess and the Seven Songs), said to me, “We can expand on our style and vision, but our aesthetics are determined by the constraints in which we work.” Mani’s films are testament to those constraints; however, he aspired to create the best out of meagre means. When Duvidha was released, renowned film-maker Satyajit Ray was very critical of the movie in his essay titled ‘Four and a Quarter.’ However, fifty years later, its aesthetics and form are still discussed among young film-makers and millennial audiences alike. Singh said he too wanted to make a film on Duvidha but Mani had already made the movie, so he chose Detha’s ‘Kenchuli’ to make Lajwanti. He called it an ode to Mani Kaul.

(For Outlook magazine, 21st Oct 2023)

Wednesday, October 18, 2023

वहीदा रहमान: सिनेमा के सौंदर्य का सम्मान


वहीदा रहमान को सिनेमा में योगदान के लिए इस वर्ष का प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया है. भले वर्ष 1969 में देविका रानी से इस पुरस्कार की शुरुआत हुईलेकिन लगभग पचास सालों के इतिहास में महज छह अभिनेत्रियों को ही इस पुरस्कार से नवाजा गया है.

 वर्ष 1955 में तेलुगू फिल्म रोजुलू माराई’ के एक गाने में वहीदा रहमान पहली बार पर्दे पर दिखी. उस गाने पर फिल्मकार गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए. वर्ष 195में ‘सीआईडी’ फिल्म से शुरू हुआ उनका सफर जारी है. उन्होंने अब तक करीब 90 फिल्मों में काम किया है. 

उम्र के 85 वर्ष पूरी कर चुकी वहीदा इस साल प्रयोगधर्मी निर्देशक अनूप सिंह की फिल्म द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस में नज़र आई थीं. उनकी कई ऐसी फिल्में हैंजिन पर हिंदी सिनेमा को नाज है. पिछली सदी के पचास-साठ के दशक में आईं प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘चौदहवीं का चाँद’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘गाइड’, ‘तीसरी कसम’, ‘खामोशी फिल्में आज क्लासिक मानी जाती है और रोजी’, ‘हीराबाई’, ‘गुलाबो’, ‘शांति’ राधा’ जैसे किरदार आज भी याद किए जाते हैं.

वैसे तो अपने फिल्मी करियर में उन्होंने सबसे ज्यादा फिल्में देवानंद के साथ कीजिनकी जन्मशती मनाई जा रही है, पर शुरुआती दौर की फिल्मों की सफलता का श्रेय वे गुरुदत्त को देती हैं. अपनी सिनेमाई यात्रा के बारे में वे कहती हैं: “मेरा करियर शुरु से ही बहुत अच्छा रहा. मुझे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा और सब कुछ अच्छा होता गया. ऊपर वाले की बहुत दया थी.”  

वहीदा रहमान के करियर में विजय आनंद (गोल्डी) निर्देशित ‘गाइड’ (1965) का स्थान सबसे ऊपर है.. राजू (देवानंद) और रोजी (वहीदा रहमान) के बीच प्रेम संबंध को यह फिल्म जिस अंदाज और फलसफे से प्रस्तुत करती हैवह इसे समकालीन बनाता हैयह फिल्म मशहूर लेखक आर के नारायण के इसी नाम से लिखे उपन्यास पर आधारित है.

आज 21वीं सदी के भारत में स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में पिछली सदी के पचास-साठ के दशक की अपेक्षा बहुत परिवर्तन हुए हैं. सिनेमा भी इस बदलाव को अंगीकार कर रहा हैलेकिन साठ के दशक में एक विवाहित स्त्री के अन्य पुरुष के साथ संबंध को पर्दे पर दिखाना सिनेमा की परंपरा के विपरीत था. 'गाइड' में एक विवाहित स्त्री एक पुरुष के साथ लिव-इन में रहती है, जो  अपनी पहचान और स्वतंत्रता को लेकर काफी सचेत है. वहीदा स्वीकार करती हैं कि रोजी का किरदार उनके व्यक्तित्व के करीब है. वे कहती हैं कि रोजी को पता है कि वह क्या चाहती है और स्पष्ट बोलती है.

प्रसंगवश, ‘गाइड उपन्यास पर मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे भी फिल्म बनाना चाह रहे थे. जब वहीदा बांग्ला फिल्म ‘अभीजान (1962)’ में उनके साथ काम कर रही थीं तब उन्होंने इस बात की चर्चा की थी. पर बाद में फिल्म बनाने के अधिकार देवानंद ने खरीद लिए थे और यह फिल्म नवकेतन’ के बैनर तले बनी. वे कहती हैं कि ‘ऐसा लगता है कि रोजी मेरे लिए ही लिखी गई थी. सत्यजीत बनाएँ या देवानंद,  करना मुझे ही था. गाइड की तरह ही फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पर बनी तीसरी कसम (1966) भी हीरामन (राजकपूर) और हीराबाई (वहीदा) की असफल प्रेम कहानी हैजिसकी चर्चा आज भी होती है.

हिंदी सिनेमा में कहानीगीत-संगीत की केंद्रीय भूमिका रही है. ‘मेलोड्रामा अभिनेता-अभिनेत्री सहारे ही पर्दे पर मूर्त होता है. उनके माध्यम से ही पर सिनेमा देखते-परखते हैं. ऐसे में इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि ‘गाइड’  और तीसरी कसम’ फिल्म का सौंदर्य रोजी’ और ‘हीराबाई’ के इर्द-गिर्द है. फिल्म का गीत-संगीत जिस किरदार से जुड़ा है वह एक नर्तकी है. खुद वहीदा भरतनाट्यम में प्रशिक्षित हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि किस तरह उन्होंने एक साथ रोजी और हीराबाई के किरदार के लिए खुद को तैयार कियातो उन्होंने कहा कि एक आर्टिस्ट के रूप में हमें समझना पड़ता है कि हीराबाई गाँव की नौटंकी करती है. उसका डांस करने का अंदाज अलग है. यह क्लासिकल नहीं है. वहीं रोजी प्रोफेशनल स्टेज डांसर है.’ सिनेमा में आने से पहले वे मंच पर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करती थीं. वहीदा अपने वालिद के कहे इस बात को याद करती हैं कि हुनर नहीं खराब होता हैआदमी खराब होता है. आप जिस तरह पेश आते हैं उस तरह प्रोफेशन का नाम होता है.

वहीदा ने अपनी प्रतिभा के बूते देश-विदेश में खुद का और हिंदी सिनेमा का नाम रोशन किया.  अभी तक हम अभिनेताओं के नजरिए से ही हिंदी फिल्मों को परखते रहे हैंवहीदा रहमान के किरदारोंभाव-अभिनय की रोशनी में उनकी फिल्मों को देखना-परखना सिनेमा के पारखियों और प्रेमियों के लिए आज भी रोचक है. 

Sunday, October 15, 2023

संकट की अधूरी तस्वीर

 


देश में करीब चार सौ समाचार चैनल हैं. बावजूद इसके जब खबरों की विश्वसनीयता और सटीकता की बात आती है लोग अखबारों पर अधिक भरोसा करते हैं. ऐसा क्यों हैक्यों टीवी समाचार उद्योग पिछले दो दशकों मे दर्शकों के बीच अपनी साख नहीं बना पाया हैसवाल यह भी है कि लोकहित से जुड़े गंभीर-मुद्दों को देखने में दर्शकों की कितनी रूचि है?

ऑनलाइन समाचार वेबसाइट आने के बाद टीवी समाचार चैनलों पर संकट और बढ़ा है. अपवाद छोड़ दिए जाए तो आर्थिक रूप से इनकी स्थिति बेहद कमजोर है. संसाधनों के लिए इन्हें विज्ञापन पर निर्भर रहना पड़ता है. बाजार और राजनीतिक सत्ता के दबाव के बीच इन्हें काम करना पड़ता है. कर्ज से डूबे एनडीटीवी के कर्ता-धर्ता प्रणय रॉय को अपना चैनल पिछले साल अडानी समूह को बेचना पड़ा था. रवीश कुमार सहित कई नामी-गिरामी पत्रकारों ने अपना त्यागपत्र दे दिया.

पिछले दिनों विनय शुक्ला की डॉक्यूमेंट्री नमस्कार, मैं रवीश कुमार देखी. औपचारिक रूप से देश में इसका प्रदर्शन अभी नहीं हुआ है.  हाल में भारत में बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की चर्चा भले देश-विदेश के फिल्म समारोहों में हुई हो, दर्शक वर्ग और वितरकों की तलाश में डॉक्यूमेंट्री निर्माताओं-निर्देशकों को हमेशा रहना पड़ता है.

बहरहाल, जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस वृत्तचित्र के केंद्र में एनडीटीवी इंडिया से लगभग 25 साल जुड़े रहे टेलीविजन के पत्रकार और स्टार-एंकर रवीश कुमार हैं. राजनीतिक विचारधारा, राष्ट्रवाद की अनुगूँज के बीच उनकी पत्रकारिता और जीवन-संघर्ष को यह वृत्तचित्र अपना विषय बनाती है.

टीवी समाचार उद्योग की कार्यशैली पर भी यह डॉक्यूमेंट्री एक तीखी टिप्पणी है. सत्ता चाहे राजनीतिक हो या धर्म की कभी सवालों को पसंद नहीं करती. लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडियाकर्मी जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता से सवाल करते हैं. रवीश कुमार की पत्रकारिता में भी सत्ता से सवाल करना शामिल रहा है, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है. 

देश-विदेश के मंच से भारत को मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कहा जाने लगा है. विश्व के सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र में यदि मीडिया स्वतंत्र नहीं है, यह लोकतंत्र पर संकट की तरफ इशारा करता है. आज पत्रकारिता के पेशे को निभाना आसान नहीं है. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 देशों में भारत का स्थान 161 नंबर पर है. फिर भी संकट के बावजूद हमारे बीच कई ऐसे पेशेवर पत्रकार हैं जो ग्लैमर से दूर रह कर, जान पर खेल कर सत्य को समाज के सामने लाने की कोशिश में रहते हैं. वर्ष 2019 में रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने पुरस्कार देते हुए रवीश कुमार की पत्रकारिता को सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाज’ बताया था. हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर हैवहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गयी लगती है.

यह वृत्तचित्र अपने प्रभाव में अधूरी और बिखरी हुई लगती है. बहुत सारे सवाल, मसलन एनडीटीवी कैसे कर्ज के बोझ से घिरता चला गया इस पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं मिलती. एक मुकम्मल तस्वीर के लिए पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों को भी सवालों के घेरे में लिया जाना आवश्यक है. 


Monday, October 09, 2023

वहीदा रहमान के साथ अरविंद दास की बातचीत

 


सुप्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान को भारतीय सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है.  85 वर्ष की वहीदा रहमान वर्ष 1955 में तेलुगू फिल्म रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार नजर आई जो बेहद चर्चित हुई. उस गाने पर फिल्मकार गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए. वर्ष 1956 में सीआईडी’ फिल्म से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है और उन्होंने करीब 90 फिल्मों में काम किया है. अरविंद दास ने पिछले दिनों वहीदा रहमान से बातचीत की. उनसे हुई बातचीत का एक संपादित अंश प्रस्तुत है:

अरविंद दासवहीदा जीबहुत बधाई आपको. क्या दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने में देर हुई?

वहीदा रहमानदेखिएजो जिस वक्त होना होता है वही होता है. आगे हो जाता है तो कहते हैं कि बहुत जल्दी मिल गयाअगर बाद में मिले तो कहते हैं देर हो गया. मैं समझती हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं.

अरविंद दासपर क्या यह सच नहीं है कि देविका रानी से फाल्के पुरस्कार की शुरुआत हुई और अब तक  गिनी चुनी महिला कलाकारों को ही पचास सालों में यह पुरस्कार मिला हैजबकि सिनेमा में उनका योगदान पुरुषों से कम नहीं है...

वहीदा रहमानऐसी बात नहीं है. देखिए एक तो मैं एक्सपेक्ट नहीं कर रही थी और यह अचानक हुआ. तो मैंने कहा कि ठीक है- दैट्स ऑल. ऐसी कोई बात नहीं कि आगेपीछे...विवाद शुरु करने की क्या जरूरत है.

अरविंद दासइस साल मैंने आपकी फिल्म द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस देखीजिसे अनूप सिंह ने निर्देशित किया. फिल्म में इरफानजो अब नहीं रहेऔर इरानी मूल की फ्रेंच अदाकारा गोलशिफतेह फरहानी भी थी. कैसा अनुभव रहा.

वहीदा रहमान:  मेरी अब तक की आखिरी फिल्म है ये. इरफान के साथ कोई दृश्य इसमें नहीं है. छोटा सा गेस्ट रोल थाइस फिल्म में. अनूप सिंह की मैंने ‘किस्सा’ देखी थीजो मुझे बहुत अच्छी लगी थीतो यह फिल्म मैंने कर ली. अच्छा अनुभव रहा और क्या कहूँ.

अरविंद दास:  सीआईडी (1956) से अब तक लगभग पैंसठ-सत्तर साल का सिनेमाई सफर कैसा रहा है? कैसे मुड़ कर आप अपने करियर को देखती हैं.

वहीदा रहमान:   मेरी सिनेमाई यात्रा बहुत ही अच्छी रही. क्या कहूँमेरा करियर शुरु से ही बहुत अच्छा रहा. मुझे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा और सब कुछ होता गया. ऊपर वाले की बहुत दया थीसब कुछ अच्छाअच्छा ही होता गया.

अरविंद दास:   देवानंद की जन्मशती मनाई जा रही हैजिनके साथ आपने सबसे ज्यादा फिल्में की. कैसे को-स्टार थे वे?  आप उन्हें डिसेंट फ्लर्ट कहती थीं.

वहीदा रहमान:   सीआईडी में मैंने पहली बार साथ में काम किया. उन्होंने कहा कि आप मुझे सिर्फ देव कहोगी. मैंने कहा कि ऐसे कैसे मैं कह सकती हूँदेव साहब. मैंने कहा कि आप मेरे से बड़े है. बड़े स्टार हैं आप और यह मेरी पहली पिक्चर है. उन्होंने कहा कि नहींकोई मिस्टर या साहब नहीं. सिर्फ देव कहो. उन्होंने कहा कि यदि यह तकल्लुफ होती हैतो मैं काम नहीं कर सकता..हमें एक-दूसरे का दोस्त होना चाहिए. काम में मदद करनी चाहिए. तो मैंने कहा कि ठीक है. सिर्फ वहीं थे जिन्हें मैं सिर्फ देव कहती थीनहीं तो राज जी (राज कपूर)दिलीप साहब (दिलीप कुमार)सुनील जी (सुनील दत्त) वगैरह वगैरह... तो एक कंफर्ट लेवल था उनके साथ. हम एक-दूसरे को समझते थे कि कोई प्रॉब्लम हो तो कैसे सुलझाए. वे इतने फ्रेंडलीप्यार से मिलते थे कि कभी नहीं लगा कि फ्लर्ट कर रहे हैं. वे फ्लर्ट नहीं थेइसलिए मैं उन्हें डिसेंट फ्लर्ट कहती थी (हंसती हैं).

अरविंद दास:   आपकी फिल्मोग्राफी में एक से बढ़कर एक फिल्म हैपर गाइड का नाम सबसे ऊपर आता है. कैसे आपने इस फिल्म में रोजी के किरदार के लिए खुद को तैयार किया?

वहीदा रहमान:   देव जी ने आर के नारायण की किताब भेजी पढ़ने के लिए. इसके बाद उन्होंने स्क्रिप्ट बनाई पर्ल एस बक के साथ मिल कर तो वो भेजा. फिर डायरेक्टर्स को लेकर काफी अदलाव-बदलाव हुआ. आखिर में विजय आनंद आए जिनके साथ काम करके काफी अच्छा लगा. उनके साथ मैंने काला बाजार की थी.  देव और गोल्डी (विजय आनंद) से सेट पर मिलना जुलना होता थावे दोस्त थे. मुझे काफी खुशी हुई कि गोल्डी इसे निर्देशित कर रहे थे.

अरविंद दास:   एक जगह आपने कहा है कि सत्यजीत रे गाइड को लेकर फिल्म बनाना चाह रहे थेजब आप उनके साथ 'अभिजान (1962)फिल्म कर रही थी?

वहीदा रहमान:   करेक्टकरेक्ट. मैं तो भूल ही गई थी. अच्छा आपने याद दिलाया.

अरविंद दास:   यदि रे ने इसे बनाई होती तो कैसी फिल्म वो होतीकिस तरह पर्दे पर उभर कर आती...?

वहीदा रहमान:   मुझे नहीं पताक्योंकि उनका फिल्म बनाने का तरीकानजरिया हिंदी फिल्मों से बिलकुल अलग था. देखिएमैं मानती हूँ कि जो होना होता है वही होता है. जिसके नसीब में जो लिखा होता है वही होता है. जब मैं अभिजान कर रही थी तब मिस्टर रे ने कहा कि वहीदा जब वापस बंबई जाओगी तो ये किताब (गाइड) लेकर पढ़ना. मैं फिल्म बनाने की सोच रहा हूँ. मैंने कहाग्रेट. फिर कहने लगे कि इसमें डांसिंग रोल है. मैंने कहावंडरफुल. मैं बंबई आईभूल गई. वो भी भूल गए. फिर दो-तीन साल के बादवर्ष 1964 में गाइड बननी शुरु हुई तो मैंने कहा कि लोरोजी मेरे लिए ही लिखी गई थी. सत्यजीत बनाएया देवानंद बनाएं मुझे ही करना था.

अरविंद दास:   उसी दौर में तीसरी कसम’ (1966) फिल्म में भी आप काम कर रही थी. एक तरफ गाइड में शास्त्रीयता लिए हुए पिया तोसे नैना लागे रे पर डांस कर रही थीतो दूसरी तरफ तीसरी कसम में पान खाए सैंया हमारो पर नौटंकी शैली में डांस कर रही थी . कैसे आपने एक साथ शास्त्रीय और लोक को साधा?

वहीदा रहमान:   देखिएएक आर्टिस्ट के रूप में हमें समझना पड़ता है कि हीराबाई गाँव की नौटंकी करती है. उसका डांस करने का अंदाज अलग है. यह क्लासिकल नहीं है. वहीं गाइड में रोजी क्लासिकल डांसर है. वो प्रोफेशनल स्टेज डांसर है. हीराबाई नौटंकी भी स्टेज पर करती हैपर उसका तरीकारवैया अलग है. ये हमें समझना पड़ता है.

अरविंद दास:   गाइड के गीत-संगीत के बारे में आप कुछ हमसे शेयर करना चाहें...

वहीदा रहमान:   देव का सेंस ऑफ म्यूजिक बहुत अच्छा था. उनका और एसडी बर्मन के बीच बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. कई बार वो दादा को कहते थे कि मजा नहीं आया इस गाने में. तो बर्मन दा कहते थेकि क्या बात करता है. तब देव कहते थे कि नहींदादा नहीं अच्छा लगाआप दूसरा बनाओ... बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी दोनों में.

अरविंद दास:   उम्र के इस पड़ाव पर क्या आप अपने बचपन को याद करती हैंकोई स्मृति जो आप साझा करना चाहें?

वहीदा रहमान:   बचपन कीओह माय गॉड. (हंसते हुए) अभी कुछ याद नहीं आ रहा...बचपन बहुत अच्छा था. मां-बाप के साथ हम बहुत खुश रहते थे. पिकनिक पर जाते थे. जब मैं भरतनाट्यम डांस करना चाहती थीतो मेरे वालिद साहब के दोस्त-रिश्तेदार मना कर रहे थे. जिस पर उन्होंने कहा कि हुनर नहीं खराब होता हैआदमी खराब होता है. आप जिस तरह पेश आते हैं उस तरह प्रोफेशन का नाम होता है. यह बात मुझे बहुत पसंद आई.

अरविंद दास:   बिछड़े सभी बारी बारी. गुरुदत्त बहुत जल्दी चले गए. कैसे आप उन्हें याद करती हैंगुरुदत्त के साथ बनी आपकी फिल्म प्यासासाहब बीवी और गुलामकागज के फूल आज क्लासिक मानी जाती है.

वहीदा रहमान:   मैं न्यूकमर थी उस वक्त. मुझे कुछ समझ नहीं थी. उन्होंने एक के बाद एक ऐसी पिक्चर क्लासिक बनाई. जिसका मैं हिस्सा बनी. पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है. मैं लकी थी.




(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए खास बातचीत, संवाद पथ, अक्टूबर-दिसंबर 2023, पेज 19-21)

Sunday, October 08, 2023

रोजी, हीराबाई और गुलाबो: वहीदा रहमान का भाव-अभिनय

 


पिछले दिनों सुप्रसिद्ध अभिनेत्री वहीदा रहमान को सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई. भले वर्ष 1969 में हिंदी सिनेमा की फर्स्ट लेडी’ देविका रानी से इस पुरस्कार की शुरुआत हुई, लेकिन पचास सालों के इतिहास में महज पाँच अभिनेत्री को ही इस पुरस्कार से नवाजा गया है. ऐसा क्यों?

वर्ष 1955 में तेलुगु फिल्म रोजुलू माराई के एक गाने में वहीदा रहमान पहली बार नजर आई जो बेहद चर्चित हुई. उस गाने पर फिल्मकार गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए. बाकी इतिहास है. वर्ष 1956 में सीआईडी फिल्म से शुरू हुआ सफर आज भी जारी है और उन्होंने करीब 90 फिल्मों में काम किया है. 

85 वर्ष की वहीदा रहमान इस साल प्रयोगधर्मी निर्देशक अनूप सिंह की फिल्म द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस में नज़र आई थी. इस फिल्म में वे बिच्छुओं के डंक को अपने गीत के सहारे दूर करने वाली जुबैदा की भूमिका में हैं. बहरहालजब से फाल्के पुरस्कार की घोषणा हुई  मीडिया में वहीदा रहमान की फिल्मों की चर्चा है. उनकी झोली में कई ऐसी फिल्में हैं, जिन पर हिंदी सिनेमा को नाज है. प्यासा’, ‘कागज के फूल’, ‘चौदहवीं का चाँद’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, गाइड’, ‘तीसरी कसमखामोशी आदि ऐसी ही फिल्में हैं.

26 सितंबर को देवानंद के सौ साल पूरे हुए, उसी दिन फाल्के पुरस्कार की घोषणा हुई थी. वहीदा रहमान ने कहा कि मुझे लगता है कि तोहफा उनको मिलना थामुझे मिल गया.’ प्रसंगवशअपने फिल्मी करियर में सबसे ज्यादा किसी एक अभिनेता के साथ उन्होंने फिल्म की है तो वह देवानंद हैं. देवानंद को वहीदा डिसेंट फ्लर्ट’ कहती हैं. देवानंद की जन्मशती के अवसर पर एक बार फिर से दर्शकों के लिए सिनेमाघरों में उनकी देवानंद-वहीदा की फिल्में देखने का मौका आया था.

पिछले दिनों मैं गाइड और तीसरी कसम फिल्म फिर से देख रहा था और सोच रहा था कि इन फिल्मों का सौंदर्य कहां निहित है? जाहिर है, किसी भी कलाकृति के एक बिंदु पर उंगली रख कर हम सौंदर्य की शिनाख्त नहीं कर सकते. कला का सौंदर्य संपूर्ण कृति में निहित होता है.

हिंदी सिनेमा में कहानी, गीत-संगीत की केंद्रीय भूमिका रहती आई है. यह मेलोड्रामा अभिनेता-अभिनेत्री सहारे ही पर्दे पर मूर्त होता है. उनके माध्यम से ही पर सिनेमा देखते-परखते हैं. ऐसे में इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि गाइड’  और तीसरी कसम फिल्म का सौंदर्य रोजी और हीराबाई के इर्द-गिर्द है. फिल्म का गीत-संगीत जिस किरदार से जुड़ा है वह एक नर्तकी है. खुद वहीदा भरतनाट्यम में प्रशिक्षित हैं. सिनेमा में आने से पहले वे मंच पर अपनी कला का प्रदर्शन करती थीं.

आज 21वीं सदी के भारत में स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में पिछली सदी के पचास-साठ के दशक की अपेक्षा बहुत परिवर्तन हुए हैं. सिनेमा भी इस बदलाव को अंगीकार कर रहा है, लेकिन साठ के दशक में एक विवाहित स्त्री के अन्य पुरुष के साथ संबंध को पर्दे पर दिखाना परंपरा के विपरीत था. 'गाइड' फिल्म में एक विवाहिता स्त्री एक पुरुष के साथ लिव-इन रहती है. वह अपनी पहचान और स्वतंत्रता को लेकर काफी सचेत है.

फिल्मकार नसरीन मुन्नी कबीर ने बातचीत में जब रहमान से पूछा था कि हर किरदार में आपके व्यक्तित्व की झलक है पर कौन सा किरदार वहीदा के यथार्थ रूप के करीब है’? उन्होंने जवाब दिया कि शांति, गुलाबो और रोजी में मेरा थोड़ा अंश है, लेकिन मैं ज्यादातर रोजी की तरह हूँ. रोजी को पता है कि वह क्या चाहती है, साफ, स्पष्ट बोलती है. अपने विश्वास पर वह अडिग है.’ बहरहालरोजी के साथ-साथ हीराबाई (तीसरी कसम) की चर्चा भी लाजिमी है. तीसरी कसम फिल्म भी उस दौर में बन रही थी और वर्ष 1966 में रिलीज हुई. रोजी की तरह हीराबाई भी एक नर्तकी है. दोनों ही फिल्मों में गीत शैलेंद्र ने लिखे हैं, जो किरदारों के मनोभावों को बखूबी बयां करते हैं.

दोनों ही फिल्म असफल प्रेम कहानी है, हालांकि प्रेम के स्वरूप में काफी अंतर है.  राजू गाइड की भूमिका में देवानंद और हीरामान गाड़ीवान की भूमिका में राज कपूर निस्संदेह बेहद प्रभावी है, लेकिन वहीदा ने अपनी अदाकारी से रजत परदे पर रोजी और हीराबाई के किरदारों को अमर कर दिया.

एक तरफ आज फिर जीने की तमन्ना है गाने वाली रोजी है तो दूसरी तरफ मारे गए गुलफाम गाने वाली हीराबाई. पर सवाल है कि गुलफाम क्यों मारा गयाहीराबाई हीरामन से प्रेम करती हैपर निर्वाह करने को स्वतंत्र नहीं है. प्रेम की विवशताविछोह को वहीदा ने बेहद खूबसूरत ढंग से अभिव्यक्त किया है. यहाँ प्रेम का कोई भविष्य नहीं हैफिर भी प्रेम है. चूंकि विछोह को स्वीकार कर लियाइसलिए गुलफाम मारा गया.  

आखिर में, गुलाबो (प्यासा) के किरदार में जब वहीदा रहमान आती हैं तो वह ट्रेजडी के सभी गुणों को लिए हुए भी दुखांत नहीं है. यहाँ विजय (गुरुदत्त) का सहारा गुलाबो ही हैवहीदा रहमान के किरदारों, भाव-अभिनय की रोशनी में इन फिल्मों को फिर से देखना-परखना रोचक है. अभी तक हम अभिनेताओं के नजरिए से ही हिंदी फिल्मों को परखते रहे हैं!