Friday, December 24, 2021

असमिया सिनेमा का समकालीन स्वर

पिछले महीने गोवा में आयोजित 52वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के भारतीय पैनोरमा की उद्घाटन फिल्म के रूप में सेमखोरको चुना गया था. डिमासा भाषा में बनी इस फिल्म को असमिया अभिनेत्री एमी बरुआ ने निर्देशित किया है. बकौल बरुआ  यह फिल्म सेमखोर लोगों की प्रथाओं, रीति-रिवाजों और लोक धारणाओं का प्रतिनिधित्व करती है जो बाहरी दुनिया से 'अछूते' रहना चाहते हैं.डिमासा असम और नागालैंड के कुछ हिस्सों के जातीय-भाषाई समुदाय की एक बोली है.  सेमखोर डिमासा में बनी पहली फिल्म है.

जब रीमा दास की असमिया फिल्म बुलबुल कैन सिंगऔर विलेज रॉकस्टारको राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया तब सबकी नजर समकालीन असमिया फिल्मों की ओर गई. गौरतलब है कि वर्ष 2019 में विलेज रॉकस्टारको भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए भेजा गया था.  इसी तरह भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिसकी भी खूब चर्चा हुई थी. मांस के रूपक के माध्यम से यह फिल्म समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. फिल्म का ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है.

जहां रीमा दास की फिल्म बुलबुल कैन सिंगअसम के ग्रामीण इलाके में अवस्थित है और किशोर और युवा की वय संधि पर खड़े बोनी, सुमन और बुलबुल की कहानी कहती है, वहीं आमिसमें शहरी इलाके में रहने वाले युवा सुमन, जो एक शोधार्थी है, और पेशे से डॉक्टर निर्मली के मध्य पनपे परकीया प्रेम को रचा गया है. इस विवादास्पद फिल्म ने असमिया सिनेमा के 85 वर्ष के इतिहास में एक तीखे बहस को जन्म दिया. आमिस गुवाहाटी में अवस्थित है जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.

असमिया भाषा में बनने वाली फिल्मों में पर्याप्त विविधता रही है जो इस सिनेमा के इतिहास के अनुकूल है. वर्ष 1935 में ज्योति प्रसाद आगरवाला ने पहली असमिया फिल्म जयमती का निर्माण और निर्देशन किया था. उन्होंने फिल्म के तकनीकी पक्ष को सीखने के लिए जर्मनी की यात्रा की थी और हिमांशु राय के साथ रह कर फिल्म निर्माण को सीखा. फिर उन्होंने असम की ओर रुख किया था. आगरवाला के बाद बाद के दशक में प्रवीण फूकन, निप बरुआ और भूपने हजारिका जैसे हस्तियों ने असमिया सिनेमा जगत को संवारा था.

सही मायनों में असमिया सिनेमा को देश-विदेश में प्रसिद्धि जानू बरुआ ने दिलवाई जो पिछले चालीस वर्षों से असमिया भाषा में सिनेमा बना रहे हैं. अब तक उनकी फिल्मों को बारह राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. फिल्म संस्थान, पुणे से प्रशिक्षण के बाद बरुआ ने पहली फिल्म अपरूप (1982)’ निर्देशित किया था. अपनी कथानक की वजह से यह फिल्म आमिस की तरह ही चर्चित रही. इसमें में भी परकीया प्रेम को दर्शाया गया है. एक विवाहिता स्वेच्छा से दूसरे पुरुष के साथ रहने चली जाती है. उनकी फिल्म सागरलै बहु दूर (1995)’ और हालोदिया चराय बाओ धान खाय (1987)’ को देश-विदेश के फिल्म समारोहों में काफी सराहना मिली. हालोदिया चराय बाओ धान खायअसमिया में बनने वाली पहली फिल्म थी जिसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए स्वर्ण कमल से नवाजा गया था. बरुआ सामाजिक चेतना से संपन्न फिल्मकार हैं. उनकी फिल्मों में हाशिए का समाज और स्त्री स्वाधीनता का स्वर प्रमुखता से अभिव्यक्त होता रहा है. हिंदी समाज और दर्शकों के बीच बरुआ की फिल्में हालांकि उस रूप में चर्चा का विषय कभी नहीं बनी जैसा कि सत्यजीत रे या मृणाल सेन की फिल्में रही. इसकी एक वजह उत्तर-पूर्व की संस्कृति से अलगाव है जो बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों में भी दिखाई देती है.

पिछले वर्ष रिलीज हुए निकोलस खारकोंगोर की अखोनीजैसी फिल्म को छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की चिंता के केंद्र में उत्तर-पूर्व का समाज और संस्कृति कभी नहीं रहा है. प्रसंगवश, वर्ष 1992 में जब बरुआ की फिरंगतिको दूसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया गया और सत्यजीत रे की फिल्म आगंतुक  को पहली तो यह कहा गया कि रे की वजह से फिरंगतिसर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पाने से वंचित रही. हालांकि बरुआ सत्यजीत रे से हुई अपनी मुलाकात को शिद्दत से याद करते हैं. उनके प्रशंसा के शब्द को वे आज भी भूल नहीं पाए हैं और कहते हैं कि मेरे लिए यह सपने के सच होने जैसा था.पर बॉलीवुड की बेरुखी को बरुआ भी बातचीत में रेखांकित करते हैं. वे उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा की समकालीन संस्कृति के बारे में कहते हैं: आपको समझना होगा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा का बाजार बहुत छोटा है. लोकल स्तर पर जो फिल्म उद्योग है उस पर सरकार का ध्यान नहीं है. जो फिल्मकार हैं वह व्यावसायिक फिल्मों की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, उन पर हिंदी फिल्मों का असर है. लेकिन कुछ युवा फिल्मकार काफी अच्छा काम कर रहे हैं. उन्हें यदि सहायता मिले तो निस्संदेह अच्छी फिल्में लेकर आएँगे.

सिनेमा बड़ी पूंजी की मांग करता है और निर्माण-वितरण का कारोबार बाजार पर निर्भर है. लेकिन बाजार नहीं होने के बावजूद बरुआ जैसे फिल्मकार असमिया समाज और संस्कृति को सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर लाने में सफल रहे हैं. सच्चाई यह है कि आज भी सेमखोरजैसी फिल्में बन रही है. यह कहने में कोई संकोच नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में भारत की विविध संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि हिंदी में बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में. और इस बात से जानू बरुआ भी सहमत हैं.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Sunday, December 12, 2021

ध्रुपद संगीत में लयकारी का सम्मान

 

ध्रुपद के वरिष्ठ गायक अभय नारायण मल्लिक को वर्ष 2019 के लिए राष्ट्रीय कालिदास सम्मान देने की घोषणा पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने की. यह सम्मान शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मिला है. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, पच्चासी वर्षीय मल्लिक बिहार के प्रसिद्ध दरभंगा-अमता घराने से ताल्लुक रखते हैं. ध्रुपद के सिरमौर रामचतुर मल्लिक के शिष्य रहे अभय नारायण मल्लिक इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है. उनके पुत्र संजय मल्लिक भी ध्रुपद के चर्चित गायक थे जिनका इसी वर्ष कोरोना महामारी के दौरान निधन हो गया.

मिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. तेरहवीं पीढ़ी के युवा गायक, विदुर मल्लिक के पोते, समित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 'निराशा के बीच यह सम्मान हमारे लिए खुशी लेकर आया है.' दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री) के ओज पूर्ण गौहर-खंडार वाणी और पंडित विदुर मल्लिक के ठुमरी गायन की चर्चा आज भी होती है. इंटरनेट के प्रसार ने शास्त्रीय संगीत की पहुँच को आसान कर दिया है. कोई भी रसिक चाहे तो रामचतुर मल्लिक, विदुर मल्लिक या उनके पुत्र राम कुमार मल्लिक के गाए ध्रुपद या ठुमरी शैली में विद्यापति के पदों को सुन सकता है.

दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तलवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहर, डागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. खुद मल्लिक ध्रुपद के साथ-साथ ठुमरी और विद्यापति के भक्ति पदों को देश-विदेश में गाते रहे हैं और उनके नाम कई कैसेट/सीडी हैं. वे आकाशवाणी से भी लंबे समय तक जुड़े रहे.

मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. मैथिली के कवि विद्यापति लोक भाषा के रचनाकारों में अग्रगण्य हुए. दरभंगा घराने में ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ा, लेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ा, वैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. सुखद रूप से देश-विदेश में पिछले दशकों में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. समित मल्लिक कहते हैं कि युवा वर्ग काफी संख्या में ध्रुपद सीख रहे हैं. कुछ साल पहले हुई मुलाकात में पंडित अभय नारायण मल्लिक ने मुझे बताया था कि ‘खयाल का अति हो गया था!’ 

(रवि रंग, प्रभात खबर, 12.12.21)

Thursday, December 02, 2021

निर्देशकों को संवारने वाला समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता

 


सिनेमा के  जाने-माने आलोचक, फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता (1921-2011) के जन्मशती वर्ष की शुरुआत पिछले दिनों कोलकाता में हुई. उनकी पुत्री, जानी-मानी अभिनेत्री अपर्णा सेन ने श्रद्धांजलि देते हुए चिदानंद दास गुप्ता मेमोरियल ट्रस्ट के स्थापना की घोषणा की है. संयोग से महान फिल्मकार सत्यजीत रे (1921-1992) की जन्मशती भी इस वर्ष मनाई जा रही है. सर्वविदित है कि दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध थे.

वर्ष 2008 में प्रकाशित उनकी किताब सीइंग इज विलिविंग’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है- मैंने पहली फिल्म आलोचना वर्ष 1946 में लिखी थी जिसके एक साल बाद हमने कलकत्ता फिल्म सोसाइटी की शुरुआत की. 20वीं सदी में सिनेमा कला का आविर्भाव और विकास हुआ. तकनीक के माफर्त महज कुछ ही दशकों में विशाल दर्शक वर्ग तक इस कला ही पहुँच हुईसभी कलाओं को खुद में समाहित करने की वजह से समकालीन समय और समाज को प्रभावित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो उठी. इसके साथ ही सिनेमा माध्यम के स्वरूप, रसास्वादन और समाज के साथ अंतर्संबंधों की पड़ताल भी शुरु हुई.

चिदानंद दास गुप्ता आजाद भारत में सिनेमा संस्कृति के प्रवर्तकों में से एक थे.  वर्ष 1947 में फिल्म सोसाइटी की स्थापना उन्होंने सत्यजीत रे और हरि साधन गुप्ता के साथ मिल कर की थी. आश्चर्य नहीं कि बाद के वर्षों में जब विश्व सिनेमा के पटल पर सत्यजीत रे अग्रिम पंक्तियों में खड़े हुए तब उनकी फिल्मों का विस्तार से विवेचन-विश्लेषण उन्होंने ही किया था, जो द सिनेमा आफ सत्यजीत रे’ में संग्रहित है. इसके अतिरिक्त टाकिंग अबाउट फिल्मसद पेंटेड फेसस्टडीज इन इंडियाज पापुलर सिनेमा उनकी चर्चित किताबें हैं. उन्होंने फेडरेशन ऑफ फिल्म सोसाइटीज ऑफ इंडिया (1960) की शुरुआत भी की थी. रे इसके अध्यक्ष रह चुके थे और दासगुप्ता सचिव.  इन संस्थाओं के माध्यम से विश्व की बेहतरीन फिल्में देखने और विश्लेषण करने का मौका सिनेमा प्रेमियों और बाद के दशक में उभरे सिनेमा निर्देशकों को मिला. 70-80 के दशक में देश में समांतर सिनेमा की जो धारा बही (चिदानंद दास गुप्ता  इसे अनपॉपुलर सिनेमा कहते हैं) उसे श्याम बेनेगल, अडूर गोपालकृष्णन, गिरीश कसरावल्ली जैसे फिल्मकारों ने पुष्ट किया. इन निर्देशकों ने अपनी सिनेमाई यात्रा में हमेशा फिल्म सोसाइटी की भूमिका को रेखांकित किया है.

साठ वर्षों के लेखन कर्म में चिदानंद दास गुप्ता ने करीब 2000 से ज्यादा देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए निबंध लिखे. उनके निबंध सिनेमा के अखबारी समीक्षाओं से अलग हैं. साथ ही हाल के दशक में भारतीय सिनेमा के देश-विदेश में जो अकादमिक अध्येता उभरे हैं उससे भी अलग है. जो चीज उन्हें अलगाती है वह है उनकी सहज शैली. बिना किसी विशिष्ट शब्दावली (जार्गन) के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों, संबंधों के परिप्रेक्ष्य में सिनेमा को वे रोचक ढंग से परखते हैं. जब वे किसी फिल्म निर्देशक के बारे में लिखते हैं तब उनकी फिल्मों की विवेचना के साथ ही निर्देशक का राजनीतिक और सामाजिक बोध भी घेरे में आ जाता है. इसी क्रम में वे दूसरे निर्देशकों से तुलना भी करते चलते हैं. मसलन श्याम बेनेगल की फिल्मों की विवेचना करते हुए वे नोट करते हैं:

बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति, चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन, क्राफ्टमैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं, जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.

वर्ष 1997 में चिदानंद दास गुप्ता भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में नेशनल फेलो के रूप में मनोनीत थे. उस दौरान हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार भी वहीं फेलो थे. उनको याद करते हुए वे कहते हैं-उनको देख कर लगा नहीं कि वे इतने बड़े निर्देशक और सिनेमा के समीक्षक हैं. वे रवींद्रनाथ ठाकुर के दादा द्वारका नाथ ठाकुर, जो एक  बड़े व्यवसायी थे, उन पर फिल्म बनना चाहते थे.”  दुर्भाग्य से फिल्म बन नहीं पाई. दास गुप्ता फिल्म के लिए जरूरी वित्तीय पूंजी नहीं जुटा पाए थे. तलवार कहते हैं कि उन्होंने इस फिल्म की स्क्रिप्ट को ड्रामेटाइज किया था और संस्थान में मौजूद फेलो से सेमिनार के दौरान टेबल पर विभिन्न पात्रों के संवाद बुलवाए थे. काफी आनंद आया था इसमें.

चिदानंद दास गुप्ता भले समीक्षक के रूप में चर्चित रहे हों उन्होंने फिल्में भी निर्देशित की थी. वर्ष 1972 में उन्होंने पहली फिल्म बिलेत फेरेट’ यानी फॉरेन/लंदन रिटर्न निर्देशित की थी, जो तीन कहानियों को समेटे हैं. एक कहानी ऑक्सफोर्ड से लौटे शख्स के इर्द-गिर्द है, जो परिवार की इच्छा के विपरीत व्यवसाय को चुनता है. आमोदिनी (1994) उनकी चर्चित फिल्म है, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 18वीं सदी में बंगाल के ब्राह्मण समाज में मौजूद कुलीनवाद (धनी व्यक्ति के बीच बहुविवाह की प्रथा) पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है. हास्य से पूर्ण इस फिल्म में अपर्णा  सेन और कोंकणा सेन शर्मा की भी भूमिका है.

फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता पर उनका समीक्षक रूप हावी रहा. दास गुप्ता और रे के जन्मशती वर्ष में सत्यजीत रे की पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उन्होंने जो लिखा है उससे बात समाप्त करना रोचक होगा. उन्होंने लिखा है-“ पाथेर पांचाली सिनेमाई भाषा और इसकी भारतीयता दोनों ही दृष्टियों से पहले कहीं न दिखाई देने वाली पूर्णता और आवेग को दर्शाने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत की प्रतीक बनी...इनमें से बहुत सी प्रवृत्तियाँ नये भारतीय सिनेमा का अंग बन गई हैं और पहचान की कमी वाली व्यावसायिक फार्मूला फिल्मों के विरुद्ध प्रतिवाद का अंग भी बन गई हैं.”  यदि रे दुनिया भर के समीक्षकों के प्रिय रहे तो दासगुप्ता 20वीं सदी के प्रमुख भारतीय निर्देशकों के प्रिय समीक्षक थे. यह सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, अडूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन और श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों पर लिखे उनके लेख से स्पष्ट है. वे निर्देशकों को संवारने वाले समीक्षक-आलोचक थे.

 (न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Tuesday, November 30, 2021

From Ram Katha to Eid Mubarak: Mithila Art Spreads its Wings


Armed with fresh education and networks, young artists from Ranti are reviving the glory of Mithila paintings.

Arvind Das 30 Nov 2021

From Ram Katha to Eid Mubarak: Mithila Art Spreads its Wings

In 1949, when British art aficionado WG Archer wrote in the prestigious magazine Marg on the beauty and distinctiveness of Mithila painting, he did not refer to it as folk art. Still, in the last fifty years, Mithila painting has always been labelled a folk/ritual art and discussed along caste lines.

It is true that since time immemorial, across the Darbhanga-Madhubani region of Bihar, paintings adorned the walls (Kohabar) and floors (Aripan). However, in the last three decades, the Ranti and Jitwarpur villages of the Madhubani district have emerged as prominent hubs of Mithila painting, which is why the art form got the name ‘Madhubani painting’. So far, seven Mithila artists had been awarded the Padma Shri, of whom, barring Ganga Devi, six are from these two villages.

In 1991, eminent Mithila painter, late Mahasundari Devi from Ranti, had depicted the Ram Katha in a traditional art form for the Ravindra Bhawan, Bhopal, in a truly stunning way. In 2002, his nephew, the well-known artist Santosh Kumar Das, an alumnus of Maharaja Sayajirao University, Baroda, made a series of paintings depicting in the Mithila style the Gujarat riots, giving a voice to a contemporary reality of India. Santosh Kumar Das had learnt this traditional art from his aunt as a child. Still, his political consciousness took Mithila art into quite a unique territory, which echoes and gets shared among young artists of his village.

In the last two decades, young artists, many trained under Das, started experimenting with traditional and contemporary subjects, using the old Bharni or filling and Kachni or line techniques. They are setting the century-old art form within a new idiom.

Like Das, young artist Avinash Karn, too, was trained in the fine arts at Banaras Hindu University. With the help of Artreach India, a non-government organisation, he is currently engaged in a community art project in Ranti. He is training Muslim girls from the nearby villages in Mahbubani art. Due to the lockdown announced during the Covid-19 pandemic last year, he relocated from Banaras to his village. It is the first time in the history of Mithila painting that Muslim women are practising this art form and bringing subjects such as communal harmony (Sarwari Begum’s Eid Mubarak), dowry in the Muslim communities, women’s empowerment to the fore. Karn says, “Muslim girls have always nurtured a desire to paint but never got an avenue to do so. I wish to incorporate my training into Mithila art and bring young artists from deprived communities together.”

Earlier, the legendary artistGanga Devi, who passed away in 1991 and was from Rashidpur village, had experimented with modern themes. Both Das and Karn acknowledge this contribution; Karn considers her a pioneer who established this folk art among contemporary artists. She introduced autobiographical elements into the art, besides painting the famous Kohabar of the Arts and Crafts Museum in Delhi, which was unfortunately demolished in the name of modernisation in 2015.

Dulari Devi's painting
Jyotindra Jain, in his book, “Ganga Devi: Tradition and Expression in Mithila Painting”, has rightly noted that Ganga Devi “transforms the ordinary commonplace images of hotel facades, motor cars, national flags, ticket booths, roller-coasters, and people carrying shipping bags into imaginary and ‘fantastic objects’.”

Recently, I was in Ranti, where I saw many paintings of young college-going students Sarwari Begum, Saleha Sheikh and Sajiya Bushra in Avinash Karn’s modest studio. Sajiya and Saleha are sisters and first-generation artists. When asked what they like about this art form, Sajiya says, “Through this art, I depict the story of our life and society. We see the differential treatments given out to girls in our home which I bring out in my paintings.”

Sarwari Begum likes the Kachni style of Mithila painting. She says, “Ever since I was in fifth standard, I wished to paint in the Mithila style but never got a chance. Now that Avinash sir has given me an opportunity to learn it, I wish to take it further in my life.” Technically, their paintings might not be on par with those of trained artists, yet it shows the eagerness of a new generation to experiment and innovate. Besides, it is helping bridge the communal divide in society.

Like her contemporaries Ganga Devi and Sita Devi, Mahasundari Devi was known for traditional motifs (Kohabar, Dasavtar, Aripan, Astdal) and mythical themes revolving around Ram, Sita, and Krishna. She was also a remarkable guru as Dulari Devi, this year’s Padma Shri recipient for her contributions to Mithila (Madhubani) paintings, recounted to me when I met her in 2011 in her village. That was the year Mahasundari Devi was awarded the Padma Shri. She told me: “Shuru shuru mein main painting beech mein hi chhod kar bhag jati thi, leykin Mahasundari Devi hath pakad kar mujhey sikhati rahi—In the beginning, I would interrupt my painting work, but Mahasundari Devi held my hand and taught me to carry on to the end.” She is the third Padma Shri recipient from this village after Mahasundari Devi and Godawari Dutta (2019). However, her story is quite different from both the master artists, which is reflected in her brilliantly coloured paintings.

Fifty-three-year-old Dulari Devi belongs to the Mallah community and did not get any formal education. She was working in Mahasundari Devi’s household in Ranti village near Madhubani when she encountered Mithila painting. She has narrated how she became an artist in her book, “Following my Paint Brush”, published by Tara Books. “One day, I went to work at a new house as a cleaning woman. It turned out that the woman I worked for was not an ordinary person—she was an artist! I saw her paintings, and was so delighted that I forgot my own work…The next day, when I came to work, my employer was taking a painting class.... I found the courage to ask her.... could I learn how to paint too? She said yes!”

As is well-known, the Madhubani/Mithila art form was largely a preserve of women from the elite Brahmin and Karn Kayastha communities. Women from the margins of society, particularly from the Dusadh community, introduced a new style named Godana or tattoo in the seventies. Later, Chano Devi, Shanti Devi and others began painting folklores from the life of Raja Shalhes.

In the 1960s, Madhubani painting came from wall paintings to paper, making them easy to buy and sell. Thanks to ace artists Jagdamba Devi, Sita Devi, Ganga Devi, Mahasundari Devi, Godawari Dutta, and Boua Devi, very soon, it caught the attention of art connoisseurs across the world. However, in the nineties, the art form started to lose its distinctive appeal with the growth of the market, as became quite apparent from some of the works available in places like Dilli Haat.

Armed with new education and networks, young artists from Ranti are trying to innovate and revive the glory of this magnificent art form. A few years back, Shantanu Das brought the famous Hindi and Maithili poet Nagarjun’s “Akaal Aur Uskey Baad” (Drought and After) alive on a large canvas. Although the 14th-century Maithili poet Vidyapati writes about Kohabar (nuptial chamber) in his poems, literary subjects were seldom considered for these paintings. Then, there can be no disagreement with Shantanu when he says: “It is no longer a ritual art”.

(NewsClick.in)

Sunday, November 28, 2021

मिथिला के इतिहासकार की याद: राधाकृष्ण चौधरी

 


इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी (1921-1985) का यह जन्मशती वर्ष है, लेकिन उनकी बहुमुखी प्रतिभा और रचनात्मकता के अनुकूल चर्चा नहीं हो रही. वे इतिहास के प्रोफेसर और बहुभाषी विद्वान थे. उनकी लेखनी अंग्रेजी, हिंदी और मैथिली में एक साथ मिलती है. वे मिथिला के इतिहासकार के रूप में चर्चित रहे, पर उल्लेखनीय है कि वे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता के अध्ययन में बिहार के प्रथम प्रतिनिधि भी थे. उनके पुरातत्त्ववेत्ता रूप की चर्चा भी अपेक्षित है. मिथिलाक राजनीतिक इतिहास (1960)मिथिलाक सांस्कृतिक इतिहास (1963) के बाद उन्होंने अपनी बहुचर्चित कृति मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति लिखी जो साहित्य और इतिहास के शोधार्थियों के बीच आज भी समादृत है.

वर्ष 2002 में जब मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध के लिए दाखिला लिया और नागार्जुन के उपन्यासों को एमफिल लघु शोध-प्रबंध के लिए चुना था तब हिंदी के आलोचक प्रोफेसर मैनेजर पांडेय ने मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति पढ़ने की मुझे सलाह दी थी. इस पुस्तक से राधाकृष्ण चौधरी की मिथिला समाज  की गहरी ऐतिहासिक समझ और इतिहास बोध सामने आता है. साथ ही उनके विस्तृत अध्ययन और शोध का भी पता चलता है. वर्ष 1976 में प्रकाशित इस पुस्तक के आमुख में उन्होंने लिखा है- इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य मिथिला के आम जन के जीवन प्रसंग से संबंधित जितनी जानकारी संभव हो सामने लाना है. राधाकृष्ण चौधरी वामपंथी विचारधारा से प्रेरित थे. बाद के दशक में इतिहास अध्ययन में जो सबालटर्न स्टडीज का स्वर सुनाई पड़ा उसका पूर्व-पक्ष यहाँ देखा जा सकता है.

मिथिला का समाज अपनी संकीर्णता और रूढ़ियों के लिए भी कुख्यात है. जातिवाद, स्त्रियों की दारुण दशा सामंती व्यवस्था से उपजी मानसिकता से परिचालित होती रही है. चौधरी ने लिखा है: “जब से हरसिंह देव ने कुलीनवाद’ लागू की तब से इन छह सौ वर्षों में मिथिला की पुरानी सामाजिक सरंचना में बमुश्किल कोई बदलाव आया है.”  कुलीनवाद ने पहले से चली आ रही वर्णाश्रम व्यवस्था को और कठोर बना दिया था. विद्यापति (1350-1450) ने अपनी नचारी और महेशवाणी जैसे पदों में जिस सामाजिक असमानता, निपट गरीबी औऱ स्त्रियों की पराधीनता और दुख का बार-बार वर्णन किया है वह आज भी आम जन के लिए उतना ही सच है जितना विद्यापति के समय और समाज के लिए के लिए था. विद्यापति देशी भाषा के पहले कवि थे जिनके यहाँ सेकुलर ध्वनि सुनाई देती है. चौधरी ने लिखा है: ‘विदयापति की रचना का उत्स मिथिला के लोगों की सामाजिक जरूरतें थीं. नचारी और महेशवाणी में विद्यापति ने आम जनों के दर्द को ही अभिव्यक्त किया है, पर उन्होंने समाजिक शोषण के प्रति विद्रोह की भावना को भगवान की तरफ मोड़ दिया.

सामंतवाद की जगह लोकतंत्र आ गया, तंत्र के बदलने से लोक’ की स्थिति कितनी बदली? आजादी के 75वें वर्ष में मिथिला के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के संदर्भ में इस प्रश्न की पड़ताल जरूरी है. मिथिला के समाज और संस्कृति से जीवनपर्यंत जुड़े रहे राधाकृष्ण चौधरी के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी. 


(प्रभात खबर, 28 नवंबर 2021)

Sunday, November 21, 2021

लोक कला में समकालीन विषयों का चित्रण हो: अविनाश कर्ण

 


पिछले हफ्ते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला पेंटिंग में योगदान के लिए रांटी गांव (मधुबनी) की दुलारी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया. यह गाँव मधुबनी पेंटिंग का गढ़ रहा है. इससे पहले इस गाँव की महासुदंरी देवी और गोदावरी दत्त को भी मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी खुद अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से ताल्लुक रखती हैं. बीएचयू से फाइन आर्टस में प्रशिक्षित, रांटी के ही युवा चित्रकार अविनाश कर्ण इन दिनों आर्टरीच इंडिया के सहयोग से एक कम्यूनिटी प्रोजेक्ट के तहत मुस्लिम लड़कियों को मिथिला पेंटिंग सीखा रहे हैं. इससे पहले मुस्लिम समुदाय मधुबनी पेंटिंग से नहीं जुड़ा. इस प्रोजेक्ट और मिथिला कला में आ रहे बदलाव को लेकर अरविंद दास ने उनसे रांटी स्थित स्टूडियो में बातचीत की, एक अंश:

अपने स्टूडियो और कम्यूनिटी आर्ट परियोजना के बारे में आप हमें बताइए?

आर्ट बोले स्टूडियो शुरु करने की योजना मेरे मन में बहुत पहले से थी. हमारे समुदाय में जो लोग पेंटिंग नहीं सीख पाते हैं, वजह चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, मेरी यह इच्छा है कि वे इसे सीखे. मिथिला पेंटिंग में समकालीन कला विषयों को लेकर मैं पेंटिंग करता रहा हूँ. मुझे कुछ ऐसे लोग चाहिए थे जो इन विषयों को लेकर काम करें. मैंने बीएचयू से फाइन आर्ट्स में ट्रेंनिंग ली है, मेरी इच्छा है कि मिथिला कला में अपनी ट्रेनिंग का इस्तेमाल करुँ. यहाँ कलाकारों के बीच में समन्वय नहीं है. आर्ट बोले के माध्यम से मैं इसे बढ़ावा देना चाहता हूँ.

कुछ मुस्लिम लड़कियों की पेंटिंग मुझे स्टूडियो में दिखी है. पहले मुस्लिम समुदाय इससे कभी नहीं जुड़ा, ऐसा क्यों?

इनके अंदर ख्वाहिशें थी, पर इन्हें मौका नहीं मिल रहा था. मधुबनी के नजदीक के गाँव-शेख टोली, गोशाला चौक की लड़कियां इससे जुड़ी है. इन्हें अपने परिवार से भी प्रोत्साहन मिल रहा है. ये नए विषय लेकर आ रही हैं. जैसे मुस्लिम समुदाय में जो दहेज की समस्या है, सामाजिक सौहार्द, स्त्री सशक्तिकरण, सामाजिक मुद्दें इनकी पेंटिंग में दिखता है. हम आपस में बातचीत करके विषय तय करते हैं. कोहबरराम-सीता से अलग ये नया प्रयोग कर रही हैं.

हाल के दिनों में युवा कलाकारों का जोर समकालीन विषयों की ओर बढ़ा है. पहले पारंपरिक विषयों के चित्रण पर जोर था. आप इसके बारे में क्या कहेंगे?

समकालीन विषयों, सामाजिक मुद्दों को पहले भी मिथिला पेंटिंग में चित्रित किया जाता रहा है. गंगा देवी (1928-1991) ने इसकी शुरुआत की थी. उनकी शैली बहुत ही खूबसूरत थी और भी कुछ कलाकारों ने मिथकों, पारंपरिक विषयों से अलग विषय को उठाया था. बाद में बाजार में मिथिला पेंटिंग की विशिष्टता खोने लगी थी. कला तो यह पहले से ही थी, अब फिर से क्राफ्ट से इसे कला की ओर मोड़ा जा रहा है.

आप बनारस शहर से रांटी गाँव आए. क्या अनुभव रहा है आपका?

कोरोना लॉकडाउन के दौरान मैं गाँव लौट आया. यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने. यहाँ कई लोग सवाल उठाते हैं कि मधुबनी कला में फाइन आर्टस के तत्वों की क्या जरूरत हैलेकिन मेरा कहना है कि मधुबनी कला को समकालीन कला से जोड़ने, इसमें बदलाव की जरूरत है.

दुलारी देवी की पेंटिंग की शैली के बारे में आप क्या कहेंगें?

दुलारी देवी पारंपरिक शैली में पेंटिंग करती रही हैं. सीता स्वयंवर में जो शैली उनकी रही है, वह कायम है. आपने देखा होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्होंने जो पेंटिंग भेंट की और जिसे उन्होंने ट्विट किया वह पारंपरिक शैली में समकालीन विषय के चित्रण का बढ़िया उदाहरण है. मछली और हवाई जहाज का इसमें चित्रण है. उनकी शैली कचनी-भरनी ही है.

मधुबनी पेंटिंग का क्या भविष्य आप देखते हैं?

समकालीन कला के बाजार पर जो संकट है उसका फायदा लोक कला को मिल रहा है. न सिर्फ मधुबनी बल्कि अन्य पारंपरिक, लोक कला के लिए भी यह सच है. लेकिन लोक कला का भविष्य बहुत बढ़िया तब तक हम नहीं देख रहे जब तक इसमें समकालीन विषय-वस्तु नहीं जुड़े. मधुबनी पेंटिंग को मुख्यधारा में लाने के लिए नए विषय वस्तु तलाशने होंगे.

 

Tuesday, November 16, 2021

मिथिला पेंटिंग से जुड़ रहा मुस्लिम स्वर

 

ईद मुबारक, सरवरी बेगम

पिछले हफ्ते मिथिला पेंटिंग (मधुबनी पेंटिंग) के क्षेत्र में योगदान के लिए दुलारी देवी को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया तब मैं उनके गाँव रांटी में था. रांटी मधुबनी जिले से बिल्कुल सटा हुआ है. इस गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त को इससे पहले मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. विशेषकरदुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी है. ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को अपनाया है. हाल ही में रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण ने मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को इस कला से जोड़ा है, जिसे रेखांकित किए जाने की जरूरत है.

दुलारी देवी अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से आती हैं. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कुछ समय के बाद उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवीकर्पूरी देवी को चित्र बनाती हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.”  फिर धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्ति चित्र बनाया है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नईकोलकाताबैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.

दुलारी देवी के चित्रांकन की शैली कचनी से मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँआत्म संघर्ष अंकित है. जहां दुलारी देवी पारंपरिक विषयों, रीति-रिवाजोंअनुष्ठान आदि को अपनी पेंटिंग का विषय बनाती हैं, वहीं रांटी के युवा कलाकार अविनाश कर्ण, शांतनु दास समकालीन विषयों को चित्रित करते हैं. उस दिन रांटी में स्थित अविनाश कर्ण के स्टूडियो- आर्ट बोले, में बिखरी पेंटिंग को देख कर मिथिला पेंटिंग में आ रहे बदलावों की झलक मिली जिससे इस कला के भविष्य के प्रति एक उम्मीद बंधती हैं. मिथिला में महिलाओं को कोहबर, राम-सीता, मछली, नाग आदि विषय परंपरा के रूप में मिली हैं. अविनाश ने जहाँ बचपन से अपने गाँव में मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को देखा है, वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से फाइन आर्टस में विधिवत प्रशिक्षण भी लिया है. इसी तरह शांतनु दास की शिक्षा-दीक्षा का असर उनकी कला पर दिखता है. इससे पहले रांटी के ही चर्चित वरिष्ठ कलाकार, संतोष कुमार दास बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से फाइन आर्टसमें प्रशिक्षण ले चुके थे.

अविनाश इन दिनों एक गैर सरकारी संस्थान आर्टरीच इंडिया और कलाकार सीमा कोहली के सहयोग से एक सामुदायिक परियोजना, अक्स, पर काम कर रहे हैं. आस-पास के गाँव की मुस्लिम लड़कियों को इस प्रोजेक्ट से जोड़ कर उन्होंने मिथिला पेंटिंग को एक नया आयाम दिया है. धर्म और जाति से बंटे समाज में इस तरह की पहल स्वागतयोग्य है. वे कहते हैं कि मुस्लिम लड़कियों के अंदर मिथिला कला को सीखने की ख्वाहिश वर्षों से थी पर उन्हें कोई एवेन्यू नहीं मिल रहा था.’ मधुबनी के नजदीक शेख टोली, गौशाला चौक की मुस्लिम लड़कियाँ मिथिला पेंटिंग में नए-नए विषय लेकर आ रही हैं जिसमें सांप्रदायिक सौहार्द, मुस्लिम समाज में दहेज, स्त्रियों पर होने वाली हिंसा और अन्य सामाजिक मुद्दे प्रमुख हैं.  

यहाँ यह नोट करना उचित होगा कि मिथिला पेंटिंग में पारंपरिक विषयों से इतर समकालीन मुद्दों को लाने का श्रेय प्रसिद्ध कलाकार, पद्मश्री से सम्मानित, गंगा देवी (1928-1991) को जाता है जिन्होंने पिछली सदी के अस्सी के दशक में अमेरिका की अपनी यात्रा को मधुबनी शैली में चित्रित किया. सीता देवी, गंगा देवी की पीढ़ी के बाद के दशक में, बाजार के फैलने से मिथिला पेंटिंग में क्राफ्ट पर जोर बढ़ा और कलाकार की विशिष्ट छाप गायब होने लगी. इक्कीसवीं सदी में मिथिला पेंटिंग के कला रूप में उत्तरोत्तर विकास दिखा है. मिथिला चित्र शैली में भ्रूण हत्यादहेजअंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे समसामयिक विषय पारंपरिक विषयों के साथ साथ चित्रित किए जाने लगेवर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद संतोष कुमार दास ने सांप्रदायिकता को लेकर गुजरात सीरीज बनाई थी जो काफी चर्चित रही. लोक कला में इस तरह के राजनीतिक-सामाजिक विषय पहले नजर नहीं आते थे. इन दिनों पेंटिंग की अच्छी कीमत भी कलाकारों को मिलने लगी है. पहले औने-पौने दामों पर बिचौलिये मधुबनी के कलाकारों की पेंटिंग बेचते थे.

कुछ साल पहले रांटी के ही शांतनु दास ने हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता अकाल और उसके बाद को अपनी कूची का आधार बनाया. साहित्य को मिथिला पेंटिंग का विषय बनाना एक नया प्रयोग था जिसे काफी सराहना मिली. अविनाश कहते हैं कि यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने.’ ‘आर्ट बोले स्टूडियो में सरवरी बेगम, सलेहा शेख, सजिया बुशरारहमती खातून, शमीमा परवीन की जो पेंटिंग दिखी वह कलात्मक रूप से अभी भले ही परिपक्व न हो, लेकिन विषय-वस्तु का फैलाव, मुस्लिम समुदाय का जुड़ाव इस पेंटिंग के विकसनशील होने का प्रमाण है. किसी भी कला की तरह मिथिला पेंटिंग में नवतुरिया स्वर और नए प्रयोग की जरूरत है, जो सदियों पुराने इस कला को एक नई पहचान दे सकें.

 (न्यूज 18 हिंदी के लिए)

Sunday, November 14, 2021

एक बीता-रीता सा कैफे

पिछले दिनों एक मित्र के साथ कनॉट प्लेस गया. दीवाली के दौरान जो भीड़ होनी चाहिए वह गायब थी. कुछ रीता-रीता सा माहौल था. खरीदारों को देख कर ऐसा लगता था कि जैसे कि वह कह रहे हों-बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ.

कुछ दुकानें भले बंद दिख रही थी, पर अधिकांश खुली थी. मैं करीब दो साल बाद वहाँ गया था. ऐसा नहीं कि इस बीच मैं बाजार नहीं गया पर सच पूछिए तो कोरोना के दौरान ऑनलाइन खरीदारी की आदत सी हो गई. घर के नजदीक मॉल जाना ज्यादा आसान लगा. यह अनायास नहीं है कि इन दिनों एक विज्ञापन में छोटे-छोटे, आस-पड़ोस के दुकानदारों से इस दीवाली खरीदारी की अपील करते हुए एक चर्चित अभिनेता दिख रहे हैं.

करीब पच्चीस साल से दिल्ली में हूँ. कॉलेज के दिनों से ही कनॉट प्लेस में खूब तफरीह किया है, लेकिन उस दिन ऐसा लग रहा था कि हम सैलानी बन कर वहाँ घूम रहे हैं. कोरोना महामारी के दौरान दिल्ली में होकर भी दिल्ली में  नहीं होने का ख्याल अधिकांश लोगों  के मन में रहा. अभी भी ऐसा लग रहा है कि लोगों में सुरक्षा को लेकर एक भय है. हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में कोरोना महामारी अब एंडेमिक फेज’ की तरफ बढ़ने लगी है. पिछले दिनों दिल्ली में बच्चों के लिए भी स्कूल खोल दिए गए हैं. एक मित्र से जब इसे लेकर बातचीत हो रही थी तब वह सशंकित दिख रही थी. लगभग दो साल बाद स्कूल में खुद को पाकर बच्चों के मन में किस तरह के भाव उठेंगे यह जानना रोचक होगा.

बहरहाल, उस दिन हमने  कनॉट प्लेस स्थित बड़े ब्रांड के चर्चित कॉफी हाउसों को छोड़, दशकों पुराने मद्रास कॉफी हाउस की ओर रुख किया. इन वर्षों में दिल्ली में बड़े-बड़े मॉल आए, आधुनिक साज-सज्जा से लैस कॉफी हाउस शहर के कोने-कोने में उभरे पर नामी रेस्तरां के बीच मद्रास कैफे अपनी ठसक के साथ आज भी मौजूद है. गौरतलब है कि दक्षिण भारत में जैसा कॉफी पीने का रिवाज रहा हैवैसा उत्तर भारत में नहीं. वैसे तो 17वीं सदी में ही कॉफी अपने हमसफर चाय के साथ भारत में दस्तक दे चुका था. 19वीं सदी के आखिर में दक्षिण भारत में इसकी खपत बढ़नी शुरू हुई. इससे पहले यह यूरोपीय लोगों का ही पेय था और 20वीं सदी के आते- आते यह दक्षिण भारतीय मध्यवर्ग का पसंदीदा पेय बन गया. हालांकिउदारीकरण के बाद उत्तर भारत में भी कॉफी की खपत ने जोर पकड़ा है. खासकर महानगरों के युवाओंकामकाजी लोगों में कॉफी पीना सांस्कृतिक दस्तूर में शामिल हो गया है.

पश्चिमी देशों में कॉफी पीने की संस्कृति आज भी कायम है और इसके ऐतिहासिक कारण है. अखबारोंपत्र-पत्रिकाओं की तरह ही सार्वजनिक जीवन (पब्लिक स्फीयर) में इन कॉफी हाउस की महत्वपूर्ण भूमिका है. लोकतंत्र में ये राज्य और नागरिक समाज के बीच एक पुल की भूमिका निभाते रहे हैं. भारत के विभिन्न शहरों में स्थित कॉफी हाउस में भी राजनीतिकों से लेकर साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच बहस-मुबाहिसों के कई किस्से हैं.

जाहिर है वर्ष 1935 में  खुले इस औपनिवेशिक काल के कैफे के साथ कई किस्से जुड़े हैं. बिना किसी तड़क-भड़क और दिखावे के किफायती दाम पर कॉफी पीने और इडली-सांभर, मसाला-डोसा खाने का यहाँ अपना मजा है. बीते जमाने का स्वाद इससे लिपटा चला आता है. इसे शंघाई रेस्तरां के रूप में शुरु किया गया जो ब्रितानी सैनिकों का अड्डा था. ऐसा लगता है कि विदेशी सैलानियो के लिए यह अभी भी पसंदीदा जगह है.  कैफे के गेट के पास चिपके सैकड़ों छोटे-छोटे चिठ्ठे इस बात को बयां करते हैं कि क्यों तमाम कॉफी हाउस के मुकाबले पुराने फर्नीचर और मद्धिम रोशनी में डूबा यह बीता-रीता सा कैफे उनकी पसंद में शामिल है. उस दिन कैफे में भीड़ नहीं थी. कुछ युवतियाँ वहाँ सेल्फी लेती हुई दिख रही थी. बाहर की दुनिया से बेखबर ऐसा लग रहा था कि समय यहाँ ठहर गया है.

कोरोना काल में सबसे ज्यादा मार छोटे दुकानदारों पर पड़ी है. खास कर रेस्तरां और होटल उद्योग इससे खूब प्रभावित हुए. ऐसे में समय के थपेड़ों को झेल कर खड़ा मद्रास कैफे जैसी दुकानों का हमारे बीच होना सुकून देता है. ऐसा लगता है कि सब कुछ खोने के बाद भी बहुत कुछ बचा रह जाता है!

(न्यूज 18 हिंदी के लिए, 8 नवंबर 2021)