Monday, November 26, 2007

कामगार के हाथ





पिछले बारह सालों से दिल्ली में हूँ लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला देखने, घूमने का मौका कभी नहीं मिल पाया. इस बार एक मित्र के आग्रह पर व्यापार मेला घूमा तो जरूर पर ‘बाज़ार से गुजरा हूँ लेकिन ख़रीदार नहीं हूँ’ का भाव लिए हुए ही.

मेले में घूमते हुए उत्तर आधुनिकतावादी चिंतक ज्याँ बौद्रिला का कहना, ‘पूँजीवीदी समाज में केंद्रीय स्थान उत्पादन को नहीं बल्कि उपभोग को है’ मन में कौंधता रहा.

मेले में भीड़ काफ़ी थी. मैं एक स्टॉल पर बनारसी साड़ी की बारीकियों से उलझता रहा...पर खरीदार वहाँ नहीं थे.

बनारस से आए बुनकर बिलाल के चेहरे पर माल नहीं बिकने का दर्द स्पष्ट झलकता था. कबीर की रहँटा की याद आई.

कबीर याद आए-‘सुखिया सब संसार है खावे और सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे.’

मित्र ने थाईलैंड के स्टॉल से लकड़ी के बने खूबसूरत एक स्त्री की दुआ में जुड़े हाथ मुझे भेंट किए. मैं उन हाथों को हाथ में लिए सोचता रहा- ‘दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए’

2 comments:

ASAM said...

It would be nice if you could put a language translation widget so that non hindi speakers could read as well. Thank you

Mukesh Kejariwal said...

कम शब्दों में इतना अच्छा ब्योरा मैंने कम ही पढ़ा है। धन्यवाद! दुआएं!
- मुकेश