Monday, January 22, 2018

मैथिली के अजेंडे में पिछड़े-दलित क्यों नहीं

नवभारत टाइम्स
बीसवीं सदी के पहले दशक में यह राय कायम थी कि मैथिली केवल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की भाषा है। मैथिली महासभा (1910) ने इस अवधारणा की पुष्टि की। मैथिली भाषा के प्रचार-प्रसार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए बनाई गई इस सभा में केवल पंजीबद्ध मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों का प्रवेश सुरक्षित था। फिर समाज के हाशिए पर जो लोग थे वे कहां थे, जिनकी भाषा मैथिली थी, जो बहुसंख्यक थे? इस सवाल का जवाब मुख्यधारा के भाषाई इतिहास में नहीं मिलता।
वर्ष 2004 में मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर भाषा का दर्जा दिया गया, पर दुर्भाग्यवश, इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी यह सवाल उसी रूप में मौजूद है कि मैथिली भाषा-साहित्य में ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की उपस्थिति ही सब जगह क्यों नजर आती है जबकि पूरे मिथिला भू-भाग में यह बोली ओर समझी जाती रही है?
पिछले दिनों पहली बार दिल्ली स्थित एक स्वयंसेवी संस्था ने ‘मचान’ नाम से विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में मैथिली के प्रकाशकों का स्टॉल लगाया। इसे लेकर दिल्ली में रहने वाले मैथिलीभाषियों में काफी उत्साह था। ‘मचान’ ने एक कैलेंडर जारी किया जिसमें मैथिली के साहित्यकारों में 11 ब्राह्मण और एक कायस्थ रचनाकार की चर्चा थी। सवाल है कि क्या मैथिली आधुनिक काल में एक भी गैर द्विज रचनाकार तैयार नहीं कर पाई? माना कि नागार्जुन, राजकमल चौधरी, हरिमोहन झा आदि रचनाकारों की प्रगतिशीलता, प्रतिबद्धता ने मैथिली साहित्य को एक नई धार दी, उसे आधुनिक रंगों में रंगा। पर सवाल यह भी उठता है कि ‘बलचनमा’ (मैथिली) और ‘हरिजन गाथा’ (हिंदी) लिखने वाले नागार्जुन की प्रतिक्रिया इस कैलेंडर को लेकर क्या होती? या ब्राह्मणवाद पर प्रहार करने वाली ‘खट्टर ककाक तरंग’ जैसी अद्वितीय कृति रचने वाले हरिमोहन झा इसे किस रूप में देखते?
इसी मंच से 'मिथिलाक लोक-संसार में पर्यावरण संरक्षण' पर हुई बहस में वक्ताओं में सब एक ही जाति विशेष के विद्वान थे। लोक-संसार की यह चर्चा लोक की अवहेलना करके कैसे हो सकती है? गौरतलब है कि इस विमर्श को ‘मैथिली-भोजपुरी अकादमी’ और ‘नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी)’ का सहयोग प्राप्त था। लोकतांत्रिक भारत में सरकारी सहयोग से हो रहे इस तरह के विमर्शों में हाशिए के समाज की भागीदारी न होना आयोजकों की मंशा पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
प्रसंगवश, इस बार मैथिली के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, भाषा वैज्ञानिक उदय नारायण सिंह ‘नचिकेता’ पुस्कृत कविता पुस्तक ‘जहलक डायरी’ की प्रस्तावना में लिखते हैं, ‘पिछले पचास वर्ष के साहित्य जीवन में मैं ऐसे किसी से नहीं मिला जो मैथिली के लिए प्राण समर्पित कर सके…। हमारे पास कोई पोट्टी श्रीरामुलु नहीं हैं।’ इसी संदर्भ में यह भी याद किया जा सकता है कि जिन करीब 50 साहित्यकारों को मैथिली में साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है, सभी उच्च जातियों से ही आते हैं।
मैथिली भाषा के आधार पर अलग राज्य बनाने का आंदोलन कई बार उठ कर बैठ गया। यह जन आंदोलन का रूप लेने में असमर्थ रहा है। राजनीतिशास्त्रियों ने इसके कारण के रूप में मैथिल ब्राह्मणों व कर्ण कायस्थों की संस्कृति और गैर ब्राह्मणों और गैर कायस्थों की संस्कृति में फर्क को रेखांकित किया है। कह सकते हैं कि मैथिली भाषा आंदोलन से बाकी मैथिलों का कोई लगाव नहीं है। इतिहासकार पंकज कुमार झा लिखते हैं, ‘आधुनिक काल में, ख़ास कर आजादी के बाद विद्यापति जिस ‘गौरवशाली मैथिल संस्कृति’ के प्रतीक-चिह्न बन कर उभरे हैं उसमें गैर-द्विजों एवं ग्रामीणों की भागीदारी लगभग नगण्य है।’
साहित्य जब राजनीतिक चेतना से शून्य हो जाता है तो किस तरह की परिस्थिति पैदा होती है, उसे राजकमल चौधरी ने अपनी एक कविता ‘कवि परिचय’ में इस तरह व्यक्त किया है: ‘कविता हमर काँचे रहि गेल/एहि जारनि सं उड़ल कहां धधरा/व्यथा कहब ककरा/कथा कहब ककरा/ ’(कविता मेरी कच्ची ही रह गई/इस जलावन से आग की लपटें कहां उठीं/किससे अपनी व्यथा कहें/किससे अपनी कथा कहें)
(नवभारत टाइम्स,संपादकीय पेज पर 22 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

Wednesday, January 10, 2018

संवाद के ठौर

इंडियन कॉफी हाउस, जेएनयू
शहर के साहित्यकारों-पत्रकारों, राजनीतिकों, संस्कृतिकर्मियो के टी-कॉफी हाउसयानी चाय-कॉफी के बहाने मिलने-जुलने के ठिकानों से रिश्तों के बारे में पुरानी पीढ़ी के लोग अक्सर जिक्र करते हैं. पटना में सत्तर के दशक में रेणु, नागार्जुन युवा लेखकों-कलाकारों के साथ यहाँ पाए जाते थे. इलाहाबाद में चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेता और फिराक गोरखपुरी जैसे कवियों का अड्डा जमा करता था. दिल्ली के कॉफी हाउस में भी राजनीतिकों से लेकर साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच बहस-मुबाहिसों के कई किस्से हैं. लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए यह सब बस किस्से ही हैं, इतिहास के पन्नों में कैद. शहरों के बीच स्थित इन कॉफी हाउस के अड्डो पर कई साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलनों के बीज अंकुरित हुए. नवतुरिया लेखको ने अपने वरिष्ठों से बहस-मुबाहिसा का अंदाज सीखा. अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं की तरह ही सार्वजनिक जीवन (पब्लिक स्फीयर) में इन टी-कॉफी हाउस की महत्वपूर्ण भूमिका है. लोकतंत्र में ये राज्य और नागरिक समाज के बीच एक पुल की भूमिका निभाते रहे हैं.

लेकिन पिछले दशकों में साफ नजर आ रहा है कि इन कॉफी हाउसों की संस्कृति शहर के बदलते मिजाज के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही है. उदारीकरण के बाद इन सस्ते कॉफी हाउस के बरक्स आधुनिक रंगों में सजे कई बड़े ब्रांड’ माने जाने वाले नामों की ऐसी दुकानें उभरीं. हालांकि दिखनो में आधुनिक और महंगे इन कॉफी हाउसों के साथ हमारा रिश्ता एक उपभोक्ता से ज्यादा नहीं, हम उससे कोई लगाव नहीं महसूस करते. बैठने-उठने के लिए यह महानगरों के युवाओं, विद्यार्थियों के बीच भले लोकप्रिय हों, सामान्य कलाकारों-संस्कृतिकर्मियों की पहुँच से दूर हैं. अपनी बात कहूँ तो छात्र जीवन में मुझे इससे ज्यादा लगाव तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के गंगाऔर नीलगिरीढाबा से रहा. हालांकि पिछले दिनों जेएनयू में भी इंडियन कॉफी हाउसकी शुरुआत हुई. उम्मीद की जानी चाहिए कि जेएनयू की लोकतांत्रिक संस्कृति में यह कॉफी हाउस एक नया पन्ना जोड़ने में कामयाब होगा. 

इंडियन कॉफी हाउसके करीब 400 रेस्तरां अभी भी पूरे देश के शहरों में चल रहे हैं, जिसे इंडियन कॉफी वर्कर्स कोऑपरेटिव सोसाइटीके माध्यम से चलाया जाता है. यहाँ किफायती दामों में कॉफी और इडली, डोसा, सांभर-बड़ा आदि खाने-पीने की चीजें उपलब्ध रहती हैं. लेकिन आज यह शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवियों का अड्डा नहीं रहा, ना यहाँ वह रौनक रही. बात चाहे शिमला की हो, इलाहाबाद की या दिल्ली की. दिल्ली में कनॉट प्लेस में स्थित कॉफी हाउस में आजकल छत पर बंदरों का उत्पात मचा रहता है, यहाँ भी बुद्धिजीवियों को कम ही देखा जा सकता है. रेस्तरां में गुणवत्ता के स्तर पर भी पहले के मुकाबले काफी कमी आई है. इसकी एक वजह इन कॉफी हाउस में कर्मचारियों की संख्या में आई कमी भी है. ऐसी कई स्थितियाँ सामने हैं और इसलिए अगर इनके घाटे में चलने की बात होती है तो हैरानी नहीं होती. इलाहाबाद से लेकर दिल्ली तक के कुछ गिने-चुने साहित्यकार और पत्रकार अपवाद ही कहे जाएँगे जो गाहे-बगाहे इन पुराने ठौर पर दिखाई पड़ जाते हैं. जो चीज इन कॉफी हाउस को विशिष्ट बनाती रही है, वह है यहाँ पर मौजूद अनौपचारिक माहौल और फक्कड़पन जो आधुनिक तड़क-भड़क  से कोसों दूर है.

प्रेम कोशी के साथ
बहरहाल, क्रिसमस के करीब बंगलुरु जाना हुआ. शहर के व्यस्त सेंट मार्क्स रोड पर स्थित एक कॉफी हाउस और रेस्तरां के बारे में हमने काफी कुछ सुना था. इसका इतिहास 75 साल से भी ज्यादा पुराना है. कहते हैं कि इसने नेहरू, ब्रिटेन की महरानी एलिजाबेथ द्वितीय को भी अपनी सेवाएँ दी थी. लेकिन इनका इतिहास राजा-रजवाड़ों से नहीं बना है. सूचना-तकनीक के क्षेत्र में आए उभार ने बंगलुरु की संस्कृति को बदला है, पर शहरी संस्कृति की चर्चा कोशीजकैफे की चर्चा के बिना अधूरी है. एक शाम यहाँ कॉफी पीने हम भी गए. सड़क के एक किनारे पर स्थित मकान की छत से लटके पुराने पंखों और फोम के गद्दे से बनी कुर्सी, मेज के चारों ओर विद्यार्थी, युवा लेखक और कुछ परिवार आपसी चर्चा में मशगूल थे. एक अनौपचारिकता पूरे कमरे में पसरी थी.

जब हम कॉफी पीने की तैयारी कर रहे थे, तब बेहद साधारण कपड़ों में एक सज्जन हमारी मेज पर आए और बातचीत करने लगे. फिर उन्होंने हमें क्रिसमस स्पेशल डिश- प्लम पुडिंगपेश किया. निस्संदेह वह काफ़ी लजीज था और बतौर उपहार था! वह सज्जन रेस्तरां के मालिक प्रेम कोशी थे. उन्होंने बताया कि बंगलुरु के बुद्धिजीवी, विद्यार्थियों, पत्रकारों के बीच दशकों से यह रेस्तरां लोकप्रिय है. रामचंद्र गुहा, गिरीश कर्नाड और दिवंगत पत्रकार गौरी लंकेश आदि का यह पुराना ठौर रहा है.


सेंट मार्क्स रोड के इर्द-गिर्द, अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस कॉफी हाउसों के बीच 'कोशीज' का टिका होना होना किसी आश्चर्य से कम नहीं. लेकिन यह इस बात की ताकीद भी है कि जरूरी नहीं कि जो पुराना है चलन से बाहर ही चला जाए. पुरानेपन का नएपन के साथ कोई बैर नहीं! 

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 10 जनवरी 2018 को प्रकाशित)

Saturday, January 06, 2018

हिंदी पत्रकारिता की भाषा का क्रमिक विकास

खण्ड-1
इकाई-3:   हिंदी पत्रकारिता की भाषा का क्रमिक विकास
इकाई की रूपरेखा
3.1 उद्देश्य
3.2 प्रस्तावना                                             
3.3 हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल की भाषा
   3.3.1 उदंत मार्त्तंड
   3.3.2 बंगदूत            
  3.3.3  समाचार सुधावर्षण
   3.3.4 बनारस अखबार
3.4  भारतेंदु मंडल की पत्रकारिता की भाषा
      3.4.1  कवि वचन सुधा
       3.4.2  हिंदी प्रदीप
3.5   20वीं सदी में हिंदी पत्रकारिता की भाषा
    3.5.1 भारत मित्र एवँ सरस्वती
     3.5.2  आज
3.6      स्वातंत्र्योत्रर भारत में हिंदी पत्रकारिता की भाषा
         3.6.1 हिंदुस्तान                             
        3.6.2 जनसत्ता
        3.6.3 नवभारत टाइम्स
3.7 भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी पत्रकारिता की भाषा
3.8 पाठ सार
3.9 बोध प्रश्न
3.10 संदर्भ ग्रंथ-सूची


3.1 उद्देश्य:  हिंदी पत्रकारिता का इतिहास आधुनिक हिंदी भाषा के विकास की कहानी भी है। इस इकाई में हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल (19 वीं सदी) से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन, स्वातंत्र्योत्तर भारत और वर्तमान भूमंडलीय दौर में हिंदी भाषा के विकास की चर्चा की गई है। करीब दौ सौ सालों की इस यात्रा में हिंदी अनेक पड़ावों से गुजरी और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता में लगातार संवृद्धि आती गई। हिंदी पत्रकारिता के शुरूआती दौर में खड़ी बोली हिंदी पर ब्रजभाषा के प्रभाव, स्वातंत्र्योत्तर भारत में अखबारों, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो-टेलीविजन में हिंदी के बरतने में संस्कृत निष्ठता  का आग्रह, बाद के दशकों में बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल और भूमंडलीय दौर में अंग्रेजी के प्रभाव की चर्चा की गई है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप-
·         हिंदी पत्रकारिता की भाषा के विकास क्रम से परिचित होंगे;
·         हिंदी पत्रकारिता की भाषा में संस्कृत के शब्दों के इस्तेमाल, हिंदी क्षेत्र की बोलियों के प्रभाव और फिर आम बोलचाल की भाषा के तरफ झुकाव को समझ सकेंगे;
·         भूमंडलीकरण के इस दौर में हिंदी अखबारों की भाषा पर टेलीविजन समाचार चैनलों का प्रभाव और अंग्रेजी के शब्दों के बेधड़क इस्तेमाल की प्रवृत्ति को समझ सकेंगे; और
·         हिंदी भाषा की स्वतंत्र पहचान और पहचान के संकट से भी आप परिचित होंगे ।
3.2 प्रस्तावना: हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 30 मई 1826 को उदंत मार्त्तंड के प्रकाशन से होती है। इसे युगल किशोर शुक्ल के संपादकत्व में कलकत्ते से हिंदुस्तानियों के हित के हेतुनिकाला गया था। यह साप्ताहिक समाचार पत्र मंगलवार को प्रकाशित होता था। पर अल्प समय में, करीब डेढ़ वर्ष बाद ही, इसे बंद कर देना पड़ा। वहीं हिंदी का पहला दैनिक वर्ष 1854 में समाचार सुधावर्षणके रूप में प्रकाश में आया जो श्याम सुंदर सेन के संपादकत्व में वर्ष 1868 तक कलक्ते से ही प्रकाशित होता रहा।  राजा शिव प्रसाद सितारे हिंदके प्रयास से हिंदी क्षेत्र, बनारस, से पहली बार बनारस अखबारका प्रकाशन हुआ। यूँ तो वर्ष 1826-60 के बीच हिंदी में कुछेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ पर हिंदी पत्रकारिता में गति वर्ष 1860 के बाद ही पकड़नी शुरू हुई, जब भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली के लेखक-पत्रकार हिंदी की सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फीयर) में सक्रिय हुए। उन्होंने अपने पत्रों के माध्यम से बहस-मुबाहिसा में भाग लिया और इसे विस्तार दिया।
19वीं सदी के आखिरी दशकों और 20वीं सदी के शुरूआती दो दशकों में जो पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन हुए उसमें साहित्यिक और राजनीतिक पत्र-पत्रिकाओं का कोई ठोस विभाजन नहीं मिलता। असल में उस दौर में ज्यादातर साहित्यकार ही पत्रकार भी थे। फिर भी जहाँ कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र चंद्रिका, भारत मित्र, सार सुधा निधि, उचित वक्ता और हिंदी प्रदीप जैसे पत्र साहित्यिक और सामाजिक मुद्दों को तरजीह देते थे, वहीं आर्य दर्पण, भारत वर्ष, ब्राह्मण, हिंदुस्थान आदि अपने तेवर और सामग्री के प्रकाशन में राजनीतिक ज्यादा थे।
उल्लेखनीय है कि सन् 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के साथ हिंदी (खड़ी बोली) गद्य की भाषा के रूप में आकार लेने लगी थी। इस तरह हिंदी पत्रकारिता और हिंदी गद्य का विकास एक साथ हो रहा था। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकारिता का उद्भव काल भारतीय राष्ट्रीयता और हिंदी भाषा के विकास की कहानी कहता है। हिंदी पत्रकारिता हिंदी-उर्दू भाषा विवादहिंदी भाषा और लिपि के आंदोलन और आगे आजादी के संघर्ष में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही थी और उसकी भूमिका रेखांकित करने योग्य है। इस इकाई में आगे हम पढ़ेंगे कि किस तरह हिंदी पत्रकारिता के सहारे आधुनिक हिंदी का विकास और परिमार्जन हुआ।
आजादी के बाद 1950 में हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया और हिंदी पत्रकारिता एक नए विश्वास के साथ सामने आई। हिंदी पत्रकारिता में नए विषयों-आर्थिक सामाचार, खेल समाचार आदि का प्रवेश हुआ, नई तकनीकी का इस्तेमाल बढ़ा, विज्ञापनों में बढ़ोतरी हुई और इन सबने मिलकर  भाषा को प्रभावित किया और प्रकारांतर से हिंदी पत्रकारिता भी प्रभावित हुई। पर राजनीतिक स्वार्थों, राष्ट्रभाषा-राजभाषा, सवर्ण मानसिकता की तिकड़म से स्वाभाविक हिंदी के विकास में बाधा पहुँची। सरकार के नियंत्रण में दूरदर्शन और रेडियो में हिंदी के संस्कृतनिष्ठ होने पर जोर बढ़ा और हिंदी पत्रकारिता में भी उर्दू-फारसी के शब्दों, क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों के इस्तेमाल से परहेज की प्रवृत्ति दिखी। वहीं दूसरी ओर चूँकि हिंदी पत्रकारों को खबरों के लिए अंग्रेजी की मूल कॉपी, अंग्रेजी की संवाद समितियों पर निर्भर होना पड़ता था, इसलिए अनुवाद की एक कृत्रिम भाषा हिंदी पत्रकारिता में दिखाई पड़ने लगी। इस भाषा से आम लोगों का कोई रिश्ता नहीं था, ना हीं इससे पत्रकारिता और जनसंचार के मूल उद्देश्य- खबरों, विचारों को आम जनता तक पहुँचाना,उन्हें शिक्षित करना- को हीं पाया जा सकता था।
आगे हम देखेंगे कि किस तरह बाद के दशकों में, खासकर आपातकाल (1975-77) के बाद, हिंदी क्षेत्र में शिक्षा और आय में बढ़ोतरी होने से जब बाजार फैला हिंदी पत्रकारिता शहरों से दूर कस्बों, गाँव-देहातों तक भी पहुँची तब हिंदी भाषा में क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों का प्रयोग भी बढ़ा। हिंदी पत्रकारिता की भाषा नई चाल में ढली। साथ ही उदारीकरण, भूमंडलीकरण के आने से अंग्रेजी संचार की मुख्य भाषा के रूप में उभरी है। इन्हीं वर्षों में भारत में निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का प्रसार हुआ, ऑन लाइन मीडिया का उभार हुआ, जिसका असर समकालीन हिंदी पत्रकारिता की भाषा पर भी पड़ा और कोड मिक्सिंग/कोड स्वीचिंगकी प्रवृत्ति बढ़ी जो हिंग्लिश के रूप में वर्तमान में हमारे समाने है।
भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है। यह महज संवाद का माध्यम ही नहीं है। इसमें मनुष्य की भावनाएं, संवेदनाएं, चिंता और चिंतन की अभिव्यक्ति होती है। आधुनिक समाज में पत्रकारिता की पहुँच साहित्य से कई गुणा ज्यादा है। पत्रकारिता की भाषा मूलत: खबरों (सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक, खेल आदि), संपादकीय और विज्ञापन की भाषा के रूप में हमारे सामने आती है।
इस इकाई में हम हिंदी पत्रकारिता के करीब 200 वर्षों के इतिहास में प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के उदाहरण के माध्यम से हिंदी भाषा के क्रमिक विकास और उसकी प्रवृत्तियों को देखने की कोशिश करेंगे।
3.3 हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल की भाषा: युगल किशोर शुक्ल ने जब  हिंदी को पहला साप्ताहिक समाचार पत्र दिया तब एक प्राशकीय विज्ञप्ति इस कागज के प्रकाशक का इश्तिहारशीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुई। जिसके तहत लिखा था- यह उदंत मार्त्तंड पहले-पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अँगरेजी ओ पारसी ओ बंगले में जो समाचार का कागज छपता है, उसका सुख उन बोलियों के जान्ने ओर पढ़ने वालों को ही होता है... हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ ओ समझ लेंय ओ पराइ अपेक्षा को अपने भाषे के उपज न छोड़े इसलिए बड़े दयावान करुणा और गुणनि के निधान सबके कल्यान के विषय गबरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से है असे साहस में चित्त लगाय के एक प्रकार से नया ठाट ठाटा...। उदंत मार्त्तंड में देश-विदेश, गाँव-शहर, हाट-बाजार संबंधी सूचनाएँ, अफसरों की नियुक्तियाँ, इश्तहार, समाचार आदि प्रकाशित होती थीं। उदंत मार्त्तंड की खड़ी बोली शैली में लिखी हिंदी भाषा पर मध्यदेशीय भाषा का प्रभाव दिखता है। शुक्ल खुद ब्रजभाषा, संस्कृत, खड़ी बोली, उर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषा के जानकार थे। इसका असर उदंत मार्त्तंड की भाषा पर भी दिखता है। इस पत्र के शीर्षक के नीचे संस्कृत में ये पंक्तियाँ लिखी होती थी:
दिवाकान्त कान्ति विनाध्वान्तमन्तं
न चाप्नोति तद्वज्जगत्यज्ञ लोक: ।
समाचार सेवामृतेज्ञत्वमाप्तं
न शक्नोति तस्मात्करोमीति यत्नं।।
3.3.1 उदंत्त मार्त्तंड: उदंत मार्त्तंड के पहले अंक (30 मई 1826) में श्रीमान गवरनर-जेनरल बहादुर का सभावर्णनप्रकाशित हुआ था। उदाहरण के लिए उस सभावर्णन के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं: अंगरेजी 1826 साल 19 में को सरकार कम्पनि अंगरेज बहादुर जो ब्रह्मा के बीच में परस्पर संधि हो चुकने के प्रसंग से यह दरबार शोभनागार हो के श्रीमान लार्ड एमहसर्ट गवरनर जेनरेल बहादुर के साक्षात से मौलवि महम्मद खलिलुद्दीन खां अवध बिहारी बादशाह के ओर से वकालत के काम पावने के प्रसंग से सात पारचे की खिलअत ओ जिगा सर पेच जडाऊ मुलाहार औ पालकि झालदार ओ....साथ ही उदंत मार्त्तंड में प्रकाशित इश्तहार की भाषा भी द्रष्टव्य है: सभों को खबर दी जाती है कि जो किसि को गंगा को मिट्टी लेनी होय तो तीर की राह वल्ली और फुट  15 के अटकल जगह छोडके खाले की भुंई खनि लेय और जब ताईं दूसरा हुकम न होय तबतक यही हुकम बहाल रहेगा और जिसकी मिट्टी को दरकार होय वह उसी ओर की राह के अमीन मेस्टर केलार्क साहब के यहाँ अरजी देवेगा। यहाँ पत्रिका में प्रकाशित लखनऊ के एक दृश्य के वर्णन का यह प्रसंग उद्धृत किया जा रहा है: फिर जब वे आसफुद्दौला के महल के पास होके निकले उस समय बादशाह की जेठी बहिन की डेवढ़ी की तैनाती फौज आके सलामी की। जब सवारी फरीदबख्श मुलतानी कोठी के पास पहुँची  वहाँ पर बहुत सी तोपें दगियाँ और लोगों ने उसी कोठी में जाके हाजरी खाई।
जब 4 दिसंबर 1827 को शुक्ल ने इसे सरकारी सहायता के अभाव और पाठकों के कमी के कारण बंद किया तब बहुत व्यथित होकर उन्होंने अंतिम अंक के संपादकीय में लिखा:
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अस्त।
अंबिका प्रसाद वाजपेयी (संवत 2010: 102) ने उदंत मार्त्तंड की भाषा के प्रसंग में लिखा है: जहाँ तक उदंत मार्त्तंड की भाषा का प्रश्न है, वह उस समय लिखी जाने वाली भाषा से हीन नहीं है। उसके संपादक बहुभाषाज्ञ थे...उदंत मार्त्तंड हिंदी का पहला समाचार पत्र होने पर भी भाषा और विचारों की दृष्टि से सुसंपादित पत्र था। उदंत मार्त्तंड की भाषा की परख यदि हम आज के पैमाने पर करें तो निस्संदेह उसमें व्याकरण, शब्द विन्यास, वाक्य संरचना की काफी त्रुटियाँ मिलती हैं। उसमें तोपें दगियाँ, हाजरी खाई, शोभनागार होके जैसे प्रयोग मिलते हैं। साथ ही आवेगा, जावेगा, देवेगा, होय, तोय का इस्तेमाल भी मिलता है। सेवाय, ऊसने, खलीती, मरती समय, खिलअतें, परंत, भेंट भवाई, सभों जैसे शब्द भी हैं जिसका ठीक-ठीक अर्थ लगाने में आज के दौर में हिंदी पढ़ने-समझने वालों को परेशानी होगी। फिर भी उदंत मार्त्तंड में खड़ी बोली हिंदी के आरंभिक रूप की झलक मिलती है, जिसका विकास आगे जाकर हुआ।
3.3.2 बंगदूत: उदंत मार्त्तंड के प्रकाशन के बाद राजा राम मोहन राय के संपादक मंडल के तहत हिंदी में बंगदूत के प्रकाशन का जिक्र मिलता है। यह भी एक साप्ताहिक पत्र था। इसका पहला अंक 10 मई 1829 को निकला था।
कृष्ण बिहारी मिश्र (2004: 480-481) ने भी बंगदूत के हिंदी में प्रकाशित होने के बारे सूचना देते हुए इसमें जो हिंदी के नमूने मिलते हैं उसे अपनी किताब हिंदी पत्रकारिता में उद्धृत किया है:
बंगदूत।।
दूतनि की यह रीति बहुत थोरे में भाषै।
लोगनि को बहुलाभ होय वाही ते लाखैं।।
बंगला के दूत पूत यहि वायु को जानौ।
होय विदित सब देश क्लेश को लेख न मानौ।।
....यह समाचार नित शनिवार की रात को छपवा भोर होकर एतवार को उसके गाको को बाँट दिया जावेगा इस कागज के अधिकारी मिष्टर आर यम् मार्टीन साहिब और राम मोहन राय और द्वाराकानाथ ठाकुर और प्रसन्न कुमार और नीलरत्न हालदार और राजकृष्ण सिंह और राजनाथ मित्र ठहरे हैं। बंगदूत के 11-12 अंक ही निकले। यह पत्र मूलत: बँगला के साथ साथ आवश्यकता होने पर फारसी और हिंदी में छपता था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल (संवत 2054: 234) ने भी इस पत्र का उल्लेख करते हुए लिखा है, राजा साहब की भाषा में एकआध जगह कुछ बँगलापन जरूर मिलता है, पर उसका अधिकांश में वही है जो शास्त्रज्ञ विद्वानों के व्यवहार में आता है।नमूने के रूप में शुक्ल ने बंगदूत के इस अंश को उद्धृत किया है: “ जो सब ब्राह्मण सांग वेद अध्ययन नहीं करते सो सब व्रात्य हैं, यह प्रमाण करने की इच्छा करने ब्राह्मण-धर्म-परायण श्री सुबह्मण्य शास्त्रीजी ने जो पत्र सांगवेदाध्ययनहीन अनेक इस देश के ब्राह्मणों के समीप पठाया है, उसमें देखा जो उन्होंने लिखा है-वेदाध्ययनहीन मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष होने शक्ता नहीं।चूंकि बंगदूत के अंक सहज सुलभ नहीं हैं, इसलिए इसकी भाषा के बारे में अंतिम रूप से कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती। फिर भी ऊपर जो उद्धरण दिए गए हैं और अन्यत्र जो उदाहरण मिलते हैं, उससे स्पष्ट है कि बंगदूत की भाषा जटिल और अबूझ है जिससे भाव समझने में परेशानी होती है। इस पत्र में भी व्याकरण संबंधी त्रुटि-छपैगी, भाषैं, करैं आदि शब्दों के प्रयोग में दिखते हैं। साथ ही सतवारे, बैपारी, भांगी, आवते, पठाया जैसे शब्दों के प्रयोग मिलते हैं। देशान्तरनि, प्रसंगनि, आवते जैसे प्रयोग इस पत्र पर भी उदंत्त मार्त्तंड की तरह ब्रजभाषा के प्रभाव को इंगित करता है। 
3.3.4 बनारस अखबार: वर्ष 1845 से राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद ने साप्ताहिक बनारस अखबारशुरू किया जिसकी भाषा बोल-चाल की हिंदुस्तानी थी। इसका खूब विरोध उस दौर में किया गया।  अंबिका प्रसाद वाजपेयी (संवत 2010: 105) ने लिखा है कि परन्तु यह नाम का हिंदी पत्र होने पर भी वास्तव  में उर्दू का अखबार है जो नागरी वा हिंदी अक्षरों में सन 1845 से निकलता था।इस साप्ताहिक अखबार में हिंदुस्तानी भाषा का एक रूप इस उदाहरण से स्पष्ट है: यहाँ जो पाठशाला कई साल से जनाब कप्तान किट साहब  बहादुर के इहतिमाम और धर्मात्माओं के मदद से बनता है उसका हाल कई दफा जाहिर हो चुका है। अब वो मकान एक आलीशान बन्ने का निशान तय्यार हर चेहार तरफ से हो गया है बल्कि इसके नक्शे का बयान पहलि मुंदर्ज है सो परमेश्वर की दया से साहब बहादुर बहुत मुस्तैदी से बहुत बेहतर और माकूल बनवाया है।इस उर्दू मिश्रित भाषा को उस जमाने में सामान्य जनों के लिए दुरूह समझी गई, लेकिन बाद के हिंदी पत्रकारिता के विकास क्रम में यह जनसंचार की भाषा बनी जो भाव के संप्रेषण में माकूल है। असल में बाद के दशकों में पश्चिमोत्तर प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में हिंदी-उर्दू विवाद आगे बढ़ा और हिंदी-मुस्लिम भद्रवर्ग के बीच भाषाई वर्चस्व की लड़ाई शुरू हुई। इससे स्वाभाविक हिंदी का विकास बाधित हुआ। आजादी के बाद भी सरकारी हिंदी को संस्कृतनिष्ठ और उर्दू-फारसी से परहेज के तहत तैयार किया गया। हालांकि  रामचंद्र शुक्ल ने शिव प्रसाद की भाषा को भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा के बरक्स रखते हुए चिंतामणि (सं. नामवर सिंह: 1985:71) में लिखा, “राजा शिवप्रसाद मुसलमानी हिंदी का स्वप्न ही देखते रहे कि भारतेंदु ने स्वच्छ आर्य हिंदी की शुभ्र छटा दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर दिया।शिवप्रसाद सितारे हिंद की भाषा संस्कृत निष्ठ नहीं थी, और पंडिताऊपन से मुक्त थी। हालांकि वर्तनी की एकरूपता उसमें नहीं थी।
आगे हम आर्य हिंदी के परिप्रेक्ष्य में भारतेंदु मंडल की पत्रकारिता की भाषा देखेंगे और शुक्ल के इस कथन को परखेंगे।
3.3.3 समाचार सुधावर्षण : समाचार सुधावर्षण वर्ष 1854 में कलकत्ते से ही श्यामसुंदर सेन के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ। इसे हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त है। यह  वर्ष 1868 तक निकला। समाचार सुधावर्षण  की भाषा का स्वरूप समझने के लिए इस पत्र से कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं: आजकल कलकत्ता महानगर में बाजार में सोना बड़ा सस्ता बिकने को आरंभ भया है। पहिले दर से देढ़ रुपया या दो रुपया तक दर कम भया है। 14 या 14।। चौदा या साढ़े चौदा रुपये के भाव से आजकल बिकता है।
हम लोगों ने अपने प्रिय बन्धुओं के मुख से सुना है कि अयोध्या जी में बड़ा युद्ध उपजा है इस युद्ध का कारण यही है कि अयोध्यापुरी के श्री हनुमान गढ़ी के निकट एक शिवालय है उस पर से रेल रोड की सड़क सीधी जाती है इसलिए रेल रोड के साहबों ने हनुमानगढ़ी के महन्त जी से कहा कि इस महोदेव जी के उठाय के तुम लोग और जगह रखो।
डॉक्टर रामचंद्र तिवारी (1999:25) ने लिखा है कि  दैनिक जीवन के अधिक निकट होने के कारण इसकी भाषा बोल-चाल के अत्यंत निकट है।उन्होंने इसके नमूने के तौर पर समाचार सुधावर्षण में प्रकाशित इस अंश को उद्धृत किया हैः यह सत्य हम लोग अपनी आँखों से प्रत्यक्ष महाजनों की कोठियों में देखते हैं कि एक को लिखी हुई चिट्ठी दूसरा जल्दी बाँच सकता नहीं। चार-पाँच आदमी लोग इकट्ठा बैठ के ममा टका कक घघ डडा कहिके फेर मिट्टी का घड़ा बोल के निश्चय करते हैं। क्या दुख  की बात है।  कहिये तो अपने पास से द्रव्य खर्च करके विद्यादान देने की लत तो दूर  रही अपने विद्या सीखना बड़ा जरूरत है। सब अक्षरों से देवनागर अक्षर सहज ओ सर्वदेश में प्रचलित है। इसको प्रथम सीखना है।इसी तरह कृष्ण बिहारी मिश्र (2004:77)  ने लिखा है, “जहाँ तक भाषा का प्रश्न है, बँगला का प्रभाव होते हुए भी इस पत्र की भाषा में एक विशेष प्रकार की सफाई है।हिंदी पत्रकारिता के इस आरंभिक दौर के बाद हिंदी गद्य की भाषा का एक मुकम्मल स्वरूप दिखाई देने लगा। इसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके सहयोगी लेखक-पत्रकारों- बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बद्री नारायण चौधरी प्रेमघन आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
3.4 भारतेंदु मंडल की पत्रकारिता की भाषा: हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल के बाद का दौर भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) और उनके मंडल के पत्रकार-लेखकों के नाम है। भारतेंदु हरिश्चंद्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कवि-लेखक-नाटककार के साथ-साथ उनके पत्रकार रूप का ऐतिहासिक महत्व है। उद्भव काल के पत्रकारिता की भाषा का स्वरूप अस्थिर और अपमार्जित था, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कवि वचन सुधा (1868), हरिश्चंद्र मैंगजीन (1873) और बाला बोधिनी (1874) जैसी पत्रिकाओं के संपादन द्वारा हिंदी पत्रकारिता की विषय-वस्तु और भाषा दोनों को संवृद्ध किया। साथ ही उनके समकालीन, सहयोगी सहित्यकारों मसलन, बाल कृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप (1877) और प्रताप नारायण मिश्र ने ब्राह्मण (1883) पत्र निकाल कर हिंदी भाषा को प्रवाहमयी बनाया ।
3.4.1 कवि वचन सुधा: कवि वचन सुधा के प्रकाशन से हिंदी पत्रकारिता के दूसरे युग की शुरूआत मानी जाती है। भारतेंदु ने 23 मार्च 1874 में कवि वचन सुधा में एक प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित किया था, जिसे कवि वचन सुधा की भाषा के दृष्टांत के रूप में हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इन पंक्तियों में भारतेंदु  की राजनीतिक चेतना भी परिलक्षित होती है: हम लोग सर्वान्तदासी सत्र स्थल में वर्तमान सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी दे कर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहिनेंगे और जो कपड़ा पहलि से मोल चुके हैं और आज कीमिती तक हमारे पास है उन को उन के जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल ले कर किसी भाँति का विलायती कपड़ा न पहिरेंगे हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे...। रामचंद्र शुक्ल (संवत 2054: 246) ने हालांकि लिखा है उन्होंने जिस प्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे  बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिंदी साहित्य को भी नए मार्ग पर ला खड़ा किया।  शुक्ल भाषा के स्वरूप को स्थिर करने का श्रेय भारतेंदु को देते हैं, पर जब हम उनकी लेखनी पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि संस्कृतनिष्ठता का आग्रह है और उनकी भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव बना रहा। साथ ही पूरबी प्रयोग बहुत मिलता है ।
खुद भारतेंदु ने 1873 में हरिश्चंद्र चंद्रिका में लिखा-हिंदी नयी चाल में ढली।हालांकि वीर भारत तलवार ने अपनी किताब रस्साकशी (2002: 85-86) में गहन शोध के बाद लिखा है-“1873 से पहले और 1873 के बाद, भारतेंदु की भाषा में कोई बुनियादी फर्क नहीं मिलता। उनका झुकाव हमेशा से कुछ-कुछ पूरबी उच्चारण वाले जनपदीय प्रयोगों  के साथ संस्कृतनिष्ठ हिंदी लिखने की ओर रहा जिसमें अरबी-फारसी के शब्द कम से कम होते थे।उदाहरण स्वरूप तलवार लार्ड मेयो की हत्या पर भारतेंदु ने कवि वचन सुधा (24 फरवरी 1872) में जो संपादकीय लिखा था, उसके अंश को उद्धृत करते हैं-आज दिन हम उस मरण का वृत्तांत लिखते हैं जिसकी भुजा की छाँह में सब प्रजा सुख से कालक्षेप करती थी।”  तलवार रेखांकित करते हैं कि मृत्यु या मौत के लिए मरण, हाल के लिए वृत्तांत और कालक्षेप जैसे प्रयोग उनकी संस्कृतनिष्ठता, बनावटीपन को दिखाता है। यह सच है कि हर जगह भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा एक जैसी नहीं है, पर भारतेंदु मंडल के लेखकों मसलन, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरी नारायण चौधरी प्रेमघनआदि की पत्रकारिता में भाषा के प्रति दृष्टिकोण और रवैया भारतेंदु की तरह ही रहा। फिर भी सभी लेखक-पत्रकारों की अपनी निजी शैली भी रही जो उनके व्यक्तित्व, मनोभावों से प्रचालित होती थी। मिश्र की भाषा में बोलचाल के शब्दों का प्रयोग, मुहावरों और लोकोक्तियों का खूब प्रयोग मिलता है। इसी तरह बालकृष्ण भट्ट की भाषा में अंग्रेजी के शब्दों-सरकुलेशन, फिलासोफी, एज्यूकेशन, रिलीफ, हाई कोर्ट आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है, जो हिंदी पत्रकारिता की भाषा को संवृद्ध कर रही थी, उसकी अभिव्यक्ति क्षमता को बढ़ा रही थी। साथ ही उनमें दिखाकर की जगह दिखाय, खिलाकर के स्थान पर खिलाय जैसे क्षेत्रीय प्रयोग मिलते हैं।
इस बात से इंकार नहीं कि भारतेंदु युग में हिंदी पत्रकारिता की भाषा संवृद्ध हुई और हिंदी गद्य को एक नया तेवर मिला। रामचंद्र शुक्ल (संवत 2054: 247) ने लिखा है सारंश यह है कि उस काल में हिंदी का शुद्ध साहित्योपयोगी रूप ही नहीं, व्यवहारोपयोगी रूप भी निखरा। फिर भी इस भाषा के परिमार्जन का काम बाकी था जिसे अगले दशकों में पत्रकारों-लेखकों ने पूरा किया।
3.4.2 हिंदी प्रदीप: हिंदी प्रदीप के मुख्य पृष्ठ पर यह पंक्ति लिखी होती थी- विद्या, नाटक, इतिहास, साहित्य, दर्शन, राजसंबंधी इत्यादि के विषय में हर महीने की पहिली को छपता है। साथ ही मुख्य पृष्ठ पर यह उद्धृत रहता था:
शुभ सरस देश सेनह पूरित प्रगट ह्वै आनंद भरै।
बाचि दुसह दुरजन वायुसौं मणिदीप समथिर नहि टरै।।
सूझै विवेक विचार उन्नति कुमति सब यामैं जरै।
हिंदी प्रदीप प्रकाशि मूरखातादि भारत तम हरै।।
हिंदी प्रदीप की शुरूआती अंकों को पढ़ने पर उसकी भाषा पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। पत्रिका में भी संस्कृत के श्लोक भरे पड़े रहते थे। अंग्रेजी में भी कहावतें उद्धृत की जाती थी। हालांकि बाद के वर्षों (20वीं सदी में) भाषा में संस्कृत का प्रभाव कम होने लगा था, पर पूरबी बोलियों का प्रभाव इस भाषा पर है। उदाहरण के लिए हिंदी प्रदीप के एक अंक से अवसर आलोचनाशीर्षक के तहत यह उद्धरण नीचे दिया जा रहा है: हमें चाहिए साधारण लोगों से भी बातचीत करते समय बड़ी सावधानी रखें मुख से कोई बात न निकलने पावे जो दूसरों का जी दुखाने का बाइस हो देखने में आया है कि इस तरह की असावधानी से बहुधा कितने अनर्थ हो गये हैं और अब तक होते जाते हैं मनुष्य की जीवन के सदृश बहुमूल्य पदार्थ और क्या होगा उसमें इस असावधानता के कारण अक्सर बाधा पहुँची है...गौरतलब है कि पूर्ण विराम का इस्तेमाल इस उद्धरण में कहीं नहीं हुआ है। साथ ही पावे, बाइस जैसे प्रयोग भी हैं। व्याकरण की त्रुटियों के बाबजूद इस उद्धरण की भाषा में हिंदी पत्रकारिता का एक व्यावहारिक रूप मिलता है जो सरल और सहज है।
समाचार सुधावर्षण के बाद कालाकांकर का हिन्दोस्थान और कलक्ता का भारत मित्र ने दैनिक समाचार पत्रों की परंपरा को कायम रखा। बीसवीं सदी में इसी क्रम में प्रताप (1913), आज (1920) सैनिक(1935) आदि प्रमुख अखबारों का उल्लेख होता है।
3.5  20वीं सदी में हिंदी पत्रकारिता की भाषा: 20वीं सदी देश की आजादी के लिए संघर्ष की गाथा है, जिसे हम हिंदी पत्रकारिता के द्विवेदी युग (1900-1920) और गाँधी युग (1920-47) में विभक्त कर सकते हैं। भारतेंदु और उनके सहयोगी पत्रकार-साहित्यकार मित्रों ने हिंदी को भले ही साहित्यिक और व्यावहारिक भाषा बनाया पर अभी भी हिंदी को परिनिष्ठित गद्य की भाषा नहीं बनाया जा सका था, जिसे सरस्वती पत्रिका (1900) के संपादक (1903-1920) के रूप में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पूरा किया। साथ ही द्विवेदी के समकालीन पत्रकार बालमुकुंद गुप्त ने भी भारत मित्र पत्रिका के माध्यम से हिंदी का प्रचार किया, उसके गद्य को संवारा था और हिंदी क्षेत्र में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। वे 1899 में इस पत्रिका के संपादक बने।
3.5.1 भारत मित्र एवँ सरस्वती: 21 अक्टूबर 1905 को भारत मित्र में बंगविच्छेद शीर्षक से प्रकाशित लेख का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है: “ आपके शासन काल में बंगविच्छेद  इस देश के लिए अन्तिम विषाद और आपके लिए अन्तिम हर्ष है।...यह बंगविच्छेद बंग का विच्छेद नहीं। बंग निवासी इससे विच्छिन्न नहीं हुए, वरंच और युक्त हो गये।...बहुत काल के पश्चात भारत सन्तान को होश हुआ कि भारत की मट्टी वन्दना के योग्य है। इसी से वह एक स्वर से वन्देमातरम्कह कर चिल्ला उठे।छोटे-छोटे, सहज वाक्यों में भावों की अभिव्यक्ति, सूचना के प्रसार की यह शैली बात के दिनों में हिंदी के पत्रकारों ने अपनाया। पत्रकारिता की वाक्य रचना और पद विन्यास को द्विवेदी ने सरस्वती के माध्यम से दुरुस्त किया।
इसी दौर में भाषा की परिनिष्ठता और शुद्ध रूप को लेकर साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच विमर्श भी शुरू हो गया था। कृष्ण बिहारी मिश्र (2004: 273) लिखते हैं-अनिस्थिरता शब्द को लेकर द्विवेदी जी और गुप्त जी में जो वाद विवाद हुआ वह हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक वाद-विवाद है जिसकी शुरुआत द्विवेदी के भाषा और व्याकरणशीर्षक के उस लेख से हुई जो सरस्वती के 11 नवंबर 1905 ई. के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में द्विवेदी जी ने भारतेंदु तथा भारतेंदु-मण्डल के अनेक लेखकों की भाषा की अशुद्धियाँ दिखायीं।हिंदी पत्रकारिता में महावीर प्रसाद द्विवेदी को भाषा-परिष्कारक संपादक के रूप  में जाना जाता है। हिंदी की अभिव्यंजना में इस दौर में काफी वृद्धि हुई। पत्र-पत्रिकाओं में साहित्य के अलावे नए विषयों-धर्म, संस्मरण, राजनीति, अंतरराष्ट्रीय मुद्दे आदि का समावेश हुआ। हालांकि इस दौर में भी हिंदी भाषा पर संस्कृत का काफी प्रभाव है। भाषा की संप्रेषणीयता को बढ़ाने के लिए आवश्यकतानुसार अंग्रेजी के शब्दों, जैसे, म्युनिसिपैलिटी, चेयरमैन, गवर्नमेंट, पोएट्री, सर्टिफिकेट आदि का इस्तेमाल किया जाने लगा था। मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी प्रसंगवश होने लगा था। लोक में प्रचलित विदेशी शब्दों जैसे, कद्र, खुशामद, बेखबर, कबूल, मौजूद का भी वाक्य में प्रयोग किया जाने लगा था।
गाँधी युग की पत्रकारिता: 20वीं सदी के दूसरे दशक में गाँधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में प्रवेश एक युगांतकारी घटना थी, जिसका असर राजनीति, समाज, साहित्य, पत्रकारिता पर भी खूब पड़ा। साहित्य और राजनीतिक पत्रकारिता में विभेद शुरु हुआ। हिंदी पत्रकारिता की मूल प्रवृत्ति साहित्य से राजनीति की ओर अग्रसर हुई । पत्र-पत्रिकाओं में जोर विचार के बदले खबरों के प्रसार पर बढ़ा। गाँधी खुद भी एक कुशल पत्रकार थे और हिन्दुस्तानी भाषा के पक्षधर थे जिससे अपनी बात को वे आम जनता तक पहुँचा सकें। गाँधी के विचारों का असर हिंदी पत्रकारिता पर खूब पड़ा। उस दौर में गणेश शंकर विद्यार्थी, विष्णु पराड़कर जैसे पत्रकार स्वतंत्रता सेनानी भी थे। आज के प्रकाशन से पहले हिंदी पत्रकारिता में जोर साप्ताहिक पत्रों का ज्यादा था और उनका प्रसार भी कम था। आज के प्रकाशन के साथ हिंदी पत्रकारिता एक नए युग में प्रवेश करती है और सही मायनों में जन से जुड़ती है और इस क्रम में पत्रकारिता की भाषा में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखाई पड़ता है।  दैनिक पत्रों की भाषा साप्ताहिक पत्रों से भिन्न होती है क्योंकि दैनिक पत्रों में भाषा का जो स्वरूप होता है उसका ध्येय कम समय में तेजी से खबरों को प्रकाशित-प्रसारित करना होता है। यहाँ साज-सज्जा पर कम ध्यान दिया जाता है।
3.5.2 आज: वर्ष 1920 में बनारस के शिवप्रसाद गुप्त के द्वारा आज अखबार का प्रकाशन शुरु किया गया जिसके संपादक विष्णु पराड़कर थे। उन्होंने पहले अंक में लिखा-हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वातन्त्र्य उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं।आज के अतिरिक्त इसी वर्ष सात दैनिक और निकले जिसमें कलक्ते से निकलने वाला स्वतंत्र और दिल्ली से स्वराज्य प्रमुख था। हिंदी अखबार अब विभिन्न केंद्रों से निकलने लगे थे। इन अखबारों ने और खास तौर पर आज ने हिंदी समाज और लोगों से जुड़ी खबरों-विश्लेषणों के द्वारा हिंदी की सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फीयर) का विस्तार किया। 1920-21 के दौरान आज के पहले पन्ने पर लगातार प्रकाशित होने वाले एक विज्ञापन की भाषा यहाँ प्रस्तुत है:
ज्ञान मंडल-ग्रंथमाला का चौथा ग्रंथ-इटली के विधायक महात्मागण।
पराधीनता के पंक से इटली का उद्धार करने वाले जगद्विख्यात महापुरुषों का आदर्श चरित्र। यूरोप की राजनैतिक चालों का वर्णन। भारत की बहुत सी राजनीतिक उलझनें इस चरित्रों के अध्ययन से सुलझ सकती हैं।साथ ही कांग्रेस का विशेष अधिवेशन-प्रथम दिन का वर्णनशीर्षक के तहत यह रिपोर्ट जो आज में प्रकाशित हुई थी द्रष्टव्य है: इस बार कांग्रेस में स्त्रियाँ भी बहुत अधिक आयी थी। कुछ प्रतिनिधि और कुछ दर्शक थीं। भारत के समस्त प्रांतों से मुसलमान डेलिगेट भी अबकी बहुत आये थे। इनका भी जोश हिंदुओं से कम नहीं था।”  स्पष्टत: रिपोर्ट सहज और छोटे-छोटे वाक्यों में लिखी गई है। इस दौर के अखबार में-भावपूर्ण एक वक्तृता दी थी, आत्मा आनंदि होती होगी, ज्ञानवृक्ष का सिंचन करना चाहिए, सुशासन का स्मारक आदि जैसे प्रयोग भी दिखाई देते हैं। आज अखबार की यह भाषा आगामी वर्षों में हिंदी पत्रकारिता में उत्तरोत्तर निखरती गई, जिसे हम आगे देखेंगे।
3.6 स्वातंत्र्योत्तर भारत में हिंदी पत्रकारिता की भाषा: 15 अगस्त 1947 को संपादक बाबू राव विष्णु पराड़कर ने आज में लिखा: भारत आज नवयुग में प्रवेश कर रहा है। भारतमाता की पराधीनता की श्रृंखला टूट चुकी और आज प्रत्येक भारतवासी अपने को स्वतंत्र अनुभव कर रहा है। इस शुभ अवसर पर केवल हम भारतवासी ही प्रसन्न नहीं है, सारा विश्व प्रसन्न है।निस्संदेह हिंदी गद्य की भाषा के प्रयोग में 1947 तक आते-आते काफी विश्वास आ गया था, जो पराड़कर जैसे पत्रकारों की भाषा में स्पष्ट झलकता है। आज अखबार में आर्थिक जगत की खबरों, अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय खबरों, साहित्य (कविता), विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर विश्लेषण-टिप्पणी आदि को प्रमुखता से प्रकाशित किया जाने लगा।  22 सितंबर 1947 और 24 सितंबर 1947 को आज में पहले पन्ने पर प्रकाशित सुर्खियों के माध्यम से अखबार की भाषा को हम परखने की कोशिश करेंगे।
22 सितंबर 1947
जिन्ना अल्पसंख्यकों की रक्षा में असमर्थ
20 हजार शरणार्थी प्रतिदिन हटेंगे
संयुक्त राष्ट्र संघ का अस्तित्व खतरे में-घोषणा में परिवर्तन की बात असामयिक
राज-द्रोही पाकिस्तान का मार्ग पकड़ें
24 सितंबर 1947
भारत वर्ष की असफलता से पूरे एशिया का मरण
पश्चिमी संयुक्त प्रांत में भीषण आतंक
दंगों के लिए एकांगी प्रचार ही दायी
साम्राज्यवादियों को चुनौती
ऊपर दिए गए सुर्खियों की भाषा खबरों को प्रेषित करने में सक्षम है। फिर भी प्रतिदिन, मार्ग, असामयिक, मरण जैसे शब्दों का प्रयोग जारी था, जिसके बदले क्रमश: रोज़, रास्ता नापें, मौजू नहीं, मौत ज्यादा सहज रहता। मरण, भीषण, एकांगी जैसे शब्द सुर्खियों के लिए सहज नहीं कहे जा सकते। इस तरह की भाषा पर संस्कृत का स्पष्ट प्रभाव है। इसी प्रकार आज, 23 सितंबर 1947 में प्रकाशित यह रिपोर्ट-दिल्ली में दंगा, राजधानी पर अधिकार की चेष्टा (विशेष संवाददाता द्वारा) द्रष्टव्य है- दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह केवल सांप्रदायिक उपद्रव मात्र नहीं था। उसके पीछे अनेक राजनीतिक प्रेरणाएँ काम कर रही थी। हमारे विशेष प्रतिनिधि ने सारी स्थिति के इस विश्लेषण में ऐसे रहस्यों को उद्घाटित किया है जो आश्चर्यजनक है। यह लिखित भाषा सहज-साफ है पर औपचारिक है जो जनसंचार के लिए सटीक नहीं की जा सकती। यह कृत्रिम हिंदी है, जिसका प्रयोग आकाशवाणी और दूरदर्शन में हो रहा था और हिंदी पत्रकारिता के संपादक भी कमोबेश इस मानसिकता से पीड़ित रही। हिंदी को आजादी के बाद शासक वर्ग की राजभाषा बनाने का जो उपक्रम शासन व्यवस्था के द्वारा चल रहा था उसमें हिंदी पत्रकारिता अपना सहयोग दे रही थी, जो अगले दशकों में भी जारी रहा!
3.6.1 हिंदुस्तान: भारत की आजादी के बाद नई दुनिया (इंदौर), नवभारत टाइम्स (दिल्ली), अमर उजाला (उत्तर प्रदेश), पंजाब केसरी (पंजाब), दैनिक भाष्कर (मध्य प्रदेश)  जैसे अखबार प्रकाशित हुए। इससे पहले उत्तर प्रदेश से दैनिक जागरण (1942) और राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से हिंदुस्तान (1936 ) अखबार का प्रकाशन हो रहा था जिनका आजादी के बाद और विस्तार हुआ । आजादी के बाद के दशकों में जब हम हिंदी अखबारों की भाषा पर ध्यान देते हैं तो लगता है कि हिंदी के अखबार एक खास मध्यम वर्ग को लक्षित हैं। भाषा में कोई खास प्रयोग पाठकों को लक्ष्य कर नहीं किए जा रहे हैं। इस दौर में भी संस्कृत धातु, प्रत्यय और उपसर्गों से हिंदी पत्रकारिता में भाषा को तैयार किया गया जिसका समाज के एक बड़े तबके से कोई लेना देना नहीं रहा। हिंदी पत्रकारिता में अंग्रेजी के शब्दों का संस्कृतनिष्ठ अनुवाद कर ठूंसा गया। ऐसी आम-फहम, बोल-चाल, जनसंचार की भाषा का प्रयोग नहीं किया जा रहा था जो पाठकों को लुभाए। हिंदी के अखबारों की पाठक संख्या भी अंग्रेजी अखबारों क मुकाबले कम थीं। उदाहरण के लिए हम 27 अप्रैल 1970 और 28 अप्रैल 1970 को प्रकाशित हिंदुस्तान, दिल्ली अखबार की सुर्खियों पर एक नजर डालते हैं:
27 अप्रैल 1970
भूटान हिमालय महासंघ बनाने के खिलाफ
विश्व बैंक भारत की कई परियोजनाओं के लिए मदद देने को तैयार
गोहत्या पर रोके के लिए देश में पुन: आंदोलन होगा
दिल्ली व पड़ोसी राज्यों में लू की लहर
रामचन्दर की तूफानी कुश्ती
28 अप्रैल 1970
 सरकार से अणु बम नीति बदलने की मांग
दल बदल पर प्रतिबंध लगाने की मांग
नक्सलपंथियों ने पुलिस पर बम फेंके
प्रबंध में कर्मचारियों की साझेदारी पर प्रस्ताव शीघ्र
साथ ही अखबार में मूंगफली गोला व अलसी के तेलों  में तेजी:कागजी बदाम में गिरावट, कटान से चांदी डिलीवरी टूटी: स्टैंडर्ड सोना दृढ़, नई पूछताछ के अभाव में औद्योगिकी में और गिरावट जैसे शीर्षक आर्थिक समाचारों में दिखते हैं।
यहाँ पर 29 अप्रैल 1970 को हिंदुस्तान के पहले पन्ने पर चीन उपग्रह के दूरगामी परिणाम शीर्षक के तहत प्रकाशित इस खबर की भाषा के प्रसंग में यह उदाहरण द्रष्टव्य है: क्या भारत भी अणु हथियारों के निमार्ण की होड़ में शामिल हो जाएगा? रूस तथा पश्चिमी राष्ट्रों के बीच आणविक हथियारों पर रोक  लगाने के लिए जो वार्ता चल रही है उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा? चीन द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा करने वाला उपग्रह छोड़े जाने पर उक्त दो सवाल उठ खड़े हुए हैं। ऊपर के उदाहरणों में जहाँ सुर्खियों की भाषा स्पष्ट, अभिधापरक और संक्षिप्त है वहीं खबरों में निर्माण, वार्ता, उक्त जैसे प्रयोग आम बोलचाल की भाषा के निकट नहीं कहा जा सकता, जिस पर जोर हिंदी में बाद के दशक में राजेंद्र माथुर (नई दुनिया, नवभारत टाइम्स), प्रभाष जोशी (जनसत्ता) जैसे संपादकों ने दिया।
3.6.2 जनसत्ता: 19वीं सदी में जो पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुए मसलन, समाचार चंद्रिका  (250 प्रतियाँ)समाचार दर्पण (298 प्रतियाँ), बंगदूत (70 से भी कम) उनकी पहुँच बेहद सीमित थी  (आलोक मेहता:2008)। 20वीं सदी के शुरूआती दशकों भी हिंदी पत्रकारिता का प्रसार एक खास तबके तक ही था। सही मायनों में हिंदी पत्रकारिता पहली बार आजादी के बाद प्रचार और प्रसार में अखिल भारतीय हुई। 1979 में सभी भाषाओं (अंग्रेजी समेत) में प्रकाशित अखबारों को पछाड़ते हुए सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले अखबार हिंदी में छपने लगे जो आज तक कायम है। हिंदी अखबारों की प्रसार लाखों में पहुँच गई और पाठक करोड़ में। वर्तमान में दस सबसे ज्यादा देश में प्रसार संख्या वाले अखबारों में हिंदी के पाँच अखबार शामिल हैं। निस्संदेह इन अखबारों का प्रसार बढ़ाने में अखबारों में प्रयोग की जाने वाली भाषा का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
आजादी के बाद हिदी क्षेत्र में हुए समाजिक-आर्थिक परिवर्तन, संचार तकनीक का विकास, ग्रामीण इलाकों, कस्बों से पलायन और शहरों में पुर्नवास आदि ने हिंदी भाषा के स्वरूप में आमूलचूल बदलाव लेकर आया। आधुनिक हिंदी साहित्य इस बात की तस्दीक करता है। हालांकि हिंदी पत्रकारिता की भाषा में एक बड़ा बदलाव शुरुआती दशकों में नहीं बल्कि 80-90 के दशक में देखने को मिलता है जब राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार नई दुनिया- नवभारत टाइम्स और जनसत्ता जैसे अखबारों के संपादक बने। इससे पहले रविवार और धर्मयुग जैसी चर्चित पत्रिकाएँ सुरेंद्र प्रताप सिंह और धर्मवीर भारती जैसे कुशल संपादक के नेतृत्व में भाषा को एक तेवर देने में लगे थे, हालांकि ये साप्ताहिक प्रकाशित होते थे।  हिंदी अखबारों के मालिक-संपादकों में पहली बार एक बड़े पाठक वर्ग  के पास अखबार पहुँचाने की ललक बढ़ी, फलत: सामान्य बोल-चाल की भाषा में खबरें, विश्लेषण, फीचर आदि लिखे जाने लगे। यहाँ जनसत्ता अखबार की भाषा के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की भाषा में आए बदलाव को हम देखेंगे।
प्रभाष जोशी ने नवंबर 1983 में जब अपने संपादन में जनसत्ता का प्रकाशन शुरू किया तब पहली बार हिंदी पत्रकारिता की भाषा पाठकों, लोक के करीब हुई। जनसत्ता की भाषा नीति का खुलासा उनके लेख सावधान, पुलिया संकीर्ण हैमें मिलता है, जहाँ वे हिंदी को लोक भाषाओं से जुड़ने, आम बोल-चाल की भाषा के पत्रकारिता में इस्तेमाल की वकालत करते हैं। उदाहरण के लिए हम 9 फरवरी 1993 को जनसत्ता में प्रकाशित सुर्खियों पर नजर डालते हैं-
साथी रिहा न किए तो अगवा लोगों की हत्या
नाखुश इंकाइयों को राज्यपाल बनाने की तैयारी
वीपी और मुलायम एक मंच पर आने को तैयार
मेवात में हालात काबू में
अमेरिका इसरो वो ग्लावकासमोस पर स्थायी रोक लगाएगा
भाजपा को अछूत करार देने से ही ये हालात बने: वाजपेयी
प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर ऐसे पत्रकार-संपादक थे जो साहित्यकार नहीं थे, हालांकि भारतीय साहित्य और संस्कृति की खूब समझ उन्हें थी जो उनकी पत्रकारिता में झलकती है। जनसत्ता की भाषा अनौपचारिक और लोगों के करीब हुई। इन पंक्तियों  के लेखक से प्रभाष जोशी ने 2008 में एक इंटरव्यू के दौरान कहा था (अरविंद दास: 2013: 59): हमारी इंटरवेंशन से हिंदी अखबारों की भाषा औनपचारिक, सीधी, लोगों के सरोकार और भावनाओं तो ढूंढ़ने वाली भाषा बनी। हमने इसके लिए बोलियों, लोक साहित्य का इस्तेमाल किया।जनसत्ता अखबार पर एक नजर डालने पर डेरा डाले हुए हैं, फौरी समस्या, फालोआन के बाद, ग्राहकों से लूट-खसोट, गुटबाजी, सट्टेबाजी, सटोरिया, इंकाई, अपीलीय पंचाट, एटमी संधि, नतीजन, आलाकमान जैसे प्रयोग दिखाई देते हैं।
साथ ही, लालू ने मुसलमानों से कहा-वे आगे न आएँ, हम ही काफी है, जमना पार की बिसात पर दोनों वजीर आमने सामनेस्लम के अँधेरे में रोशनी की तलाश, हौसले बुलंद हों तो मंजिल दूर नहीं, गरमा गए हैं शेयर बाजार, स्कूल से टपके, ट्यूशन में अटके, आह आस्कर, वाह आस्कर, आस्था के फूल और उन्माद की आग, जैसी सुर्खियाँ लिखी जाने लगी जो आकर्षक और काव्यात्मक हैं।  ऐसा नहीं कि इन सुर्खियों और खबरों में देशज शब्दों पर जोर है और विदेशी शब्दों से परहेज। अंग्रेजी के ऐसे शब्द जो सहज हैं और पंक्तियों के अर्थ ग्रहण मे बाधा नहीं जैसे, स्टीरियो, माफिया, सेल, रेड अलर्ट, केस, ट्यूशन आदि भी मिलते हैं। खुद प्रभाष जोशी के कॉलम-कागद कारे में हिंदी भाषा में देशज मुहावरे, लोकोक्तियाँ का खूब प्रयोग है। उदाहरण के लिए म्हारो हेलो सुणोजी रामापीर (21 फरवरी 1993),’, अपने आँगन में फूला टेसू (28 फरवरी 1993), हेव फन लेडीज! थैंक्यू!! (14 फरवरी 1993) आदि देखे जा सकते हैं। यहाँ प्रभाष जोशी के प्रवाहमयी गद्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है, जेआरडी की आँखों में ( कागद कारे, 7 फरवरी 1993): “फिर लंबी सांस खींच कर जेआरडी ने कहा-भविष्य के सपने के लिए दूरदृष्टि वाली आंखों की जरूरत होती है जॉर्ज! जमशेद जी टाटा में ऐसी दृष्टि थी। पिछली सदी में कोई सौ साल पहले जब अंग्रेजों से आजादी का संग्राम चल ही रहा था और कोई नहीं जानता था कि हम कब आजाद होंगे तब जमशेद जी को लगा कि भारत आजाद होगा तो उसे वैज्ञानिक शिक्षा, बिजली और इस्पात की जरूरत होगी। प्रभाष जोशी ने हिंदी पत्रकारिता मे खेल पत्रकारिता पर विशेष जोर दिया था और खेल पत्रकारिता को एक नई भाषा दी जो उनके लेखों  में भी दिखता है।  हालांकि अभय कुमार दुबे (2002: 56-70) ने अपने एक लेख-हिंदी में कवर ड्राइवमें दिखाया है कि किस तरह प्रभाष जोशी की भाषा 90 के दशक में कई बार क्रिकेट के ऊपर, खास कर भारत-पाकिस्तान के बीच मैच के बारे में,  लिखते हुए उग्र, आक्रामक और क्रिकेटीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति करती नजर आती है। साथ ही जनसत्ता के रविवारी पेज पर साहित्य, फिल्म, संस्कृति, कला पर विशेष जोर प्रभाष जोशी देते थे और उसकी भाषा अलहदा होती थी जो साहित्यकारों को भी भाषा का संस्कार देती रही। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि जनसत्ता के आने से हिंदी पत्रकारिता की भाषा नयी चाल में ढलने लगी जिसका अनुसरण राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों ने भी किया।
3.6.3 नवभारत टाइम्स: ऐसी ही भाषा 80 और 90 के दशक में नवभारत टाइम्स की भी होती थी जिसे बनाने में राजेंद्र माथुर के साथ-साथ सुरेंद्र प्रताप सिंह, विष्णु खरे, विष्णु नागर जैसे पत्रकारों  का महत्वपूर्ण योगदान रहा। मसलन, वर्ष, 1986 में नवभारत भारत टाइम्स, दिल्ली की इन सुर्खियों पर नजर डालने पर भाषा के रूप के बारे में स्पष्ट जानकारी मिलती है- सरकार झुकी, बढ़ी कीमतों में कुछ कमी, स्वीडन के प्रधानमंत्री की हत्या, अमरीका और लीबिया में जबरदस्त टकराव, शर्म भी है और जरूरत भी, बजट पर फूल और पत्थर भी आदि।
इन सुर्खियों की भाषा सरल, सहज और बोधगम्य है। नवभारत टाइम्स की खबरों के लेखन में तत्सम के उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल है जो भाव संप्रेषण में बाधा नहीं बनती। जैसे, रोष, गृह, हस्तक्षेप, विपक्ष आदि। 16 फरवरी 1986, नवभारत टाइम्स की यह रिपोर्ट आर्थिक समाचार की भाषा का एक उदाहरण है: नई सरकार की नई आर्थिक नीतियाँ उदार ज्यादा और उत्पादक कम दीखने लगी हैं। आयात बढ़ रहा है, किंतु निर्यात घट गया है। उद्योगों को करों में बहुत राहत मिली है। किंतु पूँजी निवेश के विस्तार की गति धीमी है। औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की दर लगभग छह प्रतिशत अनुमानित है। कोयला और पन बिजली का उत्पादन घट गया है। हिंदी पत्रकारिता इस दौर में आर्थिक समाचार के लिए एक अलग भाषा विकसित कर रही थी जो अंग्रेजी से अनुवाद किए जाने के बाद भी बोझिल नहीं है। नभाटा और जनसत्ता में बिकवाल (बिकवाली), लिवाल जैसे शब्द बेचने और खरीदने वालों के लिए प्रयोग होने लगे थे। गेंहूं व चने में तेजी, चांदी तेजाबी में तेजी: सोना खामोश, जैसे शीर्षक दिखाई पड़ते थे, लेकिन बाद के दशक में भूमंडलीकरण के बाद इस भाषा को आगे नहीं ले जाया जा सका और उसमें अंग्रेजी के शब्दों का जबरन प्रयोग किया जाने लगा जिसे हम आगे देखेंगे।
3.7 भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी पत्रकारिता की भाषा: भारत सरकार ने 1991 में निजीकरण और उदारीकरण की नीति अपनाई और जिसके सहारे भूमंडलीकरण का रथ भारत में उतरा। निजीकरण-उदारीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया अपने साथ समाज में नई तकनीकी लेकर आई। नई तकनीकी का लाभ हिंदी पत्रकारिता को भी खूब मिला जिसके सहारे हिंदी अखबारों के एक साथ कई संस्करण प्रकाशित होने लगे। भारत में संचार क्रांति का रास्ता खुला। महानगरों के अलावे छोटे शहरों, कस्बों से भी हिंदी के अखबार प्रकाशित होने लगे। दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भाष्कर, अमर उजाला हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े और वितरित किए जाने वाले अखबार में शुमार होने लगे। इन सबने हिंदी की सार्वजनिक दुनिया को पुनर्परिभाषित किया। अखबारों के स्थानीय संस्करणों में क्षेत्र विशेष की बोलियों का खूब प्रयोग होने लगा।
प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे पत्रकारों ने 80 के दशक में ऐसी भाषा का प्रयोग शुरू किया जिसकी पहुँच हिंदी के बहुसंख्य पाठकों तक थी। इन पत्रकारों ने बोलियों और लोक से जुड़ी हुई भाषा का इस्तेमाल किया जिससे अखबार की भाषा लोगों के सरोकारों से जुड़ी, पर बाद के दशक में हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल बढ़ने लगा और एक नए उभर रहे मध्यम वर्ग को लक्ष्य करती हुई भाषा अपनाई जाने लगी। हिंदी पत्रकारिता में इसका अगुआ नवभारत टाइम्स रहा। नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक बालमुकुंद ने 2006 के अपने एक लेख- यही लैंग्वेज है नए भारत कीमें लिखा-किसी भाषा को बनाने का काम पूरा समाज करता है और उसकी शक्ल बदलने में कई-कई पीढ़ियाँ  लग जाती। लेकिन इस बात का श्रेय नवभारत टाइम्स को जरूर मिलना चाहिए कि उसने उस बदलाव को सबसे पहले देखा और पहचाना, जो पाठकों की दुनिया में आ रहा है। दूसरे अखबारों को उस बदलान की वजह से नवभारत टाइम्स के रास्ते पर चलना पड़ा, यह उनके लिए चॉइस की बात नहीं थी।। यह सही है कि भाषा बनाने का काम पूरा समाज करता है पर नवभारत टाइम्स जिस भाषा को अपनाया उसे पूरे समाज और जनसंचार में समक्ष भाषा नहीं कही जा सकती। यह बाजार के द्वारा थोपी गई विज्ञापन की भाषा है, जैसे-ठंडा मतलब कोका कोला, यही है राइट च्वाइस बेबी, आदि। पर खबरों के प्रसार-प्रसार के लिए माकूल नहीं है।  उदाहरण के लिए  27 फरवरी 2005 और 28 फरवरी 2005 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित इन सुर्खियों पर गौर करते हैं:
27 फरवरी 2005, नवभारत टाइम्स
गड्डी जांदी ए छलांगा मार दी, कदी डिग ना जाए
मैं एक्टिंग का शाह, तू अभिनय  की रानी
कैसा होता है वर्ल्ड क्लास रेलवे स्टेशन!
लालू की रेल ने तोड़ा सेफ्टी का रेड सिग्नल
28 फरवरी 2005, नवभारत टाइम्स
समोसे में कम पड़ा आलू, खिचड़ी पकनी चालू
वन टू का फोर, फोर टू का वन
गुरु गुड़ रह गया, मुंडा चीनी हो गया
हरियाणा में चोटाला को चोट, कांग्रेस को वोट
एनडीए व यूपीए दो-दो हाथ को तैयार
...और अब किस्सा कुर्सी का
जहाँ पहले सुर्खियों की भाषा से खबरों का पता अच्छी तरह चल जाता है वहीं वर्तमान  में इस तरही की शीर्षकों से खबरों की प्रकृति का पता लगाना मुश्किल है। निस्संदेह यह भाषा अनौपचारिक है पर वन टू का फोर, फोर टू का वन, वर्ल्ड क्लास रेलवे स्टेशन, सेफ्टी का रेड सिग्नल जैसी पंक्तियाँ कोड मिक्सिंग, जहाँ दो या दो से अधिक भाषा को मिला कर वाक्य बनाया जाता है, का अच्छा उदाहरण नहीं कहा जा सकता।
यह भाषा चौंकाने वाली है जैसे खबरिया चैनलों की भाषा होती है। यह भाषा चुटीली और लक्षणा-व्यंजना प्रधान है जबकी पहले अभिधापरक और वस्तुनिष्ठ भाषा पर ज्यादा जोर होता था। ऐसी भाषा राजनीतिक, आर्थिक और खेलपरक खबरों सबमें प्रयुक्त होने लगी है। उदाहरण के लिए यहाँ 3 फरवरी 2005 के नवभारत टाइम्स में स्माइल प्लीज! 36 आईपीओ आपके इंतजार मेंशीर्षक के तहत प्रकाशित यह रिपोर्ट प्रस्तुत है: इस दरियादिली को नोट किया जाए। जिस शेयर बाजार ने यूपीए ने गद्दी संभालते ही 800 अंक की डुबकी लगाकर नई सरकार को झटका दिया था, उसी शेयर बाजार के वारे-न्यारे के लिए सरकार अपने खजाने का मुँह खोलने की तैयारी कर रही है। दरियादिली, वारे-न्यारे, डुबकी लगाकर, मुँह खोलने की तैयारी जैसे प्रयोग इस ओर इंगित करते हैं।  सुर्खियों में कैश लिमिट, मर्डर, डील, बॉयकाट, नोटिस जैसे अंग्रेजी के शब्द ( 9 फरवरी 2017, नवभारत टाइम्स) धड़ल्ले से इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ऐसा नहीं कि हिंदी में इसके लिए शब्दों का अभाव हो! इतना ही नहीं नवभारत टाइम्स के संपादकीय (9 फरवरी 2017) में भी मॉनिटरी पॉलिसी कमेटी, अकोमोडेटिव, न्यूट्रल, कॉरपोरेट जैसे कठिन शब्द अँटे परे हैं जिसे समझने में हिंदी के पाठकों को शब्दकोषों का सहारा लेना पड़ता है।
हिंदी के क्षेत्रीय अखबारों पर वहाँ की बोलियों का असर है। उदाहरण के लिए, अमर उजाला पर ब्रज का, राजस्थान पत्रिका पर मारवाड़ी/मेवाती का, नई दुनिया पर मालवी का प्रभाव मिलता है पर इन अखबारों में भी अंग्रेजी के शब्दों को अपनाने की होड़ लगी है।  अंग्रेजी मिश्रित हिंदी भाषा एक-दो अखबार (जैसे जनसत्ता) को छोड़कर सभी अखबारों के लिए मान्य हो गए हैं। यहाँ दैनिक भाष्कर, राजस्थान (नागौर) के पहले पन्ने पर 19 फरवरी 2017 को ‘5290 फर्जी कंपनियाँ बनाईं, शेयर के दाम बढ़वाए और किया 3800 करोड़ का कालाधन सफेदशीर्षक के तहत प्रकाशित इस खबर को हम देखते हैं:  जोधपुर में ब्यूटी पार्लर की छोटी-सी दुकान पर इनकम टैक्स की डीजी इन्वेस्टिगेशन टीम के छापे ने पूरे देश को चौंका दिया। यह दुकानदार भी कोलकाता में चल रहे पैनी स्टॉक्स व बोगस शेयर ट्रेडिंग के सिंडीकेट की कड़ियों में से एक था।जिसके पैन नंबर पर एक कागजी कंपनी के शेयर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड तो थे। लेकिन इस कंपनी का कारोबार कुछ नहीं था। ”  इस तरह का वाक्य विन्यास, शब्दों के प्रयोग ऑन लाइन वेबसाइटों पर लिखी जाने वाली खबरों से प्रभावित है। निस्संदेह अंग्रेजी के बेधड़क इस्तेमाल की पहल जनसंचार के लिए सक्षम भाषा नहीं कही जा सकती। महानगरों से निकलने वाले अखबारों की भाषा एक विशेष दायरे में स्थित पाठकों के लिए होती है जहाँ बोल-चाल में लोग कोड मिक्सिंग/कोड स्वीचिंग का सहारा अक्सर लेते हैं, पर नागौर, गोरखपुर या इंदौर से अखबारों के संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं उनमें इस तरह की भाषा जबरन ठूंसी हुई लगती है जो जनसंचार के उद्देश्य के करीब कहीं से नहीं है। इससे सूचना का प्रचार-प्रसार बाधित होता है। यह भाषा एक खास शहरी नव धनाढ्य वर्ग की भाषा है जिसकी आय में भूमंडलीकरण के बाद खूब बढ़ोतरी हुई है और जो इस तरह की भाषा में खुद को अभिव्यक्त करता है।  इस भाषा का हिंदी समाज के बहुसंख्यक किसान, मजदूर, स्त्री, दलित और आदिवासी से कोई लेना-देना नहीं है। यह भाषा हिंदी की पहचान पर भी प्रश्न चिह्न बन कर खड़ी है।
3.8 पाठ सार: इस इकाई में हिंदी पत्रकारिता की भाषा के क्रमिक विकास को प्रस्तुत किया गया है। वैसे तो हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत 19वीं सदी के दूसरे दशके में ही हो गई थी, पर सही मायनों में  20वीं सदी के दूसरे दशक से हिंदी पत्रकारिता अपने पैरों पर अच्छी तरह खड़ी हो गई। इन वर्षों में हिंदी भाषा के कई रूपों के दर्शन होते हैं जो हिंदी की अभिव्यंजना में सहायक सिद्ध हुए।
हिंदी पत्रकारिता के उद्भव काल में हिंदी पर संस्कृत और ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रभाव रहा। देश में आपातकाल (1975-77) के बाद पहली बार 1979 में सबसे ज्यादा प्रसार संख्या को पाने में हिंदी के अखबार सफल हुए। नई तकनीक का लाभ उठाते हुए हिंदी अखबार महानगरों से इतर छोटे शहरों-कस्बों से भी प्रकाशित होने लगे। इसी क्रम में जहाँ 80-90 के दशक में हिंदी को बोलियों और लोक के करीब ले जाने की कोशिश हुई, वहीं भूमंडलीकरण के बाद इंटरनेट, टेलीविजन चैनलों के माध्यम से जो एक नई हिंदी-हिंग्लिश, गढ़ी जा रही है, जिसका असर हिंदी पत्रकारिता की भाषा पर भी दिखता है। इस भाषा में बोल-चाल तो संभव है पर गंभीर विमर्श मुश्किल है।
जनसंचार में वही भाषा सक्षम है जो जनसामान्य के बोल-चाल की भाषा के करीब हो। पर समकालीन हिंदी पत्रकारिता की भाषा संस्कृत के जाल से निकल कर अंग्रेजी के भँवर में फंसी हुई दिख रही है। यह एक खिचड़ी भाषा है जिसमें हिंदी की पहचान खो रही है। 
3.9 बोध प्रश्न
·         हिंदी पत्रकारिता की भाषा के विकास के विभिन्न चरणों को स्पष्ट कीजिए।
·         हिंदी पत्रकारिता की भाषा नई चाल में ढली से क्या तात्पर्य है?
·         भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी पर अंग्रेजी के प्रभाव को रेखांकित कीजिए।
·         आमफहम और बोल-चाल की भाषा ही जनसंचार की भाषा है। इस कथन की व्याख्या कीजिए।

3.10 संदर्भ ग्रंथ-सूची
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मृगेश, माणिक (2006). समाचार पत्रों की भाषा. दिल्ली. वाणी प्रकाशन
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शुक्ल, रामचंद्र. चिंतामणी-3, संपादक- नामवर सिंह (1985). दिल्ली. राजकमल प्रकाशन
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शंभुनाथ, रामनिवास द्विवेदी (संपादक, 2012). हिंदी पत्रकारिता: हमारी विरासत. दिल्ली. वाणी प्रकाशन

(महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा  एमए (दूरस्थ) हिंदी के पाठ्यक्रम के लिए, मीडिया का मानचित्र, अनुज्ञा प्रकाशन, किताब में संकलित )