Friday, December 30, 2022

वर्षांत 2022: दक्षिण भाषाई फिल्मों के दबदबे में रहा बॉलीवुड


साल के आखिर में खबर आई कि ऑस्कर पुरस्कार के लिए पान नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को शॉर्टलिस्ट किया गया है. भारत की ओर से यह फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. साथ ही बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाने वाली एसएस राजामौली की ‘आरआरआर’ (तेलुगु) के गाने ‘नाटू-नाटू’ को भी ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट किया गया.

नए वर्ष में ऑस्कर पुरस्कार का परिणाम चाहे जो हो, तय है कि वर्ष 2022 में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों का दबदबा रहा. एक आंकड़ा के मुताबिक कोरोना महामारी के दो साल के बाद भारतीय सिनेमा ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 11 हजार करोड़ का कारोबार किया. यहाँ भी हिंदी फिल्मों पर दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों की बढ़त दिखी. न सिर्फ ‘आरआरआर’ बल्कि कन्नड़ भाषा में बनी ‘केजीएफ 2’ और ‘कांतारा’ ने भी सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. मणि रत्नम की ‘पोन्नियन सेल्वन (पीएस-1)’ (तमिल) के प्रति भी लोगों में उत्सुकता रही. इन फिल्मों की विषय-वस्तु और परदे पर फिल्मांकन में पर्याप्त भिन्नता है.
‘छेल्लो शो’ सौराष्ट्र के एक बच्चे की सिनेमा के प्रति दुर्निवार आकर्षण को केंद्र में रखती है. यह एक आत्मकथात्मक फिल्म है, वहीं ‘कांतारा’ एक ऐसी दंत कथा है जिसमें दक्षिण कर्नाटक के तटीय इलाकों की स्थानीय लोक-संस्कृति, परंपरा, आस्था-विश्वास, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताओं और मिथक को कहानी के साथ खूबसूरती से पिरोया गया है. आरआरआर (आजादी के आंदोलन) और पीएस-1 (चोल राजवंश) इतिहास को कथा का आधार बनाती है. ‘एक्शन ड्रामा’ इन फिल्मों के केंद्र में है. बड़े बजट की इन फिल्मों में ताम-झाम, रंग-रभस, भव्यता को जिस कौशल से बुना गया वह दर्शकों को सिनेमाहॉल में खींच लाने में कामयाब रहा. देश की बदलती सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति, संचार के साधनों का विस्तार, वितरण की रणनीति का भी इन फिल्मों की सफलता में योगदान रहा है. बॉलीवुड की पापुलर फिल्मों के फ्रेमवर्क में ही ये सारी फिल्में आती है. यहाँ विचार-विमर्श के बदले तकनीक हावी है. प्रसंगवश, कन्नड़ में समांतर सिनेमा का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, जिसकी आज चर्चा नहीं होती.
बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्ववादी राजनीति की चहलकदमी इन फिल्मों में दिखाई दी. इस प्रसंग में बॉक्स ऑफिस पर खूब सफल रही विवेक अग्निहोत्री निर्देशित ‘ द कश्मीर फाइल्स’ की चर्चा जरूरी है. भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (आईएफएफआई) के ज्यूरी प्रमुख, चर्चित फिल्मकार नादव लैपिड के द्वारा इस फिल्म को ‘अश्लील और प्रोपेगेंडा’ बताने से काफी विवाद हुआ, लेकिन फिल्म देखने वाले किसी भी सहृदय दर्शक और समीक्षक से यह बात छिपी नहीं थी कि फिल्मकार की मंशा सिनेमा के माध्यम से सत्य तलाशने की नहीं थी. एक बातचीत में चर्चित फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने मुझे कहा था कि ‘एक फिल्मकार के रूप में इतिहास के प्रति आपकी एक जिम्मेदारी होती है. जिस फिल्म में जितना प्रोपगेंडा होगा, उसका महत्व उतना ही कम होगा. फिल्म का इस्तेमाल प्रोपगेंडा के लिए भी होता है, पर ऐतिहासिक फिल्मों को बनाते हुए वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखना जरूरी है. बिना वस्तुनिष्ठता के यह प्रोपगेंडा हो जाती है.’ दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में (करीब दो हजार) हिंदुस्तान में बनती है और इसे सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) के रूप में स्वीकार किया जाता है. लोकतांत्रिक भारत की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ भी चाहे-अनचाहे फिल्मों में अभिव्यक्ति होती हैं.
बहरहाल, हिंदी फिल्मों की बात करें तो बड़े-बड़े स्टार भी कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाए. रणबीर कपूर की ‘शमशेरा’, अक्षय कुमार की ‘रक्षाबंधन’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज’, रणवीर सिंह की ‘जयेशभाई जोरदार’ और ‘सर्कस’, कंगना रनौत की ‘धाकड़’ आदि फिल्में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने में असफल रही. आर्थिक बदहाली भी एक कारण है. ऐसे में बॉलीवुड पर काफी दबाव रहा. जाहिर है बॉलीवुड को नए विचारों, कहानियों की सख्त जरूरत है, जो दर्शकों के बदलते मिजाज के साथ तालमेल बना कर चल सके, पर डर है कि कहीं यह रास्ता दक्षिण भारतीय फिल्मों की ओर न ले जाए! पिछले दो दशक में हिंदी सिनेमा ने पापुलर और पैरलल के बीच का एक रास्ता अख्तियार कर कई बेहतरीन फिल्में दी और सही मायनों में आगे की दिशा का निर्धारण यहीं से होगा, न की घिसी-पिटी मसाला फिल्मों से.
बॉलीवुड के प्रमुख निर्देशक संजय लीला भंसाली ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ लेकर आए. एक ‘सेक्स वर्कर’ की भूमिका में आलिया भट्ट ने अपने अभिनय से सबको प्रभावित किया. इसी क्रम में आमिर खान की ‘लाल सिंह चढ्ढा’ और रणबीर कपूर की ‘ब्रह्माशस्त्र’ की चर्चा जरूरी है, जिसने ठीक-ठाक व्यवसाय भले किया हो कुछ नया गढ़ने में नाकाम रही. सिनेमा निर्माण की दृष्टि से नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘डार्लिंग्स (डार्क कॉमेडी, निर्देशक जसमीत के रीन)’ और ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग (मर्डर मिस्ट्री, निर्देशक वासन बाला)’ बेहतरीन थी जिसकी चर्चा कम हुई. इन दोनों फिल्मों के निर्देशक और अभिनेता (आलिया भट्ट, विजय वर्मा, शेफाली शाह, राजकुमार राव) से नए साल में भी काफी उम्मीद रहेगी.
हिंदी फिल्मों के प्रति एक खास तबके में नकारात्मक भाव भी दिखाई दिया. मनोरंजन के साथ कोई दर्शक किस रूप में सिनेमा को ग्रहण करता है वह उसकी रूचि और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है. एक खास विचारधारा के तहत सिनेमा को देखने-परखने पर रसास्वादन में बाधा पहुँचती है. आए दिन हिंदी फिल्मों को लेकर सोशल मीडिया पर ‘बॉयकॉट’ की ध्वनि सुनाई देती है वह कला और सिनेमा व्यवसाय दोनों के लिए चिंताजनक है. भूलना नहीं चाहिए कि सिनेमा उद्योग लाखों लोगों के लिए रोजगार का जरिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है.
पापुलर से अलग पिछले कुछ सालों में जिन फिल्मों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पसंद किया गया उनमें स्वतंत्र फिल्मकारों की फिल्में ही रही. बजट के अभाव में इस प्रयोगधर्मी फिल्मों का प्रचार नहीं हो पाता, न हीं सिनेमाघरों में ये फिल्में रिलीज हो पाती है. ओटीटी प्लेटफॉर्म और फिल्म समारोह इनके लिए मुफीद हैं. कान फिल्म समारोह में भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में ‘गामक घर’ फिल्म से चर्चित हुए अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ दिखाई गई.
जहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर था, वहीं यह पूरी फिल्म दरभंगा में अवस्थित है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता है, पर कलाकारों की बदहाली, बेरोजगारी इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी है, जो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. इन फिल्मों की सफलता ने मैथिली सिनेमा में एक युग की शुरुआत की है. इसी क्रम में प्रतीक शर्मा की ‘लोट्स ब्लूमस’ ने आईएफएफआई में शामिल होकर सुर्खियां बटोरी. अंत में, ऑस्कर में दो डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘ऑल दैट ब्रिद्स (शौनक सेन)’ और द एलीफेंट व्हिस्परर्स' (कार्तिकी गोंसाल्वेस) भी शॉर्टलिस्ट हुई है. आने वाले साल में फीचर के अलावे वृत्तचित्र पर भी लोगों की नजर रहेगी.

Friday, December 23, 2022

पुष्पेंद्र सिंह का सिनेमा संसार: सौंदर्य का संगीत


पिछले महीने युवा फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह ने फेसबुक पर लिखा कि जो दोस्त मुझसे मेरी फिल्मों के बारे में पूछते रहते हैंउनके लिए मेरी फिल्म देखने का मौका मूबी (ऑनलाइन वेबसाइट) पर है. असल में उनकी दो फिल्मोंलजवंती’ (2014) और अश्वात्थामा (2017) के साथ मारु रो मोती’ (2019) डॉक्यूमेंट्री स्ट्रीम हो रही है. पुष्पेंद्र सिंह हमारे समय के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं. पुष्पेंद्र की फिल्में देश-विदेश के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों का हिस्सा भले रही हैपर आम जनता के लिए उसका प्रदर्शन नहीं हो पाया है.

इससे पहले सितंबर-अक्टूबर में न्यूयॉर्क के द म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा) में नई पीढ़ी के भारतीय स्वतंत्र फिल्मकारों की जो फिल्में दिखाई गई उसमें लजवंती और लैला और सात गीत (2020) भी शामिल थी. आगरा के नजदीक सैंया कस्बे में जन्मे और राजस्थान में पले-बढ़े, पुष्पेंद्र ने पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से अभिनय में प्रशिक्षण लिया और फिर चर्चित फिल्मकार अनूप सिंह (किस्सा और सांग ऑफ स्कॉर्पियंस) के सहायक रहे. अमित दत्ता (हिंदी)गुरविंदर सिंह (पंजाबी)उमेश विनायक कुलकर्णी (मराठी), चैतन्य ताम्हाणे (मराठी) जैसे फिल्मकारों की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्में समकालीन भारतीय सिनेमा और उसकी परंपरा के उज्ज्वल पक्ष को अपनी कला में समाहित करती हैं.

लैला और सात गीत और लजवंती राजस्थान के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा (बिज्जी) की कहानियों पर आधारित है. लैला और सात गीत केंचुली कहानी को आधार बनाती हैलेकिन उसकी कथाभूमि राजस्थान न होकर जम्मू-कश्मीर है. जाहिर है कथाभूमि बदलने से विषय-वस्तु के निरूपण और परदे पर उसके फिल्मांकन में भी बदलाव आया हैहालांकि स्त्री के मनोभावइच्छा, द्वंद और स्वतंत्रता की आकांक्षा सार्वभौमिक है. यहाँ जंगल में एक जलता हुए पेड़ भी है जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को इंगित करता है. पुलिस राजसत्ता का प्रतीक है और लैला कश्मीर का रूपक.

सब जानते हैं कि बिज्जी लोक-कथा को आधुनिक रंग में अपनी कहानियों में ढालने में सिद्धस्थ थे. यही कारण है कि मणि कौल (दुविधा1973), श्याम बेनेगल (चरणदास चोर1975) से लेकर पुष्पेंद्र जैसे युवा फिल्मकार भी उनकी कहानियों की ओर रुख करते रहे हैं. प्रसंगवशएक मुलाकात में जब मैंने मणि कौल से पूछा था कि क्या वे बिज्जी की किसी और कहानी पर फिल्म बनाना चाह रहे थेउन्होंने कहा था कि हांचरण दास चोर पर मैं फिल्म बनाना चाह रहा था पर श्याम ने उस पर फिल्म बना ली थी.

पुष्पेंद्र की पहली फिल्म लजवंती (बिज्जी की इसी नाम से कहानी है) राजस्थान के थार मरुस्थल को केंद्र में रखती है. फिल्म के लैंडस्केप में रेत के धोरोंखेजड़ी का पेड़पवनचक्की का सौंदर्य शामिल है. यहाँ ऊंटबकरी और कबूतर भी लोक में घुले-मिले हैं. घूंघट काढ़े एक शादी-शुदा स्त्री की पितृसत्तात्मक बंधन में जकड़नप्रेम की उत्कट चाह और मुक्ति की चेतना को फिल्म ने खूबसूरत दृश्यों से रचा है. दुविधा की तरह (जहाँ भूत भी एक प्रेमी हो सकता है) लजवंती’ पाठ का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि गल्प को बिंबों और ध्वनि के सहारे परदे पर उकेरती है. जिस तरह मणि कौल अपनी फिल्मों में ध्वनि पर खास जोर देते थेउसी तरह पुष्पेंद्र की फिल्मों में ध्वनि का संयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. महिलाओं के परिधान में यहां चटक रंगों के इस्तेमाल के साथ सफेद कबूतरों की सोहबत में नायक (पुष्पेंद्र सिंह) का सफेद लिबास अंतर्मन और बहिर्मन के द्वंद्व को उभारने में सहायक है.

भारतीय कला सिनेमा के चर्चित नाम कुमार शहानीमणि कौल की परंपरा में ही पुष्पेंद्र की फिल्में आती हैं. कई दृश्यों के संयोजन में भी इन निर्देशकों का असर दिखाई पड़ता है. उनकी फिल्मों के कई दृश्य देशी-विदेशी पेंटिंग ( भारतीय मिनिएचर और यूरोपीय नवजागरण की पेंटिंग) से भी प्रभावित हैंजिसे पुष्पेंद्र स्वीकारते भी हैं. दोनों ही फिल्मों में लोक गीत-संगीत का प्रयोग फिल्म के विन्यास के साथ गुंथा हुआ है. साथ ही फिल्म में जिस तरह से दृश्य को फ्रेम किया गया है, वह संगीतात्मकता और काव्यात्मकता से ओत-प्रोत है. लैला और सात गीत देखते हुए मणि कौल की सिद्धेश्वरी और कुमार शहानी की 'विरह भरयो घर आंगन कोने वृत्तचित्र की याद आती रही.

जहाँ लाजवंती की भाषा हिंदी और मारवाड़ी है वहीं लैला और सात गीत  में हिंदी और गूजरी का प्रयोग है. लजवंती से हट कर यह फिल्म कहानी के मूल को विस्तार देती है और यहाँ फिल्म में समकालीन राजनीतिक घटनाओं की ध्वनि जुड़ती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस फिल्म के केंद्र में लैला है (कहानी में लाछी) जो अपने पति के साथ रहती है पर उसके मन में एक दुविधा हैउथल-पुथल है. यह प्रेम की अतृप्ता से उपजी है. पर  पूरा होने पर क्या प्रेम बचा रहता है? 

निर्देशक ने कहानी को खानाबदोश जनजाति--बकरवाल के जीवन यथार्थ के बीच अवस्थित किया है. पहाड़, जंगल, बकरे और जीव-जंतुओं के संग बसा घर-परिवार एक ठहराव के साथ लांग शॉट्स के माध्यम से हमारे सामने आता है. लैला का सौंदर्य उसकी वेशभूषा, बोली-वाणी, हाव-भाव में है. निर्देशक ने क्लोज-अप से परहेज किया है.

पति के दब्बूपन के प्रति लैला के स्वाभिमानी व्यक्तित्व में एक तरह का विद्रोह है. पर इस विद्रोह की क्या दिशा होगी इस कहानी में लाछी एक जगह कहती हैऔरतों की इस जिंदगी में वह इस जकड़ से कभी मुक्त होगी कि नहीं?".  फिल्म को क्रमश: सात अध्यायों में बांटा गया है- सांग ऑफ मैरिजसांग ऑफ माइग्रेशनसांग ऑफ रिग्रेटसांग ऑफ प्लेफुलनेससांग ऑफ एक्ट्रैक्शनसांग ऑफ रियलाइजेशन और सांग ऑफ रिनंसीएशन. आखिर में घर-परिवारनाते-रिश्ते को छोड़निर्वसन लैला प्रकृति के साथ एकमेक हो जाती है. मणि कौल की फिल्मों की बालो’, ‘मल्लिका और लच्छी की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्मों की लजवंती (संघमित्रा हितैषी) और लैला (नवजोत रंधावा) अंतर्मन के द्वंद के साथ स्वतंत्रता की चेतना और मुक्ति कामना से लैस है.

 

Sunday, December 11, 2022

टेलीविजन न्यूज चैनल के सितारे: रवीश कुमार का इस्तीफा


हिंदुस्तान में टेलीविजन न्यूज चैनल के 'स्टार एंकर' फिल्म सितारे से कम लोकप्रिय नहीं हैं. असल में, टीवी के पास महज एक परदा है जिसके मार्फत पिछले दो दशक से ये एंकर रोज हमारे ड्राइंग रूम में हाजिर होते रहे हैं. टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित टेलीविजन के चर्चित पत्रकार-एंकर रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. पिछले दिनों देश के एक प्रमुख समाचार चैनल एनडीटीवी इंडिया से उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस चैनल से वे करीब पच्चीस वर्षों से जुड़े थे. इस्तीफे के बाद सोशल मीडिया पर रवीश के प्रति लोगों का प्रेम उमड़ पड़ा. साथ ही मीडिया और पूंजी के गठजोड़ को लेकर भी आलोचना हुई. यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भले एक एंकर की भूमिका समाचार चैनल में प्रमुख हो, पर जहाँ ‘स्टार वैल्यू’ से उनका कद बढ़ा वहीं टीवी समाचार उद्योग की निर्भरता भी इन पर बढ़ती चली गई. टीआरपी के पीछे आज जो भागदौड़ दिखती है वह भी इसी से जुड़ी हुई है. एनडीटीवी के पूर्व रिपोर्टर संदीप भूषण ने अपनी किताब ‘द इंडियन न्यूजरूम’ में एनडीटीवी के हवाले से स्टार एंकरों के बारे में विस्तार से लिखा है कि किस तरह इनकी वजह से टीवी उद्योग में आज रिपोर्टर की भूमिका सिमट कर रह गई है. किताब में एनडीटीवी की आलोचना भी शामिल है.

जब हम बीस साल पहले पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे तब टीवी पत्रकार बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई का जोर था. पिछले दशक में अर्णब गोस्वामी, रवीश कुमार चर्चा में रहे. रवीश अपनी रिपोर्टिंग के लिए जाने गए, लेकिन बाद में वे प्राइम टाइम में ही सिमट कर रह गए. निस्संदेह रिपोर्टर की छवि का उन्हें प्राइम टाइम में लाभ हुआ. वर्ष 2014 में सत्ता बदलने के बाद भी रवीश सत्ता से बेलाग सच कहने के साहस के साथ खड़े रहे. यह हिंदी पत्रकारिता की एक उपलब्धि रही, रवीश उसके अगुआ है.

सोशल मीडिया के कोलाहल के बीच एक बात दबी रह गई, जिसका जिक्र जरूरी है. टेलीविजन मीडिया बड़ी पूंजी की मांग करता है. शुरुआती दौर से मीडिया पूंजीवाद का उपक्रम रहा है. मीडिया पर नजर रखने वाले जानते थे कि एनडीटीवी देर-सबेर कर्ज के बोझ से डूबेगी ही, हालांकि पारदर्शिता की बात करने वाले मीडिया की अर्थव्यवस्था की जानकारी लोगों के सामने कम ही आ पाती है.

मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैक्लुहान ने लिखा है कि ‘माध्यम ही संदेश’ है. पिछले दिनों देश के कई प्रमुख टेलीविजन एंकर टीवी उद्योग से अलग होकर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म (यूट्यूब चैनल) पर दिखाई देने लगे हैं. करण थापर, बरखा दत्त, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, आरफा खानम शेरवानी, अभिसार शर्मा आदि की लिस्ट में एक नाम और जुड़ गया है, रवीश का. आने वाले समय में यह नया माध्यम लोकतंत्र के लिए क्या संदेश लेकर आता है, यह देखना रोचक होगा.

Wednesday, December 07, 2022

आलाप लेते ऋषिकेश मुखर्जी के अमिताभ

 


पिछले दिनों अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर आनंद फिल्म का जिक्र करते हुए एक वाकया का उल्लेख किया था कि किस तरह उनके लाल होठों’ को लेकर फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी सेट पर बिफर पड़े थे. उन्हें लगा था कि अमिताभ ने लिपस्टिक लगा रखी है. यह फिल्म जितना उस दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना के लिए याद की जाती है उतना ही उभरते हुए अदाकार अमिताभ बच्चन के लिए. सही मायनों में व्यावसायिक रूप से सफल इस फिल्म से ही अमिताभ पहचाने गए.

ऋषिकेश मुखर्जी (1922-2006) का यह जन्मशती वर्ष भी है. पिछली सदी के सत्तर के दशक में अमिताभ की जो फिल्में आई उसमें ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ आदि ने उन्हें एंग्री यंग मैन’ की छवि में बांध दियाआज यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ ही थे. और ये फिल्में उथल-पुथल से भरे सत्तर के दशक में बन रही थी. हालांकि खुद मुखर्जी अमिताभ की स्टारडम  की छवि से खुश नहीं थे. वे कहते थे कि मसाला फिल्मों के निर्देशकों ने अमिताभ को स्टंटमैन’ बना दिया है. असल मेंसाफ-सुथरी और सहज शैली उनके फिल्मों की विशेषता थीजो मारधाड़हिंसा से कोसो दूर रही. परिवार और घर इन फिल्मों के केंद्र में है. ये ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जो अमिताभ को शास्त्रीय संगीत प्रेमी के रूप में परदे पर लाने का हौसला रखते थे.

सत्तर के दशक में हिंदी सिनेमा में एक साथ तीन धाराएँ-मेनस्ट्रीमपैरलल और मिडिल प्रवाहित हो रही थी. प्रकाश मेहरामनमोहन देसाई जैसे निर्देशको के साथसमांतर सिनेमा के मणि कौलकुमार शहानी के लिए यह दशक जितना जाना जाता हैउतना ही मुखर्जी की ‘मध्यमार्गी’ फिल्मों के लिए भी.

सिनेमा के अध्येता जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब-द वर्ल्ड ऑफ ऋषिकेश मुखर्जी’ में उल्लेख किया है कि मुख्यधारा के फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई और समांतर सिनेमा के निर्देशक कुमार शहानी दोनों के ही मुखर्जी के साथ सहज रिश्ते थे. यह उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जिसकी स्पष्ट छाप उनकी फिल्मों पर है. इस किताब में वर्ष 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा को याद करते हुए शहानी ऋषि दा के घर (अनुपमा) पर जमावड़े का उल्लेख करते हैं: “वहां सौ-दो सौ युवाअधेड़ फिल्मकारों का जमावड़ा था. हमने आपातकाल का विरोध करते हुए एक पत्र इंदिरा गाँधी के नाम तैयार किया. ऐसा नहीं कि उससे कुछ निकला होपर देश में जो राजनीतिक माहौल था उसे लेकर ऋषि दा बहुत चिंतित थे.” उल्लेखनीय है कि अमिताभ बच्चन-रेखा अभिनीत आलाप (1977)’ फिल्म की असफलता के लिए वे आपातकाल को जिम्मेदार ठहराते थे. मुखर्जी की फिल्मोग्राफी में भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता, लेकिन यह एक उल्लेखनीय फिल्म है जहाँ अमिताभ 'स्टार' छवि से अलग एक अभिनेता के रूप में सामने आते हैं.

इस फिल्म में अमिताभ एक शास्त्रीय संगीत प्रेमी की भूमिका में हैंजो पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर वकालत नहीं करता है. यहाँ वकील पिता (ओम प्रकाश) एक पितृसत्ता के रूप में आते हैं, जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. आलोक (अमिताभ) कहता हैमेरी जिंदगी कोई झगड़े में फंसी जमीन तो नहीं है कि पिताजी कानूनी खेल दिखा कर उसके बारे में जो चाहे फैसला कर लें. ये मुकदमा वो नहीं जीत सकते.” इस फिल्म में एक कलाकार अन्याय के खिलाफ खड़ा है. प्रसंगवशवर्ष 1977 में मनमोहन देसाई की अमर अकबर एंथनी’ फिल्म भी रिलीज हुई थी जो उस साल की सबसे सफल फिल्म रही थी. गीत-संगीत के लिहाज से भी यह एक बेहतरीन फिल्म है. यहाँ ‘आलाप’ लेते अमिताभ ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं है बल्कि आलोक हैंइससे पहले ‘अभिमान (1973)’ में वे जया भादुड़ी के साथ एक गायक के रूप में दिखे थे.

70 के दशक में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में मध्यवर्ग को संबोधित करती है. ‘चुपके-चुपके’, ‘गोल माल’, ‘गुड्डी’ में हास्य के साथ मध्यवर्गीय ताने-बानेड्रामा को जिस खूबसूरती से उन्होंने रचा हैवह पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है. बिना ताम-झाम के कहानी कहने की सहज शैलीसामाजिकता और नैतिकता का ताना-बाना उन्हें समकालीन फिल्मकारों से अलग करता है. मध्यमार्गी सिनेमा के योगदान के लिए मुखर्जी को वर्ष 1999 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उल्लेखनीय है कि आनंद (1971) फिल्म से पहले मुखर्जी दिलीप कुमारराज कपूरदेवानंदगुरुदत्त जैसे अभिनेताओं को निर्देशित कर चुके थे.

मुखर्जी जितने कुशल फिल्म निर्देशक थे उतने की कुशल संपादक भी. उन्होंने विमल रॉय की चर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’, ‘मधुमती’ का संपादन किया था. वे विमल रॉय की फिल्मों में सहायक निर्देशक भी थे. वर्ष 1957 में वे पहली फिल्म मुसाफिर के साथ निर्देशन के क्षेत्र में उतरे पर राज कपूर-नूतन अभिनीत ‘अनाड़ी (1959)’ के निर्देशन के साथ उनकी प्रसिद्धि फैलती गई. उन्होंने करीब 40 फिल्मों का निर्देशन किया और वर्ष 1998 में रिलीज हुई 'झूठ बोले कौआ काटेउनकी आखिरी फिल्म थी.

सिंह लिखते हैं कि एक बार सत्तर के दशक में कुमार शहानी ने मुखर्जी से पूछा था कि तकनीक और सिनेमा के अद्यतन सिद्धांतों की जानकारी के बावजूद वे और प्रयोगात्मक चीजों की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए? उन्होंने कहा था कि 'हमारा परिवेश एक सीमा के बाद इसकी इजाजत नहीं देता'. यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मुखर्जी की फिल्में बॉलीवुड की सीमा का अतिक्रमण कर संभावनाओं का विस्तार करती है. उनकी फिल्मों में जो जिंदगी का फलसफा है वह आज भी दर्शकों को अपनी ओर खींचता है.

Sunday, November 27, 2022

कुमार शहानी का कला संसार


कुमार शहानी कला सिनेमा, जिसे समांतर सिनेमा भी कहा जाता है, के एक प्रतिनिधि फिल्मकार हैं. उनकी ‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, हालांकि मुख्यधारा के मीडिया में आज उनकी चर्चा नहीं होती है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1972 में रिलीज हुई ‘माया दर्पण’ फिल्म इस वर्ष अपने पचास वर्ष पूरे कर रही है. इस फिल्म को हिंदी में ‘बेस्ट फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. इस अवसर पर उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन (रेट्रोस्पेक्टिव) जरूरी है, ताकि हिंदी सिनेमा में उनके विशिष्ट योगदान को रेखांकित किया जा सके.

बातचीत में शहानी कहते हैं कि ‘माया दर्पण’ के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रूचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है. पिछली सदी के 70-80 के दशक में उनके फिल्मों की चर्चा फ्रांस और अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबारों में होती रही. असल में, पुणे फिल्म संस्थान से निर्देशन और पटकथा लेखन में प्रशिक्षित शहानी सिनेमा को उसी तरह विशिष्ट माध्यम के रूप में स्वीकार करते हैं जैसे कि कोई लेखक लेखन को या नाट्यकर्मी रंगमंच को. बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन जैसा उनकी फिल्मों में दिखता है, वह हिंदी सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है.

साठ के दशक में, फिल्म संस्थान में उन्हें फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया, वहीं छात्रवृत्ति लेकर जब वे पेरिस गए तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस (ए जेंटल वूमन, 1969)’ फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों ही निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म-निर्माण की शैली उनकी निजी है. यहाँ सौंदर्यशास्त्र और विचारधारा में विरोध नहीं है.

कुछ वर्ष पहले एक बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहाँ ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है.

उनकी सभी फिल्मों में फॉर्म या रूप के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. वे कहते हैं ‘रंग हमारे होने की खुशबू को परिभाषित करता है.’ ‘माया दर्पण’ से लेकर ‘चार अध्याय’ तक ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग उल्लेखनीय है. यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया.

Thursday, November 24, 2022

कांतारा’ के बहाने कन्नड़ सिनेमा की बातें


 छह साल पहले एक बातचीत के दौरान बेंगलुरु में रहने वाले चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा से जब मैंने समकालीन कन्नड़ सिनेमा के बारे पूछा था, उन्होंने मुझे ‘तिथि’ फिल्म देखने की सलाह दी थी. राम रेड्डी की इस फिल्म को कन्नड़ भाषा में ‘बेस्ट फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. मुझे याद है कि इस फिल्म को देखने के लिए दिल्ली के एक सिनेमा हॉल में बमुश्किल पच्चीस-तीस लोग मौजूद थे. कर्नाटक के एक गांव में केंद्रित कड़वे यथार्थ और हास्य बोध से भरी इस फिल्म की हालांकि अंतरराष्ट्रीय जगत में भी खूब सराहना हुई थी. बिना किसी ‘स्टार’ के गैर पेशेवर कलाकारों ने इसमें अभिनय किया था.

पिछले महीने जब मैं ऋषभ शेट्टी के निर्देशन में बनी ‘कांतारा’ देख रहा था, इस बात की याद आ रही थी. यह फिल्म हाउसफुल थी और सिनेमा हॉल में लोगों का उत्साह देखते बनता था. असल में, ‘केजीएफ'’ और ‘कांतारा’ की बॉक्स ऑफिस पर असाधारण सफलता के बाद कन्नड़ सिनेमा ने देश भर के दर्शकों और समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. इससे पहले जब भी पापुलर दक्षिण भारतीय सिनेमा की बात होती थी तब तमिल और तेलुगू फिल्मों का ही जिक्र होता था, वहीं मलयालम सिनेमा कलात्मक रूप से समीक्षकों की पसंद रही है. जाहिर है, कन्नड़ सिनेमा का जिक्र मुख्यधारा के मीडिया में छूट जाता रहा है.
निर्माता-निर्देशक ने फिल्म के सब-टाइटल में ‘कांतारा’ को ‘दंत कथा’ कहा है. शेट्टी इस फिल्म के लेखक और प्रमुख अभिनेता भी हैं. इस फिल्म को व्यावसायिक सिनेमाई सूत्रों से ही बुना गया है, लेकिन दक्षिण कर्नाटक के तटीय इलाकों की स्थानीय लोक-संस्कृति, परंपरा, आस्था-विश्वास, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताओं और मिथक को कहानी के साथ खूबसूरती से पिरोया गया है. जंगल और जमीन के लिए आदिवासियों का राज्य सत्ता के साथ संघर्ष कहानी के केंद्र में है. इस फिल्म में ‘देव नर्तकों’ के दृश्य संयोजन की खूब चर्चा हुई है. खास तौर पर ‘क्लाइमेक्स’ के भव्य फिल्मांकन और सिनेमाई कौशल के लिए यह फिल्म वर्षों तक याद की जाएगी. इस फिल्म में कई दृश्य लोक में व्याप्त अंधविश्वास को भी दिखाता है. कई दृश्य तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं. लेकिन व्यावसायिक सिनेमा के दर्शकों के लिए यह खास महत्व नहीं रखता, जब तक फिल्म लोगों का मनोरंजन करता रहे. इस मायने में ‘कांतारा’ एक सफल फिल्म है. यहाँ पर यह जोड़ना उचित होगा कि इस फिल्म का विश्लेषण पापुलर सिनेमा के फ्रेमवर्क से ही किया जाना चाहिए. इसमें समांतर सिनेमा के यथार्थ चित्रण को ढूंढ़ना व्यर्थ होगा. आलोचकों ने टिप्पणी की है कि इस फिल्म में जिस तरह से स्थानीय धार्मिक रीति-रिवाजों, ‘भूत कोला’ के दृश्यों को संयोजित किया गया है वह हिंदुत्ववादी राजनीति के पक्ष में जाता है.
पिछले दिनों एक इंटरव्यू के दौरान जब कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली से दक्षिण सिनेमा की सफलता के संदर्भ में मैंने बातचीत की थी तब उन्होंने कहा था: “यह सही है कि इन फिल्मों ने सबका ध्यान दक्षिण भारतीय सिनेमा की तरफ खींचा है और दर्शकों से बड़ी मान्यता पाई है, लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा बहुत पहले से यह ध्यान खींचता आ रहा है. यह कोई हाल की बात नहीं है. अडूर गोपालकृष्णन (मलयालम सिनेमा) की बात हो या पट्टाभिरामा रेड्डी की संस्कार (1970), बीवी कारांथ की चोम्मना डुडी (1975) की. दूसरी फिल्मों को भी उनकी सिनेमा सामग्री और कला के लिए अखिल भारतीय पहचान मिली थी. चूंकि इन फिल्मों को कभी बहुत बड़े स्तर पर रिलीज नहीं किया गया, इसलिए उन्हें दर्शकों से इतनी मान्यता नहीं मिली, जितनी आज की फिल्मों को मिल रही है.” कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार यू आर अनंतमूर्ति के उपन्यास ‘संस्कार’ पर आधारित फिल्म से कन्नड़ सिनेमा में समांतर सिनेमा का सूत्रपात हुआ, इसमें चर्चित नाटककार और अभिनेता गिरीश कर्नाड की प्रमुख भूमिका थी. गिरीश कर्नाड की फिल्म वंश वृक्ष (1971), कादु (1973), आंडोनोंदु कलदल्ली (1978) की भी खूब प्रशंसा हुई थी. इसी तरह 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौरान गिरीश कसारावल्ली की फिल्म घटश्रद्धा (1977), तबराना कथे (1986) आदि को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली थी. वे आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. ‘तिथि’ जैसी फिल्में कन्नड़ सिनेमा की इसी समांतर धारा की श्रेणी में आती है, जहाँ हाशिए के समाज का यथार्थ दिखाई देता है. हाल के वर्षों में पॉपुलर और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. ‘कांतारा’ का नायक हाशिए के समाज का प्रतिनिधित्व करता है.
बहरहाल, ‘कांतारा’ की सफलता के बरक्स कन्नड़ सिनेमा के इतिहास पर एक नज़र डाल लेना जरूरी है. कन्न्ड़ में पहली फिल्म भक्त ध्रुव (1934) बनी. इसी वर्ष ‘सती सुलोचना’ भी प्रदर्शित हुई थी. हालांकि कन्नड़ सिनेमा एक उद्योग का रूप 1950 के दशक में जाकर लिया. ‘बेदारा कन्नपा’ फिल्म से सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकुमार (1929-2006) वर्ष 1954 में प्रवेश किया और लगभग 200 कन्न्ड़ फिल्मों में अभिनय किया. अनेक पुरस्कारों सहित सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. अभिनेता पुनीत राजकुमार इनके ही पुत्र थे, जिनका पिछले साल देहांत हो गया. मरणोपरांत इस वर्ष रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘जेम्स’ ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी थी. इसी तरह कन्नड़ के एक प्रतिभाशाली फिल्मकार, अभिनेता शंकर नाग (1954-1990) की चर्चा होती रही है, जिन्होंने आर के नारायण की बहुचर्चित कृति ‘मालगुडी डेज’ (1986-87) को दूरदर्शन के लिए निर्देशित किया था, जो हमारे बचपन की स्मृतियों में शामिल है.
‘कांतारा’ की सफलता को हम कन्नड़ सिनेमा के इतिहास, देश की बदलती सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति, संचार के साधनों (इंटरनेट, मोबाइल फोन की उपलब्धता) और फिल्म वितरण के नेटवर्क के तत्वों के जरिए व्याख्या कर सकते हैं. ‘कांतारा’ लोक संस्कृति के तत्वों से बुनी गई फिल्म है, जिसमें स्थानीयता पर जोर है. क्या ‘ग्लोबल’ के दौर में यह ‘लोकल’ की वापसी है? ‘कांतारा’ की सफलता कन्नड़ सिनेमा की धारा को किस तरफ ले जाती है, आने वाले समय में यह देखना रोचक होगा. साथ ही बॉलीवुड इस फिल्म से क्या सीख लेता है यह सवाल भी मौजूं है.

Saturday, November 19, 2022

A Film is an Attempt to Create Something Unique—Director Kumar Shahani

Kumar Shahani with others at JNU

One of India’s foremost movie directors and screenwriters looks back at his classic film Maya Darpan fifty years after its release.

Kumar Shahani is one of India’s foremost avant-garde film directors. If Mani Kaul’s debut film ‘Uski Roti’ [His Bread] and Mrinal Sen’s ‘Bhuvan Shome’ started the New Cinema movement in India, Shahani’s first feature film, ‘Maya Darpan’ [Mirror of Illusions], released in 1972, is a classic of parallel cinema. His movies are celebrated worldwide for their formal experimentation.
Shahni studied at the Film and Television Institute of India (FTII) in Pune when Kaul also studied there. They were acclaimed director Ritwik Ghatak’s favourite students. Shahani went to France later and assisted Robert Bresson on his 1969 film, ‘Une Femme Douce’ [A Gentle Woman]. He considers Ghatak and Bresson his teachers. The Marxist historian DD Kosambi was also one of his mentors. ‘Maya Darpan’, based on the eponymous short story by the famous Hindi writer Nirmal Verma, won the National Film Award for the best feature film in Hindi. Shahani also directed the notable films ‘Tarang’, ‘Khayal Gatha’ ‘Kasba’, and ‘Char Adhyay’. As ‘Maya Darpan’ marks its golden jubilee this year, independent journalist Arvind Das spoke with Kumar Shahani about this classic movie and his influences. Excerpts from their email conversation:
‘Maya Darpan’ is fifty years old now. How do you look back at your first feature film?
Because of the jubilee of Maya Darpan, a great deal of interest is being shown around the world in my work, and new queries for future productions from the home of Hollywood have reached me. When Maya Darpan was made, the Euro-American response was enthusiastic. It was recognised as a breakthrough in cinematic language—with colour, movement and narrative creating a new musicality, as it were. However, its export was stopped by the bureaucrats. In the case of ‘Tarang’, the National Film Development Corporation (NFDC) itself stopped the export of the film!
Maya Darpan depicts the lonely world of the protagonist Taran, played by Aditi. It revolves around a feudal household in a small town. Taran is the daughter of a wealthy landlord [played by Anil Pandya] who lives with him and a widowed aunt in a haveli or mansion. Why did you choose Nirmal Verma’s story for your first film?
Nirmal’s story was open-ended. It did not weigh me down, leaving me free to create momentum through the dynamics of the moving image and sound textures.
Your treatment of the story in your movie is quite different from the author’s. You added new elements to the film. Also, the end starkly departs from Nirmal Verma’s ending, especially seeing Taran’s rebellion against feudalism, which manifests in dance sequences. How did you visualise this?
Whenever one makes a film, one tries to create a unique work, especially if one has to speak of freedom, which is all one ever wants. Dance and cinema come together to realise that individuated freedom, drawing from the sangeet of our civilisation, perhaps of all collectives.
You once told me Nirmal Verma was not happy with the ending of the film. What were his reservations?
Nirmal was conditioned by the films that he had seen. We never saw eye-to-eye on any issue!
‘Maya Darpan’ is still talked about for its formal features. The film scholar Ashish Rajadhyaksha has called it the only successful colour experiment in New Indian Cinema. Could you elaborate on the colour and sound experiments in the film?
Colour is the very fragrance of being. Yes, the curvatures of sound and line and movement, as indeed the densities of mise-en-scène [stage design] and light and colour all around us, open up all the possibilities for changing the universe infinitely to bring it closer to our desire.
At the FTII, you were Ritwik Ghatak’s pupil. Later, you assisted Robert Bresson on ‘Une Femme Douce’. Tell me about the influences on your films.
The great traditions of the world come together in their work, making life all the more palpable…
Did Bresson see ‘Maya Darpan’ in Paris? What were his comments?
He blessed me by saying, “Continuez—go on!”
Composer Bhaskar Chandavarkar’s music and singer Vani Jairam’s lori [lullaby], Aa Jaa Re Nindiya, heighten the experience of the haveli in Maya Darpan. Could you throw light on the musical aspect of the film and your relationship with music itself? You have directed a documentary on Khayal, ‘Khayal Gatha’, too…
I had found a lori in a book titled Dhooli Dhool Dhulaiyan and asked Bhaskar whether he would compose it as a song for the film, contrapuntally to the absence of the cradle. I think he loved it, as also the rendering by Vani. The music in the film was further enhanced by Hari-ji [classical flautist and music director Hariprasad Chaurasia], Annapurna Devi’s pupil. The chromaticism of sound gave the subtlest tints to the emotional resonances. Naturally, all my subsequent films became musical epics.

(For Newsclick)

Thursday, November 17, 2022

कुमार शहानी की फिल्म माया दर्पण के पचास साल


फिल्मकार कुमार शहानी की विशिष्ट पहचान है. खास कर समांतर सिनेमा (कला सिनेमा) के वे पुरोधा हैं. दुनिया भर में उनकी चर्चा एक अवां-गार्द (Avant-garde) फिल्म निर्देशक के रूप में होती रही है. पिछली सदी के साठ के दशक में जब पुणे में फिल्म संस्थान की शुरुआत हुई, उन्होंने समांतर सिनेमा के एक अन्य प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक, मणि कौल, के साथ फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लिया. संस्थान में उन्हें महान फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक का साहचर्य मिला. घटक को वे अपना गुरु मानते हैं. प्रशिक्षण के बाद शहानी एक फेलोशिप पर पेरिस गए और प्रसिद्ध फ्रेंच फिल्म निर्देशक रॉबर्ट ब्रेसां की फिल्म 'उन फाम डूस (ए जेंटल वूमन,1969)' में सहायक-निर्देशक के रूप में काम किया. लौट कर जब वे भारत वापस आए अपनी पहली फिल्म-‘माया दर्पण’ को निर्देशित किया.‘माया दर्पण’ (1972) उनकी सबसे चर्चित फिल्म है, जो पचास वर्ष पूरे कर रही है. यह फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन के सहायता से बनी थी.

हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार निर्मल वर्मा की इसी नाम से लिखी कहानी (माया दर्पण) पर जब फिल्म बन कर आई, सिनेमा अध्येताओं और समीक्षकों ने निर्देशक की मौलिक दृष्टि और सिनेमाई भाषा की सराहना की थी. पिछली सदी के 70-80 के दशक में उनकी और मणि कौल की फिल्मों (उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन, दुविधा आदि) में कहानी कहने की प्रयोगात्मक शैली की चर्चा खूब हुई. पेरिस के ला मोंद, अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में भी उनकी फिल्मों की चर्चा होती थी. बहरहाल, ‘माया दर्पण’ को हिंदी में ‘बेस्ट फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.
‘माया दर्पण’ की विशिष्टता की क्या वजह है? क्यों हिंदी सिनेमा में इस फिल्म को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है? इस फिल्म में रंगों और ध्वनि के इस्तेमाल से जिस सिनेमा संसार को रचा गया है, वह अलहदा है. पाकिस्तानी शायर जिया जालंधरी ने कहा है: रंग बातें करें और बातों से खुशबू आए’. कुमार शहानी बातचीत में कहते हैं ‘रंग हमारे होने की सुगंध को परिभाषित करता है.’ प्रसंगवश, शहानी अक्सर अपने जन्म स्थान लरकाना (सिंध, पाकिस्तान) की चर्चा करते हैं. साथ ही रंगों के मेल और भारतीय सभ्यता और संस्कृति में इसकी केंद्रीयता को रेखांकित करते रहे हैं.
कथानक निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित होने के बावजूद यह फिल्म उसका अतिक्रमण करती है. सिनेमा तकनीकी आधारित कला है, लेकिन तकनीकी यहाँ निर्देशक पर हावी नहीं है. ‘माया दर्पण’ की कहानी के केंद्र में तरन (अदिति) है, जो अपने पिता (दीवान साहब) और विधवा बुआ के साथ एक छोटे शहर में रहती है. आजादी के बाद भारतीय समाज में आ रहे सामाजिक बदलाव, औद्योगीकरण की आहट इस कहानी में प्रवासी इंजीनियर बाबू के माध्यम से आई है. इस कहानी के एक प्रसंग में बुआ कहती है: “सोचती हूँ जब आज बाबू तेरे लिए ऊंची जात और बड़े घराने की बात चलाते हैं, तो क्या यह ठीक है? वह बात आज कहाँ रही, जो वर्षों पहले थी? आज अपनी कौन इज्जत रह गई है, जो बड़े घर-घराने का लड़का मिले! लेकिन उन्हें यह बात समझाये कौन?” कहानी से अलग शहानी इस फिल्म में हाशिए पर पड़े समाज को भी लेकर आते हैं, जहाँ उनकी वर्ग-चेतन दृष्टि का पता चलता है. इंजीनियर बाबू मजदूरों के बीच ‘लिटरेसी कार्यक्रम’ चलाते हैं. तरन जाति-वर्ग भेद को तोड़ती है.
सामंती और पितृसत्तात्मक परिवेश में तरन के अकेलापन और अवसाद को निर्मल वर्मा की कहानी उकेरती है, लेकिन इस कहानी में तरन अपने अकेलेपन से छुटकारा पाने का निर्णय नहीं ले पाती. सामंती परिवेश की हदबंदियां उसे जकड़ी हुई है, जबकि उसका भाई उसे तोड़ कर निकल चुका है. फिल्म में सामंतवाद का विरोध किया गया. है, जो कहानी में नहीं है. यह सारी बातें फिल्म में कलात्मक ढंग से आई है, जहाँ निर्देशक की ‘फॉर्म’ के प्रति एकनिष्ठता दिखती है. कुछ वर्ष पहले एक इंटरव्यू में जब मैंने फिल्म में कहानी से अलग ‘ट्रीटमेंट’ के बाबत उनसे सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था: “मैंने ‘माया दर्पण’ में सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है. इस फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है. उस डांस में जो ऊर्जा है वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है. यह काली के रंग में भी है.” कुमार शहानी कहते हैं कि 'जब आप फिल्म बनाते हैं तब आप एक विशिष्ट काम करने की इच्छा रखते हैं-- खास कर जब आप स्वतंत्रता की बात करते हैं, जिसकी चाहत सबमें रहती है.' एक तरह से वैयक्तिक स्वतंत्रता इस फिल्म की मूल भावना है. कला में यह स्वतंत्रता किस रूप में आए, शहानी की यह फिल्म इस बात की खोजबीन करती है.
मणि कौल की तरह ही कुमार शहानी की फिल्मों में बिंब (इमेज) सायास रूप से भारतीय चित्रकला से प्रेरित दिखते हैं. अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह जैसे समकालीन फिल्मकारों पर इन अवांगार्द फिल्म निर्देशकों का स्पष्ट प्रभाव है, जिसे वे खुले मन से स्वीकारते भी है. खुद ‘माया दर्पण’ की तरन पर रॉबर्ट ब्रेसां की फिल्म ‘मूशेत (1967)’ के केंद्रीय पात्र का प्रभाव दिखता है, जिसकी आलोचना सत्यजीत रे ने की थी. साथ ही उनकी फिल्मों पर ऋत्विक घटक की फिल्मों का भी प्रभाव है. बावजूद सारे प्रभावों और आलोचना के कुमार शहानी की फिल्मों में कहानी कहने की जो शैली है वह उन्हें भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक अलग पंक्ति में खड़ा करता है.
'माया दर्पण' फिल्म में ध्वनि के प्रयोग के साथ संगीत के इस्तेमाल पर भी बातचीत की जानी चाहिए. हवेली के ‘टाइम-स्पेस’ को भास्कर चंदावरकर के संगीत और वाणी जयराम के स्वर ने खूबसूरती से उभारा है. कुमार शहानी कहते हैं, ‘जाहिर है, आप देखेंगे कि इस फिल्म के बाद जितनी मेरी फिल्में हैं वे ‘म्यूजिकल एपिक्स’ है’. 'तरंग', 'कस्बा', 'ख्याल गाथा' और 'चार अध्याय' उनकी अन्य चर्चित फिल्में हैं. उनकी फिल्मों पर हिंदी में गंभीर विवेचना की जरूरत है. ये फिल्में भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगी हैं, राजनीतिक विचारधारा का यहाँ समावेश है. असल में, शहानी दोनों के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे हैं.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Wednesday, November 09, 2022

मैनेजर पांडेय: स्वतंत्रता और सामाजिकता पर जोर देने वाला आलोचक

 


हिंदी भाषा और साहित्य के विद्वान प्रोफेसर मैनेजर पांडेय (1941-2022) का रविवार को दिल्ली स्थित आवास पर देहांत हो गया। चर्चित आलोचक नामवर सिंह उन्हें आलोचकों का आलोचककहते थे।पांडेयजी उनकी इस स्थापना से सहमत नहीं थे। पिछले साल अगस्त में जब मैंने उनसे इस बाबत एक इंटरव्यू में पूछा तब उन्होंने कहा था, ‘उनके कहने का अर्थ ये था कि मैं व्यावहारिक आलोचनाएँ नहीं लिखता। यह झूठ है।असल में, सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना के दोनों क्षेत्र में पिछले पचास सालों में उन्होंने भरपूर लेखन किया। मार्क्सवादी आलोचक के रूप में उनकी ख्याति के केंद्र में साहित्य और इतिहास दृष्टिऔर साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिकाकिताब रही, हालांकि उन्होंने पीएचडी सूरदास के साहित्य पर की थी। पांडेयजी ने भक्तिकालीन कवियों के साथ नागार्जुन, अज्ञेय, कुमार विकल, धूमिल जैसे कवियों पर लिखा।साथ ही उपन्यास और लोकतंत्रजैसे विषय और नए रचनाकारों पर भी उनकी हमेशा नजर रही।कुछ साल पहले उन्होंने मुगल बादशाहों की हिंदी कविताको संकलित कर प्रकाशित करवाया।

पांडेयजी की आलोचना में स्वतंत्रता और सामाजिकता पर विशेष जोर रहा है। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा हैआलोचना की सामाजिकतानाम से लिखी किताब में उन्होंने नोट किया है: आलोचना चाहे समाज की हो या साहित्य की, वह सामाजिक बनती है, एडवर्ड सईद के शब्दों में, ‘सत्ता के सामने सच कहने के साहस से।आश्चर्य नहीं कि बाबा नागार्जुन उनके प्रिय लेखक-कवि थे। नागार्जुन ने लिखा है-जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ? जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।उन्होंने कहा था: बाबा नागार्जुन मुख्यत: किसान-मजदूरों के कवि थे। वे जन आंदोलनों के कवि थे।दलित, आदिवासी पर उन्होंने कविता लिखी है।इन सब कारणों से वे मुझे पसंद हैं. वे जटिलता को कला नहीं मानते थे।

वे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरूविश्वविद्यालय (जेएनयू) से लंबे समय तक जुड़े रहे और एक पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति का पाठ पढ़ाया। वे जन संस्कृति मंच (जसम) के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे. मेरे बड़े भाई, नवीन, एमए (1992-94) में उनके छात्र रहे थे।सेंटर और पांडेयजी के कई किस्से मैंने उनसे सुन रखे थे। बीस साल पहले जब मैं भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू में एक शोधार्थी के रूप में ज्वाइन किया तब वे विभाग के अध्यक्ष थे। एमफिल इंटरव्यू के लिए नागार्जुन के उपन्यासों पर ही सिनाप्सिसलिख कर मैं ले गया था।इंटरव्यू बोर्ड में पांडेय जी सहित सभी शिक्षक थे। सवाल-जवाब ठीक चल रहा था। आखिर में प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने मुझसे एक सवाल पूछा: नागार्जुन के उपन्यास में ऐसी कौन सी सांस्कृतिक विशिष्टता आपको दिखाई देती है, जो औरों के यहां नहीं है? मैने मिथिला समाज के चित्रण की बात की और कहा कि उनके यहाँ भोजन की प्रचुरता और कमी का एक साथ विवरण मिलता है। जर्मनी के हिंदी विद्वान लोठार लुत्से को उद्धृत करते हुए मैंने आगे जोड़ा कि 'उन्होंने कहा है कि मिथिला के ब्राह्मण खाते हैं और सोते हैं।सोते हुए वे सोचते रहते हैं कि फिर क्या खाना है।' तलवार जी कुछ कहते उससे पहले ही पांडेय जी ने जोर से हंसना शुरु कर दिया।साथ ही सारे प्रोफेसर हंसने लगे. वह हंसी मुझे अभी भी याद है।

 बाद में नागार्जुन के उपन्यासों पर जब मैंने वीर भारत तलवार के निर्देशन में लघु शोध प्रबंध लिखा तब उनके जेएनयू स्थित दक्षिणापुरम आवास पर नागार्जुन के साहित्य और जीवन को लेकर एक लंबी बातचीत की थी।उन्होंने नागार्जुन से जुड़े कई संस्मरण सुनाए और इतिहासकार प्रोफेसर राधाकृष्ण चौधरी की पुस्तक-मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापतिपढ़ने की सलाह दी थी। दिल्ली में नागार्जुन उनके यहाँ अक्सर आकर ठहरते थे।

उन्होंने हमें साहित्य का समाजशास्त्रका पेपर पढ़ाया था। हम उनके लिए लगभग आखिरी बैच के छात्र थे। वे आखिरी दिनों में भी तैयारी के साथ लेक्चर देने आते थे, नोट्स लेकर। उनके पढ़ाने की शैली सहज थी, जिसमें वाक् विदग्धता (विट) हमेशा रहती थी।वे हमें प्रेम कविता और प्रेम कहानियों का उदाहरण देकर साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते थे।पांडेयजी कहते थे कि अभी आप युवा हैं और प्रेम प्रसंग को ज्यादा ठीक से समझेंगे। वे लोकप्रिय साहित्य के समाजशास्त्र पर भी जोर देकर बात करते थे। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है: लोकप्रिय साहित्य के पाठक सभी वर्गों के लोग होते हैं।इतने पाठक समुदाय की उपेक्षा करके साहित्य पर बात करना बेमानी है।यह बात लोकप्रिय संस्कृति के अन्य रूपों मसलन, सिनेमा, संगीत, आदि के प्रसंग में भी सच है जिस पर हिंदी लोकवृत्त में आज भी गंभीर विमर्श का अभाव दिखता है।

वर्ष 2009 में जेएनयू से निकलने के बाद मैं मुनिरका में उनके बिलकुल पड़ोस में आ गया। मैं दोस्तों से मजाक में कहता था कि हम आलोचक की गली में रहते हैं’. गाहे-बगाहे उनसे भेंट और बातचीत हो जाती थी। दो साल पहले जिस दिन मेरे पिताजी गुजरे वे बिना-बताए घर आ गए थे। तब भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था।हम दोनों भाई रेलिंग पकड़ कर पहली मंजिल की सीढ़ियों से नीचे उतरते उन्हें भरी आँखों से देख रहे थे।

जब भी मैं उनके घर जाता मन में एक संकोच रहता था कि उनके पढ़ने-लिखने में व्यवधान डाल रहा हूँ।अस्सी वर्ष की उम्र में भी वे एक युवा शोधार्थी की तरह पाइप (चुरुट) पीते हुए, अपने अध्ययन कक्ष में किताबों के बीच घिरे दिखते थे।मेरी इच्छा थी कि विद्यापति पर उनसे विस्तार से लंबी बातचीत करूं, पर नहीं कर सका।कोरोना को लेकर हम सब डरे थे।कुछ महीने पहले कोरोना से संक्रमित होने के बाद वे बिस्तर से उठ नहीं सके।घर है, गली है, पड़ोस है, अब सर नहीं हैं।

इंटरव्यू में मैंने उनसे दारा शिकोह के ऊपर लंबे समय से चल रहे काम के बारे में पूछा था। पांडेयजी ने सोफे पर फैली किताबों की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि दारा शिकोह पर ही मैं काम कर रहा हूँ। एक-दो महीने में पूरा कर लूँगा, फिर किताब प्रेस में जाएगी।यह काम अधूरा ही रहा, लेकिन उनकी कृतियाँ और स्मृतियाँ हमारी थाती है।


(आउटलुक हिंदी के लिए)