Monday, May 17, 2021

द डिसाइपल: शास्त्रीय संगीत की बंदिशें

फिल्म निर्देशक चैतन्य तम्हाणे की मराठी फिल्म ‘द डिसाइपल’  दुनिया भर में सुर्खियाँ बटोरने के बाद पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई. यह फिल्म हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में रची-बसी हैजिसके केंद्र में है एक युवा संगीतकार, जो बुलंदियों को छूना चाहता है. पर क्या वह
शास्त्रीय संगीत में महारत हासिल कर पाता है?  क्या उसे वह सम्मानप्रतिष्ठा मिलती है जो उसके गुरु या गुरु के गुरु को मिलती हैएक युवा संगीतकार की संगीत यात्रा को तम्हाणे ने आधुनिक समय के मुंबई में अवस्थित किया है जहाँ दस तरह के प्रलोभन हैं और भटकाव हैं तथा लोकप्रियता के अलग पैमाने हैं.

यह फिल्म शास्त्रीय संगीत के बहाने कला की दुनिया में जो आत्म-संघर्ष है उसे रेखांकित करती है. सवाल है कि इस फिल्म में ऐसा क्या है, जो इस फिल्म को विशिष्ट बनाता है. असल मेंसहजता और साधरणता ही इस फिल्म की विशिष्टता है. फिल्म में कोई ड्रामा या कहानी के स्तर पर कोई अनायास मोड़ नहीं है. फिल्म एक लय में चलती हैजिसे खूबसूरती से सिनेमैटोग्राफर माइकल सोबोचेंस्की ने कैद किया है. फिल्म में ख्याल गायकी की कुछ प्रस्तुतियों को भी रखा गया है. एक कलाकार के आत्म-संशय और आत्म-बोध को शरद के किरदार के रूप में आदित्य मोदक ने बेहतरीन ढंग से निभाया है. वे खुद हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित कलाकार हैं.

जैसा कि ‘द डिसाइपल’  नाम से स्पष्ट हैइस फिल्म में गुरु-शिष्य के संबंध पर जोर है. शरद के गुरु (अरुण द्रविड़) अपनी संगीत साधना में रत रहते हैं. वे ‘म्यूजिक कंसर्ट’ और दुनिया जिसे ‘लोकप्रिय’ मानती है, उससे दूर हैं. उनके अंदर अपने गुरु माई (सुमित्रा भावे) की सीख हमेशा रहती है कि शास्त्रीय संगीत वर्षों की साधना और त्याग का फल है. और वही सीख शरद की चेतना का भी निर्माण करती है. पर इस साधना में शरद के अंदर संशय और कुंठा का भाव जन्म लेता है.

फिल्म निर्माण की दृष्टि से यह फिल्म तम्हाणे की पिछली चर्चित फिल्म ‘कोर्ट’ से कमतर नहीं हैहालांकि जब बात सामाजिक यथार्थ के निरूपण की हो तब ‘कोर्ट’ निस्संदेह उनकी उत्कृष्ट फिल्म थी. इस फिल्म में गुरु-शिष्य परंपरा में जो अंतर्विरोध और विडंबना है उसे निर्देशक नहीं छूता है. शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भक्ति-भाव के आवरण में जो बंदिशें हैं, उस पर यहाँ जोर नहीं है. गुरु के पाँव छूने और निस्वार्थ भाव से सेवा करने में पीछे जो प्रवृत्ति है उसे खंगालने की जरूरत थी.

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की परंपरा के केंद्र में सामंती और ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति रही है. एक जातिगत और वर्गवादी दबदबा भी इसमें हमेशा रहा है. मशहूर शास्त्रीय संगीतकार और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता टीएम कृष्णा कर्नाटक संगीत में सामाजिक विस्तार और समरसता की वकालत करते हैंताकि शास्त्रीय संगीत में वर्ग और जाति के वर्चस्व को तोड़ा जा सके. समकालीन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी यह ज़रूरत है. यदि इस फिल्म में गुरु-शिष्य परंपरा के बहाने इन बिंदुओं पर भी कैमरा की नजर जाती, तो फिल्म हमारे समय के यथार्थ के ज्यादा करीब हो सकती थी.



 (प्रभात खबर, 16.05.21)

Saturday, May 08, 2021

बहुत कठिन समय है साथी

पिछले दिनों एक बातचीत के दौरान टेलीविजन के एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि हम उम्मीद करें कि कोई साहित्यकार हमारे समय की त्रासदी को शब्द देगा.  साहित्य शब्दों के जरिए मानवीय भावों, प्रेमहिंसा, सुख-दुखपीड़ात्रासदियों को वाणी देता रहा है. यही वजह है कि कोरोना महामारी के दौरान अल्बैर कामू के चर्चित उपन्यास-प्लेगकी बार-बार चर्चा होती रही है. लोग इस महामारी को ‘प्लेग’ के मार्फत समझने की कोशिश करते दिखे. प्रसंगवशइस उपन्यास में एक पात्र रेमंड रैंबर्ट पत्रकार के रूप में मौजूद हैं!

साहित्य भोगे हुए जीवन को रचता हैपर वह जीवन नहीं है. और कोई भी कहानी जीवन से बढ़ कर नहीं हो सकती है. हालांकि कोरोना महामारी के दौरान खबरनवीस अपनी जान पर खेल कर भी खबर दे रहे हैंहमें इस आपदा की कहानियों से रू-ब-रू करवा रहे हैं. महामारी से लड़ने में जनसंचार की अहमियत और केंद्रीयता को सब स्वीकार करते हैं. सही सूचनाएँ जहाँ आम लोगों की दुश्चिंताएँ कम करती हैंवहीं दुष्प्रचार लोगों की परेशानियाँ बढ़ाने का कारण बनते हैं. जनसंचार के माध्यमों का इस्तेमाल जिस रूप में कोरोना महामारी के दौर में हो रहा है उसका सम्यक अध्ययन अभी बाकी है.

बहरहाल, ऐसा लगता है समकालीन घटनाक्रम को संवेदनशील ढंग से सामने रखने के लिए साहित्य पर्याप्त नहीं होता. आधुनिक समय में इसके लिए मीडिया माकूल है. यहाँ पर यह जोड़ना उचित है कि पारंपरिक मीडिया के अलावे सोशल मीडिया की भी इसमें प्रमुख भूमिका है. सूचना क्रांति के बाद मीडिया के अभूतपूर्व प्रसार ने छोटे शहरोंकस्बों और गाँवों को भी केंद्र से जोड़ दिया है. आज हम सब एक बड़े नेटवर्क का हिस्सा हैं. साथ ही तकनीकी ने देश और काल के फासले को कम कर दिया है. यही वजह है कि दिल्ली में बैठा हुआ कोई शख्स दरभंगा में किसी जरूरतमंद को मदद पहुँचा पा रहा है. दिल्ली में बैठा हुआ कोई पत्रकार अमेरिका या लंदन में बैठे महामारी और लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों से बिना किसी दिक्कत के सलाह-मशविरा करने में कामयाब हैं. इस आपदा ने संपूर्ण मानवता को जिस तरह प्रभावित किया है और संचार तकनीकी का इस्तेमाल कर जिस रूप में इससे लड़ा जा रहा हैमीडिया गुरु मार्शल मैक्लूहन की ‘ग्लोबल विलेज’ की अवधारणा प्रासंगिक हो उठती है. इस महामारी में मानवीय त्रासदी को हम-सब एक-साथ देख रहे हैंभोग रहे हैं. एक अनिश्चितता और भय सब तरफ व्याप्त है. पर जैसा कि वीरेन डंगवाल ने लिखा हैहर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है/ हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है.

कोराना महामारी की विचलित करने वाले दृश्य (तस्वीरें) हमारी संवेदना को झकझोरने में, उद्वेलित करने में प्रभावी हैं. सड़कों परअस्पतालों मेंघरों में बेबसी की तस्वीरें मुख्यधारा और सोशल मीडिया के हवाले से हमारी चेतना का अंग बनी है और हम एक-दूसरे के दुख और शोक में शरीक हैं.

इस महामारी में पिछले साल लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की जो तस्वीरें मीडिया के माध्यम से आईंवे महाकाव्यात्मक पीड़ा लिए हुए थी. इन तस्वीरों ने देखने के हमारे नजरिए को बदल कर रख दिया. यह पीड़ा के साथ-साथ मानवीय जिजीविषाकरुणा और संघर्ष की तस्वीरें भी थी. साथ ही सामूहिकता और मानवीय सहयोग की सहज तस्वीरें हम इस आपदा में देख रहे हैं. मीडिया इन दृश्यों के माध्यम से पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ रहा है.

कोरोना महामारी के दूसरे वेव में जब प्रतिदिन संक्रमित लोगों की संख्या चार लाख के करीब है और हताहतों की संख्या चार हजारकई पेशेवर पत्रकार भी इससे संक्रमित हो रहे हैं. एक आंकड़ा के मुताबिक पूरे देश में कोराना महामारी से अब तक करीब सौ पत्रकारों ने अपनी जान गंवाई है. कई पत्रकार आज इस वायरस से संक्रमित हैं. पेशे के प्रति अपनी दीवानगी में कुछ पत्रकार इस हालत में भी लोगों के लिए हरसंभव सहायता करते दिखे हैं. सत्ता को कटघरे में खड़े करने में नाकामी और सरकार से सही समय पर सवाल नहीं पूछने की वजह से मीडिया की आलोचना अपनी जगह सही हैपर निस्संदेह जब भविष्य में पत्रकारिता और इस महामारी का इतिहास लिखा जाएगा इसे भी नोट किया जाएगा.

इन सबके बीच देर से ही सही उत्तर प्रदेशबिहारपंजाबपश्चिम बंगाल जैसे अनेक राज्यों ने पत्रकारों को भी महामारी से लड़ने में फ्रंटलाइन वर्कर्स माना है. इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए.

(नेटवर्क 18 हिंदी वेबसाइट पर प्रकाशित)