Wednesday, October 28, 2020

सिनेमा हॉल खुले, पर दर्शक कहां हैं


करीब सात महीने के बाद देश में सिनेमाघर खुले हैं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ‘वीरानी सी वीरानी’ है. बॉक्स ऑफिस के लिहाज से दो प्रमुख राज्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु में सिनेमाघर अभी भी नहीं खुले हैं.


दिल्ली-एनसीआर के सिनेमाघरों में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और नए ‘गाइडलाइंस’ का पालन किया जा रहा है, पर दर्शक नज़र नहीं आ रहे. पीवीआर जैसे मल्टीप्लेक्स दर्शकों के लिए तरह-तरह के ऑफर लेकर आए हैं. यहाँ तक कि आप चाहें तो पूरा हॉल बुक करवा कर ‘प्राइवेट व्यूइंग’ का लुत्फ उठा सकते हैं.

मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में पुरानी फिल्में मसलन ‘कबीर सिंह’, ‘पैरासाइट’ आदि ही दिखाई जा रही हैं, नई फिल्मों को लेकर निर्माताओं और वितरकों के बीच कोई योजना नहीं दिखती है. कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन से पहले मैंने ये फिल्में देखी थी. सवाल है कि नई फिल्में यदि रिलीज नहीं होंगी तो कोई दर्शक सिनेमाघर क्यों जाएगा? असल में दर्शकों के बीच अनिश्चितता की वजह से निर्माता-वितरक भी बड़ी फिल्मों को रिलीज कर कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहते. ऐसा नहीं है कि लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे. पिछले दिनों जब मैं दिल्ली के एक मॉल में गया, जहाँ कई मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर भी स्थित हैं, तब वहां भीड़ कम थी. हालांकि ‘फूड प्लाजा’ में लोग खा-पी रहे थे, खरीददारी भी कर रहे थे. पर सिनेमाघरों के बाहर कोई गहमागहमी नहीं थी.

दशहरा, दीवाली, ईद, क्रिसमस बड़े स्टारों की फिल्मों के रिलीज के लिए मुफीद माना जाता रहा है. ईद के दौरान सलमान खान की फिल्मों को लेकर उनके फैन्स में हमेशा एक दीवानगी रहती है. आश्चर्य नहीं कि सलमान खान की आने वाली एक फिल्म का नाम ‘कभी ईद, कभी दीवाली’ है. फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी ने पिछले साल प्रकाशित हुई अपनी किताब ‘रील इंडिया’ में सलमान खान के एक फैन के हवाले से लिखा है- ‘उनकी फिल्में ईद पर थिएटर में आती है. रमजान के दौरान लंबे रोजा के बाद यह महाभोज की तरह आता है.’ भारत में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं और मनोरंजन के लिए सिनेमा हर आयुवर्ग के दर्शकों को लुभाता रहा है.

हर स्टार के अपने ‘फैन्स’ हैं. सिनेमा के कारोबार से जुड़े लोगों को इन्हीं फैन्स से उम्मीदें है कि वे फिर से सिनेमाघरों में लौटेंगे. पर सलमान, शाहरूख या आमिर खान की किसी फिल्म के रिलीज होने को लेकर कोई चर्चा नहीं है. प्रसंगवश, 25 साल पहले शाहरुख खान और काजोल की बहुचर्चित फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ दीवाली के आस-पास ही रिलीज हुई थी.

बॉलीवुड को एक ‘ब्लॉकबस्टर’ फिल्म का बेसब्री से इंतजार है. अक्षय कुमार की एक्शन फिल्म ‘सूर्यवंशी’ और भारतीय क्रिकेट टीम के विश्व कप की रोमाचंक जीत पर आधारित रणवीर सिंह की फिल्म ‘83’ दशहरा-दीवाली के दौरान रिलीज करने की बात की जा रही थी, पर त्योहारों के इस मौसम में इन फिल्मों के रिलीज होने को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. जबकि अक्षय कुमार की ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ ऑनलाइन प्लेटफार्म पर अगले महीने रिलीज हो रही है. सिनेमाघरों के बंद होने से इंटरनेट के माध्यम से ‘ओवर द टॉप’ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को फायदा पहुँचा, वहीं सिनेमाघरों से जुडे लोगों के रोजगार और व्यवसाय को भारी नुकसान हुआ है. लॉकडाउन के दौरान कारोबार के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं उसमें सिनेमा उद्योग भी शामिल है.

(प्रभात खबर 25 अक्टूबर 2020)

Thursday, October 15, 2020

टीआरपी घोटाले से टीवी चैनलों पर संकट

 https://youtu.be/kKqBA10ldWI

मुंबई पुलिस और आर्थिक अपराध शाखा (EOW) टीवी चैनलों की TRP में हुए कथित घोटालों की जाँच कर रहे हैं। इस मामले में अभी तक मुंबई पुलिस Republic TV के CEO और COO से पूछताछ कर चुकी है। Republic TV के प्रधान संपादक Arnab Goswami को सोशल मीडिया पर ट्रॉल किया जा रहा है। मुंबई पुलिस ने अब तक इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया है। पुलिस के अनुसार रिपब्लिक टीवी और दो अन्य चैनलों ने अपनी टीआरपी बेहतर करने के लिए हेरफेर की। TRP क्या है और इसमें घोटाला कर के किसी टीवी चैनल को क्या फायदा हो सकता है? इन्हीं सवालों के जवाब देने के लिए आज हमने बात की मीडिया विशेषज्ञ अरविंद दास से। (साभार, लोकमत हिंदी)

Sunday, October 11, 2020

उदारीकरण, राष्ट्रवाद और टीवी न्यूज़

                     

भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ. जनसंचार, विचार-विमर्श, छवियों के निर्माण और संसदीय चुनावों के दौरान राजनीतिक लामबंदी में टेलीविजन समाचार चैनल एक प्रमुख माध्यम बनके उभरे हैं. इन्हीं दशकों में पूरी दुनिया में बाजार और संचार तकनीक के माफर्त भूमंडलीकरण के आने से राष्ट्र-राज्य के स्वरूप में परिवर्तन भी आया है. जहाँ कुछ राष्ट्र्-राज्य की शक्ति बढ़ी, वहीं कुछ राष्ट्र-राज्य की शक्ति में  कमी आई. साथ ही दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद  का उभार भी हुआ है. 21वीं सदी के दूसरे दशक के आखिर में यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने (ब्रेगिजट) को हम दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती और राष्ट्र-राज्य की कमजोर होती शक्ति को फिर से पाने के प्रयास में रूप में पाते हैं.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, इंग्लैंड में बोरिस जानसन, ब्राजील में जेयर बोलसोनारो, तुर्की में रेसेप तैयप एर्दोगान और भारत में नरेंद्र मोदी जैसे पापुलिस्ट नेताओं के उभार ने राष्ट्रवाद और मीडिया के आपसी संबंध को बहस के घेरे में ला दिया है. टेलीविजन समाचार माध्यम में राष्ट्रवादी विमर्श एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में उभरा है. हालांकि जैसा कि अरविंद राजगोपाल ने अपने चर्चित अध्ययन ॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविजनमें विस्तार से दिखाया है कि भारत में उदारीकरण के बाद (80 के दशक के आखिरी और 90 के दशक के शुरुआती सालों में) उभरे नव मध्यवर्ग के बीच रामायण जैसे महाकाव्यों का सिरीयल के रूप में हफ्ते दर हफ्ते दूरदर्शन पर प्रसारण ने राम जन्मभूमि आंदोलन को मजबूती दिया और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व विचारधारा के प्रसार लिए जमीन तैयार किया था.[i] संक्षेप में, उदारीकरण एक विस्तृत संकल्पना है जिसमें निजीकरण और बाजारीकरण की अवधारणा भी शामिल है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में, इसके तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में राज्य की भूमिका को कम करने, निजीकरण को बल प्रदान करने तथा निवेश तथा निर्यात की नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की नीतियों को लागू करना शामिल था. इसे वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीति के माध्यम से लागू किया गया. हालांकि इसकी शुरुआत राजीव गांधी के नेतृत्व में (1985-86) राज्य प्रेरित आयात प्रतिस्थापन की नीति को बदल कर निर्यातोन्मुख विकास की नीति को लागू करने के साथ हो गया था.[ii] सवाल है कि उदारीकरण के बाद  राष्ट्रवाद और टेलीविजन समाचार चैनलों के बीच उभरे संबंध को हम किस रूप में देखें? क्या यह उदारीकरण-भूमंडलीकरण के साथ ही सहज रुप से विकसित हुए हैं? या भारतीय संदर्भ में इसकी कोई ख़ास विशेषता है? इस लेख में सेटेलाइट, निजी हिंदी टेलीविजन समाचार चैनलों के हवाले से इन सवालों की पड़ताल की गई है.

(संवाद पथ, जनसंचार और पत्रकारिता केंद्रित पत्रिका, खंड-2, अंक-3, जुलाई-सितबंर 2019, पेज 38-46)

दर्शकों की तलाश में 'मिथिला मखान'

मैथिली सिनेमा के इतिहास में ‘मिथिला मखान’ एक मात्र ऐसी फिल्म है, जिसे वर्ष 2016 में मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. पर चार साल के बाद भी इस फिल्म को कोई सिनेमा हॉल प्रदर्शन के लिए नहीं मिला. यहाँ तक कि कोरोना काल में कोई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भी इसे प्रदर्शित करने के लिए राजी नहीं हुआ. अंततः पिछले हफ्ते फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा ने इसे अपने ऑनलाइन पोर्टल (बेजोड़ डॉट इन) पर रिलीज किया है.

वे कहते हैं कि ‘मैथिली फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई उत्साह नहीं है. हम सौभाग्यशाली थे जो हमें एक एनआरआई निवेशक मिले.’ नितिन चंद्रा बिहार की भाषाओं में फिल्म बनाने वाले एक उत्साही युवा फिल्मकार हैं. इससे पहले उन्होंने भोजपुरी में ‘देसवा’ फिल्म बनाई थी. 'मिथिला मखान' मिथिला में रोजगार की समस्या, पलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.
जहां मिथिला की साहित्यिक और सांस्कृतिक विशिष्टता आधुनिक समय में भी कायम रही, सिनेमा के क्षेत्र में उसे एक मुकाम हासिल नहीं हो पाया है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि अश्लीलता को अपना कर ही सही, भोजपुरी सिनेमा ने एक मुकाम बना लिया है, पर ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अबतक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ यूँ तो फणि मजूमदार निर्देशित ‘कन्यादान’ (1965) फिल्म को पहली मैथिली फिल्म होने का दर्जा मिला है, इस फिल्म की भाषा हिंदी और मैथिली थी. चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा की प्रसिद्ध रचना ‘कन्यादान’ पर आधारित इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है.

इससे पहले वर्ष 1963-1964 में ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से एक मैथिली फिल्म का निर्माण शुरू किया गया, पर लंबे समय के बाद यह फिल्म पूरी होकर 80 के दशक के मध्य में ‘ममता गाबय गीत’ नाम से रिलीज हुई. इस फिल्म से निर्माता के रूप में जुड़े रहे 84 वर्षीय केदारनाथ चौधरी बताते हैं कि उस जमाने में इस फिल्म को भी वितरक नहीं मिला था. ऐसा लगता है कि इन दशकों में मैथिली सिनेमा एक अपना दर्शक वर्ग तैयार नहीं कर पाया है, एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. भोजपुरी और मैथिली में फिल्म बनाने की शुरुआत एक साथ हुई. पर जैसा कि केदारनाथ चौधरी हताश स्वर में कहते हैं कि ‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’
बीते दशकों में मिथिला में सिनेमा प्रदर्शन को लेकर कोई माहौल नहीं दिखता है. दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर जो सिनेमाघर थे, वे भी लगातार कम होते गए और जो सिनेमाघर बचे हैं, वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली भाषा को शामिल किए जाने के बावजूद लोगों में इस भाषा को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं, वे भी अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर खास उत्साही नहीं हैं.

(प्रभात खबर, 11 अक्टूबर 2020)