Saturday, June 29, 2019

फिल्मों में तकनीकी दखल ज्यादा हो गया है: कुमार शहानी


वर्ष 1969 में मणि कौल की फिल्म उसकी रोटीऔर मृणाल सेन की भुवन सोमने भारतीय फिल्मों की एक नई धारा की शुरुआत की जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया। कुमार शहानी इस धारा के एक प्रतिनिधि फिल्मकार हैं। उनकी माया दर्पण’, ‘तरंग’, ‘ख्याल गाथा’, ‘कस्बा’, ‘चार अध्यायआदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। समांतर सिनेमा के इस आधी सदी के सफर पर अरविंद दास ने हाल ही में कुमार शहानी से लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :

न्यू वेव सिनेमा को पचास साल हो गए। मेनस्ट्रीम सिनेमा के बरक्स समांतर सिनेमा की इस यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?

हम पूंजीवादी व्यवस्था में रहते हैं जिसमें कारोबार मुख्य होता है, हम इसे चाहें या ना चाहें। मेनस्ट्रीम फिल्में लाभ से संचालित होती हैं, बिना इसके उनका खर्च नहीं निकल सकता। उनका कला से कोई ताल्लुक नहीं होता। इस लिहाज से हमें मेनस्ट्रीम और कला सिनेमा की तुलना नहीं करनी चाहिए।

कला सिनेमा के निर्माण में एफटीआईआई की क्या भूमिका रही?

मैं, मणि कौल और केके महाजन एफटीआईआई में थे। कुछ समय पहले ही पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट की शुरुआत हुई थी। 70 और 80 के दशक में जब हम न्यू वेव सिनेमा बना रहे थे तब न्यू यॉर्क टाइम्स, ला मोंद (पेरिस) जैसे अखबारों में एफटीआईआई की खूब चर्चा होती थी। वे मानते थे कि हम कुछ अच्छा काम कर रहे हैं। इससे एफटीआईआई की एक अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी।

एफटीआईआई में फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक आपके गुरु थे, आपकी फिल्मों पर उनका कैसा असर रहा?

फिल्मों के प्रति उनकी जो निष्ठा थी, उस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। चार अध्यायटैगोर का आखिरी उपन्यास है जिसमें उन्होंने स्वानुभूति और आत्मनिर्णय पर जोर दिया है। आध्यात्मिक भाव के साथ राजनीतिक हिंसा का सामंजस्य बहुत मुश्किल होता है। जब आप मेरी यह फिल्म देखेंगे तो ऋत्विक दा आपको भरपूर नजर आएंगे।

आपकी फिल्मों को लेकर एपिक फॉर्मकी चर्चा होती है। क्या ऋत्विक घटक इस फॉर्म के पीछे रहे?

ऋत्विक दा ने ही इस एपिक फॉर्म से हमारा परिचय करवाया था। ब्रेख्त के नाटकों का अनुवाद उन्होंने किया है। कॉकेशियन चॉक सर्किलका उन्होंने उसी वक्त अनुवाद किया, जब हम इंस्टीट्यूट में उनके शिष्य थे। बांग्लादेश में एपिक थिएटर पर काफी काम किया गया है। वे वहीं के थे। वे विभाजन की संतान थे और मैं भी हूं।


मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया। वर्ष 1967 में मैंने फ्रांस में एक गधे को केंद्र में रख कर बनाई गई उनकी फिल्म बलथाजारदेखी थी और खूब पसंद की। मोक्ष और निर्वाण उनकी फिल्मों में जिस रूप में दिखता है, उस तरफ मैं अपने वाम विचारों के बावजूद काफी आकर्षित था। जब मैं टैगोर की रचनाओं और घटक दा की फिल्मों की ओर देखता हूं तो पाता हूं कि उनमें जो आध्यात्मिक ऊर्जा है उसका कोई सानी नहीं। इन सबसे मैंने यही चीजें विरासत में पाई हैं।

आप लोगों ने हिंदी की नई कहानी को अपनी फिल्मों के लिए चुना, पर उसका ट्रीटमेंट अलग दिखता है। जैसे निर्मल वर्मा की कहानी माया दर्पणमें सामंतवाद के खिलाफ विरोध नहीं दिखता जबकि आपकी फिल्म में यह स्पष्ट है...

निर्मल असल में एक लिरिकल राइटर थे। हालांकि निर्मल एक जमाने में कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर थे, पर जब प्राग पर सोवियत यूनियन ने कब्जा किया तब वे संदेहशील हो उठे। मैंने माया दर्पणमें सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है। इस फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है। उस डांस में जो ऊर्जा है वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है। यह काली के रंग में भी है।

इस फिल्म के अंत को लेकर निर्मल वर्मा की क्या प्रतिक्रिया थी?

उन्हें पसंद नहीं था। कुछ युवा लेखकों ने उनसे कहा कि वे गलत हैं और उन्हें फिल्म फिर से देखनी चाहिए। निर्मल ने अनेक बार यह फिल्म देखी, पर उन्हें पसंद नहीं आई। (हंसते हुए) यह काफी अजीब था।

भूमंडलीकरण के साथ नई तकनीक ने नए युवा फिल्मकारों को प्रयोग करने का काफी मौका दिया है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?

थोड़ा-बहुत काम तो हो रहा है, लेकिन बलथाजारऔर मेघे ढाका ताराकी ऊंचाई तक पहुंचने में उन्हें वक्त लगेगा। एक बड़ी समस्या यह है कि तकनीक का दखल मानवीय हस्तक्षेप से कहीं ज्यादा है। युवा फिल्मकारों में सत्य और सुंदर की तलाश है, पर वे निराश हैं क्योंकि उनके पास अवसर नहीं है, कोई उनको महत्व नहीं दे रहा।

(नवभारत टाइम्स, 29 जून 2019 को प्रकाशित)

Wednesday, June 12, 2019

अयोघ्या नगर के सिंदूरिया


वर्षों पहले किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था- शादी हो तो मिथिला में. जाहिर है, इस लेख में जानकी और पुरुषोत्तम राम की शादी की चर्चा के साथ मिथिला की मेहमाननवाजी और संस्कृति का जिक्र था. पिछले कुछ दशकों में मिथिला क्षेत्र से भारी मात्रा में विस्थापन और पलायन हुआ है, लेकिन शादी-विवाह के लिए मध्यवर्ग वापस गांव-घर लौटता रहा है.
पिछले दिनों जब ऐसे ही एक शादी में भाग लेने का मौका मिला, तो इस लेख की याद हो आयी. मिथिला की संस्कृति शादी-विवाह के अवसर पर अपनी संपूर्णता में निखरकर आती है. बात गीत-संगीत की हो, मिथिला पेंटिंग-सिक्की कला की हो या खान-पान में विन्यास की. इनमें एक निरंतरता दिखती है, पर ऐसा नहीं है कि इनमें बदलाव नहीं आया है.
अस्सी के दशक में ही कैसेट कल्चरने शादी-विवाह में लाउड स्पीकरऔर तकनीक का प्रचलन बढ़ा दिया था. यही दौर था जब पद्म भूषण से सम्मानित शारदा सिन्हा के गाये लोक गीतों की धूम मची थी. आज भी शादी-विवाह का आंगन उनके गाये गीतों से गूंजता रहता है. बात चाहे माय हे अयोध्या नगर के सिंदूरिया सिंदूर बेचे आयल हेकी हो या मोहे लेलखिन सजनी मोर मनवा पहुनवा राघोकी. प्रसंगवश, शारदा सिन्हा अपनी मैथिल पहचानको बार-बार रेखांकित करती रही हैं.
वैसे भोजपुरी भाषा-भाषियों के बीच और हिंदी फिल्मों में गाये चर्चित गीतों के माध्यम से उनकी पहुंच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक तक है. पर ऐसा नहीं है कि नयी पीढ़ी मैथिली लोक-गीतों से विमुख है. पसाहीन¸ कुमरम, लावा भुजाई, सिंदूर दान जैसी रस्मों में यह दिखायी देती है. हां, जहां कहीं इनकी टेक टूटती है, वहां घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएं संभाल लेती हैं.
पहले शादी-विवाह के दौरान महिलाओं की उपस्थिति परिवार के अंत:पुर में ही दिखती थी, वहीं पिछले कुछ वर्षों में बारात में भी वे नजर आने लगी हैं. सच तो यह है कि बारात में पुरुष बारातियों से ज्यादा उत्साह इनमें ही दिखता है.
मिथिला में शादी के बाद नवविवाहित वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे कोहबर कहा जाता है. कोहबर की रस्मों के साथ मिथिला पेंटिंग लिपटी हुई है. शादी के अवसर पर जिस कागज में भरकर सिंदूर वर पक्ष की तरफ से वधू के यहां भेजा जाता है, उसमें से दो कोहबर, एक दशावतार, एक कमलदह और एक बांस लिखे होने का रिवाज आज भी है, पर समयाभाव के कारण अब एक दिन के बाद ही द्विरागमन (लड़की की विदाई) की प्रथा चल पड़ी है.
साथ ही शादी-बारात में खान-पान के समय जो रच-रच कर खाने का चलन था, वह भी अब कुछ कम हुआ है. इन वर्षों में शादी के समय बारातियों को जो गाली गीत (डहकन) से नवाजने की परंपरा थी, वह कहीं विलुप्त हो रही है. समाजशास्त्रीय दृष्टि से नये संबंधों के प्रगाढ़ बनाने में यह एक मजबूत आधार का काम करता था. 

(प्रभात खबर, 12 जून 2019 को प्रकाशित)