Friday, April 29, 2022

मैथिली की पहली फिल्म ‘कन्यादान’


मैथिली के चर्चित लेखक हरिमोहन झा (1908-1984) के लिखे उपन्यास 'कन्यादान' (1933) में इस संवाद को पढ़ते ही ठिठक गया. सी सी मिश्रा और रेवती रमण के बीच यह संवाद है:

रे. रे: नाउ यू आर गोइंग टू सी हर विथ योर आईज

(आब त अहाँ स्वंय अपना आँखि सँ देखबाक हेतु चलिये रहल छी)

मि. मिश्रा: बट ह्वाट आइ वैल्यू मच मोर दैन ब्यूटी इज पर्सनल ग्रेस एंड चार्म. द सीक्रेट ऑफ अट्रैक्शन लाइज इन दी आर्ट ऑफ पोजिंग. यू हैव सीन द बिविचिंग पोजेज ऑफ दि फेमस सिनेमा स्टार लाइक देविका रानी. (“रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.”)

हरिमोहन झा मैथिली साहित्य में यह वर्ष 1933 में लिख रहे थे,  जब सिनेमा का प्रसार गाँव-कस्बों तक नहीं पहुँचा थापर मैथिली साहित्य में सिनेमा की आवाजाही हो रही थी. हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने आधुनिक मैथिली साहित्य को लोकप्रिय बनाया. ‘कन्यादान’ पुस्तक शिक्षित मैथिल परिवारों का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई. यह पुस्तक द्विरागमन’ समय मिथिला में स्त्रियों के साथ दिया जाने लगा. कहते हैं कि इस किताब को पढ़ने के लिए कई लोगों ने मैथिली सीखी. कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास पर फणि मजूमदार के निर्देशन में वर्ष 1964-65 में फिल्म बनीजो वर्ष 1971 में कन्यादान नाम से रिलीज हुई. सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता रहा है. साथ ही सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं हैपर बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई.

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी यह फिल्म दिखी. उत्साहवश जब मैंने यूट्यूब पर इस फिल्म को देखा तो निराशा हाथ लगी. ऐसा लगता है कि फिल्म मूल रूप में अपलोड नहीं की गई है. फिल्म का अंत भी वैसा नहीं हैजैसा कि लोग बताते रहे हैं. जब वर्ष 1971 में इसे रिलीज किया गया था तब दरभंगा-मधुबनी और पटना में लोगों ने देखा और सराहा था. उस पीढ़ी के लोगों के जेहन में यह फिल्म थीपर हमारी पीढ़ी के लिए महज यह एक सूचना भर रही. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय से कुछ वर्ष पहले संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. भाषा के प्रसार के साथ ही सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. सिनेमा के खोने से आने वाली पीढ़ियां उन स्मृतियों से वंचित हो जाती है जिसे फिल्मकार ने सिनेमा में अभिव्यक्त किया था. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए.  ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है.

हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मिथिला का सामाजिक यथार्थ इस फिल्म (उपन्यास) में व्यक्त हुआ है. विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक युवकसी सी मिश्रा की शादी एक ग्रामीण अशिक्षित युवतीबुच्चीदाई से हो जाती है. स्त्री शिक्षा की अनदेखीबेमेल विवाह और दहेज की समस्या इसके मूल में है. फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष और संवाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु ने लिखे थे. फिल्म से जुड़े कलाकार गोपालचाँद उस्मानीलता सिन्हातरुण बोस आदि की मातृभाषा मैथिली नहीं थीपर मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की इस फिल्म में एक प्रमुख भूमिका थी. शूटिंग मुंबई और मिथिला में हुई थी और फिल्म में मैथिली और हिंदी का प्रयोग हैस्त्रियों के हास-परिहाससभागाछीशादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेलागोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म के गीत-संगीत में चर्चित लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था.

जैसा कि आम तौर पर साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्मों के साथ होता रहा हैकिताब के लेखक निर्देशक के फिल्मांकन से कम ही संतुष्ट होते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि साहित्यकार यह समझ नहीं पाते कि फिल्म में बिंब की भूमिका प्रमुख होती है. जिस रूप में साहित्यकार ने कथा को अपने लेखन में चित्रित किया हैउसी रूप में फिल्म में नहीं ढाला जा सकता है. मसलन ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास का देशकाल आजादी के पहले का समाज है (जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी)जबकि फिल्म लगभग तीस साल के बाद बनी है. हरिमोहन झा ने इस फिल्म के बारे में लिखा है- ‘चित्र जेहन हम चाहैत छलहूँ तेहन नहि बनि सकल (फिल्म हम जैसा चाहते थे वैसा नहीं बन सकी)’. बहरहालउन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि इस फिल्म ने मैथिली में सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाया और ‘मधुश्रावणी’, ‘ललका पाग’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्में आगे जाकर बनी. 

जिस दौर में ‘कन्यादान’ फिल्म बन रही थी उसी दौर में एक अन्य मैथिली फिल्म ‘नैहर भेल मोर सासुर’ भी बन रही थी जो ‘ममता गाबय गीत’ के नाम से काफी बाद में जाकर अस्सी के दशक के मध्य में रिलीज हुई. इस फिल्म के प्रिंट भी आज दुर्लभ हैं. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता हैतब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेनएसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एलफिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एलफिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआमें पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है. जाहिर हैबिहार में सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. आजादी के बाद मैथिली-मगही-भोजपुरी में सिनेमा निर्माण भी हुआपर बाद में जहां तक सिनेमा के संरक्षण और पोषण का सवाल हैबिहार का वृहद समाज उदासीन ही रहा है.

जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती हैभोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिनयहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.

ममता गाबय गीत’ के निर्माण से जुड़े रहे केदार नाथ चौधरी इस फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘अबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’.  इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थीकेदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ (1937) फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता? कन्यादान’ फिल्म में रेणु की छाप फिल्म के संवाद में प्रमुखता से दिखती है. जैसा कि हमने नोट किया फिल्म में मैथिली के साथ-साथ हिंदी भाषा का भी प्रयोग है. जिसे फिल्म का एक पात्र झारखंडी सी सी मिश्रा के साथ बातचीत में ‘कचराही’ (कचहरी में जिस भाषा में गवाही दी जाती हो) बोली कहते हैं. ‘मारे गए गुलफाम में भी रेणु लिखते हैं: ‘कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता हैदिल-खोल गप तो गांव की बोली में ही की जा सकती है किसी से.

प्रसंगवश, नवेंदु घोष और रेणु की जोड़ी एक बार फिर से ‘मैला आँचल’ उपन्यास पर बनने वाली फिल्म ‘डागदर बाबू’ में साथ आई थी. मन में सहज रूप से यह सवाल उठता है कि नवेंदु घोषजिन्होंने ‘कन्यादान’ और ‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा लिखी थीके निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म का क्या स्वरूप होताबिंबो और ध्वनियों के माध्यम से यह फिल्म मैला आँचल कृति को किस तरह नए आयाम में प्रस्तुत करती?70 के दशक के मध्य में यह फिल्म बननी शुरू हुई थीपर निर्माता और वितरक के बीच अनबन के चलते इसे अधबीच ही बंद करना पड़ा. उस दौर के लोग ‘डागदर बाबू’ की शूटिंग और फिल्म के पोस्टर को आज भी याद करते हैं. रेणु के पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय कहते हैं कि फिल्म के 13 रील तैयार हो गए थे. वे बताते हैं कि ‘मायापुरी’ फिल्म पत्रिका में ‘आने वाली फिल्म’ के सेक्शन में इस फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया था. नवेंदु घोष के पुत्र और फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष कहते हैं कि उस वक्त वे फिल्म संस्थानपुणे (एफटीआईआई) में छात्र थे और अपने पिता को असिस्ट करते थे. वे दुखी होकर कहते हैं, “बाम्बे लैब में इस फिल्म के निगेटिव को रखा गया था. 80 के दशक में बंबई में आई बाढ़ में वहाँ रखा निगेटिव खराब हो गया... अब कुछ नहीं बचा है.” शूटिंग के दिनों को याद करते हुए शुभंकर घोष नॉस्टैल्जिक हो जाते हैं. वे कहते हैं “काफी खूबसूरत कास्टिंग थी. धर्मेंद्रजया बच्चनउत्पल दत्तपद्मा खन्नाकाली बनर्जी इससे जुड़े थे. जब रेणु की जन्मभूमि फारबिसगंज में इसकी शूटिंग हो रही थी तब धर्मेंद्र-जया को देखने आने वालों का तांता लगा रहता था. कई लोग पेड़ पर चढ़े होते थे.’ फिल्म के प्रसंग में वे आर डी बर्मन के दिए संगीत का जिक्र खास तौर पर करते हैं. वे कहते हैं कि नंद कुमार मुंशी जो इस फिल्म के निर्माता एस.एच. मुंशी के पुत्र हैंकिसी तरह आरडी बर्मन के गीतों को संरक्षित करने में उनकी सहायता करें. घोष कहते हैं कि फिल्म में पंचम ने असाधारण संगीत दिया थाजो मुंशी परिवार के पास ही रह गया. कन्यादन के निर्माता भी एस.एच. मुंशी ही थे. संभव है कि कन्यादान फिल्म का प्रिंट मुंशी परिवार के पास हो. यदि ‘डागदर बाबू’ फिल्म बन के तैयार हो गई होती तो हिंदी सिनेमा की थाती होती. शुभंकर याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता नवेंदु घोष और रेणु अच्छे दोस्त थे. ‘मैला आंचल’ की पॉकेट बुक की प्रति हमेशा अपने पास रखते थे और वर्षों तक उन्होंने उसकी पटकथा पर काम किया था.

रेणु’ का जन्मशती वर्ष भी है. जहाँ साहित्यिक हलकों में रेणु और हरिमोहन झा के साहित्य की चर्चा आज भी होती हैवहीं ‘कन्यादान’ फिल्म की चर्चा कहीं नहीं होती. रेणु के योगदान का उल्लेख नहीं होता. इस फिल्म में विद्यापति के गीत के साथ ही प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान है. एक साथ इतने सारे दिग्गज इस फिल्म से जुड़े रहे पर इस ऐतिहासिक फिल्म के संग्रहण में सरकार की कोई रुचि नहीं रही. साथ ही वृहद समाज भी उदासीन ही रहा

सिनेमा के वरिष्ठ अध्येता मनमोहन चड्ढा ने हाल में छपी अपनी किताब- ‘सिनेमा से संवाद’ में नोट किया है कि आधुनिक हिंदी भाषा-साहित्य और भारतीय सिनेमा का विकास लगभग साथ-साथ हुआ. उन्होंने सवाल उठाया है कि जहाँ साहित्य समीक्षा और आलोचना की एक सुदीर्घ परंपरा बन गई वहीं हिंदी में सिनेमा पर सुचिंतित विमर्श क्यों नहीं हो पायाक्यों हम सिनेमा के धरोहर को सहेजने को लेकर तत्पर नहीं हुएउल्लेखनीय है कि मूक फिल्मों के दौर में भारत में करीब तेरह सौ फिल्में बनींजिसमें से मुट्ठी भर फिल्में ही आज हमारे पास है. ‘नेशनल फिल्म आर्काइव’ के निदेशक रहे सुरेश छाबरिया भारत की मूक फिल्मों को ‘अ लॉस्ट सिनेमैटिक पैराडाइज’ कहते हैं. उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘लाइट ऑफ एशिया- इंडियन साइलेंट सिनेमा (1912-34)’ में भारत में बनी मूक फिल्मों का विस्तार से जिक्र किया है. बहरहालबॉलीवुड का ऐसा दबदबा रहा कि हिंदी भाषी दर्शकों के सरोकार क्षेत्रीय सिनेमा से नहीं जुड़े. हाल में मलयालमतमिल आदि भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की सफलता को छोड़ दें तो बहुत कम हिंदी भाषी सिनेमा प्रेमी और अध्येता क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में रुचि रखते हैं. 

कन्यादान’ फिल्म में मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की भी प्रमुख भूमिका थी. फिल्म निर्माण के दौरान मुंबई प्रवास को अपनी डायरी ‘कन्यादान फिल्मक नेपथ्य कथा’ में उन्होंने नोट किया है. वे लिखते हैं: ‘कन्यादान फिल्मक एक बड़का आकर्षण इ जे भारतक विभिन्न भाषा मैथिलीक आंगन में एकत्र भ गेल अछि. हिंदीउर्दूबंगलामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदिक कलिका सब जेना मैथिलीक एक सूत्र में गथा क माला बनि गेल हो (कन्यादान फिल्म का एक बड़ा आकर्षण यह है कि भारत की विभिन्न भाषा मैथिली के आंगन में एकत्र हुई है. हिंदीउर्दूबांग्लामराठीगुजरातीपंजाबीमगहीभोजपुरी आदि कलियाँ सब जैसे एक सूत्र मे गूँथ कर माला बन गई हो). मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ का महत्व इस बात में भी निहित है कि किस तरह देश के विविध भाषा-भाषी ने मैथिली में फिल्म संस्कृति की शुरुआत की थी. 

मराठीबांग्लाअसमियाभोजपुरी सहित भारत में करीब पचास भाषाओं में फिल्में बनती हैं. इन भाषाओं में बनने वाली फिल्मों में देश के विभिन्न भागों के लोग एक-दूसरे से जुड़ते रहे हैंएक दूसरे की विविध भाषा-संस्कृति से परिचित होते रहते हैं. सही मायनों में हिंदी सिनेमा के विकास का रास्ता क्षेत्रीय सिनेमा से होकर ही जाता है. पिछले दिनों मैथिली में बनी अचल मिश्र की फिल्म ‘गामक घर’ (गाँव का घर) की खूब चर्चा हुईपर लोग मैथिली सिनेमा के इतिहास से अपरिचित ही रहे. यदि ‘कन्यादान’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्मों के धरोहर को सहेजने के प्रयास हुए होते तो शायद ऐसा नहीं होता.

 (हंस पत्रिका, अप्रैल 2022, 68-71, में प्रकाशित)

Tuesday, April 26, 2022

पीढ़ियों के साथ संवाद करती श्याम बेनेगल की फिल्में

पिछले दिनों आलिया भट्ट ने कहा कि गंगूबाई काठियावाड़ी’ के किरदार की तैयारी के दौरान  उन्होंने मंडी फिल्म देखी थी. वर्ष 1983 में रिलीज हुई श्याम बेनेगल निर्देशित इस फिल्म में आलिया भट्ट की माँ सोनी राजदान एक सेक्स वर्कर की भूमिका में है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित श्याम बेनेगल 87 वर्ष की उम्र में आज भी सक्रिय हैं और नई पीढ़ी के साथ उनका संवाद कायम है. 

सिनेमा पीढ़ियों को आपस में जोड़ती हैंहाल ही में बेनेगल ने मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन फिल्म  निर्देशित किया है. ऐतिहासिकजीवनीपरक विषयों के फिल्मांकन में उन्हें महारत हासिल है. वे कहते हैं कि ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों में एक निश्चित मात्रा में वस्तुनिष्ठता का होना जरूरी है. साथ ही वे फिल्मकारों की इतिहास के प्रति जिम्मेदारी पर जोर देते हुए आगाह करते हैं कि बिना वस्तुनिष्ठता के फिल्म प्रोपगेंडा बन जाती हैकश्मीर फाइल्स फिल्म के संदर्भ में इस कथन का महत्व बढ़ जाता है.

बांग्लादेश के जनक और बंगबंधु के नाम से चर्चितबांग्लादेश के प्रथम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रीशेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान (1920-1975) मुजीब-द मेकिंग ऑफ ए नेशन फिल्म के केंद्र में हैं. पिछले साल उनकी जन्मशती मनाई गई और बांग्लादेश ने भी आजादी के पचास वर्ष पूरे किए. बेनेगल कहते हैं कि मुजीब इस उपमहाद्वीप के बेहद खास शख्सियत थेजिन्होंने एक नए राष्ट्र को जन्म दिया. उनकी कहानी रोचक है. खुद वे बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे.’ क्या यह फिल्म उनकी द मेकिंग ऑफ महात्मा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस’ के करीब हैवे कहते हैं कि चूँकि यह भी एक ऐतिहासिक जीवनीपरक फिल्म हैइस लिहाज से इसे हम गाँधी और बोस फिल्म के नजदीक कह सकते हैं. हालांकि वे जोड़ते हैं कि शेख मुजीब की पृष्ठभूमि गाँधी या नेहरू की तरह नहीं थी. वे धनाढ्य या जमींदार नहीं थे. वे एक काम-काजी शख्स थे और मध्यवर्ग से ताल्लुक रखते थे. गौरतलब है कि इसी कड़ी में जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर आधारित बेनेगल की भारत एक खोज सीरिज भी हैजो उन्होंने दूरदर्शन के लिए बनाई थी.

 

वर्ष 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के ज्यादातर सदस्यों के साथ हत्या कर दी गई थी. शेख मुजीब के भारतीय नेताओं के साथ मधुर संबंध थे. इस फिल्म को भारत और बांग्लादेश की सरकार का सहयोग प्राप्त है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश-दुनिया में जिस तरह आज संघर्ष दिखाई पड़ रहा हैसिनेमा के माध्यम से दो राष्ट्रों के नजदीक आने की पहल स्वागत योग्य है. सिनेमा के इतिहास में इस तरह के उदाहरण बहुत कम ही मिलते हैं. पचास साल पहले बनी ऋत्विक घटक की फिल्म तिताश एकटि नदीर नाम’ (1973) अपवाद ही कही जाएगी जो मुजीब’ फिल्म की तरह ही भारत और बांग्लादेश सरकार के संयुक्त परियोजना का हिस्सा थी.

मुजीब फिल्म की शूटिंग भारत और बांग्लादेश में हुई है. बांग्लादेश के कलाकार अरिफिन शुभो ने मुजीब का किरदार निभाया है. बेनेगल कहते हैं कि फिल्म निर्माण के जरिए आप सतत रूप से कुछ सीखते हैं. आप अपने आस-पड़ोसलोगों और देश के बारे में जानते हैं. सितंबर के आखिर में इस फिल्म के रिलीज होने की संभावना है. यह फिल्म शेख मुजीबुर्रहमान के जीवन को संपूर्णता में चित्रित करती है.

श्याम बेनेगल की फिल्मों का दायरा काफी व्यापक और विविध रहा है. समांतर सिनेमा के दौर के फिल्मकारों मसलनमणि कौलकुमार शहानी आदि से उनकी फिल्में अलग हैं. मुख्यधारा से अलग, समीक्षकों ने उनकी फिल्मों को मध्यमार्गी कहा. उनकी फिल्में आर्थिक रूप से भी सफल रही. साथ ही उन्होंने बॉलीवुड को कई बेहतरीन अदाकार दिए हैं. एनएसडीएफटीआईआई से प्रशिक्षित नए अभिनेताओं के लिए उनकी फिल्मों ने एक ऐसा स्पेस मुहैया कराया जहाँ उन्हें प्रतिभा दिखाना का भरपूर मौका मिला. उल्लेखनीय है कि बेनेगल की पहली फिल्म अंकुर (1974) से ही शबाना आजमी ने फिल्मी दुनिया में कदम रखा था. मंडी’ फिल्म से हमने बात शुरु की थीइस फिल्म में शबाना आजमी, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाहओम पुरीपंकज कपूरनीना गुप्ताइला अरुणअमरीश पुरीकुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों को परदे पर एक साथ दिखना किसी आश्चर्य से कम नहीं!

 

श्याम बेनेगल की फिल्मी यात्रा के कई चरण हैं. पिछली सदी के 70 के दशक में अंकुर’, ‘निशांत’, ‘भूमिका जैसी फिल्में जहाँ सामाजिक यथार्थ और स्त्रियों की स्वतंत्रता के सवाल को समेटती हैवहीं मम्मो’, ‘सरदारी बेगम’, ‘जुबैदा जैसी फिल्में मुस्लिम स्त्रियों के जीवन को केंद्र में रखती है. इस बीच उन्होंने जुनूनत्रिकाल जैसी फिल्म भी बनाई जो इतिहास को टटोलती है. फिर बाद में बेनेगल ऐतिहासिक जीवनीपरक फिल्मों की ओर मुड़े. पिछली सदी में जहाँ एक निश्चित अंतराल पर उनकी फिल्में आती रहींवहीं नई सदी में यह रफ्तार धीमा पड़ा है. वर्ष 2010 में रिलीज हुई वेल डन अब्बा के बारह वर्ष के बाद मुजीब’ आ रही है. बातचीत में बेनेगल टीवी और ओटीटी प्लेटफार्म के संदर्भ में एक वैकल्पिक स्पेस के उभार को रेखांकित करते हैं.

नई सदी में सिनेमा निर्माण और दृश्य संस्कृति में काफी बदलाव आया है. इसे बेनेगल भी स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं कि सिनेमा काफी बदल गया है. जरूरी नहीं कि सिनेमा देखने के लिए हम सिनेमाघर ही जाएँ. ज्यादातर लोग टेलीविजन पर ही फिल्म देखते हैं.’ ऐसे में सिनेमा का क्या भविष्य हैबेनेगल कहते हैं कि सिनेमा का भविष्य तो हैपर आवश्यक नहीं कि हमने जैसा सोचा था वैसा ही हो! बहरहालफिलहाल हम वर्तमान की बात करें. आज भी सिनेमा को लेकर बेनेगल में एक युवा फिल्मकार की तरह ही उत्साह है. समांतर सिनेमा के पुरोधा की रचनात्मक सक्रियता हमारे लिए आश्वस्तिपरक है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, April 24, 2022

The More Propaganda Your Film has, the Less Valuable it Will be’—Shyam Benegal on The Kashmir Files


Renowned filmmaker and Dadasaheb Phalke award-winner Shyam Benegal talks about his upcoming biopic on the founding father of Bangladesh, Sheikh Mujibur Rahman, and other issues.

Arvind Das

 

24 Apr 2022

 

Noted director, screenwriter, and documentary filmmaker Shyam Benegal has been working on a biopic, Mujib: The Making of a Nation, on ‘Bangabandhu’ Sheikh Mujibur Rahman. Filmed in India and Bangladesh, it is due to release this year. Last month, Benegal released the poster of his film at the National Film Development Corporation (NFDC) in Mumbai. Born in 1934, Benegal is a pioneer of parallel cinema in India and has made numerous masterpieces over his fifty-year career. Arvind Das spoke to him about his upcoming movie, the role of cinema and filmmakers in India. Edited excerpts:

You have made films for fifty years. You are 87, yet you go to the office every day. Why? What keeps you going?

It is work. Work keeps me going. Currently, I am finishing a big film on Sheikh Mujibur Rahman. It is a biographical film that will probably be released in late September.

Earlier, you made movies about Mahatma Gandhi and Subhash Chandra Bose. How is the film on Mujibur Rahman different?

It is a historical biography, very much like ‘The Making of the Mahatma’ or ‘Netaji Subhash Chandra Bose: The Forgotten Hero’. It is about an important person from our subcontinent. Sheikh Mujib was a man who created a new nation—Bangladesh. His is a very interesting story, and he was a fascinating person too. He was not from a well-to-do family. He did not have a background like Jawaharlal Nehru’s or Gandhi’s. Nehru was the son of a very famous lawyer; his family was distinguished. Mahatma Gandhi belonged to a family of diwans in Saurashtra. Most political figures have come from such backgrounds, but Sheikh Mujib was from a very simple location. He was a working man, meaning, for instance, if Nehru decided he had no need for work, he already had a particular background, his father’s standing in the society, and lots of money. But Sheikh Mujib came from a middle-class family—not upper-middle-class—he did not have lots of lands or a zamindari.

This film is a collaborative project; could you share some details?

Yes, it is a collaborative effort between the Indian and Bangladesh governments. Recently, we had the 50th birth anniversary of Bangladesh and the 100th birth anniversary of Sheikh Mujib. By the time we started making the film, it was already late, so the film could not be part of those celebrations.

In the seventies, you made Ankur, Nishant, Manthan, and then came Mammo, Sardari Begum and Zubeida in later decades. You have directed biographical films too. It has been quite a long journey, covering many subjects. What meaning does this range have for you?

Each film is a perpetual learning process. Making a film is like learning more about your own surroundings, your own people, your own country. It is a process of educating yourself while making films.

Many of your films revolved around social issues. Once, you said, cinema cannot change society, but it can certainly be a vehicle for change. Do you still believe that?

Of course, but what films can [also] do is give you insight. You may not have to learn too much! What cinema does is give you an insight, not just about yourself but the environment, your background; it gives insights into your country, your history, and so much more.

You were also a Member of Parliament. We see conflict and violence all around us today. What role do you see cinema play in contemporary society? For example, the recent movie The Kashmir Files has been very polarising

See that is the problem. Films have a great amount of influence, and they also play a role in shaping your thinking about the world. I have not seen ‘The Kashmir Files’, but I have heard [about it]. While making films, you [a filmmaker] have one responsibility—towards history. The more propaganda your film has, the less valuable it will be. Fact is, you can use films as propaganda, too. But when you are making a feature film dealing with history, you must have a certain amount of objectivity. Without that objectivity, the movie becomes propaganda.

Through ‘parallel cinema’, you brought many good actors into the Bombay film industry. You discovered Shabana Azmi, and she once said you are a reluctant guru! Why do you think she considered you hesitant? 

Shabana was a trained actor. I feel flattered that she thinks I had a role to play, but actually, in reality, she got opportunities because of the kind of roles there were, for which I found her suitable. She made the most of the opportunities and won laurels for her performances in ‘Ankur’, ‘Nishant’, ‘Mandi’, and other films. It was her innate ability. She is very individualistic. Whatever role she played, she made it her own. She owned her roles!

What do you have to say about the current state of cinema?

Cinema has changed a lot. Today, you do not necessarily go to the cinema hall to watch a film, because the whole pattern is different. Due to the proliferation of television, most people watch movies on TV now. And with the OTT platforms, you have an alternate space that has taken over from cinema. You have to make adjustments for different perceptions. So, when you make a film, you wish to see it in a cinema hall on a large screen. But today very few films are seen in cinema halls. You are likely to watch it on television. And that has affected the way filmmakers are likely to make films.

So what do you think is the future of cinema?

Well, we are looking at it [the future]! I don’t know what will be the future of cinema! Cinema has a future but not necessarily as we may have thought it would have. Technology and history both have a role in how cinema gets shaped. The form of cinema itself gets changed. Also, the way you are going to see films—that, too, will impact how we make films in the future.

(https://www.newsclick.in/)

Sunday, April 17, 2022

साहित्य व सिनेमा के बीत संवाद: Drive My Car


यूसुके हमागुची निर्देशित जापानी भाषा की फिल्म ड्राइव माय कारको पिछले दिनों सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फिल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला. यह फिल्म रचनात्मक जीवन, प्रेम, सेक्स, विवाहेत्तर संबंध जैसे जटिल विषय को सहजता से सामने लेकर आती है. प्रसिद्ध जापानी रचनाकार हारुकी मुराकामी की इसी नाम से लिखी कहानी पर फिल्म आधारित है, हालांकि उनकी कुछ अन्य कहानियों, जो कि मेन विदाउट वीमेनमें संकलित है, की झलक भी मिलती है. बावजूद इसके फिल्म महज कहानी को रूपांतरित नहीं करती. सिनेमा का सम्मोहन हमें तीन घंटे तक बांधे रखता है. कार में यात्रा के दौरान टाइम और स्पेसको जिस खूबसूरती से निर्देशक ने फिल्माया है और संपादित किया है वह कहीं से फिल्म को बोझिल नहीं बनाता है. बिना किसी अवरोध और नाटकीयता के फिल्म एक प्रवाह में आगे बढ़ती जाती है.

फिल्म काफूकू (हिदेतोशी निशिजिमा) और ओटो (रिका किरिशिमा) दंपत्ति के इर्द-गिर्द है. दोनों रंगमंच-टीवी-फिल्म की दुनिया से जुड़े  हैं. ओटो के कई पुरुषों के साथ संबंध हैं, जिसे काफूकू जानता है. पर इस बात को लेकर वह कभी ओटो से कोई सवाल नहीं करता. ओटो की अचानक मौत हो जाती है. कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं. काफूकू अकेला हो जाता है. दो साल बाद हिरोशिमा में एक थिएटर समारोह में चेखव के नाटक अंकल वान्याके निर्देशन का उसे प्रस्ताव मिलता है, जहाँ उसे ड्राइवर के रूप में एक युवती मिसाकी (टोको मिउरा) मिलती है. उससे  वह अपने मन की व्यथा साझा करता है. इस क्रम में हम एक रिश्ते को उभरते देखते हैं. मिसाकी की कहानी से रू-ब-रू होते हैं. यहां फिल्म दुख, संत्रास, अपराध बोध जैसी मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती है. 

हम व्यक्तित्व के उस गोपनीय कोने में दाखिल होते हैं जहां पर प्रवेश वर्जित है. आत्मा पर लगे खरोंच को जिस खूबसूरती से काफूकू का किरदार उकेरता है, सवाल है कि क्या वह  'वान्या' की तरह ही अभिनय कर रहा है? क्या जीवन एक नाटक है, जहाँ हम सब अभिनय करते हैं?

इस फिल्म की खासियत यह है कि एक साथ ही यह साहित्य, सिनेमा और नाटक के बीच आवाजाही करती है. मुराकामी की कहानियों में जो फलसफा है उसे निर्देशक ने एक नई दृष्टि से परदे पर उतारा है. 

इन वर्षों में कोई भी भारतीय फिल्म ऑस्कर पुरस्कार नहीं जीत पाई है. करीब बीस साल पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म श्रेणी में लगानसे उम्मीद जगी थी, लेकिन उसके बाद कोई भी फिल्म अंतिम दौर तक भी नहीं पहुँच पाई.  क्या भारतीय फिल्में ड्राइव माय कारकी तरह साहित्य का सहारा नहीं ले सकती? ऐसा नहीं कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य का अभाव हो.

उल्लेखनीय है कि ऑस्कर से सम्मानित सत्यजीत रे की फिल्में साहित्यिक कृतियों पर ही आधारित रही हैं. बॉलीवुड की बात करें तो यहाँ पर यह नोट करना उचित होगा कि साहित्य पर फिल्म बनाने की शुरुआत प्रेमचंद की कृति सेवासदनपर बनी फिल्म (1934) के साथ ही शुरु हो गई थी, लेकिन सिनेमा पर बाजार का दबाव ऐसा रहा कि फिल्मकार साहित्य से संवाद करने से परहेज ही करते रहे. 

Friday, April 15, 2022

टीआरपी के चक्र में टीवी


बीस साल पहले इसी महीने हम
  भारतीय जनसंचार संस्थानदिल्ली से पत्रकारिता में प्रशिक्षण लेकर निकले थे. उन्हीं दिनों बाजार में कई नए निजी टेलीविजन समाचार चैनलों के आने की संभावना थीकुछ ने चौबीसों घंटे अपना प्रसारण शुरू कर दिया था. नौकरी को लेकर हम उत्साहित थेपर हम युवा साथियों के मन में टेलीविजन चैनलों की विषय-वस्तुमनोरंजनयुद्धोन्मादआक्रामकता आदि को लेकर अच्छे भाव नहीं थे. अमेरिका में हुए 9/11 आतंकी हमले,  भारतीय संसद पर हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर आया था. उसी दौर में इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय मीडिया में प्रचलन में आए थे और एक समुदाय विशेष की स्टीरियोटाइप छवि टीवी पर दिखाई जा रही थी. बीस साल के बाद भी हमारे भाव बदले नहीं हैंफर्क इतना है कि हमें उस वक्त कहा जाता था कि अभी संक्रमण काल (transition period)’ है जो कुछ महीनों में ठीक हो जाएगाजबकि अब कहते हैं कि टेलीविजन चैनलों के लिए यह संकट काल है. अनायस नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से देश के चर्चित पत्रकार-एंकररवीश कुमारदर्शकों से टेलीविजन चैनल नहीं देखने की बार-बार अपील करते हैं!

ऐसा नहीं कि दस साल पहले कोई अच्छी स्थिति थी. वर्ष 2013 में वरिष्ठ पत्रकार-एंकर करण थापर ने एक आयोजन में कहा था: “टीवी चैनल दरअसलटीआरपी की दौड़ में लगे हैं. बीबीसी स्वायत्त है. वह विज्ञापन के लिए नहीं भागता. अगर आप ‘न्यूज वैल्यू’ से अलग होते हैं तो आपकी गुणवत्ता पर असर पड़ता है और यह पत्रकारिता नहीं है.” पिछले दिनों टीआरपी घोटाले की मीडिया में खूब चर्चा हुई थी. सबकी खबर लेने और सबको खबर देने वाले, सत्य तक पहुँचने की बात करने वाले, लोकतंत्र का खुद को प्रहरी मानने वाले पत्रकार खुद खबर बन गए थे. ऐसे में लोगों के मन में टीआरपी को लेकर सहज जिज्ञासा थी कि टीआरपी का इतिहास क्या हैयह कैसे तय होती हैटीआरपी से कैसे पत्रकारिता प्रभावित होती है? आदि.  वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मुकेश कुमार की हाल ही में प्रकाशित किताब टीआरपीमीडिया मंडी का महामंत्र’ में इन्हीं सवालों का सहजता से जवाब दिया गया है. समकालीन भारतीय समाज और मध्यवर्ग के जीवन में मीडिया की केंद्रीयता हैपर मीडिया के विभिन्न आयामोंविमर्श को लेकर शोधपरक पुस्तकों का सर्वथा अभाव है. यह किताब इस कमी को पूरा करती है.

गौरतलब है कि मुकेश कुमार ने टीआरपी को लेकर पीएचडी शोध कार्य किया है. इसी विषय पर वर्ष 2015 में ‘टीआरपीटीवी न्यूज और बाजार’ (वाणी प्रकाशन) नाम से एक किताब उन्होंने लिखी थी और इन्हीं सवालों को टटोला था. ‘टीआरपीमीडिया मंडी का महामंत्र’ (राजकमल प्रकाशन) टीआरपी घोटाले के संदर्भ में इन्हीं मुद्दों की नए सिरे से पड़ताल करती है.  जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में विज्ञापन (32 हजार करोड़) और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट के आपसी रिश्ते को विश्लेषित किया गया है. टीवी समाचार उद्योग में काम करने के अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं- न्यूज चैनलों में टीआरपी खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं मानी जाती है.” वे इस किताब में टीआरपी को बाजार का औजारहथियार कहते हैं. उनके विश्लेषण के केंद्र में मुख्यत: हिंदी के समाचार चैनल ही हैं.

सवाल है कि इन बीस वर्षों में हिंदी के टेलीविजन समाचार चैनल की प्रमुख प्रवृत्ति क्या रहीजनसंचार के प्रमुख माध्यम होने के नाते क्या इनके सरोकार जन से जुड़ेक्या सूचनाओंविमर्शों के मार्फत इन्होंने जन को सशक्त किया ताकि लोकतंत्र में एक सजग नागरिक की भूमिका निभाने में इन्हें सहूलियत होउदारीकरण (1991), निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद खुली अर्थव्यवस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर वह शुरु से ही कारपोरेट जगत का हिस्सा रहा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेहहाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ हैलेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं. मुकेश कुमार लिखते हैं: “वास्तव में बाजारटीआरपी और पत्रकारिता के बीच का असली खेल शुरु हुआ चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों के आने के बाद. सन 2000 के आसपास यह दौर शुरु हुआ. वर्तमान में देश के विभिन्न हिस्सों में लगे करीब 44 हजार मीटर के जरिए रेटिंग के क्षेत्र में एक बड़ा नाम बार्क (Broadcast Audience Research Council) नामक संस्था  टीआरपी देने का काम कर रही है. इस सैंपल को आधार बना कर वह करीब 85 करोड़ दर्शकों (20 करोड़ टीवी-घर) तक पहुँचने, उनके पसंद-नापसंद को जानने का यह दावा करती है और इसी आधार पर चैनलों के बीच विज्ञापनों का बंटवारा होता है. हालांकि टीआरपी घोटाले से पहले और घोटाले के बाद, सैंपल साइज, बार्क की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं. घोटाले की जाँच के दौरान बार्क के पूर्व सीइओ, पार्थो दासगुप्ता की गिरफ्तारी हुई. पुलिस के मुताबिक दासगुप्ता ने माना था कि रिपब्लिक टीवी के संपादक-एंकर अर्णब गोस्वामी ने रेटिंग बढ़वाने के लिए उन्हें लाखों रुपए रिश्वत दिए. इस किताब में लेखक ने बार्क की रेटिंग प्रणाली पर वाजिब सवाल उठाया है.


यह नोट करना समीचीन है कि भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. टेलीविजन की वजह से खबरों की पहुँच गाँव-कस्बोंझुग्गी-झोपड़ियों तक हुई. पब्लिक स्फीयर का विस्तार हुआसाथ ही एक नेटवर्क का निर्माण भी. जो केंद्र से दूर थे वे नजदीक आए. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. लेखक इस किताब में टेलीविजन चैनलों की ताकत पर अपनी नजर नहीं डालते हैं. टेलीविजन दृश्य-श्रव्य माध्यम हैजो तस्वीरों-आवाजों के माध्यम से संदेश को दर्शकों तक पहुँचाती है. टेलीविजन के संदेशों को ग्रहण करने के लिए साक्षर या पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है. जाहिर है भारत जैसे देश में जहाँ आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैंटेलीविजन अखबारों का पूरक बन कर उभरा है. लेकिन यदि मीडिया को पहले ही मंडी मान कर आप विश्लेषण करेंगे तो निष्कर्ष पूर्व-निर्धारित ही होंगे! रेमंड विलियम्स ने अपनी चर्चित किताब टेलीविजन में टेलीविजन को तकनीकी और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में देखा-परखा है. टेलीविजन चैनलों की जो स्थिति है, उसका जिस तरह से पिछले दो दशकों में विकास हुआ है क्या वह हमारे उपभोक्तावादी समाज पर भी एक टिप्पणी नहीं है? विश्लेषकों का मानना है कि  पूंजीवादी व्यवस्था के केंद्र में उपभोग की संस्कृति है. हमारे यहाँ दर्शकों की पसंद, इच्छा को लेकर अकादमिक शोध की पहल नहीं दिखती. ऐसे में इस निष्कर्ष तक पहुँचना कि ये महाझूठ है कि दर्शकों के पास विकल्प हैं मगर वे उनका इस्तेमाल नहीं करते’ सरलीकरण ही कहा जाएगा. मीडिया का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक विकास से अलहदा नहीं होता. हिंदुत्ववादी प्रवृत्तियों के उभार का सारा दोष हम मीडिया के मत्थे मढ़ कर छुट्टी नहीं पा सकते.

इस पर काफी चर्चा हो चुकी है कि हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा हैजिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होताबल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मुकेश कुमार ठीक ही इसे नोट करते हुए अपनी किताब में लिखते हैं: टीआरपी के चक्कर में ही बहस पर आधारित कार्यक्रमों में चीख-चिल्लाहटलड़ाई-झगड़ेगाली-गलौज यहाँ तक की मारपीट आवश्यक तत्त्व बन गएक्योंकि एक अनपढ़ देश में ऐसी चीजों की दर्शक संख्या अधिक होती है.”  यदि हम मान लें कि हिंदी के दर्शक अनपढ़ हैंपर अंग्रेजी के दर्शक तो पढ़े-लिखे माने जाते हैंफिर क्यों अंग्रेजी चैनलों के न्यूज रूम में भी आज वही चीख-चिल्लाहट सुनाई पड़ती है? क्यों अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार अपने चैनलों पर ऐसी बहस करते हैं जो सौहार्द की जगह वैमनस्य को बढ़ावा देता हैजिसका तथ्य और सत्य से कोई नाता नहीं रहताक्यों ट्विटर पर सांप्रदायिक टीका-टिप्पणी वे करते दिखते हैं? क्या अंग्रेजी के समाचार चैनल हिंदुत्व के मुद्दे पर हिंदी चैनलों की राह पर नहीं हैक्या उग्र राष्ट्रवाद का स्वरूप अंग्रेजी और हिंदी के चैनलों में कमोबेश एक जैसा नहीं हैआज क्या दोनों के बीच एक खंडित लोक (split public) का स्वरूप वही है जिसकी चर्चा पिछली सदी में 90 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन के संदर्भ में अरविंद राजगोपाल अपनी किताब में करते हैं. मुझे लगता है कि यह विभाजक रेखा धुंधली हुई हैसत्ता के करीब पहुँचने की ललक में अंग्रेजी के तथाकथित पढ़े-लिखे एंकर-पत्रकार ज्यादा महीन ढंग से काम करते हैं.  एनडीटीवी ने पूर्व पत्रकार संदीप भूषण ने द इंडियन न्यूजरूम (2019) में इसकी पड़ताल की है.


सवाल यह भी है क्या सनसनी इस माध्यम की विशेषता तो नहीं? टीवी के पास महज एक परदा है जहाँ पर उसे सब कुछ दिखाना होता हैइस मामले में वह अखबारों या मोबाइल तकनीकी (ऑनलाइन मीडिया) से अलग है. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरिकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’ क्या  यह हमारे समाचार चैनलों के सच लिए नहीं है?  पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शोसीधे शब्दों मेंमनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षागहन विवेचन या विरेचन का. लेखक टीवी रेटिंग की नई प्रणाली की वकालत अपनी किताब में करते हैंपर क्या उससे समस्या का समाधान संभव है क्योंकि खुद लेखक ने लिखा है-कितनी भी निर्दोष रेटिंग प्रणाली क्यों न स्थापित कर दी जाए, कंटेंट उसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता.” जाहिर है ऐसे में महज टीआरपी के कोण से हम टेलीविजन की संस्कृति का विश्लेषण नहीं कर सकते.

भारत में कारोबारी मीडिया और सत्ता के आपसी सांठगांठ पर कम बातचीत होती है, इस किताब में भी इस मुद्दे को महज छुआ गया है जिस पर विस्तृत शोध की अपेक्षा है. कुछ अपवादों को छोड़ कर आजाद भारत में सत्ता के इशारे पर मीडिया हमेशा काम करता रहा है. आपातकाल में अधिकांश मीडिया घराने ने घुटने टेक दिए थे. मुकेश कुमार ने एक जगह लिखा है कि पहला हमला बेशक बाजार का था जो टीआरपी के जरिए हुआमगर दूसरा आक्रमण राजनीति की ओर से हुआ है और इसकी शुरुआत छह साल पहले हुई है जो कि अभी जारी है.’ पर लेखक इसके विस्तार में नहीं जाते कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मीडिया जगत में किस तरह से परिवर्तन आया है. एक रपट की तरह वे लिपिबद्ध करके छुटकारा पा लेते हैं, जबकि उनके पास पत्रकारिता का लंबा अनुभव है. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे वे परख सकते थे. इसी लेख में वे नोट करते हैं कि हमारा मीडिया सवर्णवादी हैबहुसंख्यवादी है.’ क्या पिछले छह साल में ऐसा हुआ हैक्या इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं जो भारत में टेलीविजन चैनलों के कर्ता-धर्ता रहे हैंलेखकजिन्हें कई चैनलों को शुरु करने का श्रेय हैंयदि अपने अनुभव के आधार पर इस संदर्भ में कुछ लिखते तो ज्यादा तथ्यपरक और प्रभावी होता- इथनोग्राफिक स्टडी की तरह. अंत मेंलेखक शोधार्थी रहे हैंऐसे में इस किताब में एक भी संदर्भनोटफुटनोट का उल्लेख नहीं होना खलता है. 

(समालोचन के लिए, आजकल पत्रिका, अगस्त, पेज 55-56)