Sunday, February 21, 2016

जेएनयू में बाल भी बांका न कर पाएगी शासन की बंदूक

 यह जेएनयू
नवल-नवेलियों का 
उन्मुक्त लीला-प्रांगण
यह जेएनयू
असल में कहा जाए तो कह ही  डालूँ
बड़ी अच्छी है यह जगह
बहुत ही अच्छी
और क्या कहूँ…
सोचता हूँ मैं भी ले लूँ दाखिला
‘टिब्बेटियन’ लेने पर क्यों कोई एतराज करेगा
डाक्टर विमला प्रसाद
डाक्टर नामवर…
डाक्टर मुजीब…
ये सब तो रिकमेंड करेंगे ही
तब नए सिरे से
उपनयन संस्कार होगा मेरा
छात्रावास में कमरा मिल ही जाएगा
वृत्ति की व्यवस्था तो होगी ही
शाबाश! बेटा अर्जुन नागा
सोचता ही जा रहा हूँ
आखिर क्या रखा है इसमें
दरअसल यह जगह है बड़ी शानदार
जे.एन.यू. जे.एन.यू. जे.एन.यू
जब मूल बांगला में बाबा नागार्जुन ने फरवरी 1978 में इस कविता को लिखा था तब आपातकाल की याद ताज़ा थी. एक तरह से यह जेएनयू के छात्रों के लिए उनकी तरफ से एक तोहफा था.
असल में, जेएनयू आपातकाल के दंश को झेल चुका था. पुलिस कई छात्रों को कैंपस से उठा ले गई थी. आपातकाल के दौरान जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष और वर्तमान में एनसीपी के सांसद देवी प्रसाद त्रिपाठी को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था.
फिर भी जेएनयू उस दौर में तानाशाही, अधिनायकवादी शासन के प्रतिरोध का केन्द्र बना रहा.
पिछले दिनों जेएनयू के वर्तमान छात्रसंघ के अध्यक्ष, सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ के नेता, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और कैंपस में पुलिस की मौजूदगी ने जेएनयू के पुराने छात्रों और शिक्षकों को आपातकाल के दौर की याद दिला दी है. पिछले दिनों जब मैंने गंगा ढाबा पर दिल्ली पुलिस के कुछ जवानों को समोसे खाते और चाय पीते हुए देखा तो मेरे लिए यह आघात से कम नहीं था. इसी गंगा ढाबा के एक अंधेरे कोने में मैंने वर्षों रमाशंकर विद्रोही को अपनी ओजपूर्ण कविता गाते सुना है. मेधा पाटेकर को बहस करते देखा है. छात्रसंघ के प्रेसिडेंट डिबेट के दौरान झेलम लॉन से उमड़ती हुई भीड़ देखी है.

कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और उन पर लगे देशद्रोह के आरोप से छात्रों, शिक्षकों और पूर्व छात्रों में रोष है. पिछले दिनों से कैंपस के अंदर छात्रों और शिक्षकों का जिस तरह एकजुट होकर सरकार की इस कार्रवाई का शांतिपूर्ण विरोध हो रहा है वह जेएनयू के इतिहास में अभूतपूर्व है.
वर्षों से मीडिया में एक जुमला चलता रहा है कि जेएनयू वामपंथ का गढ़ है. यह सरासर झूठ है. जेएनयू किसी भी अन्य विश्वविद्यालय की तरह एक ऐसा लोकतांत्रिक स्पेस है जहाँ सभी विचारधारा, मत के लोग एक- साथ उठते-बैठते, पढ़ते-लिखते, बहस-मुबाहिसा करते रहते हैं. जहाँ विरोध, प्रतिरोध (dissent) को सामंती मानसिकता के तहत अन्य विश्वविदयालयों में तौहीन माना जाता है, वहीं जेएनयू को शुरु से स्वीकार्य है. मेरे गुरु पुरुषोत्तम अग्रवाल एक संस्मरण का जिक्र अक्सर करते रहते थे कि जब वे छात्र नेता थे तब अपने गुरु नामवर सिंह से उलझते रहते थे. पर उनसे पढ़ना और सीखना जारी रहा. इसी तरह हाल ही में रोमिला थापर ने एक इंटरव्यू में माना है कि कई बार छात्रों ने उनका घेराव किया पर पुलिस बुलाने की नौबत कभी नहीं आई. आपसी बातचीत से सारे मसले सुलझाए जाते रहे.
इंदिरा गाँधी जब 1980 के दौरान विश्वविद्यलय में आई तो उन्हें भी विरोध झेलना पड़ा था और मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री के रूप में कैंपस में आए तो उनका भी स्वागत विरोध से हुआ. लेकिन हिंसा कैंपस के लिए आज भी अनसुनी चीज है.
यहां का लोकतांत्रिक माहौल बनाने में वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसों का बड़ा योगदान है. प्रश्न करने की प्रवृति और वाद-विवाद की संस्कृति यहाँ महज कक्षा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि देर तक होने वाली पब्लिक मीटिगों और ढाबा तक फैली हुई है.
छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के रिश्ते एक खुलेपने को दर्शाते हैं. इनके आवास को एक–दूसरे के करीब बनाया गया है ताकि एक स्वस्थ, सामुदायिक नाता विकसित हो.
छात्र संघ चुनाव के दौरान वामपंथी पार्टियों की बढ़त शुरू से रही है, पर फ्री थिंकर्स, समाजवादी, राष्ट्रवादी, संघियों की मौजूदगी भी यहाँ रही है. छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष आनंद कुमार ने एसएफआई के नेता प्रकाश करात को हराया था. वे उस वक्त समाजवादी विचारधारा से प्रेरित थे. बाद में एबीवीपी और एनएसयूआई के छात्र नेता भी छात्र संघ के अध्यक्ष बने. कम लोगों को पता है कि वर्षों से जेएनयू के अंदर संघ की शाखा लगती रही है, जिसमें संघ की विचारधारा को मानने वाले छात्र और शिक्षक हिस्सा लेते रहे हैं. पिछले 15 वर्षों से कैंपस के अंदर दुर्गापूजा धूमधाम से मनाई जाती रही है और पिछले कुछ साल में महिषासुर की भी पूजा शुरु हो गई है.
मीडिया, खास तौर से भाषाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जो राज्य-सत्ता की विचारधारा से पोषित रहा है और जिसे सत्ता से सवाल करने से परहेज रहा है, वह जेएनयू को एक ख़ास चश्मे से देखता रहा है. यह वही चश्मा है जो एक दौर में संघ के नेता प्रवीण तोगड़िया पहनते थे (आज कल चंदन मित्रा पहन रहे हैं). उन्होंने भी पिछले दशक में कई बार जेएनयू बंद करने के सपने देखे थे! पता नहीं आज कल वे किस जहां में हैं.

पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने में प्रिंट मीडिया की बड़ी भूमिका रही है. वहीं फिलहाल भारत में कुछ खबरिया चैनल अंधराष्ट्रवाद को हवा दे रहा है. कोर्ट में कन्हैया की पेशी के समय जिस तरह से संघी गुंडों ने वकीलों के साथ मिल कर पत्रकारों, जेएनयू के शिक्षकों-छात्रोंको पीटा है, वह अंधराष्ट्रवाद की भयावह परिणति है.
बहरहाल, जेएनयू कोई टापू नहीं है. इसी देश, समाज का हिस्सा है. जाहिर है, उग्र विचार वाले, देश, राष्ट्र के मुद्दे पर लीक से हट कर सवाल करने वाले भी कुछ लोग हमेशा वहाँ मौजूद रहे हैं. विरोधियों के लिए, चाहे वे मुट्ठी भर ही क्यों नहीं हो, जेएनयू की परंपरा में हमेशा से जगह रही है. यदि बीजेपी-संघ के समर्थक एबीवीपी जैसे संगठन मोदी-शाह, प्रशासन के दम पर उन्हें चुप कराने पर आमादा हैं तो यह उनकी हार है. जेएनयू एक विचार है- लोकतांत्रिकता, स्वंतत्रता और बंधुत्व का.
असल में, मोदी सरकार अपने लगभग दो साल के कार्यकाल में सबसे कठिन घड़ी में है. रोहित वेमुला की दुखद मौत से पूरे देश के छात्रों में आक्रोश है. अर्थव्यस्था में उछाल के आंकड़ो (जीडीपी 7.6) पर पिंक पेपर में सवालिया निशान लगाए जा रहे हैं. पठानकोट पर आंतकी हमले के बाद पाकिस्तान के साथ संबंध सुधार की कोशिशें सफल होती दिख नहीं रही. ओआरओपी को लेकर अभी तक सरकार अस्पष्ट है, फलत: सैनिकों में रोष है. जीएसटी बिल रुका पड़ा है, लेबर रिफार्म हो नहीं रहा. कारोबारी नाख़ुश हैं. राज्यों के साथ संबंध में केंद्र की नीति कैसी है, यह अरुणाचल प्रदेश के संकट से साफ ज़ाहिर है. ऐसे में सरकार और उनके मंत्री राष्ट्रवाद, देश भक्ति, देश द्रोह का आजमाया राग अलाप रहे हैं.
क्या ये अनायास है कि पहले संघ का मुख्यपत्र ‘पांचजन्य’अपनी कवर स्टोरी में जेएनयू को ‘दरार का गढ़’ कहता है. कैंपस को हिंदू विरोधी, देश विरोधी मानता है. पुलिस बिना किसी ठोस सबूत के कन्हैया कुमार को देशद्रोह के कानून में हिरासत में लेती है. जबकि फली नारीमन, सोली सोराबजी जैसे देश के जाने-माने न्यायविदों का मानना है कि देश के विरोध में महज लगाए गए नारे देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आते और उन पर देश द्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.
आश्चर्य है कि एक ‘फेक ट्वीट’ के आधार पर देश के गृहमंत्री कहते हैं कि जेएनयू में देश के ख़िलाफ हुई नारेबाजी और अफजल गुरू की बरसी पर सांस्कृतिक कार्यक्रम को पाकिस्तानी आतंकवादी हाफ़िज सईद का समर्थन है! मकबूल भट्ट, अफजल गुरु मामले पर राजनीति और देश को देशभक्ति और देशद्रोह के नाम पर लामबंद करना संघ और बीजेपी की चुनावी रणनीति के लिए भले मुफीद हो, स्वतंत्र चेता नागरिकों के लिए यह खतरे की घंटी है. यदि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में बहस-मुबाहिसा की संस्कृति पर हमला हो रहा है तो यकीन मानिए कि देश में विरोध-प्रतिरोध के ताने-बाने का शीराज़ा बिखरने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. देश की राजधानी के एक कोर्ट परिसर में पत्रकारों, शिक्षकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भारत माता की जय के नारे लगाते वकील और बीजेपी नेता के हमले होते रहे और पुलिस मुँह देखती रह जाए तो इसे हम एक शुरुआती झलक मान सकते हैं.
हैदराबाद विश्वविद्यालय से लेकर जेएनयू तक संघ और उसके छात्र संगठन का modus oprendi एक जैसा है. पहले एबीवीपी किसी अन्य छात्र समूह के तय कार्यक्रम को वाइस चांसलर (जो संघ परिवार के नजदीक होते हैं) से रुकवाते हैं. छात्र समूहों में झड़प होती है.निठल्ला बैठा भाजपा का कोई सांसद पुलिस और शिक्षा मंत्री को शिकायत करता है. पुलिस निर्दोष को पकड़ती है. यह एक तरह से सरकार के हिटलरी फरमान को अमलीजामा पहनाने जैसा है.
नागार्जुन ने इसी तरह के माहौल को देख कर लिखा था:
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
बाल ना बांका कर सकी शासन की बंदूक

( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित) 

Thursday, February 04, 2016

जाना एक लोक कलाकार का: रौदी पासवान

रौदी पासवान एक पेंटिंग दिखाते हुए
पिछले दिनों दस्तकार के संस्थापक लैला तैयबजी के फेसबुक पोस्ट से पता चला कि रौदी पासवान नहीं रहे. मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ. मैंने तुरंत गूगल में उनके मौत की ख़बर ढूंढी. निराशा हाथ लगी. वैसे भी मीडिया के बाज़ार में लोक कलाकारों की क्या क़ीमत है!

मैंने रौदी पासवान के मोबाइल पर फोन किया. फोन उनके बेटे ने उठाया और कहा कि नवंबर में छठ पूजा के खरना’ के दिन ही उनका देहांत हो गया.

रौदी पासवान मिथिला पेंटिंग के एक सिद्ध कलाकार थे. उन्होंने अपनी पत्नी चानो देवी के साथ मिल कर मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र मेंजो अब मधुबनी पेंटिंग के नाम से जाना जाता हैगोदना (tattoo) शैली को स्थापित किया था. उसे विस्तार दिया था. एक नई भंगिमा दी थी.

पिछले साल मैं एक शोध के सिलसिले में मधुबनी के नजदीक, जितवारपुर गाँव उनसे मिलने गया था. इस गाँव में कमोबेश हर घर में लोग पेंटिंग बनाते हैं. प्रसंगवश, मिथिला पेंटिंग के चर्चित नाम सीता देवी और जगदंबा देवी इसी गाँव की थीं.

पिछले कुछ वर्षोंमें मधुबनी जिले के रांटी और जितवारपुर गाँव मिथिला पेंटिंग के गढ़ के रूप में उभरे हैं. और इस वजह से मिथिला पेंटिंग का नाम भौगोलिक इकाई के आधार पर मधुबनी पेंटिंग के रूप में चलन में आ गया. गोकि दरभंगामधुबनी ज़िले के अमूमन हर गाँव और नेपाल के तराई इलाके में यह पेंटिंग पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्रियों के हाथों से सजती रही है. मिथिला के सामंती समाज में इसने स्त्रियों की आजादी और सामाजिक न्याय के नए रास्ते खोले हैं. साथ ही जातियों में बंटे समाज में इस कला से समरसता भी आई है.
चानो देवी

70 के दशक से रौदी पासवान समाज के हाशिए के तबके के जीवन और वे जिस दुसाध समुदाय से आते थे उनके नायकराजा सलहेस के जीवन वृत्त को अपने रंग से रंगते रहे. उन्होंने गोदना कला के मार्फ़त इस कला में वर्षों से रत कायस्थ और ब्राह्मण कलाकारों की मौजूदगी को विस्तार दिया.  उन्होंने चानो देवी को पारंपरिक रूप से स्त्रियों के शरीर पर गोदे गए डिजाइन को काग़ज़ पर उतारने के लिए प्रेरित किया.

गोदना पेंटिंग की शैली कायस्थों की कछनी और ब्राह्मणों की भरनी से इतर है. साथ ही इन शैलियों से प्रेरणा भी लेती रही है. इन पेंटिंग में जीव-जंतुओंपेड़-पौधेआस-पड़ोस के जीवन को तीर और सघन वृत्तों के माध्यम से उकेरा जाता है. कई समकालीन कलाकारों में इस शैली की झलक मिल जाती है.

गोदना पेंटिंग की रेखाओं में एक अनगढ़पन होता हैजो उसे विशिष्ट बनाता है.

मीडिया में भारतीय कलाकारों के अरबों-खरबों की पेंटिंग की बिक्री का गाहे-बगाहे जिक्र मिलता है. पर इनके ख़रीददार कौन हैंभारतीय मध्यवर्ग तक इन्हीं लोक कलाकारों की कला पहुँचती है. इनके ड्राइंग रूम की शोभा इन्हीं से बढ़ती है. पर इस वर्ग को इन कलाकारों की कितनी चिंता है?

रौदी पासवान और चानो देवी ने एक पूरी पीढ़ी को मिथिला पेंटिंग में प्रशिक्षित किया था.  गोदना कला में योगदान के लिए चानो देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया था. वर्ष 2010 में कैंसर से उनकी मौत हो गई थी. उनके परिवार में उनकी पतोहू और बेटे उनकी थाती को संभाले हुए हैं.

परंपरा के साथ समकालीन विषय-वस्तुओं का चित्रण मिथिला पेंटिंग में दिखाई पड़ता है. पर हाल के दिनों में मिथिला पेंटिंग में मास प्रोडक्शन भी बढ़ा हैजिसकी झलक दिल्ली हाट जैसी जगहों पर मिल जाती है. बिचौलिए इस कला के बाज़ार में वर्षों पहले सेंध लगा चुके हैं, जिससे कलाकारों तक उनकी कला का मेहनताना नहीं पहुँच पाता.


इस पेंटिंग ने देश और विदेश में भारतीय लोक कलाजो अपनी महत्ता में समकालीन आधुनिक कला के समकक्ष ठहरती हैको एक नई ऊँचाई दी. मिथिला पेंटिंग के कलाकार गंगा देवीसीता देवीजगदंबा देवीमहासुंदरी देवी को भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री से नवाजा था. लेकिन वर्तमान कलाकारों की सुध किसे हैं!

पिछले दिनों एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हनोवर के मेयर को बौआ देवी की एक पेंटिंग भेंट की थीवहीं दूसरी तरफ दिल्ली स्थित क्राफ्टस म्यूजियम में गंगा देवी के मिथिला शैली में बनाए अदभुत और बहुमूल्य कोहबर’ पेंटिंग को पुर्निर्माण के नाम पर मिट्टी में मिला दिया गया.


सदियों से लोक कला लोक से जीवनशक्ति पाती रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि लोक-चेतना से संपन्न कलाकार अपनी कूची से इसे पोषित करते रहेंगें. सही मायने में रौदी पासवान के प्रति यही श्रद्धांजलि भी होगी.

                                                                  ( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)