Saturday, November 18, 2017

ग्लोबल से लोकल होता बॉलिवुड

90 के दशक में डायस्पोरायानी विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों (एनआरआई) की जिंदगी फिल्मों में पूरे तामझाम के साथ आई। दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘परदेसऔर कभी खुशी कभी गमजैसी फिल्मों ने भारतीय दर्शकों पर जादू किया क्योंकि मध्यवर्गीय समाज भी उनके चरित्रों की तरह समृद्ध होने और विदेश में बसने के सपने देख रहा था। बॉलिवुड की फिल्में पहले भी विदेशों में शूट की जाती थीं लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में हर दूसरी बड़े बजट की फिल्म को बाहर शूट करने पर निर्माता-निर्देशकों का जोर बढ़ा है। ये फिल्में मुख्य रूप से भूमंडलीकरण के बाद उभरे महानगरीय उच्च मध्य वर्ग को केंद्र में रखकर बनाई गईं। इस तरह बॉलिवुड फिल्में ग्लोबलहुईं। करीब एक दशक तक ऐसी फिल्मों की लहर चली लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनका जादू उतार पर है क्योंकि ये एक खास तरह के फॉर्मूले और रूढ़ियों में फंसकर रह गई हैं।
असल में इंटरनेट के बढ़ते प्रसार ने अब बाहरी दुनिया को रहस्य नहीं रहने दिया है। सब कुछ अब सेलफोन पर देखा जा सकता है, इसलिए विदेशी धरती, विदेशी रहन-सहन को देखने का आकर्षण कम हो गया है। शायद यही वजह है कि जब हैरी मेट सेजलऔर ऐ दिल है मुश्किलजैसी फिल्में पर्दे पर कुछ भी नया गढ़ने में नाकाम रही हैं। बड़े स्टार्स और निर्देशकों का नाम जुड़ा होने के बावजूद ये बॉक्स ऑफिस पर भी कोई खास करिश्मा नहीं कर पाईं। ऐसे में कम बजट की कई फिल्में ताजा हवा के झोंके की तरह आईं और उन्होंने बॉलिवुड का मुहावरा बदल दिया। लंबे समय तक विदेश में रमे रहने के बाद फिल्मी कैमरा आसपास के कस्बों की तरफ लौटा जिन्हें हम लगभग भूल ही गए थे।
हाल के वर्षों में निर्देशकों और लेखकों का एक नया वर्ग उभरा है जो विदेशी लोकेशन पकड़ने के बजाय मुंबइया फिल्मों को भारत के छोटे शहरों और कस्बों में ले जा रहा है। गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘आंखों देखी’, ‘तितली’, ‘मसान’, ‘दम लगा के हईशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘मुक्ति भवनऔर अनारकली ऑफ आराजैसी इन फिल्मों में चुटीली कहानियों के जरिए वासेपुर’, ‘बरेली’, ‘बनारसया आराके बहाने छोटे शहरों-कस्बों की जिंदगी, परिवार, नाते-रिश्तेदारी और अस्मिता को उकेरा गया है। प्रसंगवश आंखों देखीया तितलीफिल्म की पृष्ठभूमि किसी छोटे शहर के बजाय दिल्ली जैसा महानगर है लेकिन यह वह दिल्लीहै जो हिन्‍दी सिनेमा के 100 वर्षों के इतिहास में उसकी नजरों से छूट ही जाती रही है। दिल्ली में होने के बावजूद इनमें ना तो हम लाल किलादेखते हैं, ना ही इंडिया गेट। अन्य बातों के अलावा ये फिल्में स्त्रियों की एक अलग छवि गढ़ने में भी कामयाब हुई हैं जो स्टीरियोटाइपनहीं है।
 बरेली की बर्फीमें नायिका बिट्टी पर भारतीय संस्कृतिके प्रदर्शन का वैसा बोझ नहीं है, जैसा दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगेया परदेसके स्त्री पात्रों के चित्रण में दिखता है। पितृसत्ता के साथ भी उसके रिश्ते बदले हुए हैं। इसी तरह अनारकली ऑफ आरामें अनारकली पितृसत्ता से टकराते हुए एक आधुनिक भारतीय स्त्री की चेतना से लैस दिखती है। इस क्रम में स्थानीयता की भूमि पर विकसित अनारकली की लड़ाई समकालीन भारतीय समाज के स्त्री संघर्ष से जुड़कर अखिल भारतीय हो जाती है। इसी कड़ी में हम न्यूटन’, ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्काया टॉइलट: एक प्रेम कथाको भी देख सकते हैं जिनकी कहानी महानगरों से दूर की जगहों में रची-बसी है। छोटे शहरों, कस्बों के इर्द-गिर्द घूमती ये हिन्‍दी फिल्में भूमंडलीकरण के औजारों और नई तकनीकों का इस्तेमाल कर हाशिए पर पड़े हिन्‍दी समाज, उसके भदेसपन, उसकी बोली-बानी की खूशबू को मुख्यधारा में लाने की सफल कोशिश करती दिख रही हैं।
दरअसल, ग्लोबलाइजेशन ने हमारे उस कस्बे को भी बदला है जिसे हम पीछे छोड़ आए हैं। हमें शायद इस बात का अहसास नहीं है कि आधुनिक बाजार ने वहां पहुंचकर न सिर्फ एक नया अर्थतंत्र तैयार किया है बल्कि सामाजिक बदलाव की भूमिका भी बना दी है। वहां संबंध बदल गए हैं। लोगों के जीने का तरीका बदल गया है। रहन-सहन और मानसिकता बदल गई है। महानगर के मल्टीप्लेक्स में बैठा कोई दर्शक वहां के बदले हुए लड़के-लड़कियों को स्‍क्रीन पर देखता है तो सुखद आश्चर्य और एक हद तक नॉस्टैल्जिया से भर जाता है। उसे अपने घर का यह बदला हुआ यथार्थ आनंदित करता है। शायद इसीलिए कस्बों की कहानी बेहद हिट हो रही है। विदेशी दृश्य देख-देखकर ऊबे हुए लोगों को कस्बों के लोकेशंस नया आस्वाद देते हैं।
दूसरी बात यह है कि भूमंडलीकरण ने समाज में कुछ हद तक जनतांत्रिकता पैदा की है, इसलिए छोटी जगहों पर समाज का कमजोर वर्ग अपने हक के लिए खड़ा होता दिख रहा है। वह अब बराबरी की लड़ाई लड़ रहा है। इन तबकों में स्त्री भी शामिल है। उसका संघर्ष स्‍क्रीन पर एक नए विषय के रूप में सामने आया है। जाहिर है, इन फिल्मों ने हिन्‍दी सिनेमा के दायरे का विस्तार किया है। नए तरह के नायक सामने आ रहे हैं। ऐसे चरित्र देखने को मिल रहे हैं जो यथार्थ के बेहद करीब हैं और रोजमर्रा के जीवन में अक्सर दिख जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि खुद बॉलिवुड के भीतर एक तरह का परिवर्तन आया है। वहां छोटे-छोटे शहरों से लेखक-निर्देशक और अभिनेता पहुंचे हैं जिनका नजरिया पहले के लोगों से बहुत अलग है। उनमें विश्व सिनेमा की समझ है लेकिन उनकी स्मृतियों में उनका शहर गहराई से बसा हुआ है। वे हिन्‍दी सिनेमा में एक नई ताजगी ला रहे हैं। उम्मीद करें कि बॉलिवुड में स्थानीयता का यह रंग उसे और समृद्ध करेगा।
(नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर 18 नवंबर 2017 को प्रकाशित)


Friday, November 03, 2017

लोक संगीत की चेतना

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लोकपर्व छठ को लेकर काफी कुछ लिखा गया. कुछ ने इस पर्व से जुड़ी आस्था-अनास्था पर बात की, कुछ ने इस पर्व में प्रगतिशील चेतना का अभाव देखा तो किसी ने इसमें सिंदूर के इस्तेमाल को स्त्रियों के पिछड़ेपन से जोड़ कर देखा. पर मेरे लिए एक उपलब्धि इस पर्व के आस-पास विंध्यवासिनी देवी के गाए छठ और उससे जुड़े उनके गानों को सुनना रही. मेरे लिए छठ पर्व से जुड़ी स्मृतियां इन लोकगीतों के साथ लिपटी हुई चली आती हैं, जिन्हें हम बचपन में अपने गांव में दादी-नानी से सुनते थे. हमने विंध्यवासिनी देवी का नाम सुना था, बड़े भाई उनका जिक्र करते थे, पर उनका गाया नहीं सुना था. जब हमें संगीत का बोध हुआ, उनके गानों का प्रसारण बंद हो गया था, साथ ही उनके गीतों के पुराने कैसेट उपलब्ध नहीं थे. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर उनके गानों को अपलोड किया गया.

वे पटना रेडियो स्टेशन से मैथिली, भोजपुरी और मगही लोक-गीतों को गाती थीं. साठ के दशक में उनके गाए गानों के कैसेट बाजार में आए थे. कहते हैं कि प्रतिभा शून्य में पैदा नहीं होती, उसके पीछे एक परंपरा होती है. बिहार में पिछले कुछ वर्षों में, खास कर मिथिला क्षेत्र में, छठ पर लोग लोक गायिका शारदा सिन्हा के गाए गीतों को गुनते-सुनते रहे हैं, पर उनसे पहले स्वर कोकिला, लोक संगीत की अनन्य साधिका विंध्यवासिनी देवी (पद्मश्री) लोगों के दिलों पर राज करती थीं.

मिथिला में 1920 में जन्मी विंध्यवासिनी देवी के लिए चालीस के दशक में सार्वजनिक रूप से स्टेज पर गाना आसान नहीं था, जिसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. विंध्यवासिनी देवी के लोकगीत नियमों से बंधे नहीं रहने के बावजूद शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत का आनंद देते हैं. वैसे भी लोक-शास्त्र के बीच आवाजाही हमेशा से रही है. विद्वानों का कहना है कि शास्त्रीय संगीत का ताना-बाना लोक से ही बुना गया है. प्रसंगवश, जब मैंने विंध्यवासिनी देवी का गीत रिमझिम बुंदवा बरसि गैले ओरियानी मोती चुबै, भीजल महादेव के पगिया गौरी दाय के अचरासुना तो अनायास वर्षों पहले एक लाइव कंसर्ट में गिरिजा देवी के गाए झूला झूले नंदलाल संग राधा गुजरी, उड़े पगिया तोहार म्हारे उड़े चुनरीकी याद आ गई. जब वे गा रही थीं तब पूरे सभागार में आनंद का समंदर लहरा उठा था. ऐसा ही अनुभव विंध्यवासिनी देवी के गाए गीतों को सुन कर लगता है. वे सौभाग्यशाली थे जिन्होंने विंध्यवासिनी देवी को लाइव देखा-सुना होगा. 2006 में पटना में उनका देहांत हो गया.

उल्लेखनीय है कि मिथिला में ध्रुपद जैसी शास्त्रीय संगीत की एक फलती-फूलती परंपरा रही है, जिसे दरभंगा घरानाके नाम से जाना जाता है. पर इस घराने के गायक विद्यापति के नचारी को भी उसी रागात्मकता से गाते रहे हैं जैसे ध्रुपद के गौहर वाणी को. आश्चर्य नहीं कि विद्यापति के लोकगीतों को लोचनकवि ने सत्रहवीं सदी में अपनी किताब राजतरंगिनीमें रागों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है. दुर्भाग्यवश जहां शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत की परंपरा को सहेजने के प्रयास हुए, लोक संगीत को संरक्षण नहीं मिल पाया. अपनी जड़ों से दूर जा चुकी नई पीढ़ी को इन लोकगीतों का कोई इल्म नहीं है, न ही सहेजने की चिंता. नई तकनीक का इस्तेमाल कर जो भी बचा-खुचा है उसे सहेजा जा सकता है, इसमें आॅन लाइन मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है.


जैसा कि राजनीति शास्त्री सुदीप्त कविराज ने एक जगह लिखा है-जो विचार, सिद्धांत दर्शनमौखिक संप्रेषण के द्वारा लोक गाथाओं-लोकगीतों के तहत युगों से आ रहे हैं, वे काफी परिपक्व, सुनिश्चित और ज्ञान से भरपूर होते हैं और इसीलिए लेख के माध्यम से होने वाले संप्रेषण को भारतीय परंपरा में संदेह की दृष्टि से देखा गया. आश्चर्य नहीं कि क्यों कबीर कागद की लेखी के बदले आंखिन देखीपर जोर देते थे. लोक गीतों में हमेशा लोक जीवन की चर्चा होती है जो सामूहिकता में आकार लेता रहा है. बीबीसी को वर्ष 1999 में दिए एक इंटरव्यू में पत्रकार विजय राणा को विंध्यवासिनी देवी ने बताया था कि उन्होंने अपनी नानी, दादी से इन लोकगीतों को सुना-गुना और सीखा था.

बात छठ के प्रसंग से शुरू हुई थी. जब हम छठ के सबसे ज्यादा प्रचलित गीत ‘केरवा जे फरेला घवद से,ओह पर सुगा मेड़राय…’ को विंध्यवासिनी देवी और उनके साथियों के स्वर में सुनते हैं तो हमारे सामने यह लोकगीत कई अर्थ लेकर सामने आता है. इस गीत में केले के घवद पर मंडराते सुग्गे को धनुष से मार दिया जाता है और सुग्गा गिर कर मूर्च्छित हो जाता है. पर आगे सुगनी की वेदना सुन कर आदित (आदित्य) से प्रार्थना की जाती है कि वे सहाय हों. इन गीतों में लोकचेतना का जो स्वरूप है वह सोशल मीडिया की वितंडा से अलग एक शोध की मांग करता है. कहने की जरूरत नहीं कि शास्त्रीयता की अपनी विशेषताएं हैं लेकिन लोक की अपनी खूबियां हैं. लोक के बिना शास्त्र अधूरा है और शास्त्र के बिना लोक दिशाहीन. इसलिए जरूरी है लोक और शास्त्र का समन्वय बना रहे.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 2 नवंबर 2017 को प्रकाशित)