Saturday, November 18, 2017

ग्लोबल से लोकल होता बॉलिवुड

90 के दशक में डायस्पोरायानी विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों (एनआरआई) की जिंदगी फिल्मों में पूरे तामझाम के साथ आई। दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘परदेसऔर कभी खुशी कभी गमजैसी फिल्मों ने भारतीय दर्शकों पर जादू किया क्योंकि मध्यवर्गीय समाज भी उनके चरित्रों की तरह समृद्ध होने और विदेश में बसने के सपने देख रहा था। बॉलिवुड की फिल्में पहले भी विदेशों में शूट की जाती थीं लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में हर दूसरी बड़े बजट की फिल्म को बाहर शूट करने पर निर्माता-निर्देशकों का जोर बढ़ा है। ये फिल्में मुख्य रूप से भूमंडलीकरण के बाद उभरे महानगरीय उच्च मध्य वर्ग को केंद्र में रखकर बनाई गईं। इस तरह बॉलिवुड फिल्में ग्लोबलहुईं। करीब एक दशक तक ऐसी फिल्मों की लहर चली लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनका जादू उतार पर है क्योंकि ये एक खास तरह के फॉर्मूले और रूढ़ियों में फंसकर रह गई हैं।
असल में इंटरनेट के बढ़ते प्रसार ने अब बाहरी दुनिया को रहस्य नहीं रहने दिया है। सब कुछ अब सेलफोन पर देखा जा सकता है, इसलिए विदेशी धरती, विदेशी रहन-सहन को देखने का आकर्षण कम हो गया है। शायद यही वजह है कि जब हैरी मेट सेजलऔर ऐ दिल है मुश्किलजैसी फिल्में पर्दे पर कुछ भी नया गढ़ने में नाकाम रही हैं। बड़े स्टार्स और निर्देशकों का नाम जुड़ा होने के बावजूद ये बॉक्स ऑफिस पर भी कोई खास करिश्मा नहीं कर पाईं। ऐसे में कम बजट की कई फिल्में ताजा हवा के झोंके की तरह आईं और उन्होंने बॉलिवुड का मुहावरा बदल दिया। लंबे समय तक विदेश में रमे रहने के बाद फिल्मी कैमरा आसपास के कस्बों की तरफ लौटा जिन्हें हम लगभग भूल ही गए थे।
हाल के वर्षों में निर्देशकों और लेखकों का एक नया वर्ग उभरा है जो विदेशी लोकेशन पकड़ने के बजाय मुंबइया फिल्मों को भारत के छोटे शहरों और कस्बों में ले जा रहा है। गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘आंखों देखी’, ‘तितली’, ‘मसान’, ‘दम लगा के हईशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘मुक्ति भवनऔर अनारकली ऑफ आराजैसी इन फिल्मों में चुटीली कहानियों के जरिए वासेपुर’, ‘बरेली’, ‘बनारसया आराके बहाने छोटे शहरों-कस्बों की जिंदगी, परिवार, नाते-रिश्तेदारी और अस्मिता को उकेरा गया है। प्रसंगवश आंखों देखीया तितलीफिल्म की पृष्ठभूमि किसी छोटे शहर के बजाय दिल्ली जैसा महानगर है लेकिन यह वह दिल्लीहै जो हिन्‍दी सिनेमा के 100 वर्षों के इतिहास में उसकी नजरों से छूट ही जाती रही है। दिल्ली में होने के बावजूद इनमें ना तो हम लाल किलादेखते हैं, ना ही इंडिया गेट। अन्य बातों के अलावा ये फिल्में स्त्रियों की एक अलग छवि गढ़ने में भी कामयाब हुई हैं जो स्टीरियोटाइपनहीं है।
 बरेली की बर्फीमें नायिका बिट्टी पर भारतीय संस्कृतिके प्रदर्शन का वैसा बोझ नहीं है, जैसा दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगेया परदेसके स्त्री पात्रों के चित्रण में दिखता है। पितृसत्ता के साथ भी उसके रिश्ते बदले हुए हैं। इसी तरह अनारकली ऑफ आरामें अनारकली पितृसत्ता से टकराते हुए एक आधुनिक भारतीय स्त्री की चेतना से लैस दिखती है। इस क्रम में स्थानीयता की भूमि पर विकसित अनारकली की लड़ाई समकालीन भारतीय समाज के स्त्री संघर्ष से जुड़कर अखिल भारतीय हो जाती है। इसी कड़ी में हम न्यूटन’, ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्काया टॉइलट: एक प्रेम कथाको भी देख सकते हैं जिनकी कहानी महानगरों से दूर की जगहों में रची-बसी है। छोटे शहरों, कस्बों के इर्द-गिर्द घूमती ये हिन्‍दी फिल्में भूमंडलीकरण के औजारों और नई तकनीकों का इस्तेमाल कर हाशिए पर पड़े हिन्‍दी समाज, उसके भदेसपन, उसकी बोली-बानी की खूशबू को मुख्यधारा में लाने की सफल कोशिश करती दिख रही हैं।
दरअसल, ग्लोबलाइजेशन ने हमारे उस कस्बे को भी बदला है जिसे हम पीछे छोड़ आए हैं। हमें शायद इस बात का अहसास नहीं है कि आधुनिक बाजार ने वहां पहुंचकर न सिर्फ एक नया अर्थतंत्र तैयार किया है बल्कि सामाजिक बदलाव की भूमिका भी बना दी है। वहां संबंध बदल गए हैं। लोगों के जीने का तरीका बदल गया है। रहन-सहन और मानसिकता बदल गई है। महानगर के मल्टीप्लेक्स में बैठा कोई दर्शक वहां के बदले हुए लड़के-लड़कियों को स्‍क्रीन पर देखता है तो सुखद आश्चर्य और एक हद तक नॉस्टैल्जिया से भर जाता है। उसे अपने घर का यह बदला हुआ यथार्थ आनंदित करता है। शायद इसीलिए कस्बों की कहानी बेहद हिट हो रही है। विदेशी दृश्य देख-देखकर ऊबे हुए लोगों को कस्बों के लोकेशंस नया आस्वाद देते हैं।
दूसरी बात यह है कि भूमंडलीकरण ने समाज में कुछ हद तक जनतांत्रिकता पैदा की है, इसलिए छोटी जगहों पर समाज का कमजोर वर्ग अपने हक के लिए खड़ा होता दिख रहा है। वह अब बराबरी की लड़ाई लड़ रहा है। इन तबकों में स्त्री भी शामिल है। उसका संघर्ष स्‍क्रीन पर एक नए विषय के रूप में सामने आया है। जाहिर है, इन फिल्मों ने हिन्‍दी सिनेमा के दायरे का विस्तार किया है। नए तरह के नायक सामने आ रहे हैं। ऐसे चरित्र देखने को मिल रहे हैं जो यथार्थ के बेहद करीब हैं और रोजमर्रा के जीवन में अक्सर दिख जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि खुद बॉलिवुड के भीतर एक तरह का परिवर्तन आया है। वहां छोटे-छोटे शहरों से लेखक-निर्देशक और अभिनेता पहुंचे हैं जिनका नजरिया पहले के लोगों से बहुत अलग है। उनमें विश्व सिनेमा की समझ है लेकिन उनकी स्मृतियों में उनका शहर गहराई से बसा हुआ है। वे हिन्‍दी सिनेमा में एक नई ताजगी ला रहे हैं। उम्मीद करें कि बॉलिवुड में स्थानीयता का यह रंग उसे और समृद्ध करेगा।
(नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर 18 नवंबर 2017 को प्रकाशित)


Friday, November 03, 2017

लोक संगीत की चेतना

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लोकपर्व छठ को लेकर काफी कुछ लिखा गया. कुछ ने इस पर्व से जुड़ी आस्था-अनास्था पर बात की, कुछ ने इस पर्व में प्रगतिशील चेतना का अभाव देखा तो किसी ने इसमें सिंदूर के इस्तेमाल को स्त्रियों के पिछड़ेपन से जोड़ कर देखा. पर मेरे लिए एक उपलब्धि इस पर्व के आस-पास विंध्यवासिनी देवी के गाए छठ और उससे जुड़े उनके गानों को सुनना रही. मेरे लिए छठ पर्व से जुड़ी स्मृतियां इन लोकगीतों के साथ लिपटी हुई चली आती हैं, जिन्हें हम बचपन में अपने गांव में दादी-नानी से सुनते थे. हमने विंध्यवासिनी देवी का नाम सुना था, बड़े भाई उनका जिक्र करते थे, पर उनका गाया नहीं सुना था. जब हमें संगीत का बोध हुआ, उनके गानों का प्रसारण बंद हो गया था, साथ ही उनके गीतों के पुराने कैसेट उपलब्ध नहीं थे. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर उनके गानों को अपलोड किया गया.

वे पटना रेडियो स्टेशन से मैथिली, भोजपुरी और मगही लोक-गीतों को गाती थीं. साठ के दशक में उनके गाए गानों के कैसेट बाजार में आए थे. कहते हैं कि प्रतिभा शून्य में पैदा नहीं होती, उसके पीछे एक परंपरा होती है. बिहार में पिछले कुछ वर्षों में, खास कर मिथिला क्षेत्र में, छठ पर लोग लोक गायिका शारदा सिन्हा के गाए गीतों को गुनते-सुनते रहे हैं, पर उनसे पहले स्वर कोकिला, लोक संगीत की अनन्य साधिका विंध्यवासिनी देवी (पद्मश्री) लोगों के दिलों पर राज करती थीं.

मिथिला में 1920 में जन्मी विंध्यवासिनी देवी के लिए चालीस के दशक में सार्वजनिक रूप से स्टेज पर गाना आसान नहीं था, जिसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. विंध्यवासिनी देवी के लोकगीत नियमों से बंधे नहीं रहने के बावजूद शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत का आनंद देते हैं. वैसे भी लोक-शास्त्र के बीच आवाजाही हमेशा से रही है. विद्वानों का कहना है कि शास्त्रीय संगीत का ताना-बाना लोक से ही बुना गया है. प्रसंगवश, जब मैंने विंध्यवासिनी देवी का गीत रिमझिम बुंदवा बरसि गैले ओरियानी मोती चुबै, भीजल महादेव के पगिया गौरी दाय के अचरासुना तो अनायास वर्षों पहले एक लाइव कंसर्ट में गिरिजा देवी के गाए झूला झूले नंदलाल संग राधा गुजरी, उड़े पगिया तोहार म्हारे उड़े चुनरीकी याद आ गई. जब वे गा रही थीं तब पूरे सभागार में आनंद का समंदर लहरा उठा था. ऐसा ही अनुभव विंध्यवासिनी देवी के गाए गीतों को सुन कर लगता है. वे सौभाग्यशाली थे जिन्होंने विंध्यवासिनी देवी को लाइव देखा-सुना होगा. 2006 में पटना में उनका देहांत हो गया.

उल्लेखनीय है कि मिथिला में ध्रुपद जैसी शास्त्रीय संगीत की एक फलती-फूलती परंपरा रही है, जिसे दरभंगा घरानाके नाम से जाना जाता है. पर इस घराने के गायक विद्यापति के नचारी को भी उसी रागात्मकता से गाते रहे हैं जैसे ध्रुपद के गौहर वाणी को. आश्चर्य नहीं कि विद्यापति के लोकगीतों को लोचनकवि ने सत्रहवीं सदी में अपनी किताब राजतरंगिनीमें रागों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है. दुर्भाग्यवश जहां शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत की परंपरा को सहेजने के प्रयास हुए, लोक संगीत को संरक्षण नहीं मिल पाया. अपनी जड़ों से दूर जा चुकी नई पीढ़ी को इन लोकगीतों का कोई इल्म नहीं है, न ही सहेजने की चिंता. नई तकनीक का इस्तेमाल कर जो भी बचा-खुचा है उसे सहेजा जा सकता है, इसमें आॅन लाइन मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है.


जैसा कि राजनीति शास्त्री सुदीप्त कविराज ने एक जगह लिखा है-जो विचार, सिद्धांत दर्शनमौखिक संप्रेषण के द्वारा लोक गाथाओं-लोकगीतों के तहत युगों से आ रहे हैं, वे काफी परिपक्व, सुनिश्चित और ज्ञान से भरपूर होते हैं और इसीलिए लेख के माध्यम से होने वाले संप्रेषण को भारतीय परंपरा में संदेह की दृष्टि से देखा गया. आश्चर्य नहीं कि क्यों कबीर कागद की लेखी के बदले आंखिन देखीपर जोर देते थे. लोक गीतों में हमेशा लोक जीवन की चर्चा होती है जो सामूहिकता में आकार लेता रहा है. बीबीसी को वर्ष 1999 में दिए एक इंटरव्यू में पत्रकार विजय राणा को विंध्यवासिनी देवी ने बताया था कि उन्होंने अपनी नानी, दादी से इन लोकगीतों को सुना-गुना और सीखा था.

बात छठ के प्रसंग से शुरू हुई थी. जब हम छठ के सबसे ज्यादा प्रचलित गीत ‘केरवा जे फरेला घवद से,ओह पर सुगा मेड़राय…’ को विंध्यवासिनी देवी और उनके साथियों के स्वर में सुनते हैं तो हमारे सामने यह लोकगीत कई अर्थ लेकर सामने आता है. इस गीत में केले के घवद पर मंडराते सुग्गे को धनुष से मार दिया जाता है और सुग्गा गिर कर मूर्च्छित हो जाता है. पर आगे सुगनी की वेदना सुन कर आदित (आदित्य) से प्रार्थना की जाती है कि वे सहाय हों. इन गीतों में लोकचेतना का जो स्वरूप है वह सोशल मीडिया की वितंडा से अलग एक शोध की मांग करता है. कहने की जरूरत नहीं कि शास्त्रीयता की अपनी विशेषताएं हैं लेकिन लोक की अपनी खूबियां हैं. लोक के बिना शास्त्र अधूरा है और शास्त्र के बिना लोक दिशाहीन. इसलिए जरूरी है लोक और शास्त्र का समन्वय बना रहे.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 2 नवंबर 2017 को प्रकाशित)

Monday, October 16, 2017

विद्यापति का प्रासंगिक होना

मेरी मां हमारे बचपन में हमेशा एक गीत गाती थीं, ‘पिया मोरा बालक हम तरुणी गे…’. विद्यापति के लिखे इस गीत का अर्थ मुझे काफी बाद में समझ में आया, जब मैं कुछ बड़ा हुआ और पढ़ने-लिखने लगा. इस गीत की अगली पंक्ति है, ‘कोन तप चूकलहूं भेलहूं जननी गे.हे विधाता, तपस्या में कौन-सी चूक हो गई कि स्त्री होकर जन्म लेना पड़ा. विद्यापति की यह पूरी कविता बेमेल विवाह के विद्रूप को तत्कालीन सामाजिक विडंबनाओं के साथ उजागर करती है. ध्यान रखिए कि मैथिली के कवि और संस्कृत के विद्वान विद्यापति यह बात चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में कह रहे थे यानी अब से छह-सात सौ साल पहले. बाद में जाकर तुलसीदास ने लिखा, ‘कत विधि सृजी नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं.औपनिवेशिक विमर्शकारों की नजर से देशज आधुनिकताका यह स्वर हमेशा चूक जाता रहा है. देशी, लोक भाषाओं में स्त्रियों की वेदना, पीड़ा और आकांक्षा का इस कदर चित्रण करने वाले उस दौर में गिने-चुने स्वर सुनाई पड़ते हैं.
बहरहाल, वैसे तो पूरे भारतीय समाज में आज भी स्त्री होकरजन्म लेना किसी पीड़ा से कम नहीं, मगर मैथिल समाज के लिए विद्यापति के शब्द आज भी उतने ही सच हैं जितने छह-सात सौ वर्ष पहले थे. इसी तरह हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन ने पिछली सदी में मैथिल स्त्रियों की सामाजिक दशा और पराधीनता को चित्रित करने के लिए एक रूपक बांधा था. तालाब की मछलियां. मैथिल स्त्रियां तालाब की मछलियां हंै जिनका काम लोगों (पुरुषों) की उदर-पिपासा शांत करना है.कहने वाले कहेंगे, ऐसा नहीं है. चीजें बदली हैं. लड़कियां भी खूब पढ़-लिख कर आगे बढ़ रही हैं. बिलकुल बढ़ रही है, देश-विदेश घूम रही हैं. मगर देखिए कि बहुसंख्यक स्त्रियों के लिए आसपास कितने ऐसे साधन या माध्यम हैं जहां उनकी भावनाओं, विचारों और स्वातंत्र्यबोध का सम्मान होता है? खासकर जब बात शादी की होती है, तब यह बोध और भी गहरे उजागर होता है. ज्यादातर मामलों में शादी अरेंजही होती है, जिसमें लड़कियों की सहमति-असहमति का कोई मोल नहीं होता.
अब भी पुरुष ही लड़कियों को देखते हैं; यह देखना ही अपने आप में बुरा है, मैं मिलनाशब्द का इस्तेमाल पसंद करता हूं? क्यों भाई? आपको भी कोई देख सकता है? ऐसा क्या है आप में? कुछ लाख कमा रहे हैं, बस, है पुरुषार्थ आप में, जो मां-बाप की किसी बात को नकार सकें? अपनी कह सकें? दहेज को अस्वीकार करने का है आप में सामर्थ्य?कुछ दिन पहले मूल रूप सेमिथिला की रहने वाली, दिल्ली से पढ़ी-लिखी एक लड़की की शादी की बातचीत हैदराबाद में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे एक लड़के से चली. लड़के के माता-पिता और खुद लड़के ने लड़की से मिलने की इच्छा जाहिर की. और बातचीत के बाद रिंग सेरेमनी वगैरह हो गई. इस रिंग सेरेमनी के दो महीने के बाद एक दिन उस लड़के ने लड़की से कहा कि वह शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह शादी के लिए इच्छुक नहीं है. उसकी जबरदस्ती शादी करवाई जा रही है. वह दबाव में आकर मिलने आया था, वगैरह-वगैरह. फिर कहा कि उसका किसी लड़की के साथ दो साल अफेयर रहा, वह उस मोह से उबर नहीं पाया है. इस पर लड़की ने कहा, ठीक है. और शादी की बातचीत टूट गई. पर सवाल है कि क्या एक जवान, नौकरीपेशा युवक दुधमुंहा बच्चा है, कहां गई उसकी रीढ़? कहां गया उसका पुरुषार्थ?

मिथिला में पोथी-पतरा-पाग पर काफी जोर रहा है. पतरा और पाग से लोग अब भी चिपके हैं, पर पोथी को डबरा-चहबच्चा में डाल दिया है. प्रसंगवश विद्यापति ने संस्कृत में पुरुषपरीक्षानाम से एक किताब लिखी थी (इसका मैथिली और अंग्रेजी अनुवाद भी मौजूद है). इसमें चौवालीस कहानियों के माध्यम से एक आदर्श पुरुष के गुणों को पेश किया गया है. पौरुष या पुरुषार्थ पर संस्कृत में यह अपने ढंग की अनूठी किताब है. विद्यापति के दौर की राजनीतिक व्यवस्था के पितृसतात्मक पहलू को यह किताब सधे ढंग से उजागर करती है. आज स्त्री विमर्श के दौर में यह किताब काफी मौजूं है.विद्यापति शौर्य, विवेक, उत्साह, प्रतिभा, मेधा और विद्या के परिप्रेक्ष्य में पुरुष की कसौटी करते हैं. हमारे दौर में मध्यवर्ग के लिए पुरुषार्थ की कसौटी सिर्फ पैसा है. बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल करें तो पैकेज. पूंजीवादी समाज में आधुनिकता का यह बोध दरअसल एक छलावा है, जो ऊपरी चमक-दमक के बावजूद अंदर से खोखला है. इस आधुनिकता में नैतिकता और आचार-व्यवहार के लिए कोई जगह नहीं हैं और न ही पैसे से संचालित यह आधुनिकता-बोध न्याय (विद्यापति के शब्द नय) की ही सीख देता है. जब तक पुरुषों में न्याय-बोध नहीं आएगा, स्त्रियां पिसती रहेंगी और दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से विद्यापति का कहा प्रासंगिक बना रहेगा.

(जनसत्ता के 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में 16 अक्टूबर 2017 को प्रकाशित)

Sunday, September 10, 2017

Gauri Lankesh was murdered because politicians fear regional media

In the critically-acclaimed Hindi movie Peepli Live, Rakesh, a vernacular journalist, breaks the story of a poor, debt-ridden farmer Natha’s intended suicide to the "national media". Soon, he gets killed. The demise of Rakesh is an allegory of the sad state of affairs in regional news media.
Truth is, the death of a vernacular journalist seldom makes news in India. It’s heartening to see people coming out on streets across India to protest the brutal killing of journalist-activist Gauri Lankesh outside her home in Bengaluru.
At the same time, it’s brought a grim reminder to the fore - the vulnerability of journalists, particularly those working in regional or vernacular media.
Gauri Lankesh was the editor of Gauri Lankesh Patrike, a Kannada-language weekly tabloid, and staunch critic of right-wing Hindutva politics. Her tabloid was vehemently opposed to communal forces.
What is it that makes regional media more vulnerable than the all-powerful English media? In the last few decades, with the expanding market, the growth of vernacular media outfits has been phenomenal; it has proliferated, penetrating remote parts of India. This is evident from the fact that of the ten most read dailies, five are Hindi language ones while the other positions are occupied by Malayalam, Tamil and Marathi publications — all regional language newspapers.
Times of India is the only English newspaper that features in the top ten list. It holds true when we look at the reach of regional news channels too.
With their left-liberal slant since Independence, while the English media has been popular among the elite, in the last two decades, key media outfits have made inroads into the vernacular, which has largely become the language of the powers that be.
Political parties are aware of the influence and reach of the regional language media because cultural and political phrases and imagery are best reflected in the native language.
With few exceptions, political forces have always tried to use these media outfits for political mobilisation and often been successful in influencing their constituents.
For this reason alone, one day after the first phase of UP election ended, the leading Hindi daily, Dainik Jagran published exit poll results showing BJP was marching ahead in the state even though it was in violation of the code of conduct.
In the North India of the '80s, "Hinduisation of the Hindi press" began vigorously and intensified in the '90s with the rise of Hindutva forces in the political firmament.
It has been well-documented that in the time of communal flare-ups, regional media mostly sided with the communal forces. With the Modi government coming to power, Hindutva forces are once again using the regional language press quite successfully for political mobilisation; it helps them set their agenda, be it nationalism debate or beef ban!
When a fearless, independent journalist like Gauri Lankesh emerges on the scene, her voice strikes a chord with the public at large — and deeply feared by right-wing Hindu nationalist forces. It should be noted that Ram Chander Chhatrapati, who exposed the rape and sexual assault of female devotees of the now jailed Ram Rahim by publishing an anonymous letter by one of the victims in his evening paper Poora Sach in 2002 was also shot dead.
While the power of the regional media has grown manifold, the attempts to silence journalists have also risen in the world’s largest democracy.
According to the Committee to Protect Journalist (CPJ), since 1992, at least 40 journalists have been killed in India of which 27 were murdered in direct retaliation for their reports! Most of them were from the regional language media. Sadly, there has been no conviction and it is no wonder then that India ranks 136 among 180 countries when it comes to press freedom.
(Published on DailyO on 9th September 2017)

Wednesday, August 30, 2017

Hindi front pages: In Ram Rahim headlines, the missing word was 'rape’

When Dera Sacha Sauda chief Gurmeet Ram Rahim was convicted for rape by a court in Panchkula on Friday, the violence that followed received wall-to-wall media coverage. The event dominated the newspaper headlines the next morning. But the difference in the choice of words in the reports in the Hindi press and the slant they took offered an insight into the market interests prevalent in the newspaper industry in that language.
Some Hindi papers seemed almost reverential towards the rape convict. Strikingly, the biggest Hindi dailies published in the National Capital Region refrained from using the word “balatkar”, or rape, in their headlines. The Nav Bharat Times not only failed to use the word “rape” in its headline, the word was also conspicuously absent from the front page. This was in contrast to the headlines in English-language newspapers such as the Indian Express and The Hindu.
The tone of the Hindi newspapers was surprising, considering that it was a Hindi journalist, Ram Chander Chhatrapati, who first exposed the rapes and sexual harassment faced by Ram Rahim’s female devotees by publishing an anonymous letter about this in 2002 in his evening paper, Poora Sach. He was shot dead later that year, allegedly in retaliation for this act. Ram Rahim is an accused in the murder case and hearing in this case is in the final stage.
Though Hindi newspapers have been giving space to news and analysis related to women since the 1980s, sparking a new discourse around women’s rights, there is still a patriarchal bias in reporting rape. In my research, I have found that the choice of language in Hindi newspapers more often than not seems to almost celebrate rape by using phrases like “pushti ho gayi” (rape is confirmed),” “balatkar ke record toot gaye (new record in the rape case)“ and using words like “pidita” for victim and “dabang” for the culprit.
The coverage of the Rahim Rahim case is a reflection of the impulse evident in the Hindi newspaper industry over the past two decades to deliver “khush khabar” or good news. Newspapers try to avoid publishing reports that could disturb or offend their readers even if the news has to do with heinous crimes like rape.
In the last two decades, technology and economic change have transformed the Hindi newspaper business, with a steady increase in literacy and expanding purchasing power, accompanied by volatile political situation in the Hindi belt. Their influence among ruling class has also increased. However, the internal structures of Hindi newspapers haven’t changed much. There is still only a handful of women journalists in influential positions, which is reflected in the way Hindi newspapers set their agendas and cover the news.

Dainik Jagran: Dera chief found guilty, 32 dead in massive violence

Hindustan: Baba found guilty, followers engaged in violence

Jansatta: Panchkula on fire, 30 dead

Nav Bharat Times: Dera followers agitated, violence at many places

Dainik Bhaskar: Ram Rahim guilty, followers go on rampage

(Published on scroll.in on 29th August 2017) 

Monday, July 24, 2017

कुलपति जी, आपका टैंक एक मजबूत वाहन है लेकिन...


आर्मी टैंक, बख्तरबंद गाड़ियों की ज़रूरत युद्धभूमियों में होती है. एक विश्वविद्यालय में उसकी क्या जरूरत?
पर देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश कुमार की माने तो उन्हें कैंपस में एक टैंक चाहिए. ताकि जवानों की शहादत छात्रों के मन में हमेशा बनी रहे. और उन्होंने भारत सरकार के मंत्रियों से सेना के टैंक दिलवाने की गुज़ारिश की है. ये मंत्री रविवार को कारगिल विजय दिवस मनाने जेएनयू में मौजूद थे.
भले ही जेएनयू की स्थापना के 47 वर्ष से ऊपर हो गए हो कुछ साल पहले तक जेएनयू ‘दिल्ली में होकर भी दिल्ली से अलहदा’ था. विश्वविद्यालय की चर्चा पठन-पाठन और छात्र राजनीति की सरगर्मियों के संदर्भ में होती थी, लेकिन पिछले तीन वर्षों से जबसे केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ जेएनयू की चर्चा अध्ययन-अध्यापन के प्रसंग में कम देशप्रेम, राजद्रोह की वजह से ज्यादा हो रही है. इसमें मीडिया के एक हिस्से की भी बड़ी भूमिका रही है.
पिछले साल फरवरी में जब जेएनयू के अंदर तथाकथित कुछ लोगों ने देश के खिलाफ नारे लगाए तब पहली बार प्रशासन की तरफ से छात्रों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने के लिए टैंक की मांग उठी थी.
यह किसी से छिपा नहीं है कि मौजूदा सरकार और संघ से जुड़े कुछ लोगों की आँखों में जेएनयू एक किरकिरी की तरह है.
फरवरी 2016 की घटना से पहले संघ का मुखपत्र ‘पांचजन्य’ अपनी कवर स्टोरी में जेएनयू को ‘दरार का गढ़’ कह चुका था. वह कैंपस को हिंदू विरोधी, देश विरोधी करार दिया था. पर इस घटना के करीब डेढ़ साल बाद भी पुलिस आरोपियों के खिलाफ़ अभी तक चार्जशीट फाइल नहीं कर सकी है और दोषियों को पकड़ नहीं पाई है. हालांकि इस घटना के तुरंत बाद राजद्रोह (Sedition) के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और दो अन्य छात्रों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, फिलहाल वे जमानत पर हैं.
फरवरी की घटना के बाद जेएनयू के छात्रों-प्रोफेसरों ने खुले मंच पर राष्ट्रवाद की अवधारणाओं पर एक लेक्चर सिरीज का आयोजन किया था जो यू ट्यूब जैसे सोशल मीडिया पर मौजूद है और अब एक मुकम्मल किताब की शक्ल में है (What the Nation Really Needs to Know: The JNU Nationalism Lectures). इस तरह का रचनात्मक हस्तक्षेप जेएनयू को विशिष्ट बनाता रहा है.
सवाल है कि जेएनयू जैसी स्वायत्त संस्थान में, जिसकी प्रतिष्ठा देश-विदेश में है, एक वीसी को राष्ट्रवाद की शिक्षा देने के लिए टैंक जैसे प्रतीकों के इस्तेमाल की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है, देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति, राजद्रोह के इर्द-गिर्द जिस तरह का विमर्श इन दिनों चलाया जा रहा है. जगदीश कुमार जैसे वीसी चाहे-अनचाहे एक मोहरे के रूप में नज़र आते हैं.
जेएनयू एक उच्च अध्ययन संस्थान का केंद्र है जहाँ ज्ञान के उत्पादन पर हमेशा जोर रहा है. सवाल करने और सत्य की खोज की प्रवृत्ति को हमेशा बढ़ावा दिया जाता रहा है.
प्रतिरोध की संस्कृति और समाज के हाशिए के लोगों के प्रति संवदेनशीलता जेएनयू की पहचान रही है. पुराने छात्र याद करते हैं कि किस तरह जेएनयू के पहले वीसी जी पार्थसारथी और रेक्टर मूनिस रज़ा ने जेएनयू में वाद-विवाद की संस्कृति के निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभाई थी.
और इस वजह से वाम रुझानों की बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक स्पेस के रूप में उभरा जहाँ विभिन्न मत, विचारधारा के लोगों के लिए हमेशा जगह रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र में भाजपा सरकार इसे एक ख़ास विचारधारा के रंग में रंगना चाहती है जो किसी भी विश्वविद्यालय के लिए सही नहीं है. सच तो यह है कि इस तरह की सोच विश्वविद्यालय की अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगाती है.
कल दिन में मैं एक प्रोफेसर से मिलने जेएनयू गया था. लाइब्रेरी के पीछे, गोपालन कैंटिन के पास एक किताब गाड़ी दिखी. मन ख़ुश हो गया.
मन में सोचा कि वीसी जगदीश कुमार के प्रस्तावित टैंक, बख्तरबंद पर ये गाड़ी जब तक जेएनयू में घूमती रहेगी भारी पड़ेगी. जैसा कि ब्रेख्त ने लिखा है: जनरल, तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है/ वह मटियामेट कर डालता है जंगल को/ और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ उसे एक ड्राइवर चाहिए.../जनरल आदमी बहुत उपयोगी होता है/ वह उड़ सकता है/ और हत्या भी कर सकता है/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ वह सोच सकता है.
वीसी जगदीश कुमार इस ‘सोच’ पर ताला लगाना चाहते हैं!
(राजस्थान पत्रिका वेबसाइट पर प्रकाशित, 24 जुलाई 2017)

Friday, July 14, 2017

बीबीसी का प्रोपगैंडा और जॉर्ज ऑरवेल !

बीबीसी हिंदी में राजेश प्रियदर्शी के इस ब्लॉग में  अन्य बातों के अलावे प्रकारांतर से पिछले दिनों बीबीसी हिंदी पर जो स्टीरियोटाइप छवि गढ़ने, मनगढंत विश्लेषण करने का आरोप लगा, उसका जवाब दिया गया है. मैंने ‘बीबीसी सिरीज’ के तहत जेएनयू के प्रसंग में लिखे एक लेख-‘सतही हो चुकी है जेएनयू की भीतरी विचारधारा’ को लेकर बिंदुवार कुछ सवाल उठाए थे. असल में यह लेख एक प्रोपगैंडा के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर मेरे सवालों का जवाब या उस लेख की चर्चा इस ब्लॉग में कहीं नहीं है. उलटा बीबीसी ने हाथी के दाँत से बनी मीनार में बैठ कर, गुरु ज्ञानी बन कर पूछा है: सबको चाहिए मनभावन समाचार, क्या करें पत्रकार?
इस ब्लॉग के मुताबिक बीबीसी के दिशा-निर्देश में हर तरह के विचारों को जगह देने की बात है. पर क्या इसमें प्रोपगैंडा भी शामिल है ? बीबीसी हिंदी को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए.
‘भारत में अल्पसंख्यक होना कितना तकलीफ़देह है’, क्या यह अलीगढ़ में पढ़ रही एक हिंदू लड़की और बीएचयू में पढ़ रही एक मुस्लिम लड़की के विचारों से तय होगा? संभव है ऐसा ‘जनरलाइजेशन’ बीबीसी के लिए ‘मनभावन’ हो.
जब बीबीसी का संवाददाता एक लड़की का सरनेम ‘तिवारी’ से बदल कर ‘यादव’ कर देता है (एमएमयू वाले लेख में) और लोटा को सांप्रदायिक बना देता है, तब उसके लिए यह सब ‘मनभावन’ होता है. क्या बीबीसी के दिशा-निर्देश में मुसलमानों को ओबीसी के ख़िलाफ़ खड़ा करना भी शामिल है?

किसी प्रोफेसर पर मुसलमान विरोधी होने का आरोप लगाना, स्टोरी में बिना उस प्रोफेसर का पक्ष दिए (बीएचयू वाले लेख में), क्या पेशेवर पत्रकारिता है? भले उस प्रोफेसर का नाम लेख में ना लिखा गया हो, ऑन लाइन की दुनिया में लोग चटखारे लेकर उनकी चर्चा कर रहे हैं.


इस ब्लॉग के मुताबिक: किसी ज़माने में बीबीसी में काम कर चुके जाने-माने लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था, “पत्रकारिता उसे सामने लाना है जिसे कोई छिपाना चाहता हो, बाक़ी सब प्रचार है.”
अव्वल तो मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि ऐसा ऑरवेल ने कहाँ और कब लिखा था? लेकिन ऑरवेल ने अपने इस्तीफा पत्र में बीबीसी को  यह जरूर लिखा था :
“पिछले कुछ समय से मुझे लग रहा था कि मैं अपना समय और सरकार का पैसा उस काम को करने में बर्बाद कर रहा हूँ जिससे कोई परिणाम सामने नहीं आ रहा. मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम (hopeless work) है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा, जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके…”
यह पत्र 1943 में ऑरवेल ने लिखा था. लगभग 75 साल बाद भी ऐसा लगता है कि बीबीसी प्रोपगैंडा ही कर रहा है, परिप्रेक्ष्य भले बदल गया हो (भूलना नहीं चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा में भाग लिया, उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है) पर बीबीसी के हिंदी पत्रकारों में यह स्वीकार करने की कूवत नहीं रही. इस्तीफा देना तो दूर की बात है!
बहरहाल, ऐसा नहीं कि मनभावन खबरों पर जोर हाल के वर्षों में (व्हाट्स एप या फेसबुक के दौर में) बढ़ा है, जैसा कि इस ब्लॉग को पढ़ने पर लगता है. पिछले दशक में मैंने अपनी पीएचडी शोध में पाया था कि हिंदी अखबारों में भूमंडलीकरण के आने के बाद किस तरह ‘ख़ुशखबर’ देने पर जोर बढ़ा है, किस तरह खबरों का विभाजन ‘अप मार्केट/डाउन मार्केट’ खबरों में किया जाने लगा है. इतना ही नहीं पाठकों की क्रय शक्ति (वर्ग) को ध्यान मे रख कर खबरों का उत्पादन किया जा रहा है. वर्ष 2007 में इसी के इर्द-गिर्द दया थुस्सु ने ‘NEWS AS ENTERTAINMENT ‘ नाम से एक किताब लिखी थी.
सवाल है कि जब बीबीसी पर बाज़ार का दबाव नहीं है तब क्यों वेबसाइट ‘मनभावन ख़बरों’ को पाठकों को परोसता है? क्यों अंग्रेजी संवाददाता की आँखों से ही हिंदी के पाठकों को ख़बर दिखाने पर जोर है? जबकि इन वर्षों में पुल के नीचे काफ़ी पानी बह चला है. अखबारों के अलावे हिंदी के कई समाचार चैनल बाज़ार में आ गए हैं, खबरों के कई वेबसाइट हैं. पर क्या बीबीसी की होड़ इन्हीं हिट बटोरू वेबसाइटों से है, जिनका काम हेडिंग में सेन्सेशनल और प्रोवोकेटिव शब्द डाल कर चल जाता है!
यदि हम बीबीसी हिंदी के वेबसाइट का ‘कंटेंट एनालिसिस’ करें तो पाते हैं कि वह हिंदी के पाठकों को अनूदित भाषा (यहाँ अंग्रेजी से हिंदी) में आधुनिकता को परोसने की कोशिश करता है, यह देशज आधुनिकता (Vernacular Modernity) कतई नहीं है. एक ‘साफ्ट पॉर्न (SOFT PORN) की पॉलिसी यहाँ भी स्पष्ट दिखती है ताकि हिट बटोरा जा सके. उदाहरण के लिए 11 जुलाई 2017 को बीबीसी के मेन पेज पर:

‘सेक्स स्लेव’ बनाई गई महिलाओं का वीडियो
सेक्स के दौरान वजाइना में ग्लिटर कैप्सूल ख़तरनाक
पत्नी के साथ सेक्स वीडियो डालता था पॉर्न साइट पर…. आदि खबरों का लिंक दिखता है.
इसी तरह बीबीसी सिरीज के तहत लिखे गए लेखों के शीर्षक भी इस बात की पुष्टि करते हैं.
बीबीसी लिखता है कि- ‘नीयत पर शक करने की हड़बड़ी ऐसी है कि लोग हेडलाइन पढ़कर फ़ैसला सुना देते हैं.’ ….बीबीसी ऑन लाइन पर फ़ैसला सुनाने का वक़्त यह भले ना हो, पर नीयत, नीति और खबरों के उत्पादन की संस्कृति पर संदेह जरूर है. पत्रकारिता की पहली शर्त (और आलोचना की भी) संदेह और सवाल उठाना ही तो है.
बीबीसी को ‘निंदक नियरे’ रखना चाहिए.
(Media Vigil पर प्रकाशित)

Saturday, July 01, 2017

प्रतिरोध वाया सोशल मीडिया

जंतर-मंतर पर क़रीब तीन-चार हज़ार लोग मौजूद थे. जितने लोग उतने ही कैमरे. प्रदर्शनकारियों में शायद ही कोई ऐसा था जो फेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम जैसे न्यू मीडियापर मौजूद नहीं हो. जो ऑन लाइन पोर्टल से जुड़े पत्रकार थे, वे वहीं से फेसबुक लाइवके जरिए इस मुहिम को बाहर लोगों के बीच ले जा रहे थे और आम नागरिक सोशल मीडिया के माध्यम से. कुछ टेलीविजन चैनलों पर भी इस विरोध प्रदर्शन को प्रसारित किया जा रहा था.

फ़िल्मकार सबा दीवान की फेसबुक पोस्ट से प्रेरित होकर देश (और विदेश) के विभिन्न शहरों में एक साथ हुए इस प्रतिरोध के अगले दिन साबरमती में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा (अंतत:) कि 'गौ-भक्ति' के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार नहीं की जा सकती'. देखा जाए तो गौरक्षा के नाम पर गोरखधंधा करने वालों के ख़िलाफ़ यह प्रतिरोध एक हद तक सफल रहा और इसका श्रेय सोशल मीडिया (बजरिए इंटरनेट) को जाता है.

लोकतंत्र में राजनीतिक भागेदारी और राजनीतिक दलों के संचार में मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है. साथ ही किसी भी सामाजिक आंदोलन में मीडिया की सहभागिता जरूरी है. मोदी सरकार की अघोषित नीति मेनस्ट्रीम (प्रिंट और टेलीविजन) के बदले न्यू मीडिया को तरजीह देने की है. ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ऑन लाइनमीडिया की दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाले नेताओं में से एक है. ट्विटर पर उनके 30.9 मिलियन (तीन करोड़ नौ लाख) और फेसबुक पर 41.7 मिलियन (चार करोड़ 17 लाख) फॉलोअर हैं. लेकिन इस बार नागरिक समाज के लोग उन्हीं हथियारों का इस्तेमाल सत्ता के ख़िलाफ़ करने में सफल रहे, जिसका इस्तेमाल मौजूदा सरकार करती रही है.

रिपोर्टों के मुताबिक मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से गौरक्षा, गौमांस के नाम पर देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों के ऊपर क़रीब 32 हमले हुए हैं. मारे गए लोगों में मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद खान आदि महज नाम बन कर रह गए हैं.  साथ ही इस सांप्रदायिक भीड़ की हिंसा के शिकार (लींचिंग) दलित भी हुए हैं. निस्संदेह इस भीड़ को सत्ता की भाषा- जो श्मशान और कब्रिस्तानमें लिपटी हुई है, से बल मिला है.
मोदी सरकार के बनने के तीन साल बाद शायद पहली बार, बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के, सिर्फ सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की आवाज़ एक वृहद स्तर पर मुखर हुई है. हालांकि जब तक ऑन लाइनप्रतिरोध को ऑफ लाइन (ज़मीनी स्तर पर)हो रहे विभिन्न प्रतिरोधों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इसकी सफलता संदिग्ध रहेगी.

विरोध प्रदर्शन के अगले दिन यानी 29 जुलाई की तारीख़ को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी अख़बारों- नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, हिंदुस्तान और दैनिक जागरण में किसी ने भी पहले पन्ने पर इस ख़बर को जगह नहीं दी. अंदर के स्थानीय पन्ने पर किसी कोने में एक तस्वीर या दो-तीन कॉलम की छोटी सी ख़बर देकर इस प्रदर्शन को निपटा दिया गया. वहीं, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अख़बारोंहिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू अख़बार के पहले पन्ने पर तस्वीर के साथ विस्तृत ख़बर भी छपी थी.

भले ही किसी राजनीतिक बैनर के तले जंतर-मंतर और अन्य शहरों में जनता नहीं जुटी हो पर ‘NotInMyName’ का जो नारा बुलंद हुआ उसकी जबान बहुसंख्यक भारतीयों की जबान नहीं है. इस ऑनलाइन मीडिया और प्रतिरोध की संस्कृतियों को दूर-दराज, छोटे शहरों-कस्बों पर पहुँचाने कि लिए इन संस्कृतियों को देशज (vernacular) होना होगा, साथ ही इन संस्कृतियों का देशजीकरण (vernacularisation of protest) करना होगा. जाहिर है भाषाई अख़बारों की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण हो सकती है.

अंग्रेजी मीडिया के बदले हमें यह देखना होगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं (regional/vernacular) में इन प्रतिरोधों की अनुगूंज किस रूप में हैजरूरत भाषाई अख़बारों में चल रहे विमर्श को बदलने की है, जिसका प्रसार देश के गाँवो, क़स्बों तक है. यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि मंडल-कमंडल की राजनीति में भाषाई मीडिया सांप्रदायिक एजेंडे को आगे में बढ़ाने में हमेशा तत्पर रही है.


ग़ालिब ने लिखा है कि फरियाद की कोई लय नहीं है’, पर सत्ता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ तो बुलंद होनी ही चाहिए जो दूर, एक बहुसंख्यक वर्ग तक पहुँचे और एक बड़े नागरिक समाज को लामबंद कर सके.

Wednesday, June 14, 2017

मृत्यु-गंध में लिपटी बगूगोशे की ख़ूशबू

मृत्यु-गंध कैसी होती है/ वह एक ऐसी खुशबू है/ जो लंबे बालों वाली/ एक औरत के ताजा धुले बालों से आती है/ तब आप उस औरत का नाम याद करने लगते हैं/ लेकिन उसका कोई नाम नहीं (कुमार विकल)
बगूगोशेकी ख़ूशबू में मृत्यु-गंध है. स्वदेश दीपक इस गंध से वर्षों परिचित रहे. इस आत्मकथात्मक कहानी में वे लिखते हैं: सात साल लंबी आग. डॉक्टर तो दूर, पीर-फकीर भी न बुझा पाए. तब सारे दृश्य कट गए थे.यह सात साल 1991-1997 के बीच के वर्ष हैं. कोर्ट मार्शल (1991) नाटक से उनकी ख्याति इस बीच फैलती चली गई पर वे बेख़बर रहे, ‘मायाविनीकी तलाश में भटकते रहे. उस मायाविनी की छाया उनकी मानसिक बीमारी के यथार्थ से जुड़ कर एक ऐसा साहित्य रच गया जो हिंदी साहित्य में अद्वितीय है.
और जब इस मृत्यु गंध की तासीर कुछ कम हुई तब हमने-मैंने मांडू नहीं देखापाया और कुछ कहानियाँ जो अब बगूगोशेसंग्रह में शामिल है. जैसा कि उनके पुत्र और पत्रकार सुकांत दीपक कहते हैं मांडू सचमुच उनके खंडित जीवन का कोलाज है.
स्वदेश दीपक हिंदी साहित्य और समाज के लिए एक किवदंती बन चुके हैं. हिंदी की चर्चित रचनाकार कृष्णा सोबती इस कहानी संग्रह के मुख्य पृष्ठ पर लिखती हैं: स्वदेश तुम कहां गुम हो गए. बगूगोशे के साथ फिर प्रकट हो जाओ.पर क्या अब वे लौटेंगे? कोई उम्मीद? सुकांत कहते हैं-बिलकुल नहीं!
अब तो स्वदेश दीपक को इस मायावी दुनिया को छोड़, घर से निकले 10 वर्ष से ज्यादा हो गए.
दूधनाथ सिंह की एक किताब है, जो उन्होंने निराला के रचनाकर्म और जीवन के इर्द-गिर्द लिखी है-आत्महंता आस्था. रचनाकार के जीवन और रचना के बीच आत्म संघर्ष को यह किताब हिंदी साहित्य के एक और किवदंती पुरुष निरालाके संदर्भ में बख़ूबी पकड़ती है. यह स्वदेश दीपक के बारे में भी सच है. स्वदेश दीपक के अंदर एक आत्महंता आस्था थी जो उनकी रचनाओं में भी दिखाई देती है. बगूगोशे कहानी में माँ अपने प्रोफेसर बेटे से कहती है: काका! कितने अंगारे हैं तेरे मुंह में. मीठे बोल भी बोल लिया कर. कभी-कभी एक चिनगारी से आग लग जाती है.
स्वभाव से बेहद गुस्सैल स्वदेश दीपक मिजाज से नक्सली थे. उनकी राजनीतिक पक्षधरता स्पष्ट थी. वे अन्याय के ख़िलाफ़ थे. जीवन में और रचना में.
मैंने मांडू नहीं देखापढ़ते हुए लगता है कि यह एक रचनाकार की सिद्धावस्था है. वह ट्रांसमें है. उसकी भाषा ऐसी है जैसे कोई hallucination की अवस्था में बोलता, बरतता है. छोटे-छोटे टुकड़ों में (epileptic language). बिना इस बात की परवाह किए कोई उसकी भाषा समझ रहा है या नहीं. बेपरवाह और बेखौफ़. अंतर्मन में ख़ुद से लड़ता
सुकांत ने पिछले साल अपने पिता के ऊपर एक लेख में लिखा: 7 जून 2006 को टहलने के लिए वे निकले और वापस लौट कर नहीं आए. जब हम (मैं, मेरी माँ और बहन) इस बात से आश्वस्त हो गए कि वे अब कभी घर लौट कर नहीं आएँगे तब हमने सुकून से गहरी साँस ली. हमारे लिए लगभग एक उत्सव की तरह यह था.
सुकांत क्या अपने पिता को मिस करते हैं? सुकांत की आवाज़ में एक टूटन सी मुझे सुनाई देती है. वे कहते हैं: वह आदमी मेरा बहुत बड़ा दोस्त था. भले मैं कुछ समझूं या नहीं वह अपनी रचना का पहला ड्राफ्ट मुझे सुनाता था.

मेडिकल साइंस की भाषा में वे बायपोलर डिसआर्डरके मरीज थे और कई बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे. वह उग्रता और अति संवेदनशीलता के बीच, मानवीय संबंधों और अपनी रचनाओँ के बीच एक तालमेल की कोशिश में भी लगे थे. इस संग्रह में शामिल बनी-ठनीकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है: जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से पहली बार मिला, वह गरमियों की शाम थी. जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से नहीं मिला, वह भी गरमियों की शाम थी. अगला दिन.पहली बार पढ़ते हुए एक बेतुकापन इनमें नज़र आता है. ऐसी पंक्तियाँ निर्मल वर्मा की कहानियों में भी ख़ूब दिखाई देती है. प्रसंगवश, सुकांत बताते हैं कि निर्मल वर्मा उनके मित्र थे और स्वदेश ने निर्मल वर्मा के साथ वर्ष 2006 में उनकी मुलाक़ात अरैंज करवाई थी
इस संग्रह में एक अधूरी कहानी है-समय खंड. इसका एक पात्र मधुमक्खियों के दंश से पीड़ित है और मरनासन्न है. वह कहती है: मुझे बिलकुल दिखाई नहीं दे रहा. मैं अंधी हो गई हूँ, क्या मैं मर जाऊँगी. आय डोंट वांट टू डाई प्लीज़!यह ठीक वैसी ही कराह है जैसी मेघे ढाका ताराफ़िल्म के आख़िर में सुनाई पड़ती है- दादा, आमि बचते चाई.
इस संग्रह की कहानियों में आधी-अधूरी ज़िंदगी को रचा गया है. और एक रचनाकार के रूप में यह हमें स्वदेश दीपक से रू-ब-रू होने का मौका देता है. रचना का कालखंड 2000-2005 के बीच है. इसी अवधि में वे मांडूभी रच रहे थे.

इस संग्रह को पढ़ते हुए लगातार यह बोध बना रहता हैजीवन है, जैसा भी है बेहतर है, ना होने से.

नोट: इस संग्रह में स्वदेश दीपक की अंतिम आठ कहानियाँ संकलित है. क़रीब दो वर्ष तक राजकमल प्रकाशन ने इसे अपने पास रखा और अब जाकर वह जगरनॉट बुक्स से प्रकाशित हुई है.
(जानकी पुल और प्रभात खबर (23 जून 2017) में प्रकाशित)