Thursday, July 29, 2021

कथाकार शेखर जोशी का ओलियागाँव


                                                          तस्वीर: प्रदीप पांडे (साभार)

शेखर जोशी नई कहानी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण रचनाकार रहे हैं. उनकी कहानी कोसी का घटवार 'परिंदे' (निर्मल वर्मा) और 'रसप्रिया' (फणीश्वर नाथ रेणु)  के साथ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती हैं.

88 वर्षीय शेखर जोशी ने उम्र के इस पड़ाव में आकर अपने बचपन  को ‘मेरा ओलियागाँव’ में पंक्तिबद्ध किया है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में कुमाऊँ पहाड़ियों के गाँव में बीता लेखक का बचपन है, विछोह की स्मृतियां हैं. बचपन से लिपटा हुआ औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है. स्मृतियों में अकेला खड़ा सुंदर देवदारु, कांफल का पेड़ है, बुरुंश के फूल हैंपूजा-पाठ और तीज-त्यौहार हैं. लोक मन में व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक विभेद भी. किसी भी रचनाकार के रचना का उत्स उसके बचपन में ढूंढ़ा जा सकता है. शेखर जोशी इसके अपवाद नहीं हैं. अपने ऊपर पड़े साहित्यिक प्रभाव को याद करते हुए वे एक जगह लिखते हैं:

दूसरे विश्व युद्ध के समय में बच्चा ही था. उन दिनों के.एम.ओ.यू (कुमाऊँ मोटर ओनर्स यूनियन) की मोटर गाड़ियाँ फौजियों से भरी रहती थीं. आम जनता को सामान्यतपैदल ही यात्रा करनी पड़ती थी... हम लोग पैदल ही मोटर मार्ग पर अल्मोड़ा के लिए चल पड़े. रास्ते में थोड़ी- थोड़ी दूर पर बस्तियों के निकट किसी रणबाँकुरे फौजी को विदा करने के लिए उसके परिवार के स्त्री-पुरुष बस की प्रतीक्षा करते हुए मिलते. विदा देने वालों में अधिकतर महिलाएँ होतीं-संभवतमाँ, भाभी, चाची और बहिनें थीं और कभी-कभी कम उम्र की पत्नी भी. बस आ पहुँचती तो कड़क फौजी वर्दी में सजा जवान बस के अंदर आ बैठता और ‘घुर्र’ की आवाज कर गाड़ी आगे बढ़ जाती, तब जो रुलाई का स्वर उठता वह बहुत ही हृदय विदारक होता. रास्ते भर हमें ऐसे ही दृश्य देखने को मिलते रहे. युद्ध में समिधा बनते गए उन नौनिहालों मे से बहुत कम लोग सकुशल लौटे थे.

शेखर जोशी टिप्पणी करते हैं कि ‘शायद कोसी का घटवार का नायक गुसाई भी इसी घटना का परिणाम हो.’ गुंसाई का चरित्र हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय है. इस प्रेम कहानी में गुंसाई की ‘फौजी पैंट की चाहत और उससे उपजा अकेलापन मर्म को भेदती है.

आधुनिक काल में पहाड़ों से विस्थापन बड़ी मात्रा में हुआ हैउत्तराखंड के हजारों गाँव ‘भुतहा गाँव की संज्ञा पा चुके हैंउदारीकरण-भूमंडलीकरण के बाद न सिर्फ पहाड़ी गाँवों की बल्कि मैदानी भागों में बसे गाँवों की छवियाँ भी बदल रही है. इन बदलावों का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना अभी बाकी है. यह किताब छोटे-छोटे अट्ठाइस अध्यायों में विभक्त है. इसका रचना विधान और संयोजन अलहदा है, जो पाठकों को अगले एक के बाद एक अध्याय पढ़ने को प्रेरित करता है.

इस आत्मवृत्तात्मक किताब में एक संवेदनशील मन का प्रतिबिंब दिखता है. ऐसा नहीं है कि लेखक को अपनी सामाजिक अवस्थिति का बोध नहीं है. जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया है. पर श्रम के महत्व और हाशिए के समाज के प्रति लेखक की संवेदना और सहानुभूति मुखर होकर व्यक्त हुई है, दृष्टि परिवर्तनकारी है. जाहिर है अपने कथ्य और बनावट में यह किताब दलित आत्मकथाओं से साफ अलग है. इसकी तुलना ‘जूठन’ (ओमप्रकाश वाल्मीकि) या ‘मुर्दहिया’ (तुलसी राम) से नहीं की जा सकती. 

हिंदी में कथा-साहित्य का इतना जोर रहता है कि कथेतर साहित्य की चर्चा कम ही हो पाती है. कथेतर गद्य की भाषा बरतने के लिहाज से भी यह किताब पढ़ी जानी चाहिए. न केवल साहित्य में बल्कि हिंदी आलोचना में भी आजकल अबूझ भाषा के प्रयोग का चलन बढ़ा है. संप्रेषण से ज्यादा लेखकों-आलोचकों का जोर अपनी गुरुता सिद्ध करना रहता है. अनायास नहीं कि आज नई वाली हिंदी’ की खूब चर्चा है, जो लोक से दूर है. यह किताब याद दिलाती है कि कैसे साफ-सुथरी और सहज भाषा से पाठकों तक अपने विचारों को संप्रेषित किया जा सकता है. सवाल है कि क्या हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों को ठूंस देने से, वक्रोति भर देने से कोई भाषा ‘नई’ हो जाती है? भाषा बनाने का काम पूरा समाज करता है. जिसे हम ‘नई वाली हिंदी’ कहते हैं वह भूमंडलीकरण के दौर में उभरे नव-मध्यम वर्ग की भाषा है. ओलियागाँव में मडुगौड़ेधानरोपै और अखोडझड़ैं जैसे बोलचाल की भाषा के शब्द भी मौजूद हैं जिनमें लेखक के शब्दों में विराट जनकल्याण की भावना और सामूहिकता की ध्वनि छिपी हुई है’  और इससे इंकार भी नहीं.

 

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, July 25, 2021

भारतीय भाषाओं में मलयालम सिनेमा का बुलंद वर्तमान

शायद ही कोई इससे इंकार करे कि हिंदी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की हिंदी मीडिया में बहुत कम चर्चा होती हैं. सवाल है कि क्यों हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं जबकि सिनेमा के विकास में विभिन्न भाषा-भाषी समाज की  ऐतिहासिक भूमिका रही है. 

सच तो यह है कि भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. तकनीक के विस्तार के साथ आए ओटीटी प्लेटफॉर्म के मार्फत  क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों को भी देश-विदेश के स्तर पर आज दर्शक देख व सराह रहे हैं. ऐसी फिल्में हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी. इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई मलयालम फिल्में हैं.

महामारी के दौरान मलयालम में रिलीज हुई द ग्रेट इंडियन किचनजोजीआरकारियममालिक आदि मलयालम फिल्मों की चर्चा देश-विदेश में हो रही है. लॉकडाउन के बीच मध्यवर्गीय दर्शकों ने इन फिल्मों को हाथों-हाथ लिया. जोजी और आरकारियम फिल्म में तो लॉकडाउन और मास्क’ के रूपक का कथ्य में खूबसूरती से निरूपण भी हुआ है.  पिछले दिनों द ग्रेट इंडियन किचन के निर्देशक जियो बेबी ने एक बातचीत के दौरान मुझे बताया कि इस फिल्म को अमेजन और नेटफ्लिक्स ने पहले अस्वीकार कर दिया था. उन्होंने इसे नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था. जब फिल्म की चर्चा होने लगीअच्छे रिव्यू आने लगे तब इसे अमेजन प्राइम ने रिलीज किया. इसी तरह आरकारियम फिल्म पहले सिनेमा हॉल में रिलीज हुई थी, पर महामारी के दौरान ओटीटी पर फिल्म को व्यापक दर्शक वर्ग मिला. मलयालम सिनेमा की इस नई धारा की चर्चा प्रतिष्ठित विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में भी हो रही है.

सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णनके जी जार्ज, जी अरविंदन, शाजी करुण ने संवृद्ध किया था. उनकी फिल्मों ने मलयालम सिनेमा को देश-दुनिया में स्थापित कियापर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. पिछले एक दशक में बनी मलयालम फिल्मों को देखकर हम कह सकते हैं कि मलयालम सिनेमा में यह एक नए युग की शुरुआत है जहाँ पापुलर और समांतर की रेखा मिट रही है. कम लागत से बनने वाली इन फिल्मों में इन विषय-वस्तु  और सहज अभिनय पर जोर है. यही कारण है कि फाहाद फासिल जैसे अभिनेता (कुंबलंगी नाइट्स, जोजी, मालिक) की खूब प्रशंसा हो रही है. महेश नारायणन निर्देशत मालिक इस फिल्म में सुलेमान के एंटी होरी के किरदार को जिस खूबसूरती से फासिल ने निभाया है लोग इसकी तुलना गॉड फादर और नायकन फिल्म से कर रहे हैं. मलयालम में बनने वाली अन्य फिल्मों की तरह यह फिल्म भी केरल के समाज में रची-बसी है. इस फिल्म में राजनीतिक स्वर भी मुखर रूप से व्यक्त हुआ है, जो बॉलीवुड में इन दिनों मुश्किल से सुनाई पड़ता  है. उल्लेखनीय है कि इससे पहले महेश नारायणन की फाहाद फासिल और पार्वती थिरूवोथु अभिनीत टेक ऑफ’ (2017) फिल्म ने भी खूब सुर्खियाँ बटोरी थी.  

(प्रभात खबर, 25.07.2021)


Sunday, July 04, 2021

गोपालकृष्णन का सिनेमा संसार: अस्सी के अडूर

भारत में पचास भाषाओं में फिल्मों का निर्माण होता है. करीब पचासी प्रतिशत फिल्में बॉलीवुड के बाहर बनती हैं. हिंदी से इतर समकालीन फिल्मों, उनके निर्माता-निर्देशकों की मुख्यधारा के मीडिया में हालांकि बेहद कम उल्लेख होता है. सच तो यह है कि बॉलीवुड इतना हावी है कि अन्य भाषाओं में बनने वाली फिल्मों को हम क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के खाते में डाल कर छुट्टी पा लेते हैं, जबकि सिनेमा के विकास में बांग्ला और मराठी समाज की ऐतिहासिक भूमिका रही है. इंटरनेट और डिजिटल तकनीकी के विस्तार के बाद, हाल के दशक में, क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर दर्शक देख रहे हैं, सराह रहे हैं. ये फिल्में हिंदी क्षेत्र में पहले महज फिल्म समारोहों तक ही सीमित रहती थी.

यहाँ हम बात बॉलीवुड की दुनिया से दूर एक ऐसे साधक के बारे में कर रहे हैं जो पिछले पचास वर्षों से सिनेमा निर्माण और निर्देशन में सक्रिय हैं, जिनकी पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में है. मलयालम फिल्मों के विख्यात निर्देशक अडूर गोपलकृष्णन तीन जुलाई को अस्सी वर्ष पूरे कर रहे हैं. सिनेमा में योगदान के लिए प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन सत्यजीत रे के बाद देश के प्रमुख ‘ओतर’ यानी फिल्म निर्देशक माने जाते रहे हैं. खुद अडूर सत्यजीत रे को अपना गुरु कहते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनकी फिल्मों में मानवतावादी दृष्टि की समीक्षक चर्चा करते हैं. वे इस बात को स्वीकारते हैं कि वे सौभाग्यशाली थे जो उन्हें सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे फिल्मकारों का संग-साथ मिला. इन तीनों निर्देशकों ने बांग्ला में सिनेमा की नई धारा को पुष्ट किया था.
अडूर गोपालकृष्णन की जड़ें केरल में स्थित एक छोटे शहर अडूर में हैं, जो उनके नाम में जुड़ा है. युवावस्था में वे थिएटर से गहरे जुड़े थे. वर्षों पहले एक मुलाकात में उन्होंने मुझे बताया था कि ‘कालेज के दिनों में मेरी अभिरुचि नाटकों में थी. मैंने फिल्म के बारे में कभी नहीं सोचा था. जब मैंने 1962 में पुणे फिल्म संस्थान में प्रवेश लिया, तो वहां देश-विदेश की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों को देख पाया. मुझे लगा कि यही मेरा क्षेत्र है, जिसमें मैं खुद को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त कर सकता हूं.’ फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में ऋत्विक घटक उनके शिक्षक रहे थे. वहाँ से प्रशिक्षण के सात साल बाद उन्होंने अपनी पहली फिल्म 'स्वयंवरम (1972)' बनाई जिसे चार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. इस फिल्म के माध्यम से लोगों को एक युवा निर्देशक का अलहदा स्वर सुनाई पड़ा. यह स्वर मलायलम सिनेमा में समांतर सिनेमा को बुलंद करने वाला साबित हुआ जिसकी अनुगूंज मलयालम फिल्म के युवा निर्माता-निर्देशकों के यहाँ आज भी सुनाई पड़ती है.
पिछले दिनों बातचीत के दौरान अडूर ने बताया कि “फिल्म, असल में, मेरे लिए दर्शकों के साथ एक अनुभव साझा करना है. और ये अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए.” अपने इस अनूठे अनुभव को दर्शकों से बांटने के क्रम में वे अपने पूरे फिल्मी करियर के दौरान कमर्शियल फिल्मों के दायरे से बाहर रहे. ‘स्वंयवरम’ फिल्म में कोई नाच-गाना नहीं था. सिनेमा निर्माण के व्यावसायिक दायरे से बाहर रहने के कारण उन्होंने पूरे करियर में महज बारह फिल्में ही निर्देशित किया है. गौरतलब है कि अडूर विषय-वस्तु के लिहाज से किसी फिल्म में खुद को दोहराया नहीं. उनकी फिल्मी यात्रा को देखने पर यह स्पष्ट है. जहाँ ‘एलिप्पथाएम’ में आजादी के बाद के सामंती समाज और घुटन का चित्रण है वहीं ‘मुखामुखम’ में एक मार्क्सवादी राजनीतिक कार्यकर्ता फिल्म के केंद्र में है. ‘अनंतरम’ में एक फिल्मकार की रचना प्रक्रिया से हम रू-ब-रू होते हैं, जहां यथार्थ और कल्पना में सहज आवाजाही है. यहाँ रचनाकार के सामने शाश्वत सवाल है कि हम रचें कैसे? वहीं ‘मतिलुकल’ में ‘स्वयंवरम’ की तरह स्वतंत्रता एवँ मुक्ति का प्रश्न प्रमुखता से उभरा है, हालांकि फिल्म निर्माण की दृष्टि से अनंतरम के करीब है. ‘कथापुरुषन’ में आत्मकथात्मक स्वर है, इस फिल्म में सामंती हदबंदियों को तोड़ा गया है. फिल्म की शूटिंग भी उन्होंने अपने पुश्तैनी घर में ही की. अडूर का सिनेमा आजादी के बाद परंपरा और आधुनिकता के कशमकश को, केरल की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को, बदलती हुई राजनीति के परिप्रेक्ष्य में निरूपित करता है. यहां विभिन्न स्तरों पर विस्थापन और अस्मिता की खोज मौजूद है.
विषय-वस्तु में विविधता भले हो पर अडूर की फिल्मों में केरल की संस्कृति एक ऐसा सूत्र है जो उनकी पूरी फिल्मी यात्रा को व्याख्यायित करता है. वे आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. पिछले साल उनकी एक छोटी फिल्म ‘सुखयांतम’ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज हुई. उनकी फिल्मों में सामाजिकता के साथ वैचारिकता का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. वे कहते हैं कि एक विचार के प्रभाव से बाहर निकलने में उन्हें काफी वक्त लगता है. सादगी में विश्वास करने वाले अडूर स्वभाव से मितभाषी हैं. यह उनकी फिल्मों में भी परिलक्षित होता है. उनकी फिल्में कम बोलती हैं. बिंबों और ध्वनि के जरिए यहाँ दर्शकों को अनुभव और कल्पना से चीजों की व्याख्या करनी होती है, गैप्स को भरने होते हैं.
यह पूछने पर कि क्या उन्होंने कभी किसी अन्य भाषा में फिल्म बनाने की नहीं सोची? अडूर कहते हैं- नहीं. वे कहते हैं कि भाषा महज विचारों की अभिव्यक्ति का जरिया नहीं है, उसमें संस्कृति फलती-फूलती है. उनकी फिल्मों में केरल की आबोहबा और संस्कृति गहरे रची-बसी है. केरल की स्थानीय जमीन पर खड़ी होकर उनकी फिल्में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत तक पहुँची है. अडूर का सिनेमा मनोरंजन से आगे बढ़ ऐसे सामाजिक यथार्थ और अंतर्मन के भावों को हमारे सामने पेश करता है जो स्थानीयता और समय की सीमा से पार जाता है. यही उनकी कला की विशेषता है.

(न्यूज 18 हिंदी वेबसाइट पर प्रकाशित)

Saturday, July 03, 2021

‘I Made no Compromise in any of my Films’—Adoor Gopalakrishnan

 The great filmmaker, who turns eighty on 3 July, says he never made films just to please his audience or producers and has no regrets.

Arvind Das

 

03 Jul 2021




Ace filmmaker Adoor Gopalakrishnan turns eighty on 3 July. Independent journalist and media researcher Arvind Das speaks with him about his creative process, the future of cinema, the impact of the COVID-19 pandemic on films and his relationship with the filmmakers Satyajit Ray, Ritwik Ghatak and Mrinal Sen. Gopalakrishnan says he cannot wait for the pandemic to end so that audiences return to see films the way they are meant to be watched: on a big screen and as a collective. Edited excerpts from a phone interview.

From Swayamvaram in 1972 to Sukhayantam in 2019, it has been such a long journey from your days at the Film and Television Institute of India (FTII) in the early sixties. Now, at eighty, how do you reflect upon your life in cinema?

Normally, I don’t look back, because it took me seven years to make my first film and then there was an interval again. In fact, there have been long intervals in my film career. My professional career started in 1965 and I made twelve films in these 55 years. It takes me a long time to settle on a subject. I was not a part of the so-called [film] industry. When I was making a film I was an insider and when I was not making a film I was an outsider.

People ask me why I made very few films. Many in the industry made fifty or sixty films in that period. Once Satyajit Ray asked me, (he used to like my work) why don’t you make at least one film every year? I told him it was my dream too, but because of the way I work, proceed with my idea and script, I cannot. Before I make a film and even after it is made, it lingers on with me. It takes me time to come out of the influence of an idea. So, it takes a long time to work on an idea and get out of it also. I often joke, most of the time I am not making films [laughs].

So, the gestation period for each film is almost five years?

Yes. Even seven or eight years. But it is not intentional. Those who ask me why I made so few films, I ask them, how do you manage to make so many films! Because you are working in an industry where everything is against you. It is [what they call] variety entertainment kind of cinema. And then, here is something that is very austere, which I think is very important for my audience to watch. It talks about their life, my life, the society. It is very difficult in that sense.

Fortunately, I had a fairly good audience. My films were released in regular cinemas and never rejected. My films were released and given the same publicity as other big productions. I was very particular about that. It has been very important for me. I had good audiences outside Kerala and even outside India. This gave me enough confidence to carry on. And I was lucky, in that sense. I made no compromise in any of my films. This I can tell you very clearly: I never make a film just to please my audience or producer. As a filmmaker, I have complete control over what I do. For me, to be happy about what I do is important. I have no regrets. Every film has been very dear to me.

What kind of relationship did you share with other noted filmmakers, such as Satyajit Ray, Ritwik Ghatak and Mrinal Sen, who had started making films in the decade before your first film?

Satyajit Ray was like a guru. He always said good things about my work. He was very kind. I did not have a personal relationship with Ritwik Ghatak, but he was my teacher. I learned a lot from him. He was a remarkable filmmaker. Because of him, I read a lot about films at the FTII. Mrinal Sen was like my elder brother. I had a very warm and close relationship with Ray and Sen. I had these three great masters of Indian cinema before me. I consider myself lucky.

Which one of these masters’ movies do you like the most?

Ray’s Apu Trilogy. I have a special liking for Aparajito, Mrinal Sen’s Ek Din Pratidin and Ritwik Ghatak’s Meghe Dhaka Tara. These are my favourite films.

You wrote in the foreward to Adoor Gopalakrishnan: A Life in Cinema by Gautaman Bhaskaran that most of your films “do not lend themselves to simple paraphrasing. Their ambition extends beyond mere storytelling”. Could you please elaborate? Also, what according to you is the most important element in a film?

For me, a film is basically an experience shared with an audience. This experience should be worthwhile [for it] to be shared with the audience. My films reflect my culture. I am very much part of my society, not an outsider. Filmmakers have to say new things and say them in a novel way. [They have to find] new ways of looking at things for the audience. I do not repeat in my film, that is boring. I do things that interest me. Cinema developed as an aspiration of great artistic work. We cannot be ignorant about what is happening around us.

There are autobiographical elements in your movie. Is this conscious or incidental?

As an artist, one cannot create anything outside himself. If it has artistic integrity, necessarily, it has to have autobiographical elements. It goes through a certain mutation in a new form when you create something.

Freedom and emancipation are the main themes in Swayamvaram [One’s Own Choice, 1972], Elippathayam [Rat Trap, 1981] and Mathilukal [Walls, 1990], but your Anantaram [And Thereafter, 1987] is apart from these. Tell me about this movie: How did you visualise the real versus the imaginary in this movie? The line gets blurred in it.

Anantharam is a film about the process of creation. The idea is, how do you create? At the initial level, you work on experience and then you fall back on that experience. If you are an artistic person, you have to arrange this experience in some way and then comes imagination. So, it is a combination of all these things. Experience does not come as it is. It undergoes a kind of organic change. We all have an introvert and an extrovert within ourselves. Here is a character, Ajayan, if you look at the two stories told by him, they do not contradict each other. Rather, they are complementary. Here, the audience fills the gaps in between and makes the story for itself.

Jeo Baby, director of The Great Indian Kitchen, told me recently that your films have influenced him. To me, The Great Indian Kitchen brought your film Elippatahyam to mind…

[Laughs] Actually, Elippathayam started off from a thought. I used to ask myself why people do not react the way they should about things around them. I was mulling over the idea. Then I got the answer—if you start reacting to things around you, it creates inconveniences for you. Then you want to believe these things don’t exist. I chose the character of Unni from the post-feudal joint family system in Kerala from the fifties and sixties. These people were landed gentry. Unni is incapable of facing what is happening around him. He just pretends it does not exist. He withdraws from the surroundings.

Have you ever thought of making a film in another language?

No, I have never thought about it. Language is not just a medium of expressing ideas. It is a flower of a certain culture...Language evolved out of life. Languages may be similar, but each has nuances. In cinema, the nuances of living and culture are very important. Even suppose I wish to make a movie in Hindi, I will not be able to do it. I will not be able to direct actors. I will not be able to understand the dialogue-delivery, because I don’t know enough Hindi.

What future do you see for cinema, when you see things in the context of the Covid-19 pandemic?

During the pandemic, people are watching cinema on laptops, cellphones etc., but cinema has to necessarily be seen in a hall. It is a communitarian experience. When you watch a movie on television, there are so many things happening around you, so much distraction.

I want my audience to concentrate on the screen. The TV has such a small screen. You miss a lot because cinema is made for the big screen. You miss a particular shot, hear only the middle voice. High and low sounds are not heard. My work is lost on my audience. It is a big compromise. So, the cinema has to come back again to the halls.

Any films that have had an impact or influenced you in particular?

As a student of cinema I have been watching films from the very beginning. I watched all the great masters’ works in the last several decades. I have been inspired by everything I saw. My vocabulary is derived from all that I have experienced in cinema, theatre and other art forms. What I have learnt is you have to develop your own language, your own method, and your own approaches.

Any plans you would like to share with readers?

I have no immediate plans. I have not come across a worthwhile idea. I don’t force one upon myself...


(Published on Newsclick website)