Tuesday, March 19, 2019

मिथिला की लिखिया कला


पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला कला की वयोवृद्ध एवं सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त को पद्मश्री से सम्मानित किया. राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल से राष्ट्रपति भवन ने गोदावरी दत्त की तस्वीर शेयर करने के साथ ही लिखा कि पारंपरिक कला को बढ़ावा देने, उभरते कलाकारों को प्रशिक्षित करने और मार्गदर्शन के लिएउन्हें यह सम्मान दिया गया.

मधुबनी जिले के रांटी गांव में रहनेवाली, शिल्प गुरु, गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं.

रामायण, महाभारत के अनेक प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक हों, पर उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. वे खुद कहती हैं कि मेरी मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग फोक टचको लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में बदलाव आया है.

कोहबर, सीता-राम, अर्धनारीश्वर जैसे पारंपरिक विषयों के अलावे मिथिला कला में भ्रूण हत्या, आतंकवाद, खेती जैसे विषय भी पिछले दो दशकों में चित्रित किये गये हैं. यह सैकड़ों साल पुरानी इस कला के विकसनशील होने का प्रमाण है.

पिछली सदी में जब प्रसिद्ध मिथिला कलाकार गंगा देवी ने अमेरिकी प्रवास को अपनी पेंटिंग मे चित्रित किया, आत्मकथात्मक रेखांकन किया, तब कला के पारखियों की नजर इस कला में निहित आधुनिक भाव बोध और संवेदनाओं की ओर गयी.

इसी तरह संतोष कुमार दास ने गुजरात सीरीजबनाकर गुजरात दंगों के दौरान धर्म-हिंसा के गठजोड़ को चित्रित कर इस कला को समकालीन समय और समाज से जोड़ा. आम तौर पर पारंपरिक कला में इस तरह के विषय नहीं देखे जाते.
हाल ही में शांतनु दास ने नागार्जुन की चर्चित कविता अकाल और उसके बादको एक बड़े कैनवस पर मिथिला कला की शैली में चित्रित किया है. नये युवा कलाकारों की शिक्षा-दीक्षा और माइग्रेशनने उनकी सोच और संवेदना का विस्तार किया है, जो इस कला में आज प्रमुखता से दिखायी देता है.

असल में, 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में ही आधुनिक विषय-वस्तु का इस पारंपरिक कला में प्रवेश दिखता है. अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यूजी आर्चर ने मार्गपत्रिका में वर्ष 1949 में जब मैथिल पेंटिंगलेख लिखा, तब उन्होंने इस कला के लिए फोक (लोक) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था.

साथ ही मिथिला क्षेत्र में वर्ष 1934 में आये भूकंप के बाद आर्चर ने जो चित्र उतारी थी, उनमें दीवारों पर मिथिला शैली में रेलगाड़ीका चित्रण मिलता है. जाहिर है, उस समय भी लोग पारंपरिक विषय-वस्तुओं से अलग आधुनिक विषयों को अपनी कलम और कूची का आधार बनाते रहे थे. प्रसंगवश, आज भी पुराने लोग मिथिला कला को लिखियाकहते हैं, पेंटिंग नहीं.


(प्रभात खबर, 19 मार्च 2019 को प्रकाशित)

Tuesday, March 05, 2019

सिनेमा के स्वरूप पर उठते सवाल


पिछली सदी के साठ-सत्तर के दशक में फिल्म अध्येताओं के बीच बजरिये आंद्रे बाजां सिनेमा क्या है’, बहस के केंद्र में था. असल में सिनेमा के चर्चित आलोचक और सिंद्धांतकार बाजां की इस नाम से मूल फ्रेंच भाषा में दो भागों में लिखी किताब का अंग्रेजी अनुवाद बाजार में आया था. करीब पचास वर्ष बाद एक बार फिर से सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र और स्वरूप को लेकर सवाल उठ रहे हैं.

ऑस्कर पुरस्कार देनेवाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज ने पिछले दिनों निर्णय लिया कि पुरस्कार समारोह के दौरान चार पुरस्कारों को ऑफ एयरयानी विज्ञापनों के बीच ब्रेक के दौरान दिये जायेंगे. इसमें सिनेमैटोग्राफी, फिल्म एडिटिंग, लाइव-एक्शन शॉर्ट, मेकअप और हेयरस्टाइलिंग शामिल थे. बाद में, फिल्मकारों की आलोचना के बाद एकेडमी को यह निर्णय वापस लेना पड़ा.

मैक्सिको के चर्चित निर्माता-निर्देशक अल्फोंसो कुरों, जिनको एक साथ रोमाफिल्म के लिए बेस्ट डायरेक्टरऔर बेस्ट सिनेमैटोग्राफीका ऑस्कर मिला, ने लिखा था- सिनेमा के इतिहास में बिना ध्वनि, बिना रंग, बिना कहानी, बिना कलाकार और बिना संगीत के मास्टरपीस मौजूद रहे हैं, पर बिना सिनेमैटोग्राफी और संपादन के दुनिया की कोई भी फिल्म आज तक अस्तित्व में नहीं आयी है.

हॉलीवुड और बॉलीवुड में बननेवाली फिल्मों में व्यावसायिकता प्रधान कहानियोंऔर स्टारोंपर इतना जोर रहता है कि दर्शक दृश्य योजना (मीज ऑन सेन), सिनेमैटोग्राफी, संपादन या ध्वनि तत्वों पर गौर ही नहीं करता. साथ ही दर्शकों के बीच सिनेमा के एप्रिशिएसन (रसास्वादन) पर जोर नहीं रहता है.

संचार क्रांति के इस आधुनिक दौर में देशी-विदेशी सिनेमा के विभिन्न रूपों से परिचय के बाद दर्शकों में मनोरंजन से आगे सिनेमा को एक स्वतंत्र कला माध्यम और विचार के रूप में पढ़ने की गुंजाइश बढ़ी है. आशा है आगामी वर्षों में दर्शक शैली (क्राफ्ट) पर भी ध्यान देंगे.

कल्ट फिल्मका दर्जा पा चुकी कमल स्वरूप निर्देशित ओम-दर-ब-दरकी संपादक प्रिया कृष्णास्वामी कहती हैं- डी डब्लू ग्रीफिथ के समय से ही संपादन को फिल्म निर्माण में लेखन का दूसरा चरण माना जाता है.

संपादन के समय ही निर्देशक मूल स्क्रिप्ट के मुताबिक जो शूट करके लाता है उसमें से उसे क्या चाहिए, इसका निर्णय करता है.फिल्म में निर्देशक दृश्य, बिंब और ध्वनि का जिस तरह संयोजन करता है, वही उसे विशिष्ट बनाता है, लेकिन दर्शकों के ध्यान में पर्दे के पीछे बैठे तकनीशियन, आर्टिस्ट या संपादक कभी नहीं आते.

भारत की भानु अथैया को बेस्ट कॉस्ट्यूम डिजाइनऔर रेसुल पोकुट्टी को साउंड मिक्सिंगके लिए ही ऑस्कर पुरस्कार मिला था. बाजार के दबाव में लिये गये निर्णय से स्पष्ट है कि एकेडमी की नजर में सिनेमा मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन सिनेमा के अध्येता और सिनेमाप्रेमी पूछ रहे हैं कि बिना संपादक, बिना सिनेमैटोग्राफर सिनेमा का स्वरूप क्या होगा?

(प्रभात खबर, 5 मार्च 2019 को प्रकाशित)