Sunday, November 29, 2020

छोटे मुंह बड़ी बात करती फिल्में


छोटी फिल्में ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ करती है. फीचर फिल्मों की तरह इनके पास दो-ढाई घंटे का समय नहीं होता. बमुश्किल पच्चीस-तीस मिनट में लेखक-निर्देशक को अपनी बात कहनी होती है, अभिनेता को अपनी कला का प्रदर्शन करना होता है. जाहिर है, शार्ट फिल्म फिल्मकारों के लिए एक चुनौती है. आम तौर पर फिल्म स्कूल के छात्र ‘डिप्लोमा फिल्मों’ में इस विधा का इस्तेमाल करते रहे हैं. विधु विनोद चोपड़ा, श्रीराम राघवन जैसे चर्चित फिल्म निर्देशकों की शार्ट डिप्लोमा फिल्मों को लोग आज भी याद करते हैं. पिछले दशक में इंटरनेट और यू- ट्यूब जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के उभार ने शार्ट फिल्म को एक अलग मंच दिया है, जहाँ कई पुराने और नए फिल्मकार अपनी फिल्मों को प्रदर्शित कर रहे हैं. कई प्रयोगशील फिल्मकारों की फिल्में भी यहाँ दिख जाती है.

पिछले दिनों ‘धर्मशाला इंटरनेशल फिल्म फेस्टविल’ का ऑनलाइन आयोजन हुआ, जिसमें देश-विदेश की फीचर फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंट्री और शार्ट फिल्मों का भी प्रदर्शन किया गया. ख़ास कर दो शार्ट फिल्म ‘बिट्टू’ और ‘लाली’ की चर्चा हुई. प्रसंगवश, अभिरूप बसु के निर्देशन में बनी ‘लाली’ का प्रीमियर इसी फिल्म समारोह में किया गया. करीब 35 मिनट की यह फिल्म पंकज त्रिपाठी के एकल अभिनय के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है. उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता को एक बार फिर से साबित किया है. बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि पंकज त्रिपाठी हमारे समय के एक ऐसे फिल्म अभिनेता हैं जिनसे आने वाले वर्षों में काफी उम्मीदें हैं.

इस्त्री करने वाले एक प्रवासी कामगार के अकेलेपन और प्रेम से बिछुड़ने की पीड़ा बिना किसी शोर-शराबे के इस फिल्म में अभिव्यक्त हुई है. बहिर्मन के शोर और अंतर्मन के मौन को पंकज त्रिपाठी ने अपने हाव-भाव से बखूबी पकड़ा है. त्रिपाठी के सधे अंदाज में स्मृतियों का गंध साथ-साथ लिपटा हुआ चला आता है. ‘तीसरी कसम’ फिल्म के हीरामन गाड़ी वाले और हीराबाई के बीच पनपे प्रेम की एक झलक इस फिल्म में दिखती है, हालांकि शार्ट फिल्म होने की वजह से फिल्म विस्तार में नहीं जाती. यहाँ दर्शकों को अपनी कल्पना से बिंदुओं को जोड़ना पड़ता है, खाली जगहों को भरना होता है.

जहाँ ‘लाली’ एक काल्पनिक कथा को अपना आधार बनाती है, वहीं ‘बिट्टू’ एक यर्थाथ घटना पर आधारित है. युवा निर्देशिका करिश्मा देव दुबे ने इस फिल्म में स्कूलों में दोपहर के समय दिए जाने वाले भोजन के माध्यम से एक त्रासदी को दिखाया है. वर्ष 2013 में बिहार के छपरा ज़िले में मध्याह्न भोजन योजना कार्यक्रम के तहत जहरीले खाना खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी. अलग-अलग स्वभाव के आठ वर्षीय बिट्टू और चांद के बीच दोस्ती और बाल-सुलभ नोक-झोंक को सहज भाव से फिल्म सामने लाती है. शिक्षक और बच्चों के आपसी संबंधों के कुछ दृश्य मर्म को छूते हैं.

इस फिल्म में भी अकस्मात बिछुड़ने की पीड़ा है. यह पीड़ा त्रासदी के बाद बिट्टू के मौन के रूप में हमारे सामने आती है. बिना कुछ कहे यह फिल्म सरकारी काम-काज के तरीकों, समाज में हाशिए पर रहने वाले बच्चों और उनके भविष्य का सवाल हमारे सामने छोड़ जाती है. साथ ही यह सवाल मन में उठता है इन त्रासदियों के लिए कौन जिम्मेदार है? 

(प्रभात खबर, 29 नवंबर 2020)

Sunday, November 15, 2020

'देस' की तलाश में मैथिली सिनेमा

वर्ष 1937 में ‘न्यू थिएटर्स’ स्टूडियो की ‘विद्यापति’ फिल्म खूब सफल रही थी. देवकी बोस के निर्देशन में बनी यह फिल्म खास तौर से गीत-संगीत के लिए आज भी याद की जाती है. मैथिली के आदि कवि विद्यापति (1350-1450) के गीतों की संगीतात्मकता प्रसिद्ध है. आश्चर्य की बात यह है कि इस फिल्म में गीत विद्यापति के नहीं थे, न हीं फिल्म की भाषा ही मैथिली थी. यह फिल्म हिंदी-बांग्ला में बनी थी. मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय में फिल्मों में इस समाज की लगभग अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है.

जहाँ बोलती हिंदी फिल्मों के साथ-साथ ही बांग्ला और असमिया सिनेमा विकसित होनी शुरू हुई, वहीं मैथिली में सिनेमा का इतिहास आजादी के बाद 60 के दशक में शुरु होता है. ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से पहली मैथिली फिल्म वर्ष 1963-64 में बननी शुरु हुई, जिसके निर्देशक सी परमानंद थे. बाद में यह फिल्म काफी कठिनाइयों को झेलती हुई ‘ममता गाबय गीत’ नाम से 80 के दशक के मध्य में रिलीज हुई थी, जिसे लोग गीत-संगीत और मैथिली संवाद के लिए आज भी याद करते हैं. इस फ़िल्म में महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खो, छोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोर, बौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-‘माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी इस फिल्म भी शामिल था.

मैथिली में पहली फिल्म होने का श्रेय ‘कन्यादान’ फिल्म को है. वर्ष 1965 में फणी मजूमदार ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. हरिमोहन झा के चर्चित उपन्यास ‘कन्यादान’, जिस पर यह फिल्म आधारित है, का रचनाकाल वर्ष 1933 का है. इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है. चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ इस फिल्म से संवाद लेखक के रूप में जुड़े थे. फिल्म में मैथिली के साथ हिंदी का भी प्रयोग था. इस फिल्म के गीत-संगीत में प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था. इसके बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुई लेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है.

इन दो फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कहन हरब दुख मोर' ‘घोघ में चाँद’ आदि इक्का-दुक्का फिल्में प्रदर्शित हुई, जिसकी छिटपुट चर्चा की जाती रही है. हालांकि इनमें कोई आलाोचनात्मक दृष्टि या सिनेमाई भाषा नहीं मिलती है, जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके. इनमें से ज्यादातर फिल्में सामाजिक विषयों के इर्द-गिर्द ही रही, एक-दो फिल्में धार्मिक-पौराणिक महत्व के रहे.  

जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती है, भोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पिअरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.

केदार नाथ चौधरी ‘ममता गाबय गीत’ फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘आबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-‘अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’. 

इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? केदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता?

फिल्म नगरी बंबई में शुरुआती दौर से बिहार के कलाकार मौजूद रहे हैं और विभिन्न रूपों में अपना योगदान देते रहे हैं. प्रसंगवश, ‘ममता गाबय गीत’ के निर्देशक सी परमानंद की एक छोटी सी भूमिका ‘तीसरी कसम’ फिल्म में थी. साथ ही बिहार में भी सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एल्फिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एल्फिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआ, में पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है.

पर जहां तक सिनेमा के सरंक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज और सरकार उदासीन ही रहा है. एक उदाहरण यहाँ पर देना प्रासंगिक होगा. पहली फिल्म ‘कन्यादान’ के प्रिंट आज अनुपलब्ध हैं. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित ‘नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया’ से संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. फिल्मों के खोने से आने वाली पीढ़ियाँ उन संचित स्मृतियों से वंचित हो जाती है. 


पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. जहाँ कम लागत, अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी, पंजाबी, मलयालम फ़िल्में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है, वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फ़िल्मों की चर्चा नहीं मिलती.  यहाँ तक कि पापुलर फ़िल्मों में भी भोजपुरी फ़िल्मों की ही चर्चा होती है.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015), रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018), और अचल मिश्र निर्देशित ‘गामक घर’ (2019) की मीडिया में चर्चा हुई है. ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. साथ ही ‘गामक घर’ फिल्म को भी फिल्म समारोहों में सराहा गया और यह भी पुरस्कृत हुई. ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. इस तरह की फिल्में मैथिली सिनेमा को कला प्रेमियों और देश-विदेश के समीक्षकों की नजर में लाने में कामयाब है.

हालांकि इन फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई  उत्साह नहीं है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अब तक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ वे कहते हैं कि यहाँ तक कि ऑनलाइन प्लेटफार्म (हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, जी 5 आदि) पर भी मिथिला मखान को कोई प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने का फैसला किया. नितिन चंद्रा इस फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए लोगों से चंदा (क्राउड फंडिंग) भी मांग रहे हैं, पर परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा है. ‘ममता गाबय गीत’ को भी अपने जमाने में वितरक नहीं मिल पाया था. ऐसा लगता  है मैथिली सिनेमा इन दशकों में एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. मिथिला में कोई माहौल नहीं दिखता. 

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का प्रदर्शन ही होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषा-भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैं, भले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. हिंदी के वर्चस्व को लोगों ने बिना किसी दुविधा के स्वीकार कर लिया है. मनोरंजन के लिए ये बॉलीवुड की ओर ही देखते रहते हैं और इनमें मैथिली सिनेमा को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती हैं. साथ ही मैथिली भाषा पर एक जाति विशेष की भाषा होने का आरोप लगता रहा है. क्या मैथिली सिनेमा का विकास नहीं होने की एक वजह यह भी तो नहीं?

(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2020 में प्रकाशित)

Sunday, November 08, 2020

अदाकारों के लिए स्पेस रचता वेब सीरीज

कोविड के दौरान इस साल बड़े परदे पर सन्नाटा रहा और डिजिटल प्लेटफार्म पर वेब सीरीज मनोरंजन का मुख्य जरिया बनकर उभरे हैं. अपने घरों में कैद लोगों ने वेब सीरीज को हाथों हाथ लिया. पिछले दिनों अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई ‘मिर्जापुर’ सीजन दो की खूब चर्चा हो रही है. उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में अवस्थित यह सीरीज बाहुबली, अवैध धंधे में लिप्त कारोबारी और राजनेताओं के आपसी गठजोड़ को यर्थाथपरक ढंग से सामने लेकर आती है. आर्थिक पिछड़ेपन और अपराध को अनुराग कश्यप ने भी अपनी चर्चित फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में खूबसूरती से चित्रण किया था. हालांकि वेब सीरीज होने की वजह से मिर्जापुर का कैनवास बड़ा है, जिससे देश-काल और परिवेश उभर कर सामने आया है.

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ फिल्म की तरह ही मिर्जापुर में हिंसा के चित्रण और गाली-गलौज से भरी भाषा को लेकर दर्शकों ने सोशल मीडिया पर अपना रोष व्यक्त किया है. ‘मिर्जापुर’ सीजन एक (2018) में भी हिंसा का अतिरंजित चित्रण था. सीजन दो के एक एपिसोड में आपसी संवाद में एक पात्र टिप्पणी करते हुए कहती है- ‘तुम्हारी भाषा बहुत गंदी है’. इस तरह की भाषा की शुरुआत नेटफ्लिक्स की पहली वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ से ही हो गई थी. सिनेमा में हिंसा के चित्रण, पात्रों की ‘अश्लील भाषा’ को लेकर वाद-विवाद पुराना है और पक्ष-विपक्ष में लोग बहस करते रहे हैं. इस बात से इंकार नहीं कि समकालीन समाज और राजनीति के केंद्र में हिंसा का सवाल है, जिससे वेब सीरिज अछूती नहीं है. पर ‘मिर्जापुर’ के कुछ एपिसोड में हिंसा के दृश्य आरोपित हैं. बिना इन दृश्यों के भी इस वेब सीरीज को पूरा किया जा सकता था.

बॉलीवुड में लंबे समय तक कुछ ‘फॉर्मूले’ के तहत ही फिल्में बनती रही हैं. डर इस बात का है कि आने वाले समय में वेब सीरीज कहीं ‘हिंसा-अपराध-चटपटे संवाद’ के ‘फार्मूले’ में फंस कर नहीं रह जाए. ऐसा भी नहीं कि वेब सीरीज में विषयों की विविधता नहीं है. इस साल आए वेब सीरिज ‘बंदिश बैंडिट्स’ में जहाँ संगीत केंद्र में है, वहीं ‘पंचायत’ में ग्रामीण जीवन.

भारत में वेब सीरीज की शुरुआत वर्ष 2014 से कही जाती है. नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘सेक्रेड गेम्स (2018)’ से आम दर्शकों के बीच वेब सीरीज की पहुँच बढ़ी और फिर देखा-देखी विभिन्न प्लेटफॉर्म पर तेजी से फैली. बहरहाल, वेब सीरीज अदाकारों के लिए मुफीद रहे हैं. एक नया स्पेस उन्हें मिला है और आने वाले समय में नए कलाकारों से उम्मीदें भी बंधी है. एक तरफ नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, पंकज त्रिपाठी आदि जैसे मंजे कलाकार वेब सीरीज में इस साल नजर आए, वहीं ‘मिर्जापुर’ में दिव्येंदु शर्मा, श्वेता त्रिपाठी, प्रियांशु पेनयुली, ‘पाताल लोक’ में जयदीप अहलावत, ‘पंचायत’ में जितेंद्र कुमार, ‘शी’ में विजय वर्मा जैसे कलाकारों को आम दर्शकों ने अलग ने नोटिस किया है. जयदीप अहलावत और विजय वर्मा जैसे कलाकार आठ-दस वर्षों से बॉलीवुड में संघर्ष करते रहे हैं.

इन वेब सीरीज की पटकथा में कई ‘सबप्लॉट’ रचे होते हैं. मुख्य अभिनेताओं के अतिरिक्त छोटी भूमिकाओं में आए अदाकारों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिला है. वेब सीरिज की चर्चा इन अदाकारों के लिए खास तौर पर की जानी चाहिए.

(प्रभात खबर, 8 नवंबर 2020)