Friday, November 29, 2019

चुन-चुन खाइयो मांस: आमिस

आमिस 

एक बार मैं एक दोस्त के साथ खाना खा रहा था. अचानक से दाल की कटोरी से उसने झपटा मार के कुछ उठाया और मुँह में डाल लिया. जब तक मैं कुछ समझता, हँसते हुए उसने कहा- चिंता मत कीजिए मैं आपको नहीं खिलाऊँगी. दाल में गलती से एक टुकड़ा मछली का आ गया था.

भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिसदेखते हुए यह प्रसंग मेरे मन में आता रहा. प्रसंगवश, मैं वेजिटेरियन हूँ और मेरी दोस्त उत्तर-पूर्व से थी,  जहाँ पर खान-पान की संस्कृति उत्तर भारतीयों से भिन्न है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है जो एंथ्रापलॉजी विभाग में उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली जो पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की माँ है अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसका डॉक्टर पति अपने सामाजिक काम से ज्यादातर शहर से बाहर रहता है और निर्मली के जीवन में नीरसता है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह तरह के मांस खाने को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम (?) पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है. लेकिन फिल्म में दोनों के बीच साहचर्य का अवसर कम है और सहसा विकसित प्रेम के इस रूप से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है. सिनेमा देश-काल को स्थापित करने में असफल है.  क्या हम इसे खाने के पैशन से विकसित ऑब्सेशन कहें?

खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने लंच बाक्सफिल्म में भी देखा था, पर आमिस फिल्म के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर यह मानवीय प्रेम के आधे-अधूरे जीवन को ही व्यक्त कर पाता है. क्या संपूर्णता की तलाश व्यर्थ है?  क्या दोनों के बीच प्रेम का कोई भविष्य नहीं?

फिल्म में अदाकारी, सिनेमैटोग्राफी, संपादन और बैकग्राउंड संगीत उत्कृष्ट है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित (locale) है, जिसे सिनेमा में खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है. सिनेमा चूँकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है इस वजह से महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते. जाहिर है आमिस के कई पाठ संभव हैं, पर यह फिल्म अपने अकल्पनीय कथानककी वजह से चर्चा में है. जहाँ अंग्रेजी मीडिया में आमिस को लेकर प्रशंसा के स्वर हैं, वहीं असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों के बीच तीखी बहस जारी है.

परकीया प्रेम को लेकर पहले भी फिल्में बनती रही हैं, साहित्य लिखा जाता रहा है. फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर किसी नैतिक दुविधा या समकालीन राजनैतिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. मिथिला की बात करुँ तो कुछ जातियों में शादी से पहले वर-वधू की अंगुली से थोड़ा सा नाम मात्र का खून (नहछू?) निकाला जाता है, जिसे खाने में मिला कर एक-दूसरे को खिलाया जाता है. यह परंपरा के रूप में आज भी व्याप्त है. मिथिला की तरह असम में भी तंत्र-मंत्र का प्रभाव रहा है और ख़ास तौर पर कामरूप प्रसिद्ध रहा है. फिल्म में मांस के बिंब को प्रेमी-प्रेमिका के (स्व) मांस भक्षण के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संयोग की व्याप्ति तक ले जाना, दूर की कौड़ी लाना है. कला में तोड़-फोड़ अभिव्यक्ति के स्तर पर जायज है, पर कल्पना के तीर को इतना दूर खींचना कि तीतर और बटेर की जगह मानव के मांस के टुकड़े हाथ आए तो इसे हम क्या कहेंगे? इसे हम अभिनव प्रयोग तो नहीं ही कह सकते.

प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एब्सर्ड की  तरफ मुड़ जाती है.

प्रेम में कागा से चुन-चुन खाइयो मांसकी बात करते हुए दो अँखियन को छोड़ने की बात भी की गई है जिसे पिया मिलन की आस है. यहाँ तो प्रेम उन आँखों को ही निगलना चाहता है. आँखें ही नहीं बचेंगी तो फिर दर्शक (प्रेमी) देखेगा क्या?

(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Sunday, November 24, 2019

अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का संसार


गोवा में चल रहे भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के पचासवें संस्करण का ऐतिहासिक महत्व है. वर्ष 1952 में जब भारत के चार महानगरों में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन किया गया, यह एशिया का भी पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव था. इसमें 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था, जबकि पचासवें समारोह में 76 देशों के फिल्मकार भाग ले रहे हैं.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस समारोह के आयोजन में व्यक्तिगत रूचि ली थी. वे दुनिया के सामने सिनेमा के माध्यम से एक स्वतंत्र राष्ट्र की ऐसी छवि प्रस्तुत करना चाह रहे थे जो किसी महाशक्ति के दबदबे में नहीं है. साथ ही देश के फिल्मकारों और सिनेमाप्रेमियों को विश्व सिनेमा की कला से परिचय और विचार-विमर्श का एक मंच उपलब्ध कराना भी उद्देश्य था. गुट निरपेक्षता के सिद्धांत की नींव नेहरू ने 1961 में भले ही डाली हो, वे इस पर 50 के दशक के शुरुआत से ही काम कर रहे थे. पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह को हम इसकी एक कड़ी के रूप में देख सकते हैं.

महात्मा गाँधी और सरदार बल्लभभाई पटेल के विपरीत नेहरू खुद एक सिनेमाप्रेमी थे और नए भारत के निर्माण में सिनेमा की एक महत्वपूर्ण भूमिका देख रहे थे. वे सिनेमा के कूटनीतिक महत्व से परिचित थे. नेहरू ने उद्धाटन भाषण में कहा था कि लोगों के जीवन में सिनेमा एक शक्तिशाली प्रभाव के रूप में उपस्थित है’. उन्होंने सिनेमा के माध्यम से जीवन में कलात्मक और सौंदर्यात्मक मूल्यों को समाहित करने पर जोर दिया था. नेहरू सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल करते थे.

समारोह के पहले संस्करण में राज कपूर की फिल्म आवारा के साथ एनटी रामाराव अभिनीत पाताल भैरवी (तेलुगू)’, वी शांताराम की अमर भूपाली (मराठी)और अग्रदूत की बाबला (बांग्ला)दिखाई गई थी. अमेरिकी निर्देशक फ्रैंक कापरा हॉलीवुड के शिष्टमंडल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. सोवियत संघ से मिखाइल चियायुरली की फिल्म फॉल ऑफ बर्लिनके अतिरिक्त इटली की नव-यथार्थवादी धारा के फिल्मकारों विटोरियो डी सिका की चर्चित बाइसिकिल थिव्सऔर रोबर्टो रोजीलीनी की रोम: ओपन सिटीआदि का भी प्रदर्शन किया गया था. रोजीलीनी के करीबी रहे मकबूल फिदा हुसैन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ओपन सिटी ने दुनिया भर में हलचल मचा दी, लेकिन जब इटैलियन प्रेजिडेंट को पहली बार थिएटर में दिखाई गई तो उन्होंने उस फिल्म की नुमाइश पर पांबदी लगा दी.” 

नेहरू ने रोजीलीनी को भारत के ऊपर फिल्म बनाने का न्यौता दिया, जो इंडिया: मातृ भूमिडाक्यूमेंट्री के रूप में सामने आई. 70 और 80 के दशक में समारोहों के दौरान दिखाई गई दुनिया के नामी फिल्मकारों मसलन, आंद्रे तारकोव्सकी, जोल्तान फाबरी, फेदेरीकी फेलीनी, इंगमार बर्गमान, फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, कोस्ता गावरास, रोमान पोलंस्की आदि की फिल्मों की चर्चा पुराने दौर के लोग आज भी करते हैं. हिंदी के चर्चित कवि कुंवर नारायण ने इन फिल्म महोत्सवों का जिक्र अपनी किताब- लेखक का सिनेमामें बखूबी किया है. हालांकि इंडियन पैनोरमा खंड में व्यावसायिक फिल्मों को शामिल करने को लेकर हाल के वर्षों में सवाल उठते रहे हैं.

कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशित जानू बरुआ कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में देश में फिल्म समारोह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं. व्यावसायिक दृष्टि ज्यादा हावी है, सिनेमा को कला के रूप में देखने-सुनने का अवसर नहीं मिलता. अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह इस मायने में सफल रहा है कि यहाँ सिनेमाप्रेमियों और फिल्मकारों को दुनिया भर के सिनेमा की कला से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है.फिल्म समारोह के पचासवें संस्करण में इस बात का भी लेखा-जोखा  किया जाना चाहिए कि भारतीय फिल्म उद्योग और फिल्मकारों पर इन समारोहों का क्या प्रभाव पड़ा है? भूमंडलीकरण के इस दौर में विदेश नीति में बॉलीवुड के साफ्ट पावरकी खूब चर्चा होती है, सवाल यह भी है कि नेहरू दौर के 'आइडिया ऑफ इंडिया' से  नरेंद्र मोदी के न्यू इंडियातक का सिनेमाई सफर कैसा रहा?

(प्रभात खबर, 24 नवंबर 2019)

Thursday, November 21, 2019

संघर्ष का परिसर: जेएनयू

किसी भी व्यक्ति या संस्थान के जीवन में पचास साल का ख़ास महत्व होता है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का यह पचासवां वर्ष है. होना तो यह चाहिए कि विश्वविद्यालय के लिए यह उत्सव का वर्ष होता, जहां उसकी उपलब्धियों और खामियों की समीक्षा होती. लेकिन छात्रावास की फीस में अप्रत्याशित बढ़ोतरी और जेएनयू की लोकतांत्रिक जीवन शैली पर प्रशासन के दबिश देने की मंशा के खिलाफ जेएनयू के विद्यार्थियों को सड़कों पर उतरना पड़ा.

जेएनयू उच्च शिक्षा के लिए देश और विदेश मे एक जाना-पहचाना नाम है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) की ओर से जारी नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग में जेएनयू उच्च पायदानों पर रहा है. हालांकि वर्ष 2016 से जेएनयू की चर्चा शिक्षा के एक उत्कृष्ट शिक्षा संस्थान से ज्यादा देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को लेकर विचारधारात्मक संघर्ष के परिसर के रूप में होती रही है. अब लोगों को समझ में आने लगा है कि इसके पीछे किस तरह की राजनीति और कारोबारी प्रचार और संचार तंत्र का हाथ रहा है.

शुरुआती दौर से जेएनयू की छवि एक प्रगतिशील विचारधारा और राजनीतिक रुझान वाले संस्थान की रही है, लेकिन किसी भी उत्कृष्ट विश्वविद्यालय की तरह यह एक लोकतांत्रिक परिसर है जहाँ बहस-मुबाहिसा और प्रतिरोध के स्वर हमेशा बुलंद रहे हैं. खासतौर पर आपातकाल के दौरान जेएनयू सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का एक केंद्र बन कर उभरा था. सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ छात्र-छात्राओं ने एक बड़ा संघर्ष किया था. राजनीतिक सक्रियता जेएनयू के छात्रों को विरासत में मिली है. एक बार फिर से खबरिया चैनलों में जेएनयू को लेकर पूर्वाग्रह है और सोशल मीडिया में कई लोगों ने शट डाउन जेएनयू’ जैसे हैशटैग के साथ जेएनयू बंद करोका अभियान चलाया.

मुझे याद है कि पिछले दशक में जब मैं जेएनयू का छात्र था तो समाजशास्त्र में राजस्थान के भील समुदाय से एक छात्र ने एमए में नामांकन लिया था. हम एक ही हॉस्टल में रहते थे. बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि  मेरे मन में अपनी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का ख्याल हर वक्त रहता हैपर सहपाठीमित्रोंऔर शिक्षकों ने किसी भी तरह की हीनमन्यता को मेरे अंदर घर नहीं करने दिया.” बहरहाल, एक आंकड़ा के मुताबिक 2017-18 के दौरान जेएनयू में पढ़ने वाले करीब 40 प्रतिशत छात्रों के परिवार की मासिक आय 12 हजार रुपए से कम  आंकी गई थी. जेएनयू की नामांकन पद्धति में सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रछात्राओं को नामाकंन के लिए ‘डेप्रिवेशन पाइंट्स’ दी जाती है.

जेएनयू में सबसिडी की वजह से पढ़ाई लिखाई के खर्चे, छात्रावास की फीस वगैरह बेहद कम हैं और इस लिहाज से शुरुआती दौर से देश के कोने-कोने से प्रतिभावान छात्र पढ़ने और शोध करने आते रहे हैं. इनमें से कई विद्यार्थी अपने परिवार और रिश्तेदारों में पहली पीढ़ी के होते हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय का रूख किया होता है.  पिछले दिनों1981-83 के दौरान जेएनयू के छात्र रहेअर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेताअभिजीत बनर्जी ने भी बातचीत में इस बात का जिक्र किया था कि उनके दौर में भी जेएनयू में देश के विभिन्न हिस्सों से छात्र मौजूद थे, जो इसकी खूबी थी. इस तरह जेएनयू अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता रहा.

पूरी दुनिया में शिक्षा को ‘पब्लिक गुड’ मानने और शिक्षा के निजीकरण को लेकर राजनीतिक बहस चल रही है. अमेरिका और ब्रिटेन में विद्यार्थियों को कर्ज लेकर महंगी उच्च शिक्षा पूरी करनी होती है. नतीजतन, एक खास वर्ग तक ही उच्च शिक्षा की पहुँच है. इसके उलट जर्मनी और फ्रांस में उच्च शिक्षा में कई तरह का वित्तीय अनुदान यानी सबसिडी देकर सस्ता बनाया गया है. इस दशक में इंग्लैंड में उच्च शिक्षा में महंगी ट्यूशन फीस को लेकर कई बार छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया है.

मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में देश में उच्च शिक्षा को विभिन्न तरह के अनुदान देकर सुलभ बनाया गया था. उदारीकरण के बाद कई निजी विश्विद्यालय उभरे हैं, जिनका जोर गुणवत्ता पर कम अपने कारोबार को बढ़ाने पर ज्यादा है. महंगी फीस होने के कारण एक खास वर्ग के बच्चे ही इन विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं. उच्च शिक्षा में निवेश को हम तात्कालिक नफे-नुकसान के आधार पर नहीं तौल सकते हैं.

राजनेताओं-शिक्षाविदों ने देश निर्माण में शिक्षा के महत्व को हमेशा महत्वपूर्ण माना है. उच्च शिक्षा कई तरह की जातीय-वर्गीय-लैंगिक बाधाओं को तोड़ता है और समाज के हाशिए पर रहने वाले कमजोर तबकों को आगे बढ़ने के अवसर देता है. पिछले पचास वर्षों में जेएनयू ने देश को बेहतरीन शिक्षक, अध्येता, राजनेता, नौकरशाह, समाजसेवी और पत्रकार दिए हैं. कहा जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देश में जेएनयू सामाजिक न्याय और समानता का एक सफल मॉडल है. जेएनयू की स्थापना के पचासवें वर्ष में उच्च शिक्षा को लोक हित में मानते हुए एक सार्थक विमर्श होना चाहिए, ताकि हम राष्ट्र निर्माण की सही दिशा में आगे बढ़ सके. यही जेएनयू की परंपरा रही है. 

(जनसत्ता, 21 नंवबर 2019)

Thursday, November 14, 2019

भारतीय सिनेमा पर नेहरू की छाया


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बॉलीवुड के फिल्मकारों, अदाकारों और सितारों से मुलाकात की. इस मुलाकात में उन्होंने महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के अवसर पर उनके विचारों को सिनेमा के माध्यम से फैलाने पर जोर दिया. खुद गाँधी सिनेमा से प्रभावित नहीं थे. वे सिनेमा के बारे में अच्छी राय नहीं रखते थे. अपने जीवन में उन्होंने महज दो-एक फिल्में ही देखी थीं. हालांकि महात्मा गाँधी के विचारों ने कला के अन्य माध्यमों की तरह भारतीय सिनेमा और खास तौर पर बॉलीवुड को गहरे प्रभावित किया. खुद गाँधी का जीवन कई चर्चित फिल्मों मसलन गाँधी, द मेकिंग ऑफ महात्मा, लगे रहो मुन्ना भाई आदि का हिस्सा रहा है.

पर महात्मा गाँधी से उलट देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सिनेमा में गहरी रूचि थी. वे लोगों के जीवन को प्रभावित करने में सिनेमा को एक सशक्त माध्यम मानते थे. और अकारण नहीं कि बॉलीवुड के विकास में नेहरू की नीतियों का काफी योगदान है, जिसकी चर्चा आज कम ही होती है. देश में ऐसी हवा बह चली है कि जवाहरलाल नेहरू के बारे में कही कोई भी बात तथ्य से परे जाकर राजनीतिक रंग ले लेती है.

देश की आजादी के बाद वर्ष 1949 में सिनेमा उद्योग की वस्तुस्थिति की समीक्षा के लिए नेहरू ने फिल्म इंक्यावरी कमेटीका गठन किया था. इस समिति ने सिनेमा के विकास के लिए सुझाव दिए थे. इसी के सुझाव के आधार पर फिल्म फाइनेंस कार्पोरेशन, जो बाद में नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन के नाम से जाना गया, का गठन 1960 में किया गया. इसी साल तत्कालीन सोवियत संघ की राजधानी मास्को स्थित सरगी ग्रासीमोव फिल्म संस्थान की तर्ज पर पुणे स्थित फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) की स्थापना हुई. सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सिनेमा को संरक्षित करने के उद्देश्य से फिल्म संस्थान की स्थापना के कुछ ही वर्ष बाद 1964 में फिल्म संस्थान में ही राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय की स्थापना की गई. अपने आप में देश में यह एक मात्र ऐसा संस्थान है जो फिल्मो के संग्रहण, प्रसार और संरक्षण में जुटा है.

50 के दशक की फिल्मों पर नेहरू के विचारों की स्पष्ट छाप है. इस दौर में बनी बॉलीवुड की फिल्मों में नेहरू के आइडिया ऑफ इंडियाकी अभिव्यक्ति मिलती है. एक तरह का रोमांटिक नजरिया इन फिल्मों में दिखता है. राजनीतिशास्त्री मेघनाद देसाई दिलीप कुमार को नेहरू का हीरोकहते हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ममलापुरम में मोदी के साथ हुई मुलाकात में लोकप्रिय फिल्म दंगल का जिक्र किया था, जिसका उल्लेख मोदी ने बॉलीवुड कलाकारों के साथ किया. नेहरू सिनेमा के कूटनीतिक इस्तेमाल को बखूबी जानते थे. सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में वे बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल करते थे. अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बॉलीवुड के साफ्ट पावर को आज हर कोई महसूस करता है. वर्ष 1955 में रिलीज हुई राजकपूर की फिल्म-श्री 420, में शैलेंद्र का लिखा यह गाना- मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/ सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी, जैसे नेहरू के दौर को इंगित करता है.

(राजस्थान पत्रिका, 14 नवंबर 2019)