Tuesday, April 23, 2019

बेगूसराय में 'गली बॉय'


कन्हैया कुमार
प्रसिद्ध संपादक प्रभाष जोशी ने कहीं लिखा था कि बिहार में यदि चुनाव नहीं देखा तो क्या देखा.’ उत्तर प्रदेश भले ही लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य हो, पर लोकतंत्र के रंग चुनाव के दौरान सबसे ज्यादा बिहार में ही खिलते रहे हैं. 17वीं लोकसभा का चुनाव इसका अपवाद नहीं है.

इस चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू यादव की भाषण शैली को लोग मिस कर रहे हैं. ऐसा लग रहा है कि लालू यादव की इस कमी को बेगूसराय से भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के टिकट पर चुनाव लड़ रहे कन्हैया कुमार पूरा कर रहे हैं. ना सिर्फ अखबारों और टीवी चैनलों पर बल्कि सोशल मीडिया में भी कन्हैया कुमार की खूब चर्चा है. पापुलर मीडिया और वेबसाइट पर उनके भाषणों को खूब देखा-सुना जाता है.

असल में, कन्हैया कुमार जहाँ पिछले तीन वर्षों में विपक्षी पार्टियों और नागरिक समाज के लिए एक पोस्टर बॉय’ बन कर उभरे हैं, वहीं वे केंद्र में सत्तासीन बीजेपी और संघ की आँखों की किरकिरी हैं. राष्ट्रवाद, आतंकवाद और राजद्रोह इस चुनाव में बीजेपी के लिए मूल मुद्दे हैं. रोजगार, विकास और अच्छे दिन पीछे छूट गए लगते हैं. और यही वजह है कि बीजेपी के वरिष्ठ नेता अपने चुनावी भाषणों में टुकड़े टुकड़े गैंग’ की खूब चर्चा करते हैं. गौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली में फरवरी 2016 में एक कार्यक्रम के दौरान तथाकथित देश विरोधी नारे के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष, सीपीआई के छात्र संगठन एआईएसएफ के नेताकन्हैया कुमार की गिरफ्तारी हुई थी. इसका पूरे देश में विरोध हुआ. कैंपस और कैंपस के बाहर छात्र, बुद्धिजीवी सड़क पर उतरे. मोदी सरकार के मुखर विरोधी के रूप में कन्हैया कुमार की पहचान बनी. उनकी भाषण देने के शैली को युवाओं ने खूब पसंद किया. उनका भाषण और आजादी’  का कौल हाल ही में गली बॉय फिल्म के माध्यम से एक बार फिर से चर्चा में है.

निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से आने वाले कन्हैया कुमार मूल रूप से बेगूसराय के हैं. नेता नहीं बेटा चाहिएका नारा इन दिनों वहाँ की फिजां मे गूंज रहा है. बेगूसराय में वाम विचारधारा की जमीन भी वर्षों से रही है और इस वजह से इसे बिहार का लेनिनग्राद कहा जाता रहा है. वहीं जेएनयू भी वामपंथी विचारों के लिए जाना जाता है. जेएनयू की छात्र राजनीति में, जहाँ कन्हैया कुमार केंद्र में रहे, सरोकार और सक्रियता की परंपरा शुरुआती दौर से रही हैं. समाज के हाशिए पर रहने वाले, उपेक्षितों के प्रति एक संवेदना हमेशा रही है और वाद-विवाद-संवाद की स्वस्थ परंपरा से जेएनयू की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत में पहचान बनी.  भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की छात्र इकाई आइसा से जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे, बिहार के चंद्रशेखर ने जब जमीन पर काम करना शुरु किया तो मोहम्मद शाहबुद्दीन के समर्थकों ने उनकी वर्ष 1997 में हत्या कर दी. जेएनयू में आज भी छात्र उन्हें शिद्दत से याद करते हैं. करीब 20 वर्ष बाद जेएनयू की छात्र राजनीति ने कन्हैया कुमार के रूप में देश को एक जुझारू छात्र नेता दिया है. 
  
कन्हैया कुमार वाम विचारधारा के प्रतिनिधि हैं, भाजपा के गिरिराज सिंह दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, राष्ट्रीय जनता दल के तनवीर हसन सामाजिक न्याय का. भारतीय राजनीति में जातिगत गोलबंदी और धर्म महत्वपूर्ण धुरी हैं जिसके इर्द-गिर्द चुनाव प्रचार और वोट डाले जाते हैं. चर्चित लेखक हरिशंकर परसाई ने अपने निबंध-हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं, में वर्षों पहले जो लिखा था वह कमोबेश आज भी सच है:

कृष्ण ने कहा, मैं ईश्वर हूं. मेरी कोई जाति नहीं है.
उन्होंने कहा देखिए न, इधर भगवान होने से तो काम नहीं न चलेगा. आपको कोई वोट नहीं देगा. जात नहीं रखिएगा तो कैसे जीतिएगा?
जाति के इस चक्कर से हम परेशान हो उठे. भूमिहार, कायस्थ, क्षत्रिय, यादव होने के बाद ही कोई कांग्रेसी, समाजवादी या साम्यवादी हो सकता है. कृष्ण को पहले यादव होना पड़ेगा, फिर चाहे वे मार्क्सवादी हो जाएं.
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के भोला सिंह ने तनवीर हसन को हराया था, जबकि सीपीआई के राजेंद्र प्रसाद सिंह तीसरे स्थान पर रहे थे. इस चुनाव में तीनों ही इस सीट पर अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. इस त्रिकोणीय लड़ाई ने चुनावी मुकाबले को मीडिया के लिए दिलचस्प बना दिया है. पर चुनावी हार, जीत से इतर, निस्संदेह, कन्हैया कुमार इस चुनाव में वर्चस्वशाली सत्ता के विरुद्ध एक चुनौती बन कर उपस्थित हैं. यह भारतीय लोकतंत्र की जीत है.

(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Wednesday, April 10, 2019

चुनाव मार्फत सोशल मीडिया


पिछले दिनों चुनाव विश्लेषक और चर्चित टीवी पत्रकार प्रणय राय ने एक बातचीत के दौरान लोकसभा चुनाव (2019) को व्हाॅट्सएप इलेक्शनकहा. दस वर्ष पहले लोगों के बीच आपसी संवाद के लिए व्हाॅट्सएप जैसे मैसेजिंग प्लेटफाॅर्म का इस्तेमाल शुरू हुआ और देखते ही देखेते एसएमएसके इस्तेमाल को इसने काफी पीछे छोड़ दिया.

लेकिन हाल के वर्षों में भारत में व्हाॅट्सएप जैसे मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर कई बार झूठी खबरों (ऑडियो, वीडियो और फोटोशॉप) को इस तरह परोसा व प्रसारित किया गया कि कई जगहों पर हिंसा भड़क उठी और मॉब लिंचिंगमें जानें गयीं.

अब व्हाॅट्सएप ने एक साथ मैसेज को कई समूहों में फाॅरवर्ड करने की सीमा तय कर दी है. साथ ही यदि कोई संवाद फाॅरवर्ड होकर किसी के पास पहुंचता है तो संवाद पाने वालों को इस बात की जानकारी मिल जाती है. इससे संवादों, खबरों के उत्पादन के स्रोत के बारे में अंदाजा मिल जाता है.

हालांकि, फेक न्यूज, दुष्प्रचार, प्रोपेगैंडा रोकने में ये पहल नाकाफी साबित हुए हैं. इसके मद्देनजर हाल ही में संसदीय समिति ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कर्ताधर्ताओं को तलब किया, ताकि लोकसभा चुनाव में इन प्लेटफॉर्म के माध्यम से फैलनेवाली अफवाहों और फेक न्यूज पर रोक लगे और नागरिकों के हितों और अधिकारों की रक्षा की जा सके. चुनाव आयोग ने भी सोशल मीडिया के लिए दिशा-निर्देश जारी किया है.

एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में करीब 90 करोड़ वोटर हैं, जिसमें से करीब 50 करोड़ के पास इंटरनेट की सुविधा है. करीब 30 करोड़ फेसबुक यूजर्स हैं, जबकि 20 करोड़ व्हाॅट्सएप मैसेज सेवा का इस्तेमाल करते हैं.

लोकसभा चुनावों के दौरान हर राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया के माध्यम से ज्यादा-से-ज्यादा फायदा उठाना चाह रही है. यहां व्हाॅट्सएप के साथ-साथ शेयरचैट जैसे मैसेजिंग के देसी अवतारों पर भी राजनीतिक दलों की नजर है, पर यह समकालीन विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया है और ज्यादातर लोगों की नजर से ओझल ही है.

केपीएमजी और गूगल के मुताबिक वर्ष 2011 में भारतीय भाषाओं में इंटरनेट इस्तेमाल करनेवालों की संख्या 4 करोड़ 20 लाख थी, जो वर्ष 2016 में बढ़कर 23 करोड़ 40 लाख हो गयी, और वर्ष 2021 में यह संख्या बढ़कर 53 करोड़ 60 लाख हो जायेगी.

साथ ही वर्तमान में करीब 96 प्रतिशत लोग इंटरनेट का इस्तेमाल मोबाइल के माध्यम से करते हैं. किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों और कार्यकर्ताओं के लिए जहां मास मीडिया आपसी संवाद का एक माध्यम होता है, वहीं पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर में सोशल मीडिया एक-दूसरे से संवाद करने के साथ-साथ चुनावी रणनीति का हथियार भी बनकर उभरा है.

चुनावों के दौरान हर बड़ी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के अपने वार रूमहोते हैं, जहां से मीडिया पर निगाह रखी जाती है और इन्हें प्रभावित करने की कोशिश होती है, ताकि अपने एजेंडे को लागू किया जा सके.


(प्रभात खबर, 10 अप्रैल 2019)