Tuesday, August 27, 2019

खबरनवीस का सम्मान


इस साल एशिया के प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पानेवालों में म्यांमार के पत्रकार स्वे विन और भारत के चर्चित टेलीविजन एंकर और पत्रकार रवीश कुमार शामिल हैं.
रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने सच्चाई को बयान करने की ताकत और सामाजिक सरोकार से लैसपत्रकारिता के लिए स्वे विन को सम्मानित करने की घोषणा की, वहीं रवीश कुमार की पत्रकारिता को सत्य के प्रति निष्ठा रखते हुए बेजुबानों की आवाजबताया है. निस्संदेह मौजूदा दौर में रवीश भारतीय पत्रकारिता का एक विश्वसनीय चेहरा हैं. हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता में जहां मनोरंजन और सनसनी पर जोर है, वहां सत्य के प्रति निष्ठा बहुत पीछे छूट गया लगता है.
हालांकि, जब सुरेंद्र प्रताप सिंह ने 90 के दशक में हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को एक पेशेवर अंदाज दिया, तब टीवी समाचार के प्रति लोगों में आकर्षण बढ़ा था, पर बाद में बाजार, सत्ता और टीआरपी के दबाव में टेलीविजन ने खबरों की नयी परिभाषा गढ़ी, जहां तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर जोर नहीं रहा. आज टेलीविजन पत्रकारिता के ऊपर विश्वसनीयता का संकट है.
टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. भारतीय टेलीविजन पत्रकारों में रवीश जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. वर्तमान में टीवी पत्रकारिता में स्टूडियो में होनेवाले बहस-मुबाहिसा और इंटरव्यू ज्यादा प्रमुख हो गया है. सत्ता पर काबिज सवालों से हमेशा बचते हैं और जवाब देने में आनाकानी करते हैं.
टेलीविजन के एक अन्य चर्चित पत्रकार करण थापर बीबीसी के महानिदेशक रह चुके जॉन बर्ट के हवाले से कहते हैं कि समसामयिक इंटरव्यू के दौरान चार तरह के उत्तर होते हैं- हां, , नहीं जानते और नहीं कह सकते. एक इंटरव्यूअर को तीसरे और चौथे विकल्प को हटा कर अपने गेस्ट को हां या न की तरफ मोड़ना होता है. खुद गेस्ट हां, या ना की दुविधा में रहते हैं और यह काम एक इंटरव्यूअर का है कि किस तरह वह गेस्ट के जवाब को लेकर सवाल करे.
वर्तमान दौर में टेलीविजन पत्रकारिता की सत्ता के साथ गलबहियां से खुद रवीश कुमार क्षुब्ध रहते हैं. विभिन्न मंचों पर उन्होंने इस बात को बार-बार जाहिर भी किया है. यहां तक कि पिछले दिनों उन्होंने लोगों से टेलीविजन न्यूज नहीं देखने की अपील तक कर डाली थी.
इक्कीसवीं सदी में टीवी भारतीय जनमानस और संस्कृति का एक अहम हिस्सा बनकर उभरा है. पिछले दो दशकों में भारतीय समाज और लोक मानस पर खबरिया चैनलों का प्रभाव किस रूप में पड़ा इसकी ठीक-ठीक विवेचना संभव नहीं. लेकिन, इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो कि कमियों के बावजूद भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के विस्तार में इन समाचार चैनलों की महती भूमिका है.
(प्रभात खबर, 27 अगस्त 2019)

Sunday, August 18, 2019

लोक रंग में दास्तानगोई


महमूद फारूकी और डारेन शाहिदी
पिछले दिनों दिल्ली में रिवायतनाम से एक लोक उत्सव का आयोजन किया गया. आश्चर्य की बात यह थी कि इसमें दास्तानगोई को भी शामिल किया गया था. दास्तानगोई नाटकीय अंदाज़ में कहानी कहने की एक मनोरंजक विधा है. पिछले दशक में जब उर्दू के चर्चित आलोचक और कई चाँद थे सरे आसमांके लेखक शम्सुर्रहमान फारूकी और अदाकार महमूद फारूकी ने इस विधा में नया रंग भरा तब लोगों की नज़र इस पारंपरिक कला की ओर गई.

मध्यकाल में अमीर हम्ज़ा की दास्तानें दास्तानगो के बीच काफी पसंद की जाती थी. तिलिस्म और ऐय्यारी कहानियों को रोचक बनाती थी और सुनने वालों को बांध कर रखती थी. फारूकी ने भी अपनी पहली प्रस्तुति में दास्तानए-अमीर हम्ज़ा के किस्सों में से तिलिस्म-ए-होशरुबाको ही चुना था.  आधुनिक काल में देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संततिकी लोकप्रियता ऐय्यारी और तिलिस्म की वजह से हुई थी, जिसे पढ़ कर पाठकों के होश उड़ जाते थेऔर वे उपन्यास के अगले अंक का बेसब्री से इंतजार करते थे!

नए अवतार में दास्तानगोई में हम भारत की सामासिक संस्कृति की झलक पाते हैं.  उर्दू-फारसी की शैली में जब महमूद फारूकी और दारेन शाहिदी ने चर्चित रचनाकार विजयदान देथा की कहानी-चौबोलीसुनाई तो दर्शकों के सामने भाषा आड़े नहीं आई. जाहिर है राजस्थानी लोक कहानी चौबोलीको आधार बना कर 'दास्तान शहजादी चौबोली'  की मंच पर प्रस्तुति होगी तो लोक रंग और राग तो उसमें आएँगे ही. इस दास्तान में अमरबेल की तरह एक कहानी की डाल पर दूसरी, दूसरी के ऊपर तीसरी,  तीसरी के ऊपर चौथी कहानी रची-बसी है और दर्शक-श्रोता की उत्सुकता इस बात को जानने में हमेशा रहती है कि आगे क्या?

नब्बे के दशक के मध्य में एनएसडी के जाने-माने अदाकार पीयूष मिश्रा भी विजयदान देथा की एक अन्य चर्चित कहानी दुविधा’ (इस पर मणि कौल और अमोल पालेकर ने फिल्म भी बनाई) को मंच पर पेश किया करते थे, पर नाटकीय अंदाज के बावजूद दास्तानगोई में नाटकीय साजो-सामान का इस्तेमाल नहीं होता. जहाँ पीयूष मिश्रा हारमोनियम के साथ मंच पर होते थे, वहीं दास्तान शहजादी चौबोली कीमें संगीत का इस्तेमाल बिलकुल नहीं था. असल में, दास्तानगोई में गीत-संगीत का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. संभव है कि आने वाले समय में दास्तानगो इस प्रयोग को अपनी अदायगी में शामिल करें.

बकौल फारूकी दिल्ली में वर्ष 1928 में मीर बाकर अली की मौत के साथ ही मुगल काल से चली आ रही दास्तानगोई की संवृद्ध परंपरा समाप्त हो गई. वे आखिर महान दास्तनागो थे. जामा मस्जिद के आसपास वे दास्तानें सुनाया करते थे. परंपरा के रूप में एक दास्तनागो बैठकों, महफिलों और सार्वजनिक जगहों पर लोगों को किस्से सुनाया करते थे, लेकिन आजकल दो दास्तानगो प्रस्तुति के दौरान मौजूद रहते हैं. मंच पर सफेद चादर और मसनद, अंगरखे में दास्तानगो, पानी पीने के लिए कटोरे और जलती मोमबत्तियां समां बांधने का काम करती है.

हालांकि पंद्रह वर्ष के बाद भी दास्तानगोई लोक या लोगों के करीब नहीं पहुँच पाई है.  देश-विदेश के महानगरों में साहित्यिक और सांस्कृतिक समारोहों के दौरान ही ज्यादातर इसे देखने को मिलता है. अच्छी बात यह है कि इस बीच कई युवा कलाकार इस विधा से जुड़े हैं. जेएनयू में हिमांशु वाजपेयी और अंकित चढ्ढा ने दास्ताने-सेडिशनको अनूठे अंदाज में पेश किया था.

जैसा कि कला की हर विधा के साथ होता है, दास्तानगोई भी अपने समय और समाज की चिंताओं से जुड़ी है. प्रस्तुति के दौरान दास्तानगो राजनीतिक और सामाजिक टिप्पणी करने से नहीं चूकते जो इस पारंपरिक विधा को समकालीन बनाता है और दर्शकों के साथ उनका संवाद कायम रहता है.

(प्रभात खबर, 18 अगस्त 2019)