Tuesday, November 29, 2011

Tale of interesting times: Lucknow Boy

Vinod Mehta’s memoirs, Lucknow Boy, could not have been published in a better time. We don’t have to agree with Press Council of India’s Chairman Markandey Katju’s prescription entirely to know what is wrong with Indian media today. Media criticism is the flavor of the season. It is written all over the wall.

With the curiosity of knowing the inside story of media industry I finished this unputdownable autobiography very fast. I always wonder ‘how one can write autobiography!’ For most of us tend to experiment with truth’ in our life, rather than write the ‘truth’.

In Mr Mehta’s own words these memoirs are, ‘…the first rough draft of my history.’ He dissects his life like a seasoned surgeon.

Fathering a daughter, when he was in London in 60s, and not having courage to own her up, he has the temerity to call himself a ‘bastard’. And only a flamboyant editor like Mehta has courage to name his dog ‘the Editor’!

Viond Mehta, a self confessed pseudo secular’, has the distinction of being an editor for the last 40 years. In this age when we no longer care to know and they no longer care to inform who are the editors (by the way do we know who are the editors of The Times of India and Hidnustan Times?), It is a rare feat indeed.

Journalists have the privilege to see and report the events of a nation from close quarters. ‘Lucknow Boy doesn’t disappoint us, telling tales of our times and power and mighty with a pinch of salt and pepper.

We, who grew up in liberalized India, didn’t see Mr Mehta’s editorial skills when we was at the helm of Sunday Observer, the Indian Post and other magazines. On a personal note, I knew Vinod Metha, the editor, in 1995, the year I came to Delhi. I vividly remember an October evening we were taking a stroll in Mukherjee Nagar in Delhi, a student hub for Bihari migrants, when I chanced upon a new news magazine ‘Outlook.’

In my long student years, I have subscribed to many other current affairs magazines, but, I rarely missed to flip through ‘Outlook’. In between, I was fascinated by Tehelka’ and ‘Frontline’, but ‘Outlook’ kept my interest intact.

Before he joined as editor of Outlook, Mr Mehta was famous editor of infamous’ ‘Debonair’ in mid 70s.

‘Although I had become a full-fledged editor, I failed to penetrate Bombay’s esoteric social scene’, he bemoans.

Further recounting his Debonair days he writes, “Debonair’s name and fame grew by the year but it was unable to shed its smutty aura.’

Mehta quotes former Prime Minister Atal Bihari Vajypee complimenting him, ‘Your magazine is very good,’ but I have to keep it under the pillow.’

All the great editors are product of their times and the confidence they enjoy of their proprietors. This is amply evident from the experiences of Mr Mehta. At the Debonair, he enjoyed the confidence of the owner of the magazine Susheel Somani, and the ditto for The Sunday Observer’. But his stint at the ‘Indian Post’, launched in 1987, was short lived. Mr Mehta notes, ‘The paper was looking good, the reader response was good but the management was terrible.’ His relationship with owner of the Indian Post, Vijaypat Singhania soured. And inevitable happened; he was fired in 1989!

Soon after that Mr Mehta launched ‘Independent’, the same year, under the proprietorship of Indian Media’s ‘golden boy’ Samir Jain. Alas, it was just 29 days wonder and Mr Mehta had to go from Times network. It is little baffling and a riddle to decode that why he is still all praise for Sameer jain, but has no qualms in blaming the ‘denigration and decline of Editor as an institution’ on Dileep Padgaonkar.

However, in between these lines, we read how in the licence quota raj, in the 1980s, the news stories were killed, business interests served and editors were left unguarded at the mercy of ‘white elephants’ like Satish Sharma and Sharad pawar.

With the uproars of Mandal and kamandal in the air, a disenchanted Mr Mehta came to Delhi, in 1991, with a new edition of the ‘Pioneer’ under the proprietorship of maverick L M Thapar. After few months of bonhomie he notes, ‘my only worry was the proprietor.’

Defying his own records of ‘being most sacked editor in India’, Mr. Mehta has been with Outlook magazine for the long 15 years, since its inception. Needless to say credit goes to the proprietor of the Outlook, Rajan Raheja.

Mr Mehta writes, “When I go and meet the supreme editor-in-chief in the sky, I will tell him ‘Lord, I committed many small sins but on the big issues I remained entirely professional.’

And he had to pay for his ‘professionalism’ many times in his career. He has written at length how NDA government targeted the publication and its proprietor.

To put it on record he mentions that he has been close to Vajpayee. But he writes, “For the pukka journalist, however, it is not important how close you are to the prime minister but how close you are to reality.”

Last year, Outlook was in the news when it published the transcripts of Niira Radia tapes. NDTV’s Managing Editor Barkha Dutta was also there in that tapes ‘stringing along a source’.

Reality bites and NDTV has banned Mr Mehta from their channel!

(Published on the Hoot under 'Vintage Vinod' on 3 December 2011)

(Photo courtesy Outlook)

Tuesday, November 08, 2011

मुक्ति का गायक: भूपेन हजारिका


खचाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जाकिया ने कार्यक्रम शुरु होने से पहले कहा था, गाना सुनते हुए यदि मेरी आँखों में आँसू आ जाए तो बुरा मत मानिएगा... मैं उसकी ओर देखता, बस चुप रहा.
वर्ष 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था- अ लिजेंड नाइट- म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी. एक तरह से उनकी लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा को हमने उस शाम देखा-सुना. वर्षों बाद दिल्ली में भूपेन हजारिका का लाइव कंसर्ट हुआ था. और मेरे जानिब शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था जिसे उन्होंने असम की एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था.
जब उन्होंने आमि एक जाजाबरगाया तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई.
बांग्ला-असमिया मैं बोल नहीं पाता लेकिन मातृभाषा मैथिली से नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ी-बहुत समझ लेता हूँ, लेकिन उस शाम संगीत के रसास्वादन में भाषा जैसे आड़े नहीं आ रही थी.
हाथ में हारमोनियम लिए मंच पर खड़े भूपेन दा की आवाज़ में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी- परिस्थितियाँ कितनी भी विचित्र और प्रतिकूल हो संघर्ष से उस पर विजय पाया जा सकता है.
मेरे बाबा एक लोक गायक थे. पर मुझे वे याद नहीं. उस दिन भूपेन दा को सुन कर मैं अपने बाबा की आवाज सुन रहा था.
उनके गाने की शैली एक कथा-वाचक की तरह थी जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है.
जब उन्होंने हे डोला हे डोला... आके बाके रास्तों पर कांधे लिए जाते हैं राजा-महराजाओं का डोला …’ गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ निश्चय चित्र रुप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित है. शब्द और संगीत से चित्र खींचने की उनकी कला ने उन्हें 'गज गामिनी' फिल्म में मकबूल फिदा हुसैन के करीब लाया. यह दु:संयोग ही है कि वर्ष 2011 में अब हमारे पास इन दो महान कलाकारों की कला हैं और शेष स्मृतियाँ.
कहते हैं कि कोलंबिया में जनसंचार पर अपनी पीएचडी के दौरान भूपेन हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक पॉल रॉबसन से हुई. वे रॉबसन के इस कथन से कि संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है बेहद प्रभावित हुए थे.
रॉबसन ने अपने चर्चित गाने: ओल्ड मैन रीवर/ डैट ओल्ड मैन रीवर/ ही मस्ट नो समथिंग/ बट डोंट से नथिंग/ ही जस्ट कीप्स रोलिंग/ ही कीप्स रोलिंग अलांग में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के माध्यम से व्यक्त किया है.
भूपने दा ने गंगा बहती है क्यों के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया. इस गाने के आखिर में जब वे निष्प्राण समाज को तोड़ने की गुहार लगाते हैं तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखती. यह गाना मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है.
उनका संगीत काफी हद तक उनकी राजनीति से प्रेरित रहा. लेकिन वे एक ऐसे संस्कृतिकर्मी थे जिन्हें राजनीति की हदबंदियाँ जकड़ नहीं पाई. उनके संगीत में लोक का स्वर हमेशा गूंजता रहा. उनकी लोक चेतना, संघर्ष की चेतना है. कभी ‘बूढ़ा लुइत तो कभी गंगा इसी का प्रतीक है.
अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से वृहद हिंदी समाज का परिचय 90 के दशक में रुदाली फिल्म में गाए उनके गीत दिल हूम हूम करे के माध्यम से होता है, जिसे मूल असमिया में वर्षों पहले वे 'बुक हूम हूम करे' के रूप में गा चुके थे. असमिया भाषा जानने वाले बेझिझक कह सकते हैं कि मूल असमिया में इस गाने की तासीर हिंदी से कई गुना ज्यादा है. बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत के फलने-फूलने लिए जगह कहाँ छोड़ी है?
असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जीते जी संगीत के इस महान कलाकार की कला महज एक छोटे तबके तक ही सीमित रही.” वे कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहाँ पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा. साथ ही उनका कहना है कि ' देश के बाकी हिस्सों का यह दुर्भाग्य है कि संगीत के इस साधक की कला से वे वंचित हैं.'
बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने गंगा आमार माँ, पद्मा आमार माँ' गाया तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही थी.
ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती हैं जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं. कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे. हमारी आँखे भरी हुई थी पर मन हल्का था.
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में 7 दिसंबर 2011 को प्रकाशित)

Thursday, September 29, 2011

आसमान में घन कुरंग

पिछले दिनों लंदन के कुछ इलाकों में हुए भारी दंगों का बादल अब शहर पर से छंट चुका है.
पूरा शहर टेम्स नदी के किनारे सालाना जलसा 'टेम्स समारोह' मनाने के लिए जुटा हुआ है. यह समारोह लंदन शहर के जज्बे को सलाम करने और उसके दिल में बसे टेम्स नदी के प्रति अपना प्यार जताने के लिए मनाया जाता है.
टेम्स के किनारे चिनार के हरे और हल्के पीले पत्ते हवा के झोंके के संग इधर-उधर उड़ते रहते हैं. माहौल चारो तरफ काफी खुशगवार है.

दूर तक लगे झाड़-फानूस, खाने-पीने के खोमचों, सडकों पर नाच-गाने और शोर-शराबे को देख कर ऐसा लगता है कि हम किसी भारतीय शहर में आ गए हैं. लेकिन जहाँ भारत में पर्व-त्योहारों पर ही ऐसा रेला दिखता है, वहीं टेम्स के प्रति अपना हक अदा करने के लिए लंदनवासी इस पर्व का आयोजन करते हैं.
हमने अपनी नदियों को देवी-देवता मान कर उसे पूज्य बना दिया पर प्यार और सम्मान देना कहाँ सीखा!
बहरहाल गर्मी की अब बस छाया भर है और शरद की आहट हवाओं में है. हल्की बूंदा-बांदी और बादल के घिरने से ठंड का एहसास होने लगता है. हालांकि कुछ लोग कमीज में हैं तो कुछ लोग स्वेटर और जैकेट पहने हुए दिखते हैं.
वीक एंड पर पबों में मस्ती और सड़कों पर बीयर की टूटी हुई बोतलें! लेकिन सोमवार की सुबह होते ही ट्यूब स्टेशनों, लंदन के सड़कों की पहचान लाल रंग की दुमंजिली बसों पर काम-काज पर आने-जाने वालों की भीड़ का रेला. हल्की धूप में ट्रैफल्गर स्कवेयर पर सैलानियों की चहल-पहल और रात में सोहो की गलियों की रंगनियाँ! शहर अपनी पूरी रफ्तार में है.
पर इस भीड़ और कोलाहल के बीच भी आर्थिक बदहाली की चर्चा कहीं दबी जुबान में तो कहीं सरगोशी से सुनाई पड़ जाती है.
चर्चित सेंट पाल कैथिडरल और लंदन म्यूजियम के बीच सड़क के एक किनारे स्थित इंडियन क्यूजिन नामक एक रेस्तरां में काम करने वाले महफूज कहते हैं, बड़ा कठिन समय है...अजीब-अजीब लगता है कभी कि किस मुलुक में आ गए हैं हम.
तीस वर्षीय महफूज मूलत: बांग्लादेश के सिलहट के हैं और पिछले चार वर्षों से वे लंदन में हैं.

तलघर और पहले मंजिल पर फैले इस रेस्तरां में महज दो-चार लोग डिनर करते हुए दिखते हैं. करी भले ही भारतीय व्यंजन के रुप में लंदन में चर्चित हो लेकिन ज्यादातर भारतीय रेस्तरां में इसे बनाते बांग्लादेशी मूल के लोग ही हैं.
महफूज कहते हैं, आज कल सब कुछ मंदा चल रहा है. कम ही लोग रेस्तरां में आते हैं..पता नहीं क्यों है ऐसा, पर यह पिछले साल था और फिर इस साल भी है.
महफूज अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहते हैं. बीवी लंदन की नागरिक हैं और अब वे भी लंदन के नागरिक हो गए हैं.
बीवी टीचर थी लेकिन दो बच्चों को संभालने के लिए अभी नौकरी नहीं कर रही है. ऐसे में परिवार पर आर्थिक बोझ आज कल ज्यादा है. वे कहते हैं कि अब तो लगता है कि यहीं के होकर रह गए. अब वापस भी नहीं लौट सकते.
इससे पहले दिन में यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टमिंस्टर में भारतीय मीडिया के लेकर एक कांफ्रेस के दौरान भारतीय मूल के प्रोफेसर और शोधार्थियों से मुलाकात हुई. विश्वविद्यालय में एक युवा रिसर्च एसोशिएट ने कहा दोहरी मंदी की मार झेल रहे हैं हम. आप भारत में ही अच्छे हैं.
ऐसा नहीं कि मंदी की मार सिर्फ लंदन पर है. ग्रीस से लेकर फ्रांस तक इससे जूझ रहा है.
ट्यूब में यात्रा के दौरान मिले ग्रीस के एक शोधार्थी का कहना था, एक कमरे का 650 पाउंड देना पड़ रहा है जिसे हम कुछ छात्र मिल कर शेयर कर रहे हैं. और कमरा क्या है बस रहने लायक जगह है.
ग्रीस के हालात को जानते हुए मुझसे यह पूछने कि हिम्मत नहीं हुई कि किस तरह से वे लंदन में जिंदगी बसर कर रहे हैं. मंदी की मार बेरोजगारों से बेहतर कौन जानता है.
शिशु घन-कुरंग लंदन के आसमान की पहचान हैं. इससे पहले भी 70 और 80 के दशक में लंदन आर्थिक मंदी की मार झेल कर मजबूती से उबरा था. पर इस बार मंदी का घना बादल लंदन के आसमान में फैला दिखता है.
ऐसा लगता है कि लोग गर्मी की तपिश के बाद इस बार शीत के असंतोषको झेलने के लिए मन को मजबूत कर रहे हैं.
(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 6 अक्टूबर 2011 को प्रकाशित)

Wednesday, September 21, 2011

टेम्स के किनारे


हम दिन भर पैदल लंदन की सड़कों को नाप चुके थे. विवियन यूँ तो वियना की है पर लंदन की गलियों से उसकी पहचान है. शहर के उन हिस्सों में उसकी दिलचस्पी ज्यादा है जो 'लोनली प्लैनेट' सरीखी किताबों और टूरिस्ट गाइडों में जगह नहीं पाती.
सबेरे टेम्स नदी की खोज में हम निकले. सिटी सेंटर से टेम्स बहुत दूर तो नहीं थी पर इस खोज में हमने कई ऐसी इमारतें देखी जो शायद हम ट्यूब या बस में चढ़ कर नहीं देख सकते थे. वैसे भी शहर की पुरानी गलियों में भटकना नए इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से खेलने की तरह होता है. कोई इंजीनियर हमें तकनीकी बारीकियाँ भले समझा दे पर सीखते हम खुद उससे उलझ कर ही है.
किसी भी पुरानी सभ्यता की तरह लंदन में पुराने स्थापत्य और नई इमारतें एक साथ हमजोली की तरह खड़ी नजर आती है. एक तरफ क्रिस्टोफर वारेन की तीन सौ साल पुरानी सेंट पॉल कैथिडरल की अदभुत और दिलकश वास्तुशिल्प है तो दूसरी तरफ कारोबार के दमकते नए भवन हैं जो आधुनिक कला के नजारे दिखाते हैं. शहर के अंदरुनी हिस्सों में मजबूत और विशाल भवन ब्रितानी साम्राज्य के अतीत के गवाक्ष हमारे सामने खोलते हैं.
बहरहाल, थोड़ी दूर पर लंदन टॉवर ब्रिज के दो बुर्ज दिख रहे हैं. आसमान साफ है. सफेद-नीले बादलों का गुच्छा टेम्स नदी पर लटक रहा है. हल्की गुलाबी ठंड है और हवा में खनक. टेम्स नदी के किनारे काफी रौनक और चहल पहल है. नदी के तट पर एक जगह मुझे कुछ कंटीले गुलाबी रंग के फूल दिख रहे हैं मैंने ठहर कर अपने कैमरे में उसे कैद कर लिया. हल्की हवा का स्पर्श पाकर चिनार के हरे-पीले पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं. एक पत्ता उठा कर मैंने अपनी जेब में रख ली.
टेम्स के सम्मोहन में मैं बंधने लगा हूँ. यूरोप की नदियाँ शहरों से इस कदर गुंथी हुई हैं कि आप उसे शहर की संस्कृति से अलगा नहीं सकते. पेरिस में सेन हो, कोलोन में राइन या लिंज में दुना! क्या कभी गंगा, यमुना और पेरियार भी हमारे शहर की संस्कृति का हिस्सा नहीं रही होंगी?
टेम्स के साउथ बैंक पर सेकिंड हैंड किताबों का बाजार सजने लगा है. सामने नेशनल थिएटर की इमारत पर रंग-बिरंगे पोस्टर दिख रहे हैं. दूसरी ओर कुछ फर्लांग की दूरी पर शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर और टेट मार्डन गैलरी है.
लंदन की यात्रा से पहले मेरे बॉस करण (थापर) ने कहा था कि लंदन जाने पर वहाँ के थिएटर मे जरुर जाना और देखना कि किस तरह बिना चीखे-चिल्लाए वे अपने भावों को अभिव्यक्त करते हैं. हमारे बॉलीवुड की तरह नहीं...
शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर के पास पहुँचने पर हमने देखा कि शो छूटने में बस 10 मिनट है. हम पाँच पांउड में खड़े होकर नाटक देखने का टिकट लेकर ‘द गॉड ऑफ सोहो देखने ऑडिटोरियम में घुस गए. खुले आसमान में मंच बना है और दर्शकों के लिए दोनों ओर सामने लकड़ी की दो मंजिला बैठक है. खड़े हो कर देखने वालों के लिए बारिश की बूंदा-बांदी से बचाव का कोई साधन नहीं. जितने लोग दर्शक दीर्घा में बैठे है उतने ही खड़े.
नाटकों में मेरी अभिरुचि रही है पर इस तरह का बेबाक डॉयलॉग और अभिनय पहली बार देखा-सुना. वैसे हमें अगाह कर दिया गया था कि नाटक में अभद्र भाषा (filthy language)’ का प्रयोग है और यह नाटक कमजोर दिलवालों के लिए नहीं है!!
थिएटर के निकल कर हम सोचते रहे कि कैसे नाटक की मुख्य स्त्री पात्र ने मंच पर एक-एक कर अपने कपड़े फेंक दिए...! हमारी संवेदना को झकझोरने के लिए यह एक नया और अलग अनुभव था. वैसे नाटक के कथानक को देखते हुए हम दृश्य संयोजन से अचंभित नहीं थे.
शाम हो रही थी और हमें तय करना था कि अब लंदन के किस कोने में हमें जाना है. किन सड़कों पर भटकना है.

बातों बातों में मैंने कहा कि कार्ल मार्क्स की कब्र लंदन में ही है.
अच्छा! मुझे पता नहीं था….विवियन ने कहा. हाइड पार्क या मार्क्स की कब्र- दो में एक चुनना था और हमनें हाईगेट कब्रगाह जाने का निश्चय किया.
कब्रगाह शहर से बाहर था. हाईगेट स्टेशन पर ट्यूब से निकल कर हम जिस कॉलोनी से कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे वह पॉश कॉलोनी लग रही थी. ऊँची पहाड़ियों पर खूबसूरत भवन. महंगे कार और करीने से सजे लॉन.
दो-तीन किलोमीटर पैदल चल कर जब हम कब्रगाह पहुँचे शाम के करीब सात बज रहे थे.
चारों तरफ सन्नाटा था और कब्रगाह में ताला लटक रहा था. अगल-बगल हमने नजर दौड़ाई पर वहाँ कोई नहीं दिख रहा था. अलबत्ता कब्रगाह के अंदर एक लोमड़ी टहलती दिख रही थी.
इसी बीच सड़क पर निकले एक व्यक्ति को रोक कर हमने पूछा कि क्या मार्क्स की कब्रगाह यही है?’
भले मानुष ने थोड़ी हताशा भरी स्वर में कहा किबेशक यही है. पर आप देर हो चुके हैं. यह पाँच बजे बंद हो जाती है.
हमारे चेहरे पर आए निराशा के भाव को पढ़ कर उन्होंने पूछा आप कहाँ से आए हैं?
मैं भारत से हूँ और ये ऑस्ट्रिया से आई हैं...
कोई नहीं, आप फिर कल आ जाइएगा...
विवियन ने कहा कि क्यों ना हम मार्क्स के नाम एक संदेश छोड़ जाएँ. मैनें कहा जरूर..
कामरेड मार्क्स, हृदय के अंतकरण से हमारी श्रद्धांजलि! दुनिया बदल गई है पर इस बदली हुई दुनिया में तुम्हारे सिद्धांतों की जरुरत कम नहीं हुई, बल्कि और बढ़ गई है!’
विवियन ने कपड़े के एक छोटे से टुकड़े में इस संदेश को लपेट कर कब्रगाह के दरवाजे पर बांध दिया...
(चित्र में, टेम्स पर बने मिलेनिएम ब्रिज से सेंट पॉल कैथिडरल का नजारा, हाईगेट सेमिटेरी के गेट पर विवियन. जनसत्ता में समांतर कॉलम के तहत 9 नवंबर 2011 को प्रकाशित)

Saturday, August 13, 2011

सावन का संगीत


खेत-मेड़, पगडंडिया- सब कीचड़ से सने हैं. धान की बुवाई लगभग पूरी हो गई है. सावन की हल्की बयार में नन्हें शावकों की तरह धान के पौधे हवा में लहराते रहते हैं.

आम के बगीचों में इक्का-दुक्का आम दिखता है जिसे शायद कौवों और गिलहरियों के खाने के लिए छोड़ दिया गया है. घर में सबको खाना खिलाने के बाद गृहिणी के चेहरे पर जो तृप्ति दिखती है, कुछ-कुछ ऐसी ही रंगत आम के पेड़ों पर है.

आम और लीचियों का मौसम खत्म होने के बाद बगीचों में अमरूद और कटहल के पेड़ों की डाल फलों से लकदक है. फल अभी पके नहीं है, ये अपनी उम्र की वयसंधि पर खड़े हैं.

गाँव में डबरा और चहबच्चा पानी से ऊब-डूब है. घर के सामने डबरे में मखाना के पत्ते धीरे-धीरे गल के बिखर रहे हैं, कुछ दिनों में मछुआरे कीचड़ और पानी से छान कर इसे निकालेंगे.

गाँव में हाल ही में बने उत्क्रमित (अपग्रेडेड) मध्य विद्यालय के बच्चे मास्टर साहब की गैर मौजूदगी में कांटों की परवाह किए बिना मखाना के पौधे से कच्चे मखाना निकालने में मग्न हैं. बिहार के स्कूलों में मिड डे मिलऔर लड़कियों के लिए साइकिल की चर्चा सब करते हैं, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता पर किसी का ध्यान नहीं है. दादी अपने लोक अनुभव का आश्रय लेकर कहती है आसमान में ही जब छेद हैं तब दर्जी के बाप का दिन है कि उसे सिलेगा...

बाहर फिर झकझोर के बारिश हो रही है. खिड़की को जान बूझ कर मैंने बंद नहीं किया है. बारिश की कुछ छीटें मेरे बिस्तर पर पर रही है.

माँ को शायद इस बात का पता नहीं है कि बिस्तर भींग रहा है, नहीं तो पहले झिड़केगी. फिर हँसेगी और पापा की ओर मुखातिब होते हुए कहेगी कि कैसे तुम रहते हो दिल्ली में पता नहीं! जाओ, नहीं सुधरोगे तुम!’


बचपन में जब बारिश के मौसम में स्कूल से लौटना पड़ता था, तब अपने बस्ते को पन्नी में लपेट कर, पेट से सटाए हम बुशर्ट के अंदर कर लेते थे. माँ घर के ओसारे में बैठी हमारा इंतजार कर रही होती और बारिश की बूंदें फूस के घर से हरहरा कर ओलती में गिरती जातीं.

बाद में जायसी को पढ़ते हुए बरसै मेघा झकोरी, झकोरी मोरे दुइ नैन चुवै जस ओरि का मतलब समझा. प्रोफेसर मैनेजर पांडेय साहित्य का समाजशास्त्र पढ़ाते हुए बताते थे कि किस तरह राजस्थान में कुछ कक्षाओं में उन्हें नागमती का विरह वर्णन और इन पंक्तियों का अर्थ समझाने में दिक्कत आती थी. महानगरों में रहने वाले जिन्होंने केवल फिल्मों गीतों में सावन-भादो में नायिकाओं को भींगते देखा है उन्हें कभी-कभी मिथिला और अवध के गाँवों को भी अपनी यात्रा में शामिल करना चाहिए. किस तरह से किसानों का जीवन स्याह मेघ और उमड़ते-घुमड़ते बादल की मौजों पर टिका रहता है. कैसे फूस के घर की छावन की चिंता उन्हें सताती रहती है, जिनके घर के पुरुष दिल्ली और पंजाब में मजदूरी कर रहे हैं.

वर्ष 1987 में मधुबनी जिले में आई भीषण बाढ़ में फूस का घर बह गया तब उसकी जगह ईंट और सीमेंट का घर बना. हर मानसून में दिल्ली में मुझे अपने फूस के घर की याद आती रही है. ओलती में बारिश की पीली बूंदों को टप -टप गिरते बरसों से मैंने नहीं सुना है.

स्मृतियों के एलबम में हम अक्सर चित्रों को सहेजते हैं पर ध्वनियाँ भी अनकहे संग हो लेती हैं. जब-तब आश्रय पा कर ये ध्वनियाँ हमें उद्वेलित कर जाती हैं. इस बार जब सावन में घर गया तो मेरी आँखें पुराने घर को ढूंढ़ रही थी. गाँव से सटे रेलवे हॉल्ट पर डीजल से चलने वाली ट्रेन में कोयले से चलने वाली ट्रेनों की छुक-छुक और घुम-घुम ढूंढ़ रही थी.

बहरहाल, बिस्तर पर अधलेटे, हाथ में किताब लिए मैं हवा के झोंकों के संग बाहर बांस, जामुन, आम, अमरूद के पेड़ों के झूलने और झिर झिर बारिश की बूंदों से उपज रही संगीत को सुन रहा हूँ.
क्या खाना है, कहां जाना है, किस-किस से मिलना है कि सूची में यह भी लिखके आया था कि पापा से बहस नहीं करनी है, माँ से वो सब पूछना है जो बातें फोन पर नहीं कर पाता, दादी से आजादी के दिनों और निपट गरीबी की बात करनी है.

साल भर बाद घर आया मैं अपने ही घर में चार दिन का मेहमान भर हूँ. कल फिर दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़नी है...

कहते हैं कि जब भी फणीश्वर नाथ रेणु अपने गाँव औराही हिंगना जाते, वहाँ से अनेक किस्से- कहानियों के संग लौटते थे. मुझमें वह प्रतिभा कहाँ!

बहरहाल, इन वर्षों में गाँव में भी डीटीएच की तारें और इनवर्टर दिखने लगे हैं, एफएम रेडियो के स्वर सुनाई देने लगे हैं. पर सावन-भादो की वही पुरानी संगीत की धुनें है जिसे गाँव में छोड़ हम शहर आ गए थे. दिल्ली का मानसून कितना भी सुंदर क्यों नहीं हो, पर उसमें वो ताजगी कहाँ, जिसमें सोंधी मिट्टी की गंध और अधपके फलों और फूलों की खुशबू लिपटी रहती है.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे, 13 अगस्त 2011 को प्रकाशित)

Saturday, July 09, 2011

मणि कौल: परदे पर कविता

पिछले साल मानसून में मैं पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एफटीआईआई) में फिल्म एप्रीसिएशन पाठयक्रम की पढ़ाई कर रहा था. इस संस्थान ने पिछले साल ही अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे किए. एफटीआईआई की यात्रा और भारतीय सिनेमा में उसके योगदान को लेकर मैंने एक लेख लिखा था और इसी सिलसिले में मणि कौल को मैंने फोन किया था. उन्होंने कहा किमैं आ ही रहा हूँ वहीं बैठ कर बात कर लेंगे.

पाठ्यक्रम के आखिरी दिन मणि कौल ने अपना व्याख्यान दिया था. मैं उनके हंसमुख व्यक्तित्व और मजाकिया लहजे से परिचित था.ओसियानफिल्म समारोह के दौरान दिल्ली में उनसे गाहे-बगाहे मुलाकात हो जाती थी. बीते कुछ वर्षों से वे दिल्ली ही रह रहे थे और ओसियान से जुड़े थे.व्याख्यान के दौरान जब एप्रीसिएशन पाठयक्रम के संयोजक सुरेश छाबरिया ने उनका परिचय कराते हुए कहा कि मणि हमारे समय के सबसे बेहतरीन फिल्म निर्देशक हैं तो कई सहपाठियों ने विस्मय से उनकी ओर देखा था. हमारी पीढ़ी जिसने नब्बे के दौरान होश संभाला, मणि कौल और उनकी फिल्मों को नहीं जानती. लेकिन मणि कौल एक निर्देशक के साथ-साथ सिनेमा के कुशल शिक्षक भी थे. व्याख्यान के दौरान उन्होंने बताया कि सिनेमा ध्वनि और बिंब का कुशल संयोजन होता है और उसे उसी रूप में पढ़ना चाहिए. पढ़ाई के दौरान में हमें उनकी बहुचर्चित फिल्म सिद्धेश्वरीदिखाई गई थी. फिल्म के प्रदर्शन से पहले फिल्म की भूमिका बांधते हुए उन्होंने अपने परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए कहा था कि अगर कुछ चीजें समझ में नहीं आए तो ज्यादा दिमाग मत लगाइएगा यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन सिद्देश्वरी देखते हुए ऐसे लगा कि हम एक लंबी कविता को परदे पर पढ़ रहे हैं.

दरअसल, मणि कौल खुद के बारे में बेहद मजाकिया लहजे में बात करते थे. दर्शकों के बीच अपनी फिल्म की पहुँच को लेकर उन्होंने हमें एक वाकया सुनाया था. चर्चित अभिनेता राज कुमार उनके चाचा थे. एक फिल्म पार्टी के दौरान उन्होंने आवाज देकर मणि कौल को बुलाया और कहा, जानी, मैंने सुना है कि तुमने फिल्म बनाई है..उसकी रोटी. क्या है यह? रोटी के ऊपर फिल्म! और वह भी उसकी रोटी?तुम मेरे साथ आ जाओ हम मिल कर अपनी फिल्म बनाएँगे- अपना हलवा.बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि मैं हिंदी में ही सोचता और लिखता हूँ. उसकी रोटी, आषाढ़ का एक दिन, दुविधा, सतह से उठता आदमी और नौकर की कमीज हिंदी की चर्चित कृतियाँ है. मणि कौल ने हिंदी साहित्य की इन कृतियों को आधार बना कर फिल्म रची और इन्हें एक नया आयाम दिया. मुंबइया फिल्मों के कितने फिल्मकार आज हिंदी में सोचते और रचते हैं? मणि कौल को संगीत की गहरी समझ थी. उन्होंने डागर बंधुओं से विधिवत संगीत सीखा था और जिसकी परिणतिध्रुपद फिल्म में सामने आई. मणि कौल ने माना था कि उन्हें फिल्म बनाने में वित्तीय संकट से जूझना पड़ रहा हैं. पर सृजनात्मकता से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. अंतिम दिनों में वे विनोद कुमार शुक्ल की कृति खिलेगा तो देखेंगेको सिनेमाई भाषा में रच रहे थे.

वर्ष 1969 में महज 25 वर्ष की उम्र में मोहन राकेश की कहानीउसकी रोटीपर इसी नाम से फिल्म बना कर उन्होंने हिंदी फिल्मों कोपापुलर सिनेमासे बाहर निकाल करसमांतर सिनेमाका एक नया रास्ता दिखाया था. वर्ष 1964-65 में ऋत्विक घटक उप प्राचार्य के रूप में एफटीआईआई नियुक्त हुए थे और एक पूरी पीढ़ी को सिनेमा की नई भाषा से रू-ब-रू करवाया. मणि कौल ऋत्विक घटक के शिष्य थे. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन ने बताया कि मणि कौल घटक के सबसे ज्यादा करीब थे. अपने गुरु ऋत्विक घटक के प्रति मणि कौल बेहद कृतज्ञ थे. उनका कहना थामैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नवयथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.अक्सर ऋत्विक घटक की फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. मणि कौल का कहना था कि वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए.

घटक की तरह ही हम उनके योग्य शिष्य मणि कौल की फिल्मों को उनके जीते जी समझ नहीं पाए.

समांतर सिनेमा को दुरूह और अबूझ कह कर खारिज करने की कोशिश की जाती रही है. हालांकि उन्होंने कहा था किवर्तमान में जब अनुराग कश्यप और इम्तियाज अली जैसे निर्देशक मुझे फोन कर के कहते हैं कि मेरी फिल्मों से उन्हें काफी सीख मिलती है तो काफी खुशी होती है.दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में हिंदी फिल्मों में संवेदनशील, प्रयोगधर्मी युवा फिल्मकारों की आवक बढ़ी है जो मणि कौल की फिल्मों से प्रेरणा ग्रहण कर भीड़ और लीक से हट कर हिंदी सिनेमा का एक नया संसार रच रहे हैं.

लेकिन आज जब कुछ लोग डेल्ही बेली और उसमें प्रयुक्त भौंडेपन और गालियों को ही सिनेमा की भाषा मानने पर जोर दे रहे हैं, ऐसे में मणि कौल की फिल्मों की पहचान कैसे होगी?

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 9 जुलाई 2011 को प्रकाशित. चित्र में एफटीआईआई-एनएफएआई में फिल्म एप्रीसिएशन पाठयक्रम, 2010 के दौरान व्याख्यान देते मणि कौल)

Friday, June 10, 2011

किसका देश


पिछले दिनों 'भारत माता की जय' के नारे खूब सुनाई दिए. काले दाढ़ी वाले बाबा, गेरुआ वस्त्र में योगी और गांधी टोपी पहने समाज के अलंबरदार इस जयकारे के अगुआ थे. 
पता नहीं जीवन के आखिर दिनों में मकबूल फिदा हुसैन इन नारों को सुन रहे थे कि नहीं. यदि सुन रहे थे तो क्या सोच रहे होंगे वे?
 
हाल ही में उन्होंने एक पेंटिग बनाई थी जिसमें भारत माता भ्रष्टाचार के दानव का नाश कर रही है. 
हुसैन की बनाई भारत माता की एक अन्य तस्वीर से विश्व हिंदू परिषद और शिव सेना जैसे संगठनों के कठमुल्लों को आपत्ति थी और उन्हें इनका विरोध झेलना पड़ा.
बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अहमदाबाद मे उनकी गैलरी में तोड़-फोड़ की, घर को निशाना बनाया. 90 के दशक मे जब राजनीति की लड़ाई संस्कृति के हथियारों से लड़ी जाने लगी तो हिंदुत्व की नई परिभाषा भी गढ़ी गई. हुसैन की पेंटिंग पर सवाल उठने शुरु हुए.
हिंदू देवी-देवताओं की नग्न तस्वीर बनाने को लेकर उन पर कई मुकदमें दर्ज किए गए. गौरतलब है कि ये तस्वीरें उन्होंने 70 के दशक में ही बनाई थी लेकिन उन्हें कटघरे में बीस-पच्चीस साल बाद खड़ा किया गया. यही आखिरकार हुसैन के जीवन के आखिर वक्त में निर्वासन में जीने की वजह भी बनी. 
हुसैन ने पेंटिंग की एक नई भाषा गढ़ी जिसमें आजाद भारत की खुशबू लिपटी है. भारत माता उनकी पेंटिंग में 'विशिष्ट स्वरलहरी' की तरह रही हैं. भारत माता और भारतीयता को वे एक कलाकार के नजरिए और प्रिज्म से देखते थे लेकिन 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का माला जपने वालों को उनमें कलाकार कम और मुसलमान ज्यादा दिखता था.
वर्ष 2000 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "इतिहास गवाह है कि अपने समय में लोगों की पहचान नहीं होती." हुसैन के बारे में शायद यह किसी भी भारतीय कलाकार से ज्यादा सच है. वे हमारे समय से सबसे ज्यादा चर्चित कलाकार रहे, लेकिन उन्हें पहचानने में ना सिर्फ राज्य और सत्ता बल्कि हमारा कला समाज भी नाकाम रहा.
भारत से उन्हें बेहद प्यार था और भारत की सामासिक संस्कृति उनके चित्रों में झलकती थी. जीवन के आखिरों दिनों में भी वे महाभारत को अपनी पेंटिग में उकेर रहे थे. रामायण पर बनाई उनकी पेंटिग सीरिज भारतीय कला की धरोहर है.
डेढ़ साल की उम्र में माँ की मौत से उपजे बिछोह को वे जिंदगी भर ढूंढ़ते रहे. वह 'भारत माता' हों या 'मदर टरेसा', वे एक माँ की छवि आंकते रहे. देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले, भारत माता की जयकार लगाने वाले इसे आजादी की दूसरी लड़ाईबता रहे हैं. आजादी की इस लड़ाई में हुसैन जैसों की कितनी चिंता है उन्हें?
जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुँचे हुसैन को भारतीय राज्यसत्ता ने नकार दिया था. आत्म-निर्वासन के दौरान उन्हें कतर की नागरिकता पेश की गई जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया. बार बार देश लौटने की बात करने वाले हुसैन के लिए लंदन के अस्पताल में आखिरी सांसे लेना कितनी भारी रहा होगा, यह निर्वासन में जीने वाला ही समझ सकता है!
क्या यह हुसैन की नियति थी कि उन्हें अपने देश में दो गज़ ज़मीन भी नसीब नहीं हुई या हमारी बदकिस्मती
(जनसत्ता, समांतर कॉलम में 23 जून 2011 को प्रकाशित)

Tuesday, May 31, 2011

विश्व कवि आस-पास

पुराने घर में एक टीन का बक्सा था जिसमें कुछ किताबें भरी थी. उन किताबों को टटोलना, बक्से से बाहर-भीतर करना बचपन में हम भाई-बहनों के खेल का हिस्सा था. उनमें एक पतली सी किताब गीतांजलि भी थी. हिंद पॉकेट बुक्स की हिंदी में. बक्से में विद्यापति, प्रेमचंद, नागार्जुन, हरिमोहन झा और शरतचंद्र की किताबें भी रखी थी.

मिथिला के एक अनाम गाँव में यह हमें बचपन में ही बता दिया गया था कि रवींद्रनाथ ठाकुर हिंदी के नहीं, बांग्ला के लेखक-कवि हैं. जबकि हमें यह बात बहुत बाद में समझ आई कि शरतचंद्र हिंदी के नहीं, बांग्ला के लेखक हैं!

बहरहाल, कुछ वर्ष पहले एक बातचीत के दौरान समाजशास्त्री आशीष नंदी ने यह जानने के बाद कि मैं दरभंगा-मधुबनी जिले से ताल्लुक रखता हूँ, कहा कि कभी बंगाल की संस्कृति दरभंगा के रास्ते ही फली-फूली. उन्होंने बताया था कि दरभंगा असल में 'द्वार बंग' का ही परिष्कृत रूप है और मध्यकाल में मध्य एशिया से आने वाले व्यापारी दरभंगा के रास्ते ही बंगाल जाते थे.

एक जमाने मे इस बात पर खूब बहस हुई थी कि विद्यापति मैथिली के नहीं बांग्ला के रचनाकार हैं. खुद रवींद्रनाथ की आरंभिक कविताओं में विद्यापति के कोमलकांत पदावली की छाप है. उनकी कविताओं में मनुष्य प्रेम और भक्ति की अनुगूँज जो एक साथ है उसका उत्प्रेरक कहीं ना कहीं विद्यापति की कविताएँ हैं. लेकिन इस बात की चर्चा शायद ही कहीं मिलती है कि मैथिली साहित्य या समाज पर रवींद्रनाथ का क्या प्रभाव रहा है.

नागार्जुन जैसे रचनाकार अपवाद हैं जिन्होंने रविबाबूजैसी कविता ही नहीं लिखी बल्कि बांग्ला में भी कविताएँ रची.

पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में यह बात बार बार उठ रही है कि रवींद्रनाथ ठाकुर मैथिली समाज के लिए क्यों बाहरी रहे. जबकि मैथिली और बांग्ला समाज के भद्रलोक और मध्य वर्ग के खान-पान, पहनावे, चित्रकारी, भाषा में काफी समानता है. बात मछली-भात खाने की हो, भाषा की मधुरता की, धोती-कुर्ता पहनावे की हो या मिथिला पेंटिंग या पट चित्रकारी की!

कुछ वर्ष पहले हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक ने भारतीय उपन्यासों को लेकर हो रही चर्चा के दौरान टैगोर रचित ''गोरा' को 20वीं सदी का सबसे बेहतरीन उपन्यास कहा तो मुझे आश्चर्य हुआ. संभव है कि इसमें अतिशोयक्ति हो लेकिन रवींद्रनाथ के साहित्य को लेकर हमारा हिंदी समाज एक तरह से उदासीन रहा है. बल्कि यों कहें कि उन्हें लेकर लेकर हिंदी के साहित्यक हलकों में एक तरह का दुचित्तापन रहा है. प्रश्न है कि क्या रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य के बारे में विचार-विमर्श करने के लिए बांग्ला भाषा-भाषी होना जरूरी है?

रवींद्रनाथ विश्व कवि है. उन्हें इस बात का गौरव प्राप्त है कि भारत और बांग्लादेश का राष्ट्रगान उनके नाम है. उनके जन्म के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने पर दोनों देशों में रवींद्रनाथ के सम्मान में कई आयोजन एक साथ किए जा रहे हैं.

दक्षिण एशिया में राजनीतिक कटुता और द्वेष के माहौल के बीच रवींद्रनाथ के साहित्य, संगीत और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान को याद करने के लिए दो पड़ोसी देशों का एक मंच पर साथ आना सुखद और स्वागत योग्य है.

पर सवाल है कि बांग्ला समाज के बाहर रवींद्रनाथ के प्रति बेरुखी क्यो दिखाई देती है? क्यों रवींद्रनाथ अभी भी हिंदी प्रदेश के पाठकों के लिए एक बाहरी रचनाकार बने हुए हैं?

इस वर्ष जहाँ रवींद्रनाथ की डेढ़ सौंवीं जयंती मनाई जा रही है, वहीं हिंदी-मैथिली के कवि नागार्जुन की भी भी सौंवीं वर्षगांठ इसी साल चल रही है. साथ ही अज्ञेय, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल की भी जन्मशती हिंदी प्रदेश में मनाई जा रही है. इसका विश्लेषण करने की जरुरत है कि हिंदी के कवियों पर क्या रवींद्रनाथ का कोई प्रभाव रहा है.

दुर्भाग्यवश भारत के विश्वविद्यालयों में भाषा और साहित्य के केंद्रों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन और शोध पर कोई जोर नहीं है.

अगर विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन, अध्यापन, शोध को बढ़ावा दिया जाए तो विश्व कवि के साहित्य के दायरे का काफी विस्तार हो सकेगा. हम उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के पहलूओं पर खुल कर विचार कर सकेंगे.

हाल ही में देश में दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय समेत कई नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है. तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की दिशा में ये विश्वविद्यालय अगर कदम बढाएँ तो सही मायनों में रवींद्रनाथ के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

(जनसत्ता, 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में 31 मई 2011 को प्रकाशित)