Friday, January 31, 2014

हक़ अदा ना हुआ...

वीर भारत तलवार
आज प्रो. वीर भारत तलवार का जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में विदाई समारोह था। उनके छात्र के नाते मैंने भी वहाँ अपनी कुछ बातें शेयर की...

1992 मैंने दसवीं पास किया। उसी साल मेरे बड़े भाई, नवीन, हिंदी साहित्य में एम.ए करने के लिए अपना नामांकन जेएनयू में करवाया था। छुट्टियों में घर आने पर उन्होंने जेएनयू की बहुत सी बातों के अलावा वहाँ पर पढ़ाई गई कहानियों की चर्चा की थी। वीर भारत तलवार उन्हें कहानियाँ पढ़ाते थे। वे कहते थे कि तलवार जब कहानी पढ़ाते हैं उनके चेहरे पर रसोद्रेक स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी पढ़ाते समय उनका चेहरा सुर्ख हो जाता है । कभी भावुक, कभी आह्लादित तो कभी आवेशित हो उठते हैं।

एक शिक्षक के रुप में तलवार जी के साथ यह मेरी पहली पहचान थी।

2002 में जेएनयू में एम. फिल में जब दाखिला लिया भाई साहब की बातें अनायास याद हो आई थी। मैं ने अनुमति लेकर एम.ए के छात्रों के संग कथा-साहित्य की कक्षाँए की।

तलवार जी जब कहानी पढ़ाते थे तो पूरी नेम-टेम और नियम-निष्ठा के साथ। कहानी पढ़ाते समय वे इस बात का विशेष ख्याल रखते कि हमारी रूचि पाठ में आद्योपांत बनी रहे। विशेषकर नई कहानी पढ़ाते समय वे कहानीकारों के छुए-अनछुए प्रसंगों की चर्चा करते चलते। व्यक्तिगत संस्मरण भी इसमें शामिल रहता। लेकिन इसके बाद वे हठात कहानी पढ़ाने नहीं लग जाते। कहानीकार की अन्य कहानियों के ताने-बाने से उस कहानी तक पहुँचते, फिर उसके बरक्स कहानी की व्याख्या करते। फिर भी तलवार जी इस बात को स्वीकार करते कि कहानी कैसे और कहाँ से बताई जाए, उनके लिए हमेशा एक सवाल रहा है। कहानी पढ़ाते समय वे अपने पहनावे का भी खासा ध्यान रखते। कहानी अगर प्रेम कहानी हुई तो उनका पहनावा वैसा नहीं होता जैसा अन्य कहानी पढ़ाते समय। ‘कफ़न’ और ‘रसप्रिया’ के लिए अलग-अलग पहनावा। वे कहते कि कहानी जीवन का एक टुकड़ा है….

एम फिल और पीएचडी के लिए जब शोध निर्देशक के रुप में मैंने तलवार जी को चुना तो सीनियरों और सहपाठियों ने बताया कि सर के साथ काम करना दुष्कर है। सर बहुत तंग करते हैं। उनके साथ काम करके आप किसी भी परीक्षा की तैयारी नहीं कर सकते। वगैरह, वगैरह।

पर मैं उनकी प्रतिबद्धता और उनके लोकतांत्रिक चरित्र का  हमेशा कायल रहा। एक शिक्षक और आलोचक के रुप में वो हमेशा प्रश्न पूछने के लिए हमें प्रेरित करते रहे। क्लास के अंदर और बाहर भी। ढूँढो, खोजो, पता लगाओ उनका प्रिय जुमला रहता था। सर ने ना सिर्फ मेरी शोध प्रगति पर लगातार नजर रखी बल्कि समय से पूरा करवाया।

एक बार पता नहीं क्यों मैं सर से अपनी पीएचडी को लेकर उलझ पड़ा। सर ने अपने स्वभाव के अनुकूल बहुत शांत स्वर में कहा: ऐसा है ना अरविंद कि यदि तुम्हें लगता है कि तुम्हारा सुपरवाइजर तुमसे ठीक से पेश नहीं आ रहा है तो तुम मेरे खिलाफ कहीं पर भी जा सकते हो। यूनिवर्सिटी में बहुत सारे फोरम हैं.’ मेरे चेहरे का रंग उड़ गया। मैं माफी माँगते हुए कहा कि ‘सर, ऐसा तो मैंने कुछ नहीं कहा है।’ उन्होंने कहा-" नहीं, नहीं, ऐसा कुछ मत सोचो। मैं बस यह कह रहा हूँ कि यह तुम्हारा डेमोक्रेटिक राइट है!" सर जैसे शिक्षकों की वजह से ही जेएनयू की लोकतांत्रिक छवि आज भी कायम है।

तलवार जी जैसा जीवन बहुत कम लोगों को मिल पाता है। वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता रहे। फिर अध्यापक बने। एक आलोचक-अध्येता के रुप में सर के काम का मूल्यांकन अभी बाकी है। मुझे लगता है कि सर की शोध पुस्तक 'रस्साकशी' अंग्रेजी में आई होती तो उसका reception ज्यादा विवेक सम्मत होता। हिंदी जगत ने उसका मूल्यांकन कम, अपना राग-द्वेष ज्यादा जोड़ दिया है।


तलवार जी संगीत और सिनेमा के बेहद शौकीन हैं। उनके साथ कई फिल्में देखने, संगीत समारोह में जाने का मुझे मौका मिला। और हां, सर के हाथों का बना खाना भी हमने कई बार खाया है।

सर उस समय Indian Institute of Advanced Studies में fellow थे। जेएनयू में खबर आई कि सर को जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने in absentia प्रोफेसरशिप ऑफर किया है। मैं घबराया, सर को फोन किया ‘सर, आप जब चले जाएँगे तो मैं किसके साथ पीएचडी करुँगा।’ सर ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘जेएनयू छोड़ कर कहां जाऊंगा.’

आज सर जेएनयू से विदा हो गए। पर क्या हम अपना हक अदा कर पाए...

Thursday, January 30, 2014

अंतिम प्रणाम



वे दिन फाख्ताओं के पीछे भागने के थे. आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों पर चढ़ने के थे. डिबिया (ढिबरी) और लालटेन की रोशनी में अक्षरों और शब्दों से खेलने के थे. 

स्कूल से आते-जाते किसी और के खेतों से मटर और छिमियाँ हम उखाड़ लाते. किसी के पेड़ से आम तोड़ लाते.  स्कूल नहीं जाने के दस बहाने करते. हम भाई-बहनों की इस खेल में दादी, जिसे हम दाय कहते थे, हर पल शामिल रहती थी, गोइयां की तरह.
 
बाबा जब गुजरे तब मैं बहुत छोटा था, वो मुझे याद नहीं. दाय के आँचल में ही हमने जीवन के पहले गीत सुने-पाथेर पांचाली. मुझे याद नहीं कि दादी ने कभी राजा-रानियों की कहानी हमें सुनाई हो. दादी की कहानियाँ उसके जीवन संघर्ष की कहानियाँ होती थी. 

दाय निरक्षर पर जहीन थी. लोक अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहाँ शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है! जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हँसते हुए हमें लिख कर दिखाया करती- जानकी. पर यह नाम उसे पसंद नहीं था. वो कहती कि जानकी के जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है. मिथिला में सीता स्त्री दुख का एक रुपक है!  

दाय के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, गोकि उसके दोनों छोटे भाई बिहार सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थे. जब हम उससे पूछते कि तुमने क्यों नहीं पढ़ाई की, वो कहती कि उस समय में लोग कहते थे कि पढ़ाई करने से वैध्वय मिलता है’.  जिस समाज में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषियों के किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम हो वहाँ कैसे इस तरह की स्त्री विरोधी, प्रतिगामी विचारों ने जगह बनाई होगी आश्चर्यचकित करता है. यदि दाय की पीढ़ी को मिथिला में औपचारिक शिक्षा मिली होती तो मिथिला के सामंती समाज का चेहरा इतना विद्रूप नहीं होता.

दाय घड़ी देख कर समय का हिसाब नहीं लगाती. सूर्य को देख कर कहती- एक पहर बीता, दो पहर बीता. अपने जन्म का हिसाब वो 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप से लगाती. दाय कहती 1934 में जब भारी भूकंप आया था तब मैं 10-12 वर्ष की थी. शादी के बाद जिस घर में वो आई उसने कई रुप बदले. लेकिन वह लकड़ी का तामा, जो दाय के गाँव से आया था पिछले 75 सालों से आज भी घर में है. उस जमाने में तामा से नाप-तौल होता था. कवि विद्यापति ने अपनी एक कविता में लिखा है:  मांगि-चांगि लयला महादेव धान ताम दुई हे. दादी कहती उस जमाने में गाँव में कहीं-कहीं चूल्हा जलता था, पर लोग मिल-बांट कर खाते थे. जब भी हम उससे आज की गरीबी की बात करते तो वह कहती नहीं, पहले जैसी स्थिति नहीं है. अब सब घर में चूल्हा तो जलता है. औपनिवेशिक दौर में पली-बढ़ी उस पीढ़ी के लिए भूख सबसे बड़ा सच था.

पहली बार विस्थापन की पीड़ा हमने दाय से ही जानी. भले ही 75 वर्ष पहले वो गौने होकर आई पर उसका अपना गाँव, नैहर उससे मरते समय तक नहीं छूटा. जब कभी हम पूछते गाँव चलोगी? एक चमक उसकी आँखों में कौंध उठती.  

हम रोजी-रोटी के लिए इस शहर उस शहर भटकते रहे. दाय खूंटे की तरह अपनी जमीन से गड़ी रही. जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरने समय क्या मगहर जाऊँगी. हम एक बछड़े की तरह छह महीने, साल में उस खूंटे की ओर दौड़ पड़ते. 

उस दिन पापा ने फोन पर कहा, माँ गुज़र गई’. निस्तब्ध, मुझे लगा खूंटा उखड़ गया. अपनी ज़मीन से नमी चली गई. 

(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 'अंतिम पहर बीता' शीर्षक से 6.02.14 को प्रकाशित)

Tuesday, January 14, 2014

ओम दर-ब-दर



सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों और न्यू मीडिया पर इन दिनों ओम दर-ब-दर की खूब चर्चा है. पिछले दिनों जब मैंने एक मित्र से इस फिल्म के बारे में बताया तो उसने हँसते हुए कहा कि यह फिल्म है भी या नहीं इस पर बहस जारी है!’ 25 वर्ष पहले नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन (एनएफडीसी) के सहयोग से बनी यह फिल्म 17 जनवरी को पहली बार रुपहले पर्दे पर आ रही है. 

असल में बॉलीवुड की मसाला फिल्मों से अलग यह फिल्म एक नए सौंदर्यबोध की माँग करती है. समांतर सिनेमा के दौर में बनी मणि कौल की उसकी रोटी या कुमार साहनी की मायादर्पण की तरह ही यह फिल्म फिल्म व्याकरण को धता बताते हुए दर्शकों के धैर्य की परीक्षा करती है. पर अंत में हम एक ऐसे अनुभव से भर उठते हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क पर वर्षों तक छाया रहता है.

भारतीय फिल्म के सौ सालों के इतिहास में भले ही आम दर्शकों के बीच यह फिल्म चर्चित नही हुई हो, लेकिन कमल स्वरुप निर्देशित इस फिल्म को बॉलीवुड और भारतीय फिल्म के अवांगार्द फिल्ममेकरों के बीच कल्ट फिल्म का दर्जा प्राप्त है. वर्तमान में अनुराग कश्यप से लेकर अमित दत्ता तक की फिल्मों पर इस फिल्म की छाया दिखती है. पुणे स्थित फिल्म और टेलीविजन संस्थान में तो इस फिल्म की चर्चा के बिना कोई बात ही पूरी नहीं होती. खुद कमल स्वरुप इस संस्थान के स्नातक रहे हैं और मणि कौल के साथ काम किया है.

पर इस फिल्म की कहानी क्या है? इस आसान से सवाल का जवाब बेहद मुश्किल है. अजमेर-पुष्कर इलाके में किशोर और युवा की वयसंधि पर खड़ा ओम और उसके आस पास के जीवन की यह कहानी है.  फिर सवाल राना टिगरीना या उस मेढ़क का बचा रह जाता है जिसके पेट में हीरा भरा है! सवाल बाबूजी, गायत्री और जगदीश के प्रेम संबंधों का भी है!

असल में इस फिल्म में कोई एक कहानी नहीं है, कई कहानियाँ हैं. यह एक साथ कई रेखाओं में यात्रा करती है. यदि फिल्म दृश्य, विंब और ध्वनि का संयोजन कर एक कला की सृष्टि करती है तो निस्संदेह इस फिल्म के माध्यम से एक अलहदा अनुभव संसार हमारे सामने दरपेश होता है.

इस फिल्म का एक सिरा एबसर्ड से जुड़ता है तो दूसरी ओर एमबिग्यूटीके सिद्धांतों से. हिंदी सिनेमा के अवांगार्द फिल्म मेकर इसे एक उत्तर आधुनिक फिल्म मानते हैं. भूमंडलीकरण के इस दौर में जिसे हम ग्लोकलकहते हैं उसकी छाया इस फिल्म में दिखती है. एक साथ इस फिल्म में विटोरियो डी सिका की बाइसिकिल थिव्स की झलक है तो दूसरी ओर मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास में आए मारगांठ की. फिल्म के संवाद भारतीय सामाजिक संरचना, राजनीतिक चेतना और अंतर्राष्ट्रीय हालात पर एक साथ टिप्पणी करते हैं. इस सार्थक-निरर्थक संवाद के बीच दर्शक व्यंग्य और हास्य बोध से भर उठता है. 

एक साथ मिथक, विज्ञान, अध्यात्म, ज्योतिष, लोक और शास्त्र के बीच जिस सहजता से यह फिल्म आवाजाही करती है वह भारतीय फिल्मों के इतिहास में मिलना दुर्लभ है. 

करीब दस साल पहले पुणे फिल्म संस्थान के कुछ स्नातकों और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर के साथ मैंने यह फिल्म जेएनयू में देखी थी. उसके बाद सवाल-जवाब के क्रम में कमल स्वरुप अपने बेलौस अंदाज में जितनी सहजता से दर्शकों के सवाल को स्वीकार रहे थे, उसी सहजता से नकार भी रहे थे. बिलकुल कुछ देर पहले देखी फिल्म की तरह!

पर उन्होंने माना था कि ओम दर-ब-दरमेरा पासपोर्ट है... और इस बात से किसी को इंकार भी नहीं!

(जनसत्ता में समांतर स्तंभ के तहत 16 जनवरी 2014 को प्रकाशित)