Sunday, February 27, 2022

धुंध में लिपटा वर्तमान और भविष्य


कला के अन्य रूपों की तरह सिनेमा सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना का एक माध्यम है. यह अलग बात है कि बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों के केंद्र में मनोरंजन रहता है और आलोचना का तत्व कहीं हाशिए पर ही दिखता है. क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों- मलयालम, मराठी, असमिया आदि में सामाजिक यथार्थ के चित्रण में कुछ निर्देशकों के विशिष्ट स्वर जरूर सुनाई पड़ते रहे हैं. इसी कड़ी में 22वें मुंबई फिल्म समारोह में पिछले दिनों दिखाई गई मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ है. इसे अचल मिश्र ने निर्देशित किया है. इसी समारोह में वर्ष 2019 में इनकी बहुचर्चित मैथिली फिल्म ‘गामक घर (गाँव का घर)’ प्रदर्शित की गई थी. इस बार का समारोह ऑनलाइन आयोजित किया जा रहा है.
‘धुइन’ के केंद्र में 25 वर्षीय युवा पंकज है, जो दरभंगा में अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसके सपने मुंबई की दुनिया में बसते हैं. वह दरभंगा से भागना चाहता है. वह कहता है-यहाँ से भागना है तो भागना है- पर पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल नहीं है. पिता सेवानिवृत्त हैं, पर उन्हें नौकरी की तलाश है ताकि बुढ़ापा कट सके. पिता को पंकज की ‘नौटंकी’ (थिएटर से जुड़ाव) पसंद नहीं है. आज भी देश के बड़े हिस्से में सिनेमा-थिएटर के काम को घर-परिवार के लोग आवारगी ही समझते हैं! लोग उसे रेलवे में नौकरी के लिए आवेदन करने की सलाह देते हैं. ध्यान रहे कि पिछले दिनों बिहार में युवा छात्रों ने रेलवे में भर्ती को लेकर ही उग्र आंदोलन किया था! पंकज के किरदार में अभिनव झा एक छोटे शहर के एक युवा कलाकार के अंतर्मन की उलझन को चित्रित करने में सफल हैं.
इस फिल्म में रेल का रूपक बार-बार आता है. फिल्म की शुरुआत ही दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर एक नुक्कड़ नाटक से होती है. जब पंकज अपने मोबाइल पर ऑनलाइन एक्टिंग के गुर सीख रहा होता है, तब पृष्ठभूमि में रेलगाड़ी की आवाज सुनाई देती है. छोटे से घर के कोलाहल से दूर जब वह बाहर निकलता है तब भी रेलगाड़ी जा रही होती है. यह एक वास्तविकता है कि पिछले दशकों में बड़ी संख्या में बिहार के मध्यवर्गीय युवा नौकरी की तलाश में बाहर निकल गए. यह सिलसिला आज भी जारी है. एक धुंध है जिसमें उनका वर्तमान और भविष्य लिपटा पड़ा है. पर जैसा कि दुष्यंत कुमार कह गए हैं- ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है/ ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.’
जहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर था, वहीं यह पूरी फिल्म दरभंगा में अवस्थित है. यहाँ हराही पोखर है, दरभंगा राज का किला है, हवाई अड्डा है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता है, पर कलाकारों की बदहाली इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी है, जो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. अचल मिश्र स्वीकारते भी हैं कि उनके ऊपर ईरानी फिल्मकार अब्बास किरोस्तामी का प्रभाव है. इस फिल्म का एक दृश्य खास तौर से उल्लेखनीय है, जहाँ फिल्मों से जुड़े हुए बाहर से आए कुछ युवा पंकज के साथ किरोस्तामी की फिल्मों की चर्चा करते हैं और उसमें एक तरह से हीनता का बोध भरते हैं.

(प्रभात खबर, 27 फरवरी 2022)

Monday, February 14, 2022

'खबर लहरिया’ की खबर बरास्ते ‘राइटिंग विद फायर’


वर्ष 2004 में
खबर लहरियापाक्षिक अखबार को जब चमेली देवी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तब वरिष्ठ पत्रकार बी जी वर्गिस ने इससे जुड़े पत्रकारों को बेयरफुट पत्रकार्सकहा था. चीन के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य संबंधी सुविधा पहुँचाने के उद्देश्य से पिछली सदी के 60 के दशक में माओ ने हजारों लोगों को प्राथमिक मेडिकल ट्रेनिंग देकर भेजा था जिन्हें बेयरफुट डॉक्टर्सकहा गया.

पिछले दिनों जब रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायर' को सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फीचर वर्ग में ऑस्कर के लिए मनोनीत किया गया तो यह बात जेहन में आती रही. असल में इस डॉक्यूमेंट्री के केंद्र में खबर लहरियासे जुड़े बेयरफुट पत्रकार ही हैं, जो पिछले बीस वर्षों से बुंदेलखंड के ग्रामीण इलाकों की खबर लेती रही हैं और उन्हें आस-पास से लेकर दुनिया-जहान की खबरें देती रही हैं. ये खबरनवीस सिर्फ महिलाएं हैं. पिछले दो दशक में मीडिया क्षेत्र में आए अभूतपूर्व बदलाव के बाद भी न्यूजरूम में आज भी महिलाओं की उपस्थिति बेहद कम है, ऐसे में खबर लहरियाकी मीडिया जगत में उपस्थिति प्रेरणादायक है.

वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में सात महिलाओं ने आठ पेज के इस अखबार की शुरुआत की थी, बाद में बांदा से भी इसे प्रकाशित किया गया. अखबार में रिपोर्टिंग, संपादन से लेकर उत्पादन, वितरण में इनकी भूमिका थी, जिन्हें ग्रामीण इलाकों में वितरित किया जाता था. इसमें जिन महिलाओं की भागीदारी थी वह हाशिए के समाज से आती थी. हालांकि इस अखबार के बीज बांदा जिले से 90 के दशक में निकलने वाले अखबार महिला डाकिया’ (1993-2000) में छिपे थे. महिला डाकियाके उत्पादन, वितरण आदि में भी ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी थी. खबर लहरियाकी तरह ही महिला डाकियाकी भाषा बुंदेली और हिंदी मिश्रित थी. महिला डाकियामहज एक प्रायोगिक अखबारथा. सामाजिक कार्यकर्ता फराह नकवी ने अपनी किताब वेव्स इन द हिंटरलैंड (द जर्नी ऑफ ए न्यूजपेपर)में लिखा है: दोनों ही प्रकाशन के पीछे यह विचार था कि ग्रामीण महिला जिनकी शिक्षा बहुत अधिक नहीं है, वे खबरों के उत्पादन से जुड़े’. खबर लहरिया को निरंतरगैर सरकारी संगठन का सहयोग मिला. 90 के दशक के मध्य में फराह नकवी निरंतरसे जुड़ी थी.

21वीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में मीडिया के लिए संभावनाओं और चुनौतियों से भरा रहा है. खबर लहरियाका प्रिंट अंक बंद हो गया और वर्ष 2016 से यह डिजिटल अवतार में आ गया. हालांकि, ऑनलाइन आ जाने से भी उसका उद्देश्य वही है जो वर्ष 2002 में था. पहले अंक में अखबार ने लिखा था-सुनौ..सुनौ..सुनौ हम खबर लहरिया नाम का हमार आपन अखबार शुरु कीन है. या चित्रकूट जिला का हमार आपन अखबार आये. जेहिमा इलाका की सच्ची घटना, किस्सा, कहानी, चुटकुला, योजनाएं, घरेलू इलाज, देश-विदेश के बातै रहा करी.  हालांकि वर्तमान में इन्हें दिल्ली स्थित कार्यालय से संपादन में सहयोग मिलता है. इनकी रिपोर्टिंग टीम में करीब 20 सदस्य हैं जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती हैं. राइटिंग विद फायरमें अखबार से डिजिटल तक के सफर की कहानी ही है. अभी इस डॉक्यूमेंट्री को पब्लिक के लिए रिलीज नहीं किया गया है.

मेनस्ट्रीम मीडिया के बरक्स इंटरनेट जनित डिजिटल मीडिया और मोबाइल फोन ने पब्लिक स्फीयरमें बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और एक नए लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है. भारतीय गाँव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से  पी साईंनाथ की पहल से पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया’ (PARI) नामक एक वेबसाइट की शुरुआत वर्ष 2014 में हुई. इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा. इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ विषय वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं. ऐसे ही कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म उभरे हैं जहाँ पर गाँव-कस्बों की खबर मिल जाती हैं. फिर भी खबर लहरिया जैसे मीडिया की अहमियत कम नहीं होती.

राइटिंग विद फायरके ऑस्कर के लिए मनोनीत होने से खबर लहरियाटीम में नई ऊर्जा का संचार हुआ है. उनसे बात करने पर उनकी खुशी और उत्साह का पता चलता है. खबर लहरियाकी संपादक कविता देवी ने अपनी खुशी को सोशल मीडिया पर शेयर भी किया. उन्होंने डॉक्यूमेंट्री निर्देशकों को बधाई देते हुए लिखा कि हमें गर्व है कि फिल्म के जरिए हमारे 20 साल की ग्रामीण रिपोर्टिंग और मेहनत को बहुत सराहना और प्यार मिल रहा है जो हमारे हौसले को बुलंद करता है.उम्मीद की जानी चाहिए  राइटिंग विद फायरसे खबर लहरियाकी खबर दूर तक पहुँचेगी और वैकल्पिक मीडिया मजबूत होगा.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, February 06, 2022

'कन्यादान' के पचास साल

 


पिछले दिनों सोशल मीडिया पर अचानक से आधी-अधूरी मैथिली फिल्म ‘कन्यादान’ दिखी. इस फिल्म के मूल प्रिंट को खोज कर सरकार को इसके संग्रहण की व्यवस्था करनी चाहिए. ‘कन्यादान’ फिल्म को मैथिली की पहली फिल्म होने का गौरव प्राप्त है. मैथिली के चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा (1908-1984) के क्लासिक उपन्यास ‘कन्यादान-द्विरागमन’ पर आधारित और फणि मजूमदार निर्देशित यह फिल्म वर्ष 1971 में रिलीज हुई थी. जहाँ ‘कन्यादान’ का रचनाकाल वर्ष 1933 का है वहीं ‘द्विरागमन’ वर्ष 1943 में लिखी गई थी.


हास्य-व्यंग्य के माध्यम से मिथिला का सामाजिक यथार्थ इस उपन्यास में व्यक्त हुआ है. विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त एक युवक, सी सी मिश्रा की शादी एक ग्रामीण अशिक्षित युवती, बुच्चीदाई से हो जाती है. स्त्री शिक्षा की अनदेखी, बेमेल विवाह और दहेज की समस्या इसके मूल में है. फिल्म की पटकथा नवेंदु घोष और संवाद फणीश्वरनाथ ‘रेणु ने लिखे थे. फिल्म से जुड़े कलाकार गोपाल, चांद उस्मानी, लता सिन्हा, तरुण बोस आदि की मातृभाषा मैथिली नहीं थी. पर मैथिली के रचनाकार चंद्रनाथ मिश्र ‘अमर’ की इस फिल्म में एक प्रमुख भूमिका थी. शूटिंग मुंबई और मिथिला में हुई थी और फिल्म में मैथिली और हिंदी का प्रयोग है. स्त्रियों के हास-परिहास, सभागाछी, शादी के दृश्य आदि में मिथिला का लोक उभर कर आया है. ‘जहिया से हरि गेला, गोकुला बिसारी देला’ और ‘सखि हे हमर दुखक नहि ओर’ जैसे करुण गीत पचास साल बाद भी अह्लादित करते हैं और मिथिला की संस्कृति की झलक देते हैं. इस फिल्म के गीत-संगीत में चर्चित लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था.

जैसा कि आम तौर पर साहित्यिक कृति पर आधारित फिल्मों के साथ होता रहा है, किताब के लेखक निर्देशक के फिल्मांकन से कम ही संतुष्ट होते हैं. इसका एक कारण तो यह है कि साहित्यकार यह समझ नहीं पाते कि फिल्म में बिंब की भूमिका प्रमुख होती है. जिस रूप में साहित्यकार ने कथा को अपने लेखन में चित्रित किया है, उसी रूप में फिल्म में नहीं ढाला जा सकता है. मसलन ‘कन्यादान-द्विरागमन’ उपन्यास का देशकाल आजादी के पहले का समाज है, जबकि फिल्म लगभग तीस साल के बाद बनी है. हरिमोहन झा ने इस फिल्म के बारे में लिखा है- ‘चित्र जेहन हम चाहैत छलहूँ तेहन नहि बनि सकल (फिल्म हम जैसा चाहते थे वैसा नहीं बन सकी)’. बहरहाल, उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि इस फिल्म ने मैथिली में सिनेमा बनाने का रास्ता दिखाया और ‘मधुश्रावणी’, ‘ललका पाग’, ‘ममता गाबय गीत’ जैसी फिल्में आगे जाकर बनी.

सिनेमा शुरुआती दौर से ही कला के अन्य रूपों को प्रभावित करता है. इसे ‘कन्यादान’ उपन्यास में दो मित्रों के आपसी संवाद में भी देखा जा सकता है. उपन्यास के पात्र सी सी मिश्रा अपने मित्र रेवती रमण से कहते हैं: “रूप से भी कहीं अधिक मैं लावण्य और लोच को समझता हूँ. आकर्षण की शक्ति तो भाव भंगिमा में भरी रहती है. सिनेमा की प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी ऐसे नाज-नखरे दिखलाती है कि दिल पर जादू चल जाता है.” सौ वर्षों के इतिहास में सिनेमा का जादू क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों में हिंदी से कम नहीं है, पर बॉलीवुड के दबाव में अधिकांश की अनदेखी ही हुई.

(प्रभात खबर 06.02.22)

Friday, February 04, 2022

मैथिली साहित्य की विशिष्ट रचनाकार लिली रे (1933-2022)


मैथिली साहित्य की अप्रतिम रचनाकार लिली रे का गुरुवार (3 फरवरी) को दिल्ली में निधन हो गया. वे पिछले कुछ वर्षों से पार्किंसन बीमारी से पीड़ित थी. मैथिली साहित्य में एक वर्ग विशेष के पुरुष रचनाकारों का वर्चस्व रहा है. लिली रे ने अपने लेखन से उस वर्चस्व को चुनौती दी, जिसकी अनुगूँज अखिल भारतीय स्तर पर सुनी गई. पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आधुनिक मैथिली साहित्यकार हरिमोहन झा, नागार्जुन और राजकमल चौधरी आदि के रचनाकर्म पर जिस तरह विचार-विमर्श हुआ है, जिस रूप में साहित्य की समीक्षा हुई उस रूप में लिली रे के कथा-साहित्य की नहीं हुई. एक तरह से उनकी उपेक्षा हुई. जबकि मैथिली साहित्य में उन्हें मरीचिकाउपन्यास के लिए वर्ष 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. बाद में नीरजा रेणु, उषा किरण खान और शेफालिका वर्मा को भी मैथिली में साहित्य अकादमी मिला.

मधुबनी जिले में  26 जवरी 1933 को एक संपन्न परिवार में उनका जन्म  हुआ और घर पर ही शिक्षा-दीक्षा हुई. जैसा कि उस समय प्रचलन था उनकी शादी महज बारह वर्ष की आयु में पूर्णिया जिले में हो गई, पर उनमें पढ़ने-लिखने की उत्कट आकांक्षा थी. उन्होंने अपनी आत्मकथा-समय के घड़ैतमें लिखा है: "सबसँ पहिने हमर रचना सब वैदेही मे कल्पनाशरणक नाम सँ बहराइत छल. वैदेही क सम्पादक छलाह-श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. प्रथम रचनाक शीर्षक छल-रोगिणी. सब रचना संभवत: 1954 सँ 1958 केर बीच छपल छल. तदुपरांत, 1978 सँ लिली रेक नाम सँ लिखए लगलहुँ. (सबसे पहले मेरी रचना सब वैदेही (पत्रिका) में कल्पना शरण के नाम से छपी. वैदेही के संपादक थे श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. पहली रचना का शीर्षक था-रोगिणी. सब रचना संभवत: 1954 से 1958 के बीच छपी. उसके बाद वर्ष 1978 से लिली रे नाम से लिखने लगी.

पहली रचना रोगिणी’ (1955) और रंगीन परदा’ (1956) से ही लिली रे का मैथिली साहित्य में विशिष्ट स्वर सुनाई देने लगा था. मैथिली स्त्री लेखन में ऐसी परंपरा नहीं थी. रंगीन परदामें मिथिला के सामंती समाज का पाखंड मालती और मोहन के बीच विवाहेतर संबंध के माध्यम से व्यक्त हुआ. इस कहानी में दामाद और सास के बीच जो शारीरिक संबंध दिखाया गया है उससे मिथिला के साहित्यक दुनिया में अश्लीलता को लेकर बहस छिड़ गई. लेकिन  राजकमल चौधरी जैसे साहित्यकार से लिली रे को प्रशंसा के पत्र भी मिले थे. उनके कथा साहित्य की स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता के प्रति सचेष्ट है. रोगिणीकी गर्भवती विधवा रेनू आत्महत्या के बदले जीवन को चुनती है.

लिली रे के उपन्यास (पटाक्षेप) और कहानियों (बिल टेलर की डायरी) को हिंदी में अनुवाद करने वाली मैथिली लेखिका विभा रानी ने ठीक ही लिखा है कि लिली रे की कहानियों में स्थानीय मिथिला के साथ-साथ देश भर मुखरित है, जो कथा संसार की सार्वभौमिकता का व्यापक फलक है. दिल्ली से लेकर दार्जिलिंग व सिक्किम तक तथा मजदूर से लेकर राजदूत तक तथा देशी से लेकर विदेशी तक- सभी इनकी कथाओं के पात्र व कैनवास में फैले हुए हैं.लिली रे का ज्यादातर जीवन मिथिला के परिवेश से बाहर बीता. इस लिहाज से लिली रे का अनुभव संसार व्यापक है जो उनकी कथा साहित्य के विषय वस्तु के चयन में दिखता है. जहाँ दो खंडों में फैले मिरीचिकाउपन्यास में जमींदारी, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेष के साथ जीवन का चित्रण है वहीं पटाक्षेप (1979) उपन्यास के मूल में नक्सलबाड़ी आंदोलन है.

प्रसंगवश, वर्ष 1960 के दशक में उनका लेखन मंद रहा, लेकिन फिर पटाक्षेप’ (मिथिला मिहिर पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन) से लेखन ने जोर पकड़ा. मेरी जानकारी में नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया है. बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी हजार चौरासी की मांउपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी. पटाक्षेपमें बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप, अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों-मजदूरों को तैयार करने की कार्रवाई पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों की कहानी है. रबिंद्र लिली रे के पुत्र थे जिनका वर्ष 2019 में निधन हो गया. अपनी आत्मकथा में भी लिली रे नक्सलबाड़ी आंदोलन में पुत्र रबिंद्र रे (लल्लू) के भाग लेने का जिक्र करती हैं कि किस तरह लल्लू हताश होकर आंदोलन से लौट आए और फिर अकादमिक दुनिया से जुड़े.

इस उपन्यास का एक पात्र सुजीत कहता है- हमारी पार्टी का लक्ष्य है- शोषण का अंत. श्रमिक वर्ग को उसका हक दिलाना.मानवीय मूल्यों को चित्रित करने वाला यह उपन्यास आत्मपरक नहीं है. सहज भाषा में, बिना दर्शन बघारे लिली रे ने सधे ढंग से वर्णनात्मक शैली में उस दौर को संवेदनशीलता के साथ पटाक्षेपमें समेटा है. उनकी यथार्थवादी दृष्टि प्रभावित करती है. लिली रे के निधन के साथ ही मैथिली साहित्य के एक युग का भी पटाक्षेप हो गया.

(न्यूज 18 हिंदी के लिए)