Sunday, February 28, 2021

कामगारों के दुख की ध्वनियाँ- ‘ईब आले ऊ’


कई फिल्म समारोहों में दिखाए जाने के बाद प्रतीक वत्स के निर्देशन में बनी फिल्म ईब आले ऊ को पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज किया गया है. एक लंबे अरसे के बाद हिंदी में कोई ऐसी फिल्म बनी है जिसमें रोजगार का सवाल, समाज में वर्गीय विभाजन और समकालीन राजनीति पर एक तीखी टिप्पणी है. हालांकि इसे ऐसे बिंबों और ध्वनियों के माध्यम से कहा गया है जिसका विश्लेषण शब्दों में मुश्किल है.

आम तौर पर हम सिनेमा में ध्वनि के इस्तेमाल पर गौर नहीं करते हैं. इस फिल्म के नाम में तीन ध्वनियाँ हैं. ईब-बंदर के लिए, आले-लंगूर के लिए और ऊ-मनुष्य के लिए. विभिन्न प्रकार के ध्वनियों को जिस कुशलता से इस फिल्म में समाहित किया गया है वह इसे विशिष्ट बनाता है. इस फिल्म का कथानक दिल्ली के रायसीना हिल के आस-पास बुना गया है. यहाँ पर सरकारी दफ्तर हैं, राजपथ पर गणतंत्र दिवस का परेड होता है. लेकिन यहाँ बंदरों का वर्चस्व है और उनका आतंक एक सच्चाई. रायसीना हिल सत्ता का प्रतीक भी है. सत्ता को बंदरों के आतंक से बचाए रखने के लिए कुछ लोगों को बकायदा नौकरी पर रखा जाता है, जो बंदरों को भगाने में माहिर होते हैं. एक बेहतर जिंदगी की तलाश में दिल्ली आए ग्यारहवीं पास अंजनी को इस नौकरी पर उसके जीजा रखबा देते हैं. खुद जीजा और अंजनी की बहन की आर्थिक स्थिति दयनीय है और वे झुग्गी झोपड़ी में रह कर किसी तरह जीवन बसर कर रहे हैं.

गालिब की दिल्ली में अंजनी वजीफाख्वार हुआ पर उसे शाह की दुआ नहीं मिलती. उसे महिंद्र का साथ मिलता है जो सात पुश्तों से ईब आले ऊ की ध्वनि निकाल कर बंदरों को भागता रहा है. महिंद्र के लिए यह ध्वनि निकालना जितना आसान है, अंजनी के लिए वह उतना ही मुश्किल साबित होता हैवह अंजनी से बंदरों की तरह सोचने की ताकिद करता है. अंजनी के लिए नौकरी निभाने और उसे बचाने की जद्दोजहद शुरू होती है. वह बार-बार अपने काम में उलझता जाता है. एक जगह वह कहता हैं- कहाँ नरक में लाके फंसा दिए हैं.’  दिल्ली में रहने वाले प्रवासी कामगारों को जिस अमानवीय परिस्थितियों में नौकरी करनी होती है वह हाशिए के समाज का ऐसा सच है जो सत्ता और सुविधाभोगी वर्ग की आँखों से ओझल ही रहता है.

यह फिल्म बिना किसी मेलोड्रामा के कामगारों के संघर्ष और जिजीविषा को हमारे सामने लेकर आती है. अंजनी के किरदार में शारदुल भारद्वाज का अभिनय दोष रहित है. एक बिहारी प्रवासी की भाषा, माधुर्य, भंगिमा और क्षोभ मिश्रित हताशा के भाव को उन्होंने बखूबी पकड़ा है. वहीं महिंद्र के किरदार में महिंद्र नाथ हैं जो निजी जीवन में बंदर पकड़ने का काम करते हैं. इस फिल्म में कैमरा बंदरों के करतूतों को सहजता से कैद करता है, जो हास्य का संचार करता है. सामाजिक यथार्थ को चित्रित करते हुए फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती है. बिंबों और रूपकों का इस्तेमाल कर यह फिल्म धार्मिक कट्टरता, राष्ट्रवाद और समकालीन राजनीति पर टिप्पणी करने से भी नहीं चूकती. अपनी पहली फिल्म में जिस विश्वास के साथ प्रतीक वत्स सामने आते हैं उनसे काफी उम्मीद बंधती है.


(प्रभात खबर, 28 फरवरी 2021)

Tuesday, February 09, 2021

भील पेंटिंग में आज भी घोड़े पुरुष ही बनाते हैं: भूरीबाई


भील शैली के चित्रों के लिए मशहूर भूरीबाई को पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है। वे पहली भील महिला हैं जिन्होंने कागज और कैनवास पर अपने अनुभवों और जातीय स्मृतियों को दर्ज किया है। 52 वर्षीया भूरीबाई ने भारत भवन में मजदूरी से शुरुआत की और प्रसिद्ध कलाकार जे. स्वामीनाथन के कहने पर कागज पर चित्रों को उकेरना शुरू किया। फिलहाल वे मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय, भोपाल से कलाकार के रूप में जुड़ी हैं। उनसे बात की अरविंद दास ने, प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :

संघर्षों से भरी अपनी लंबी जीवन यात्रा में पद्म पुरस्कार को किस रूप देखती हैं?
झाबुआ जिले के छोटे से गांव से मेरी यात्रा शुरू हुई। खुद को यहां तक काफी संघर्ष करके लेकर आई। इस बीच मुझे कुछ अवॉर्ड भी मिले, जैसे शिखर सम्मान, देवी अहिल्या बाई सम्मान, रानी दुर्गावती सम्मान। लेकिन इस अवॉर्ड के बारे में सुनकर मैं बहुत खुश हूं। मैं अपनी कला यहां तक लेकर आई, लेकिन जो नए कलाकार हैं, जिन्हें तलाशा नहीं गया है, जिन्हें कुछ करने का मौका नहीं मिला है, उनको आगे लाने की जरूरत है। मैं सरकार से चाहूंगी कि उनको भी मौका दिया जाए। उनके लिए मैं अपनी कला बांटना चाहूंगी।

आप पहली महिला कलाकार हैं जिन्होंने भील शैली को कागज-कैनवास पर अपनाया। देखा-देखी कई और महिला कलाकार इससे जुड़ी हैं। आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगी?


मेरे जो गुरु हैं, उनका आशीर्वाद मेरे ऊपर है। कोरकू, गोंड, भील कलाकारों के लिए मैं कहना चाहूंगी कि मेरी कला तो प्रशासन ने जान ली, पर मेरी तरह और भी कलाकार आगे बढ़ें। मैं सबके बीच- कलाकारों, उनके बच्चों के बीच अपनी कला बांटना चाहती हूं, उनको बताना चाहती हूं, उनको भी यही सिखा रही हूं।सबसे यही बोलती हूं आप भी अपनी कला लेकर आगे आएं, नाम बढ़ाएं।


आनुष्ठानिक पिठौरा पूजा के दौरान जो भित्तिचित्र उकेरा जाता है, उसमें पारंपरिक रूप से पुरुषों का दखल रहा है। आपने इसे कैसे बनाना शुरू किया?
मैं आदिवासी भील हूं, हमारे यहां पिठौरा बनता है। पिठौरा देव के घोड़े को महिलाएं, लड़कियां नहीं बनाती हैं। इसे पुरुष ही मिल कर गांव में बनाते हैं। आज भी मैं खास घोड़े को छोड़ कर इस अनुष्ठान से जुड़ी जो अन्य पेंटिंग्स हैं, जैसे पेड़ हैं, मोर हैं, और भी बहुत सी चीजें हैं, वह मैं बनाती हूं। इसके अलावा मैं अपने गांव-घर के जीवन, पेड़-पौधे, जानवरों को अपनी पेंटिंग में बनाती हूं।

जे. स्वामीनाथन जब भारत भवन के निदेशक थे, तब उन्होंने आपकी कला और प्रतिभा को पहली बार पहचाना। आप उन्हें किस रूप में याद करती हैं?
वे भगवान के पास चले गए, लेकिन मेरे आस-पास, मेर ऊपर देव बनकर वे मेरी सुरक्षा कर रहे हैं। मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बांट रहे हैं। मुझे बता रहे हैं। वे मेरे गुरु भी थे और देव के रूप में भी मैं उनको मानती हूं। कोई भी कला बनाने से पहले मैं उनको याद कर लेती हूं कि मुझे सफल करना। उनके आशीर्वाद से कोई व्यवधान नहीं आया और अपनी पेंटिंग को आगे बढ़ा रही हूं।

आपकी पेंटिंग में बिंदियों (डॉट) का ज्यादा प्रयोग मिलता है और रंग भी चटख होते हैं। इसके क्या मायने हैं?
जो गोंड पेंटिंग है उसमें कहते हैं कि ये भित्ति चित्र है। गोंड पेंटिंग की पहचान है- लाइनें। उसमें रेखाओं का ज्यादा इस्तेमाल होता है। जो मक्का हमारे यहां उगाया जाता है, वहीं से यह बिंदी आई है। हम जब खेतों में बोअनी करते हैं, या धान बैठाते हैं, उसी दिन से हम ककड़ी, भुट्टा, भिंडी बोअनी करने के बाद खाना छोड़ देते हैं। ये जब पक जाता है, तब हमारे देव को मक्के चढ़ा कर उसके दाने का नवेद रखते हैं। फिर ककड़ी, भिंडी की पूजा करते हैं, तब खाते हैं। यही हमारी पहचान है। पहला अन्न जीवन के लिए है और हम पहले देवों को खिलाएंगे तब खाएंगे। गेरू, नील जैसे रंगों से मैं बचपन से घर की दीवारों को रंगती थी। आस-पास का जीवन मेरी पेंटिंग में उतर आता है। यही चटख रंग मेरी पेंटिंग में उतर आता है।


(नवभारत टाइम्स, 9 फरवरी 2021)

Sunday, February 07, 2021

नाच के सौंदर्य का सम्मान: रामचंद्र मांझी


कोरोना काल में लोक कलाकारों की स्थिति बदहाल रही. ऐसे में इस बार पद्म पुरस्कारों में लोक कलाकारों की पहचान और उन्हें पुरस्कृत करने की पहल प्रशंसनीय है ‘भोजपुरी के शेक्सपीयर’ भिखारी ठाकुर (1887-1971) के सहयोगी रहे बिहार के चर्चित कलाकार रामचंद्र मांझी को नाच परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए पद्मश्री देने की घोषणा हुई है, वहीं मिथिला पेंटिंग के लिए दुलारी देवी और भीली शैली चित्रकला के लिए भूरीबाई को भी यह पुरस्कार मिला है. ये सभी कलाकार हाशिए के समाज से आते हैं जिन्हें काफी संघर्ष से अपने क्षेत्र में प्रसिद्धि मिली है.

बारह वर्ष की उम्र में मंच पर पैर रखने वाले 94 साल के मांझी आज भी नाच कला में सक्रिय हैं. पिछले साल एनएसडी के भारत रंग महोत्सव में ‘भिखारीनामा’ में लोगों ने उन्हें मंच पर देखा था. असल में लौंडा नाच की प्रसिद्धि का श्रेय भिखारी ठाकुर और उनकी मंडली को है. रामचंद्र मांझी भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली में शामिल थे. स्त्री रूप और साज-सज्जा में मंच पर आकर दर्शकों को रिझाने की कला को भिखारी ठाकुर और उनकी मंडली ने अपूर्व ऊंचाई दी, पर धीरे-धीरे यह कला समाज से ओझल होती चली गयी.रात भर दर्शकों का मनोरंजन करने वाली यह कला सामंती संस्कृति की उपज थी, जिसे मंडली ने पिछले सदी में सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता का औजार बनाया. भिखारी ठाकुर की रचना में निम्नवर्गीय चेतना (सबअल्टर्न) मुखर रूप से अभिव्यक्त हुई है.
गीत-संगीत, हास्य, व्यंग्य इस कला के मूल में है. ‘बिदेसिया’ नाटक में जो पलायन और अपनी जमीन से बिछुड़ने की पीड़ा है वह सिनेमा और नाटक के समकालीन कलाकारों को आज भी अपनी कला में ढालने के लिए उकसाता रहता है. हाल के दशक में इस कला के प्रति सामाजिक अस्वीकृति और तिस्कार का भाव जन्मा है. समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी ने लिखा है, “लोक अध्ययन अवधारणाओं के संबंध में एक तरफ हम ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं, जिसने लोक समुदाय को आधुनिक सभ्यता के दायरे से बाहर मानकर वास्तव में सभ्यता के ही बाहर माना है.” हालांकि भिखारी ठाकुर की कला को लेकर कुछ शोध हुए हैं.

हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार संजीव ने भिखारी ठाकुर को केंद्र में रख कर ‘सूत्रधार’ की रचना की थी. उत्साह से भरपूर ठेठ भोजपुरी में मांझी कहते हैं कि ‘समाज में इसे हीन भावना से लोगों ने देखना शुरू किया पर इस पुरस्कार से लोगों में कला के प्रति फिर से वैसी ही सम्मान की भावना जागेगी जैसा कि भिखारी ठाकुर के समय में थी.’ वे कहते हैं कि उन्हें पहले भी बहुत पुरस्कार मिले हैं, पर यह सम्मान उनके लिए खास है.
हाल ही में जैनेंद्र दोस्त और शिल्पी गुलाटी ने चार कलाकारों को केंद्र में रख कर ‘नाच भिखारी नाच’ वृत्तचित्र का निर्देशन किया है. चारों कलाकार भिखारी ठाकुर नाच मंडली के सदस्य रह चुके हैं. इस वृत्तचित्र में लोक कला की राजनीति और सौंदर्य बोध को उजागर किया है. साथ ही इस कला से जुड़ा जातीय पहलू भी सामने आता है, क्योंकि ज्यादातर कलाकार सामाजिक रूप से पिछड़े तबके से ही आते रहे हैं.

(प्रभात खबर, 7 फरवरी 2021)

Monday, February 01, 2021

दुलारी देवी और भूरी बाई: संघर्ष से जन्मी कला


मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए मधुबनी जिले के रांटी गाँव की दुलारी देवी को पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है. यूँ तो मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में अब तक छह महिला कलाकारों को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है, पर उनकी कला यात्रा उन्हें एक अलग लीक में ले जाती है. पारंपरिक रूप से मिथिला कला में कायस्थों और ब्राह्मणों की उपस्थिति रही है, पर पिछले कुछ दशकों में दलित कलाकारों का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी हाशिए के समाज से आती हैं. उनकी कला में उनका जीवन अनुभव और संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखता है.


पद्मश्री की घोषणा के बाद जब मैंने उनसे बात किया तो उन्होंने कहा- बहुत कष्ट स गुजरल छी. बहुत संघर्ष में सीखने छी. आई हमरा बहुत खुशी होइय. एते दिन सुनै छलिए. हमर गाम के महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त...बौआ देवी (जितवारपुर) के भेटल रहैन. आई हमरो भेटल ए त आरो खुशी होइए. (बहुत कष्ट से गुजरी हूँ. बहुत संघर्ष में रह कर सीखी. मुझे बहुत खुशी है. पहले सुनती थी कि मेरे गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त...बौआ देवी (जितवारपुर) को पुरस्कार मिला. आज मुझे भी मिला तो और भी खुशी हुई.)


असल में,
मछुआरा जाति में जन्मी दुलारी देवी की ज़िंदगी किसी लोक कथा से मिलती-जुलती है. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कम उम्र में एक लड़की को जन्म दिया जो ज़िंदा नहीं रही. फिर पति के ताने. पंद्रह साल की होते होते उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी को चित्र बनाती हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.”  फिर धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्तिचित्र बनाया  है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नई, कोलकाता, बैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.

 
दुलारी देवी को शब्दों की पहचान भले ना हो, पर रंगों की बखूबी पहचान है जो उनके चित्रों में दिखती है. उनके चित्रांकन की शैली मिथिला पेंटिंग के कचनी शैलीसे मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में मिथिला पेंटिंग की पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँ, आत्म संघर्ष अंकित है. कुछ वर्ष पहले आई उनकी आत्मकथा फालोइंग माइ पेंट ब्रशमें उन्होंने इसे रेखाचित्र के माध्यम से उकेरा है.  


मुझे याद है कि जब मैं रांटी में उनसे मिलने गया तब उनसे एक पेंटिंग खरीदी थी और उनसे कहा था कि अपना नाम लिख दीजिए. पर जब मैंने दिनांक अंकित करने को कहा तब उन्होंने कहा था कि बस मुझे नाम लिखना आता है!


इसी तरह इस साल भीली शैली चित्रकला के लिए चर्चित कलाकार भूरीबाई को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई. उनका जीवन भी दुलारी देवी की तरह ही संघर्ष से भरा रहा है. वह भील जनजाति से आने वाली पहली महिला है जिन्होंने कागज और कैनवास पर अपने अनुभवों  और जातीय स्मृतियों को दर्ज किया है. उनके चित्रों में जीवन के अनुभव जीवंत है. अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश स्वामीनाथन जब भोपाल स्थित भारत भवन के निदेशक थे, तब भूरीबाई की प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया. भूरीबाई वहाँ पर मजदूरी के लिए आई थी. आज भी वह शिद्दत से उन्हें याद करती हैं. वह कहती हैं, ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं. वे मेरे गुरु भी थे और देव के रूप में भी मैं उनको मानती हूँ.

 
भूरीबाई के चित्रों के माध्यम से भीलों का जीवन आधुनिक भारतीय चेतना का हिस्सा बना. दुलारी देवी की तरह ही उनके चित्रों में आत्मकथात्मक रंग भरा है. उन्होंने भी अपनी कहानी दीवारों पर अंकित करने के साथ डॉटेड लाइंसकिताब में कही है. इसमें वह झाबुआ जिले में स्थित अपने गाँव के बारे में रेखांकित करती हैं.  अपने पेंटिंग में वह पारंपरिक पिठौरापर्व के चित्रण के माध्यम से भीलों की संस्कृति को खूबसूरत रंगों से उकेरती हैं. वह कहती हैं कि पिठौरा देव के घोड़े को महिलाएँ नहीं बनाती है. इसे पारंपरिक रूप से पुरुष ही मिल कर बनाते हैं. इस अनुष्ठान से जुड़ी जो अन्य पेंटिंग हैं-मोर, पेड़ और भी बहुत कुछ वह मैं बनाती हूँ.उनके अन्य चित्रों में भीलों का जन-जीवन, पेड़-पौधे, घोड़े-बैल, ढोल-मांदल, गाँव के आस-पड़ोस का अंकन है. 

 

उनकी रेखाओं और चटख रंगों के चयन में एक सहजता सब जगह दिखती है. यहाँ बिंदियों की प्रधानता है, जो भील जनजाति के जीवन-यापन से जुड़ी है. इन बिंदियों को वह खेती के समय मक्का बोने की स्मृतियों से जोड़ती है. भूरीबाई अपनी कला के संग देश के अनेक हिस्सों सहित अमेरिका भी गई. उनकी सफलता से प्रभावित होकर आज भील समुदाय की बहुत सारी युवतियाँ इस कला से जुड़ी हैं. 

(बीबीसी, 1 फरवरी 2021)