Thursday, January 17, 2019

सिनेमा के संरक्षण में उदासीन समाज


पिछले दिनों मैथिली फिल्मों की चर्चा चली, तब प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने कहा कि बहुत पहले 1972-73 में मैंने पटना में एक मैथिली फिल्म देखी थी- कन्यादान. हरिमोहन झा की कहानी थी और संवाद रेणुजी के.फणीश्वरनाथ रेणु इस फिल्म से जुड़े थे, यह मुझे नहीं पता था. मुझे बस इसकी जानकारी थी कि कन्यादानको पहली मैथिली फिल्म होने का श्रेय है.

 बहरहाल, मैंने बड़े भाई से पूछा तो उन्होंने भी कहा कि जब वे पांच साल के थे, तब यह फिल्म देखी थी, जिसकी धुंधली सी यादें हैं. मां ने कहा कि झंझारपुर (गांव का कस्बा) के बांस टॉकिजमें गांव में आयी एक नव वधू के साथ उसने भी यह फिल्म देखी थी.

 वर्ष 1965 में फणी मजूमदार ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. ऐसा लगता है कि इस फिल्म के बेहद कम प्रिंट बने थे. मैंने इस फिल्म को खोजने की कोशिश की और इस सिलसिले में जब पुणे स्थित नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडियासे संपर्क साधा, तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है.

उल्लेखनीय है कि कन्यादान उपन्यास का रचनाकाल सन 1933 का है. इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है.

इस फिल्म के गीत-संगीत में प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था. जाहिर है इस फिल्म की अनुपलब्धता के कारण सिनेमा, जो एक समाज को कलात्मक रूप से रचने और उसकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने का एक जरिया है, उससे हमारी पीढ़ी वंचित रह गयी है. इस फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व है.

 समकालीन समय में जब भी क्षेत्रीय फिल्मों की बात होती है, तो भोजपुरी का जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही भईयानाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था.

 भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन.

एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एल्फिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एल्फिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआ, में पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है.

बिहार में सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. आजादी के बाद मैथिली-मगही-भोजपुरी में सिनेमा निर्माण भी हुआ, पर बाद में जहां तक सिनेमा के सरंक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज उदासीन ही रहा है.

(प्रभात खबर, 17 जनवरी 2019 को प्रकाशित)

Monday, January 14, 2019

सत्ता से सवाल करती फिल्में

प्रभात खबर

फिल्मकार मृणाल सेन (1923-2018) के अवसान के साथ ही करीब पचास साल की उनकी फिल्मी यात्रा थम गयी. मृणाल सेन बांग्ला सिनेमा के अद्वितीय चितेरे ऋत्विक घटक और सत्यजीत रे के समकालीन थे. 

ऋत्विक घटक की नागरिक’ (1952) और सत्यजीत रे की पाथेर पंचाली’ (1955) फिल्म के आस-पास मृणाल सेन अपनी फिल्म रात भोर’ (1956) लेकर आते हैं. पर जहां सत्यजीत रे को दुनियाभर में पहली फिल्म के साथ ही एक पहचान मिल गयी, वहीं मृणाल सेन को लंबा इंतजार करना पड़ा था.

मृणाल सेन की तरह ही भारतीय सिनेमा में पचास वर्षों से ज्यादा से सक्रिय मलयालम फिल्मों के निर्देशक और दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित अदूर गोपालकृष्णन कहते हैं कि मृणाल सेन को सफलता काफी संघर्ष के बाद मिली. वर्ष 1969 में आयी हिंदी फिल्म भुवन सोमने उन्हें भारतीय सिनेमा में स्थापित कर दिया.

मृणाल सेन के अवसान के बाद एक बार फिर से उनकी फिल्मों और सिनेमाई संसार में उनकी गुरुता की तुलना सत्यजीत रे से की जाने लगी है. गोपालकृष्णन कहते हैं कि घटक और रे दोनों से मृणाल सेन स्टाइल और अप्रोच में अलग थे. वे अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से कभी नहीं डरे. वे अपनी विचारधारा के प्रति आबद्ध रहे.

खुद मृणाल सेन कहा करते थे: मैं सिनेमा में काम करता हूं, सिर से पांव तक सिनेमा में डूबा हूं. मैं सिनेमा में निबद्ध हूं, पूरी तरह आसक्त.नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि में कोलकता को केंद्र में रखकर सेन ने इंटरव्यू’ (1971), ‘कलकत्ता 1971’ (1972) और पदातिक’ (1973) नाम से फिल्म त्रयी बनायी, जो उस दौर की राजनीति, युवाओं के सपने और आम लोगों की हताशा को हमारे सामने रखती हैं. 

हाल में बॉलीवुड में बनी राजनीतिक फिल्मों के साथ इन फिल्मों को देखें, तो उत्कृष्ट कला और प्रोपगैंडा के फर्क को हम आसानी से समझ सकते हैं. सेन कभी मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य नहीं रहे. हां, इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और मार्क्सवादी आंदोलनों के साथ उनका जुड़ाव था.

मृणाल सेन की फिल्में गरीबी, सामाजिक न्याय, सत्ता के दमन और भूख के सवालों को कलात्मक रूप से हमारे सामने रखती हैं. उन्होंने प्रेमचंद की चर्चित कहानी कफन को आधार बना कर तेलगू में ओका ऊरी कथा’ (1977) बनायी. यह कहानी जितना मर्म को बेधती है, फिल्म हमें उतना ही झकझोरती है. 

फिल्म का पात्र वेंकैया कहता है कि यदि हम काम नहीं करें, तो भूखे रहेंगे, वैसे ही जैसे बेहद कम पगार पर काम करनेवाला मजदूर भूखा रहता है. तो फिर काम क्यों करना?’ इसमें उन्होंने बंटे हुए समाज में श्रम के सवाल को केंद्र में रखा है, भूख और मानवीयता के लोप को निर्ममता के साथ दर्शाया है. 

मृणाल सेन की फिल्मों पर काम करनेवाले जॉन डब्ल्यू वुड ने लिखा है: ओका ऊरी कथा एक एंटी-होरी फिल्म है. इसमें उस दुनिया का चित्रण है, जहां निर्दोष व्यक्ति दुख सहता है और अनैतिक फलता है और जहां आवाज उठाने, विरोध करने का कोई अर्थ नहीं.क्षेत्रीयता की भूमि पर विकसित उनकी फिल्में अखिल भारतीय हैं.

आपातकाल के बाद सेन की फिल्मों का स्वर बदलता है. फिल्म एक दिन प्रतिदिनऔर एक दिन अचानकमें स्त्रियों की आजादी का सवाल है. वे मध्यवर्ग की चिंताओं, पाखंडों को फिल्मों के केंद्र में रखते हैं.

वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक उद्वेलित हों. पॉपुलर सिनेमा की तरह उनकी फिल्में हमारा मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि संवेदनाओं को संवृद्ध करती हैं, ‘अंत:करण के आयतनका विस्तार करती हैं. 

(प्रभात खबर, 13 जनवरी 2019 को प्रकाशित)

Wednesday, January 02, 2019

हिंदी समाचारपत्रों की ऑनलाइन दुनिया


पिछले दशक में अमेरिकाब्रिटेनजर्मनी आदि देशों में अखबारों के प्रसार और पाठकों की संख्या में कमी देखी गई।  भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के प्रसार के बावजूद अखबार के पाठक 2006-16 के दौरान बढ़े हैंउनका प्रसार बढ़ा है। ख़ास तौर पर भारतीय भाषाओंहिंदी के अखबारों के प्रसार और पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई है।[i]  इन्हीं वर्षों में अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले इंटरनेट पर हिंदी सामग्री के उत्पादक और उपभोक्ता (प्रोज्यूमर) की मौजूदगी भी कई गुणा बढ़ी है और अंग्रेजी का वर्चस्व टूटा है। गूगल और केपीएमजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2021 तक हिंदी में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या सबसे ज्यादा करीब 20 करोड़ हो जाएगी, जो भारत में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों का कुल 38 प्रतिशत होगा। वर्तमान में भारत में हिंदी में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 6 करोड़ से कुछ लाख ज्यादा है[ii]

21वीं सदी के दूसरे दशक में, ‘डिजिटल डिवाइड’ के बावजूद, हिंदी अखबारों के न्यूज रूम में ‘इंटरनेट फर्स्ट’, डिजिटल फर्स्ट’ जैसे नारे सुनाई पड़ने लगे हैं। मीडिया संस्थानों के मालिक, ब्रांड मैनेजर और संपादक पत्रकारिता का भविष्य ऑनलाइन, डिजिटल पत्रकारिता को ही मान रहे हैं। यहाँ तक कि अब हिंदी मुख्यधारा के अखबारों का जोर वेबसाइटों पर सामग्री उपलब्ध करवाने पर ज्यादा है। जाहिर है ऑनलाइन खबरों का बाजार बढ़ा है। साथ ही इस बीच इंटरनेट पर खबरों की तलाशउसमें दिलचस्पी हिंदी के उपभोक्ताओं में बढ़ी है। 

कंप्यूटरस्मार्ट फोन, इंटरनेट (टूजी, थ्री जीफोर जी) और सस्ते डाटा पैक की दूर-दराज इलाकों तक पहुँच ने मीडिया के बाजार में खबरों के परोसनेउसके उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया को खासा प्रभावित किया है। अखबारों और इंटरनेट पर प्रस्तुत समाचार के बीच एक नए संबंध बन कर उभरे हैं। सोशल मीडिया के फैलने के बाद खबरों के प्रसारण का तरीका भी बदला है। पर इस बदलाव की दशा और दिशा क्या रही हैक्या हिंदी के अखबारइंटरनेट पर मौजूद वेबसाइटों के पूरक बन कर उभरे हैंया इंटरनेट पर जो खबरों का बाजार है उसका संचालन एक अलग पाठक वर्ग को ध्यान में रख कर किया जा रहा हैहिंदी की सार्वजनिक दुनिया में बहस-मुबाहिसे के मंच के रूप में इन वेबसाइटों की क्या पहचान है? इस लेख में हिंदी अखबारों के ऑनलाइन वेबसाइटों के काम-काज के तरीकों के लेखा-जोखा के आधार पर इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश की गई है।

हिंदी में ऑन लाइन पत्रकारिता:पब्लिक स्फीयर का विस्तार

हिंदी में ऑन लाइन पत्रकारिता की शुरुआत 20वीं सदी के आखिरी सालों में नेट जाल डॉट कॉम’, वेब दुनिया वेबसाइट वगैरह से  होती है। वर्ष 2000 में ऑनलाइन दुनिया में बबल बर्स्ट’ (इंटरनेट डॉट कॉम से जुड़ी कई कंपनियों के स्टॉक लुढक गए, इंटरनेट पर कारोबार करने वाली कई कंपनियाँ बंद हो गई) किया तो छह-सात महीने के लिए ऑन लाइन पत्रकारिता प्रभावित रही थी। हालांकि उस दौरान अखबारों की खबरोंविचारों-विश्लेषणों को ऑनलाइन पर कट-पेस्ट कर ज्यों का त्यों डाल दिया जाता था। वेबसाइट 24 घंटे तक अपडेट भी नहीं होते थे। उस दौर की ऑनलाइन पत्रकारिता के प्रसंग में इतिहासकार और मीडिया विमर्शकार रविकांत (2003: 200) ने ठीक ही नोट किया हैउम्र का एक घिसा-पिटा मुहावरा लें तो नेट के सूचना महामार्ग पर हिंदी अभी उंगली पकड़ कर चलना सीख रही है। हालाँकि सारे प्रमुख अखबारों ने खुद को वेब पर डाल दिया है, लेकिन नेट संस्करण प्रिंट की प्रतिलिपि लगते हैं, जो डिजिटल तकनीक की क्षमताओँ के दोहन की अच्छी मिसाल नहीं है।[iii] असल में उस दौर में हिंदी अखबारों में डेस्क पर जो संपादक काम कर रहे थे उन्हें ही ऑनलाइन संस्करण के काम की देख-रेख में लगा दिया गया था। उस वक्त तकनीक ज्ञान पर संस्थानों का जोर नहीं था, हालांकि वर्तमान में तकनीक के क्षेत्र में हो रहे बदलाव की अद्यतन जानकारी बेहद जरूरी है। हिंदी के वेबसाइट मल्टी मीडिया का प्लेटफार्म बन कर उभरे हैं। 

हिंदी अखबारों में दैनिक भाष्करदैनिक जागरण और नवभारत टाइम्स (नभाटा) हिंदी में समाचार के अग्रणी वेबसाइट हैं। इसके बाद हिंदुस्तानराजस्थान पत्रिकाजनसत्ता वगैरह का नंबर आता है। नवभारत टाइम्स ऑन लाइन वेबसाइट से वर्ष 2007 से जुड़े डिप्टी एडिटर प्रभाष झा कहते हैं: यहाँ ज्वाइन करने से पहले हिंदी अखबारों के लिए पाँच साल काम किया था। चूंकि जो काम ऑनलाइन पर करना था वह डेस्क से ही जुड़ा हुआ था सो कोई परेशानी नहीं हुई। पहले संस्थान में जो कोई अनुभवी होते थेउन्हें इस काम पर लगा दिया जाता था। तकनीक ज्ञान पर जोर नहीं थापर अब स्थिति बदली है। वीडियो- ऑडियो संपादनशूटिंग वैगरह की जानकारी जरूरी है।[iv] 

नवभारत टाइम्स वेबसाइट के लिए अलग से रिपोर्टस की टीम नहीं है। अखबार के रिपोर्टर ही वेबसाइट के लिए सामग्री मुहैया कराते हैं। वेबसाइट के लिए अलग से डेस्क हैजहाँ वेबसाइट के लिए 65 पत्रकार काम करते हैंवहीं अखबार के लिए 150-175 यही बात हिंदी के सभी अखबारों के लिए सच हैं। राजस्थान पत्रिका के दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख मुकेश केजरीवाल कहते हैं कि भले ही हमारे पास अलग से ऑनलाइन के लिए रिपोर्टर्स नहीं हो, पर अब हमारे रिपोर्टर्स चाहते हैं कि उनकी स्टोरी जल्दी से जल्दी ऑन लाइन पब्लिश हो जाए। इससे उनकी पहुँच ग्लोबल हो जाती है। और शब्द सीमा का भी कोई झंझट उनके सामने नहीं रहता।[v] इंटरनेट पर भले ही किसी कहानी को कहने के लिए कोई शब्द सीमा नहीं हो, पर ऑनलाइन वेबसाइट पर काम करने के अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि कम शब्दों में, पाठकों को जानकारी मुहैया कराने पर संपादकों का जोर रहता है। माना जाता कि पाठक कई बार सिर्फ खबरों की हेडलाइन पढ़ कर निकल जाते हैं, कहानी (स्टोरी) के अंदर जाने की जहमत भी नहीं मोल लेते। इस लिहाज से टीजर, ग्राफिक्स, फोटो, विडियो के सहारे कहानी कहने पर यहाँ जोर दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, विजुअल सामग्री परोसने पर इन वेबसाइटों का ध्यान लगा रहता है। ऐसा भी नहीं है कि शोधपरक, विश्लेषात्मक कहानी, खबरें आदि ऑनलाइन नहीं पढ़ी जाती है। जैसे-जैसे नए पाठक वर्ग ऑनलाइन दुनिया से जुड़ रहे हैं, उनकी रूचि, प्राथमिकताओं में भी बदलाव देखा जा रहा है।

सही मायनों में हिंदी अखबारों के वेबसाइट 2010 के बाद अपनी अलग पहचान लेकर आए। उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष जी सेवा ने इंटरनेट, मोबाइल के प्रसार को एक गति दी।[vi] इसी दौरान अरब देशों में जो आंदोलन हुए जिसमें ऑन लाइन की बड़ी भूमिका थी। वर्ष 2011 में भारत में भ्रष्टाचार के विरोध में हुए अन्ना आँदोलन के कारण लोगों की रूचि राजनीति में बढ़ी, फिर 2012 में बलात्कार के खिलाफ दिल्ली में हुए निर्भया आंदोलन ने पूरे देश को उद्वेलित किया। इन आंदोलनों में सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्विटर आदि) का भी खूब इस्तेमाल हुआ। लोकतंत्र में राजनीतिक भागेदारी और राजनीतिक दलों के संचार में मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है। वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार की अघोषित नीति मेनस्ट्रीम (प्रिंट और टेलीविजन) के बदले न्यू मीडिया को तरजीह देने की है। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया की दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाले नेताओं में से एक है। ट्विटर पर उनके 43.4  मिलियन और फेसबुक पर 43.2  मिलियन फॉलोअर हैं।[vii] इस सबने ऑन लाइन वेबसाइटों के प्रति लोगों को आकर्षित किया। सोशल मीडिया के माध्यम से इन वेबसाइटों पर पाठकों की आवाजाही भी बढ़ी।

युरगेन हैबरमास (1989) ने पब्लिक स्फीयर की अवधारणा के प्रसंग में नागरिकों के परस्पर तथा शासक के साथ तर्क और उस पर आधारित खुलापन, विचारों के आदान-प्रदान के जिस क्षेत्र की बात की है, उसमें मीडिया (पत्र-पत्रिका ) और अब न्यू मीडिया का विशेष महत्व है। वे मानते हैं कि आधुनिक यूरोप के आरंभिक दौर में पत्र-पत्रिकाओं के प्रसार ने निरंकुश सत्ता से उदार लोकतांत्रिक समाज की यात्रा में अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी तथा मीडिया के माध्यम से आलोचनात्मक लोक विचारों की अभिव्यक्ति आधुनिक लोकतांत्रिक जीवन का अनिवार्य पहलू था।[viii] यह सच है कि भारतीय अर्थव्यस्था में उदारीकरण (1991)निजीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप आए भूमंडलीकरण के दौर में इंटरनेट, मोबाइल फोन जैसी नई तकनीक के माध्यम से हिंदी अखबारों की पहुँच डायसपोरा (विदेश में रहने वाले भारतीय मूल के लोग) तक हुई है। जहाँ अखबार के पहुँच की एक सीमा होती हैवहीं इंटरनेट इन बाध्यताओँ से मुक्त है। और इस तरह वेबसाइटों पर मौजूद हिंदी अखबारों ने हिंदी की सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फीयर) का विस्तार किया है। 

रॉबिन जैफ्री और अस्सा डोरोन (2013:13-14) ने भारत में सेल फोन के विस्तार से संबंधित अपने अध्ययन में लिखा है: 21वीं सदी में भी सत्ता की संरचना-लिंगजातिवर्ग और परिवार- लोगों की कल्पना की क्षमता या खुद को इन संरचनाओं से हट कर अभिव्यक्त करने की राह में रुकावट बन कर खड़े हैं। यहीं पर मोबाइल फोन के माध्यम से नए संबंधों की गुंजाइश महत्वपूर्ण हो जाती। नए औजार के माध्यम से समाज में जो सत्ता संरचनाएँ जड़ जमा कर बैठी है उससे अलग एक राह की संभावना निकल आती है।[ix] पर सवाल है कि इस संभावना और इंटरनेट के विस्तार के बाद बने पब्लिक स्फीयर का स्वरूप क्या है

ऑनलाइन सामग्री और उपभोक्तावादडिजिटल फर्स्ट

उदारीकरण के बाद हिंदी अखबारों में बड़ी पूंजी का प्रवेश बढ़ता गया। अखबार एक प्रोडक्ट बन गए। अखबारों में संपादकों की जगह ब्रांड मैनेजरों की भूमिका बढ़ती गई। हिंदी अखबारों का मुख्य ध्येय विज्ञापनदाताओँ को आकर्षित करना हो गया। भूमंडलीकरण के बाद समाज में बढी उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों को अखबारों ने भुनाना शुरु किया। हिंदी के अखबारों का मुख्य लक्ष्य उभरते हुए नव मध्यवर्ग पाठकों को सामग्री देना हो गया। वर्तमान में उनके सरोकार बहुसंख्यक हिंदी समाज, हाशिए पर रहने वाले लोग, जिनके पास क्रय शक्ति नहीं है, से नहीं जुड़े हैं। यह सच है कि हिंदी के ऑनलाइन न्यूज वेबसाइट के पाठक और अखबारों के पाठक वर्ग अलग-अलग हैं। जहाँ हिंदी के अखबारों के पाठक सभी उम्र के लोग होते हैं, वहीं वेबसाइट के पाठक अधिकांश युवा वर्ग है। फलत: वेबसाइटों पर जो सामग्री होती है वह प्रिंट संस्करण से अलग होती है। यहाँ क्लिकबेट (हेडिंग में भड़काऊ शब्दों का इस्तेमाल ताकि अधिकाधिक हिट मिले) और सोशल मीडिया (फेसबुकट्विटर आदि) पर खबरों के शेयर करने की योग्यता (शेयरेबलिटी) पर ज्यादा जोर रहता है। यहाँ अखबारों की तरह सब्सक्रीप्शन या स्थानीय हॉकर/स्टैंड से अखबार खरीदने की बात नहीं है। इस बात उल्लेख जरूरी है कि हिंदी में पेड वेबसाइटों का चलन नहीं है, अखबारों के सारे वेबासइट फ्री हैं। साथ ही, चूंकि स्मार्टफोन के उपभोक्ता युवा हैं, तो इन वर्षों में इन उपभोक्ताओं को ध्यान में रख कर सामग्री परोसने का चलन जोर पकड़ा है। इन वेबसाइटों का टारगेट आडिएंश शहरी मध्यम वर्ग हैं। यह बात महज भारतीय ऑनलाइन न्यूज वेबसाइट तक ही सीमित नहीं है बल्कि बीबीसी (ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन)जिसकी भारत में काफी प्रतिष्ठा रही है, वहाँ भी देखने को मिलता है।

यदि इन अखबारों के ऑनलाइन सामग्री का अध्ययन करें तो खबरों के परोसने का रंग-ढंग हिंदी के खबरिया चैनलों से ही प्रेरित दिखते हैंअखबारों से नहीं। टेलीविजन के वरिष्ठ पत्रकार करण थापर कहते हैं कि हमारे यहाँ करीब 400 खबरिया चैनल हैं, पर क्या कोई ऐसा चैनल है जिस पर हम भारतीय उसी तरह से गर्व कर सकें जैसा कि एक ब्रिटिश बीबीसी को लेकर या एक अमेरिकी सीएनएन को लेकर होता है।[x] टेलीविजन के हिंदी खबरिया चैनलों पर जोर टीआरपी बटोरने और सनसनी फैलाने पर रहता है कि ना कि खबरों के प्रसार, विवेचन-विश्लेषण पर। ठीक इसी तरह हिंदी के वेबसाइटों पर बुलेटिन की तरह हेडलाइनवीडियो और फोटो गैलरी देने पर जोर हैखबरों के विवेचन-विश्लेषण, इनवेस्टिगेशन पर कम। इस बात से इंकार नहीं कि नया माध्यम नए तरह के सामग्री के उत्पादन और प्रसार की अपेक्षा रखता हैपर विश्वसनीय खबरों को आम-फहम भाषा में लोगों तक पहुँचानासत्ता से सवाल करना और बहस-मुबाहिसे का एक मंच मुहैया करना, सच की तह तक पहुँचना इन वेबसाइटों के लिए भी उसी तरह मायने रखता है जितना अखबार या टीवी के लिए। अन्ना आंदोलन या निर्भया आंदोलन के दौरान राजनीतिक लामबंदी में इनकी भूमिका रेखांकित करने योग्य रही। पर इन अपवादों को छोड़ दें तो करीब दो दशकों की अपनी इस यात्रा  में हिंदी अखबारों की वेबसाइटों ने सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फीयर) का विस्तार भले किया होइसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन या बदलाव करता हुआ नहीं दिखता। अपनी बात को और स्पष्ट रूप से रखने के लिए मैं यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। 

फरवरी 2018 में हिंदी सिनेमा की चर्चित कलाकार श्रीदेवी की मौत को जिस तरह सनसनीखेज भाषा में हिंदी अखबारों के वेबसाइटों ने कवर कियाकयास लगाए इस बात की ताकीद करते हैं। जनसत्ता ने अर्जुन कपूर के श्रीदेवी और उनकी बेटी से अलगाव को हेडलाइन बनाया तो नवभारत टाइम्स ने दुबई के होटल के श्रीदेवी और बोनी कपूर के आखिरी लम्हों के वीडियो को वेबसाइट पर लगाया। ऐसा लग रहा था कि श्रीदेवी की मौत की खबर को लोगों तक पहुँचाने से ज्यादा इनकी रूचि इसे सेलिब्रेट करने में रही। कई हेडलाइंस तो स्त्री-विरोधी भी थे। दैनिक भाष्कर वेबसाइट का एक हेडलाइन कह रहा था: 50 पार भी नहीं ढली थी श्रीदेवी की खूबसूरतीइन एक्ट्रेसेस पर भी नहीं हुआ उम्र का असर। यहाँ तक कि बीबीसी हिंदी ऑनलाइन वेबसाइट का रवैया भी वही थाजो टीवी चैनलों का रहा। 26 फरवरी 2018 को एक समय वेबसाइट के मेन पेज कम से कम श्रीदेवी से जुड़ी चौदह स्टोरीरिपोर्टवीडियोब्लॉग आदि की शक्ल में थी। यह हिंदी ऑनलाइन मीडिया की दिशा और दशा का भी सूचक है। यहाँ खबरों का मतलब मनोरंजन है और मनोरंजन का मतलब बॉलीवुड। भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबारों में खुश खबर परोसने का चलन जोर पकड़ा है, हिंदी अखबारों के वेबसाइट भी इसे बढ़ावा दे रहे हैं।[xi] इस मायने अखबार और वेबसाइट एक-दूसरे के पूरक नजर आते हैं। 

बीबीसी हिंदी वेबसाइट ने संवाददाता के हवाले से एक और ख़बर चलाई थी-क्या श्रीदेवी को पहले से ख़तरा था?[xii] इस ख़बर के मुताबिक: श्रीदेवी की मौत के बाद अब उनके परिवार में भी हृदय रोग फ़ैमली हिस्ट्री का हिस्सा होगी। इसलिए उनकी दोनों बेटियां जाह्नवी और खुशी को ज़्यादा सजग रहने की ज़रूरत है।" हालांकि खबर को अपडेट करने के बाद इन पंक्तियों को हटा दिया गया लेकिन ऐसा लगता है कि खबरों का चुनाव ही नहींउसे बरतने की नीतिविश्वसनीयता का पैमाना भी बीबीसी के अंग्रेजी और हिंदी पाठकों के लिए अलग-अलग है। हिंदी की जो स्टोरी ऑनलाइन दी जाती है और यदि फिर उसमें फेर-बदल किया जाता है तो पाठकों को इस बात की जानकारी नहीं दी जाती जो कि बीबीसी के गाइडलांइस के विपरीत है। हिंदी के खबरिया वेबसाइट ‘सॉफ्ट पोर्न’ और ‘क्लिकबेट’ (पाठकों को आकर्षित करने के लिए भड़काऊ शब्दों का हेडलाइन में इस्तेमाल) की नीति पर चल रहे हैं।

श्रीदेवी की दुखद मौत बॉलीवुड और उनके फैन्स के लिए सदमे से कम नहीं था। उनकी मौत  होटल के बाथटब में दुर्घटनावश डूबने के कारण हुईलेकिन टेलीविजन न्यूज चैनल ने जिस तरह से इस दुखद घटना को कवर किया उसकी ख़ूब आलोचना हुई। लोगों ने इसे ‘बाथटब जर्नलिज्म’ कहा। हालांकि इस तरह की सनसनी टीवी न्यूज ने पहली बार नहीं फैलाई थी। अब तो टीवी चैनल के कई वरिष्ठ एंकर भी टीवी न्यूज से दूर रहने की सलाह देने लगे हैं। पर जिस तरह से हिंदी ऑन लाइन न्यूज वेबसाइटों पर श्रीदेवी को लेकर खबर परोसी गई वह ऑनलाइन पत्रकारिता की दशा और दिशा का सूचक है। खबरें इनके लिए उपभोग की वस्तु हैं, ना की सूचना का साधन।

निष्कर्ष: भारत में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले समाचार पत्रों में पाँच हिंदी के अखबार हैं, जबकि अन्य स्थान मलयालम, तमिल और मराठी के अखबारों को प्राप्त है। द टाइम्स ऑफ इंडिया अंग्रेजी का एक मात्र अखबार है जिसकी पहुँच इस सूची में है। आने वाले निकट भविष्य में हिंदी क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार और आय में बढ़ोतरी से अखबारों का प्रसार बढ़ेगा, साथ ही इन अखबारों के वेबसाइटों की पहुँच भी छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में रहने वाले पाठकों तक बढ़ेगी। पिछले करीब दो दशक की हिंदी ऑनलाइन समाचार जगत को देखते हुए यह कहना उचित है कि हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार भले हुआ हो, उसमें गुणात्मक रूप से कोई बदलाव लाने ये वेबसाइट असफल रहे हैं।

(संवाद पथ, जुलाई-सितंबर 2018 प्रकाशित)


संदर्भ
[iii] रविकांत (2003), भविष्य का इतिहास, अभय कुमार दुबे (सं), भारत का भूमंडलीकरण में संग्रहित, दिल्ली: वाणी प्रकाशन।
[iv] निजी इंटरव्यू: 17 फरवरी 2018 
[v] निजी इंटरव्यू: 18 फरवरी 2018
[vi] देखें, सुनेत्रा सेन नारायण और शालिनी नारायणन (2016), इंडिया कनेक्टेड, सेज पब्लिकेशंस: नयी दिल्ली।
[vii] https://www.livemint.com/Politics/d9msMK13chc6bwTFyWkMNO/PM-Narendra-Modi-is-world-No-3-on-Twitter-No1-on-Facebook.html
[viii]  युरगेन हैबरमास (1989), द स्ट्रक्चरल ट्रांसफारमेशन ऑफ द पब्लिक स्फीयर, केंब्रिज: पॉलिटि प्रेस।
[ix] देखें, रॉबिन जैफ्री और अस्सा डोरोन (2013), सेलफोन नेशन, हैचेट इंडिया।
[x] निजी इंटरव्यू: 20 जुलाई 2018
[xi] देखें, अरविंद दास (2013), हिंदी में समाचार, अंतिका प्रकाशन:गाजियाबाद।