Friday, December 30, 2022

वर्षांत 2022: दक्षिण भाषाई फिल्मों के दबदबे में रहा बॉलीवुड


साल के आखिर में खबर आई कि ऑस्कर पुरस्कार के लिए पान नलिन की गुजराती फिल्म 'छेल्लो शो' (आखिरी शो) को शॉर्टलिस्ट किया गया है. भारत की ओर से यह फिल्म ‘बेस्ट इंटरनेशनल फीचर फिल्म कैटेगरी’ के लिए आधिकारिक रूप से भेजी गई थी. साथ ही बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाने वाली एसएस राजामौली की ‘आरआरआर’ (तेलुगु) के गाने ‘नाटू-नाटू’ को भी ‘म्यूजिक (ओरिजनल सांग)’ की कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट किया गया.

नए वर्ष में ऑस्कर पुरस्कार का परिणाम चाहे जो हो, तय है कि वर्ष 2022 में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय भाषाओं में बनी फिल्मों का दबदबा रहा. एक आंकड़ा के मुताबिक कोरोना महामारी के दो साल के बाद भारतीय सिनेमा ने बॉक्स ऑफिस पर करीब 11 हजार करोड़ का कारोबार किया. यहाँ भी हिंदी फिल्मों पर दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों की बढ़त दिखी. न सिर्फ ‘आरआरआर’ बल्कि कन्नड़ भाषा में बनी ‘केजीएफ 2’ और ‘कांतारा’ ने भी सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. मणि रत्नम की ‘पोन्नियन सेल्वन (पीएस-1)’ (तमिल) के प्रति भी लोगों में उत्सुकता रही. इन फिल्मों की विषय-वस्तु और परदे पर फिल्मांकन में पर्याप्त भिन्नता है.
‘छेल्लो शो’ सौराष्ट्र के एक बच्चे की सिनेमा के प्रति दुर्निवार आकर्षण को केंद्र में रखती है. यह एक आत्मकथात्मक फिल्म है, वहीं ‘कांतारा’ एक ऐसी दंत कथा है जिसमें दक्षिण कर्नाटक के तटीय इलाकों की स्थानीय लोक-संस्कृति, परंपरा, आस्था-विश्वास, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताओं और मिथक को कहानी के साथ खूबसूरती से पिरोया गया है. आरआरआर (आजादी के आंदोलन) और पीएस-1 (चोल राजवंश) इतिहास को कथा का आधार बनाती है. ‘एक्शन ड्रामा’ इन फिल्मों के केंद्र में है. बड़े बजट की इन फिल्मों में ताम-झाम, रंग-रभस, भव्यता को जिस कौशल से बुना गया वह दर्शकों को सिनेमाहॉल में खींच लाने में कामयाब रहा. देश की बदलती सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति, संचार के साधनों का विस्तार, वितरण की रणनीति का भी इन फिल्मों की सफलता में योगदान रहा है. बॉलीवुड की पापुलर फिल्मों के फ्रेमवर्क में ही ये सारी फिल्में आती है. यहाँ विचार-विमर्श के बदले तकनीक हावी है. प्रसंगवश, कन्नड़ में समांतर सिनेमा का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, जिसकी आज चर्चा नहीं होती.
बहुसंख्यकवाद और हिंदुत्ववादी राजनीति की चहलकदमी इन फिल्मों में दिखाई दी. इस प्रसंग में बॉक्स ऑफिस पर खूब सफल रही विवेक अग्निहोत्री निर्देशित ‘ द कश्मीर फाइल्स’ की चर्चा जरूरी है. भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (आईएफएफआई) के ज्यूरी प्रमुख, चर्चित फिल्मकार नादव लैपिड के द्वारा इस फिल्म को ‘अश्लील और प्रोपेगेंडा’ बताने से काफी विवाद हुआ, लेकिन फिल्म देखने वाले किसी भी सहृदय दर्शक और समीक्षक से यह बात छिपी नहीं थी कि फिल्मकार की मंशा सिनेमा के माध्यम से सत्य तलाशने की नहीं थी. एक बातचीत में चर्चित फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने मुझे कहा था कि ‘एक फिल्मकार के रूप में इतिहास के प्रति आपकी एक जिम्मेदारी होती है. जिस फिल्म में जितना प्रोपगेंडा होगा, उसका महत्व उतना ही कम होगा. फिल्म का इस्तेमाल प्रोपगेंडा के लिए भी होता है, पर ऐतिहासिक फिल्मों को बनाते हुए वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखना जरूरी है. बिना वस्तुनिष्ठता के यह प्रोपगेंडा हो जाती है.’ दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में (करीब दो हजार) हिंदुस्तान में बनती है और इसे सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पावर) के रूप में स्वीकार किया जाता है. लोकतांत्रिक भारत की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ भी चाहे-अनचाहे फिल्मों में अभिव्यक्ति होती हैं.
बहरहाल, हिंदी फिल्मों की बात करें तो बड़े-बड़े स्टार भी कोई खास करिश्मा नहीं दिखा पाए. रणबीर कपूर की ‘शमशेरा’, अक्षय कुमार की ‘रक्षाबंधन’ और ‘सम्राट पृथ्वीराज’, रणवीर सिंह की ‘जयेशभाई जोरदार’ और ‘सर्कस’, कंगना रनौत की ‘धाकड़’ आदि फिल्में दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच लाने में असफल रही. आर्थिक बदहाली भी एक कारण है. ऐसे में बॉलीवुड पर काफी दबाव रहा. जाहिर है बॉलीवुड को नए विचारों, कहानियों की सख्त जरूरत है, जो दर्शकों के बदलते मिजाज के साथ तालमेल बना कर चल सके, पर डर है कि कहीं यह रास्ता दक्षिण भारतीय फिल्मों की ओर न ले जाए! पिछले दो दशक में हिंदी सिनेमा ने पापुलर और पैरलल के बीच का एक रास्ता अख्तियार कर कई बेहतरीन फिल्में दी और सही मायनों में आगे की दिशा का निर्धारण यहीं से होगा, न की घिसी-पिटी मसाला फिल्मों से.
बॉलीवुड के प्रमुख निर्देशक संजय लीला भंसाली ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ लेकर आए. एक ‘सेक्स वर्कर’ की भूमिका में आलिया भट्ट ने अपने अभिनय से सबको प्रभावित किया. इसी क्रम में आमिर खान की ‘लाल सिंह चढ्ढा’ और रणबीर कपूर की ‘ब्रह्माशस्त्र’ की चर्चा जरूरी है, जिसने ठीक-ठाक व्यवसाय भले किया हो कुछ नया गढ़ने में नाकाम रही. सिनेमा निर्माण की दृष्टि से नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘डार्लिंग्स (डार्क कॉमेडी, निर्देशक जसमीत के रीन)’ और ‘मोनिका ओ माय डार्लिंग (मर्डर मिस्ट्री, निर्देशक वासन बाला)’ बेहतरीन थी जिसकी चर्चा कम हुई. इन दोनों फिल्मों के निर्देशक और अभिनेता (आलिया भट्ट, विजय वर्मा, शेफाली शाह, राजकुमार राव) से नए साल में भी काफी उम्मीद रहेगी.
हिंदी फिल्मों के प्रति एक खास तबके में नकारात्मक भाव भी दिखाई दिया. मनोरंजन के साथ कोई दर्शक किस रूप में सिनेमा को ग्रहण करता है वह उसकी रूचि और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है. एक खास विचारधारा के तहत सिनेमा को देखने-परखने पर रसास्वादन में बाधा पहुँचती है. आए दिन हिंदी फिल्मों को लेकर सोशल मीडिया पर ‘बॉयकॉट’ की ध्वनि सुनाई देती है वह कला और सिनेमा व्यवसाय दोनों के लिए चिंताजनक है. भूलना नहीं चाहिए कि सिनेमा उद्योग लाखों लोगों के लिए रोजगार का जरिया है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है.
पापुलर से अलग पिछले कुछ सालों में जिन फिल्मों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में पसंद किया गया उनमें स्वतंत्र फिल्मकारों की फिल्में ही रही. बजट के अभाव में इस प्रयोगधर्मी फिल्मों का प्रचार नहीं हो पाता, न हीं सिनेमाघरों में ये फिल्में रिलीज हो पाती है. ओटीटी प्लेटफॉर्म और फिल्म समारोह इनके लिए मुफीद हैं. कान फिल्म समारोह में भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में शामिल किया गया था. समारोह के फिल्म बाजार में ‘गामक घर’ फिल्म से चर्चित हुए अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘धुइन (धुंध)’ दिखाई गई.
जहाँ ‘गामक घर’ में निर्देशक का पैतृक घर था, वहीं यह पूरी फिल्म दरभंगा में अवस्थित है. दरभंगा को मिथिला का सांस्कृतिक केंद्र कहा जाता है, पर कलाकारों की बदहाली, बेरोजगारी इस सिनेमा में मुखर है. ‘गामक घर’ की तरह ही इस फिल्म के सिनेमैटोग्राफी में एक सादगी है, जो ईरानी सिनेमा की याद दिलाता है. इन फिल्मों की सफलता ने मैथिली सिनेमा में एक युग की शुरुआत की है. इसी क्रम में प्रतीक शर्मा की ‘लोट्स ब्लूमस’ ने आईएफएफआई में शामिल होकर सुर्खियां बटोरी. अंत में, ऑस्कर में दो डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘ऑल दैट ब्रिद्स (शौनक सेन)’ और द एलीफेंट व्हिस्परर्स' (कार्तिकी गोंसाल्वेस) भी शॉर्टलिस्ट हुई है. आने वाले साल में फीचर के अलावे वृत्तचित्र पर भी लोगों की नजर रहेगी.

Friday, December 23, 2022

पुष्पेंद्र सिंह का सिनेमा संसार: सौंदर्य का संगीत


पिछले महीने युवा फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह ने फेसबुक पर लिखा कि जो दोस्त मुझसे मेरी फिल्मों के बारे में पूछते रहते हैंउनके लिए मेरी फिल्म देखने का मौका मूबी (ऑनलाइन वेबसाइट) पर है. असल में उनकी दो फिल्मोंलजवंती’ (2014) और अश्वात्थामा (2017) के साथ मारु रो मोती’ (2019) डॉक्यूमेंट्री स्ट्रीम हो रही है. पुष्पेंद्र सिंह हमारे समय के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं. पुष्पेंद्र की फिल्में देश-विदेश के प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों का हिस्सा भले रही हैपर आम जनता के लिए उसका प्रदर्शन नहीं हो पाया है.

इससे पहले सितंबर-अक्टूबर में न्यूयॉर्क के द म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट (मोमा) में नई पीढ़ी के भारतीय स्वतंत्र फिल्मकारों की जो फिल्में दिखाई गई उसमें लजवंती और लैला और सात गीत (2020) भी शामिल थी. आगरा के नजदीक सैंया कस्बे में जन्मे और राजस्थान में पले-बढ़े, पुष्पेंद्र ने पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) से अभिनय में प्रशिक्षण लिया और फिर चर्चित फिल्मकार अनूप सिंह (किस्सा और सांग ऑफ स्कॉर्पियंस) के सहायक रहे. अमित दत्ता (हिंदी)गुरविंदर सिंह (पंजाबी)उमेश विनायक कुलकर्णी (मराठी), चैतन्य ताम्हाणे (मराठी) जैसे फिल्मकारों की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्में समकालीन भारतीय सिनेमा और उसकी परंपरा के उज्ज्वल पक्ष को अपनी कला में समाहित करती हैं.

लैला और सात गीत और लजवंती राजस्थान के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा (बिज्जी) की कहानियों पर आधारित है. लैला और सात गीत केंचुली कहानी को आधार बनाती हैलेकिन उसकी कथाभूमि राजस्थान न होकर जम्मू-कश्मीर है. जाहिर है कथाभूमि बदलने से विषय-वस्तु के निरूपण और परदे पर उसके फिल्मांकन में भी बदलाव आया हैहालांकि स्त्री के मनोभावइच्छा, द्वंद और स्वतंत्रता की आकांक्षा सार्वभौमिक है. यहाँ जंगल में एक जलता हुए पेड़ भी है जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को इंगित करता है. पुलिस राजसत्ता का प्रतीक है और लैला कश्मीर का रूपक.

सब जानते हैं कि बिज्जी लोक-कथा को आधुनिक रंग में अपनी कहानियों में ढालने में सिद्धस्थ थे. यही कारण है कि मणि कौल (दुविधा1973), श्याम बेनेगल (चरणदास चोर1975) से लेकर पुष्पेंद्र जैसे युवा फिल्मकार भी उनकी कहानियों की ओर रुख करते रहे हैं. प्रसंगवशएक मुलाकात में जब मैंने मणि कौल से पूछा था कि क्या वे बिज्जी की किसी और कहानी पर फिल्म बनाना चाह रहे थेउन्होंने कहा था कि हांचरण दास चोर पर मैं फिल्म बनाना चाह रहा था पर श्याम ने उस पर फिल्म बना ली थी.

पुष्पेंद्र की पहली फिल्म लजवंती (बिज्जी की इसी नाम से कहानी है) राजस्थान के थार मरुस्थल को केंद्र में रखती है. फिल्म के लैंडस्केप में रेत के धोरोंखेजड़ी का पेड़पवनचक्की का सौंदर्य शामिल है. यहाँ ऊंटबकरी और कबूतर भी लोक में घुले-मिले हैं. घूंघट काढ़े एक शादी-शुदा स्त्री की पितृसत्तात्मक बंधन में जकड़नप्रेम की उत्कट चाह और मुक्ति की चेतना को फिल्म ने खूबसूरत दृश्यों से रचा है. दुविधा की तरह (जहाँ भूत भी एक प्रेमी हो सकता है) लजवंती’ पाठ का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि गल्प को बिंबों और ध्वनि के सहारे परदे पर उकेरती है. जिस तरह मणि कौल अपनी फिल्मों में ध्वनि पर खास जोर देते थेउसी तरह पुष्पेंद्र की फिल्मों में ध्वनि का संयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. महिलाओं के परिधान में यहां चटक रंगों के इस्तेमाल के साथ सफेद कबूतरों की सोहबत में नायक (पुष्पेंद्र सिंह) का सफेद लिबास अंतर्मन और बहिर्मन के द्वंद्व को उभारने में सहायक है.

भारतीय कला सिनेमा के चर्चित नाम कुमार शहानीमणि कौल की परंपरा में ही पुष्पेंद्र की फिल्में आती हैं. कई दृश्यों के संयोजन में भी इन निर्देशकों का असर दिखाई पड़ता है. उनकी फिल्मों के कई दृश्य देशी-विदेशी पेंटिंग ( भारतीय मिनिएचर और यूरोपीय नवजागरण की पेंटिंग) से भी प्रभावित हैंजिसे पुष्पेंद्र स्वीकारते भी हैं. दोनों ही फिल्मों में लोक गीत-संगीत का प्रयोग फिल्म के विन्यास के साथ गुंथा हुआ है. साथ ही फिल्म में जिस तरह से दृश्य को फ्रेम किया गया है, वह संगीतात्मकता और काव्यात्मकता से ओत-प्रोत है. लैला और सात गीत देखते हुए मणि कौल की सिद्धेश्वरी और कुमार शहानी की 'विरह भरयो घर आंगन कोने वृत्तचित्र की याद आती रही.

जहाँ लाजवंती की भाषा हिंदी और मारवाड़ी है वहीं लैला और सात गीत  में हिंदी और गूजरी का प्रयोग है. लजवंती से हट कर यह फिल्म कहानी के मूल को विस्तार देती है और यहाँ फिल्म में समकालीन राजनीतिक घटनाओं की ध्वनि जुड़ती है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस फिल्म के केंद्र में लैला है (कहानी में लाछी) जो अपने पति के साथ रहती है पर उसके मन में एक दुविधा हैउथल-पुथल है. यह प्रेम की अतृप्ता से उपजी है. पर  पूरा होने पर क्या प्रेम बचा रहता है? 

निर्देशक ने कहानी को खानाबदोश जनजाति--बकरवाल के जीवन यथार्थ के बीच अवस्थित किया है. पहाड़, जंगल, बकरे और जीव-जंतुओं के संग बसा घर-परिवार एक ठहराव के साथ लांग शॉट्स के माध्यम से हमारे सामने आता है. लैला का सौंदर्य उसकी वेशभूषा, बोली-वाणी, हाव-भाव में है. निर्देशक ने क्लोज-अप से परहेज किया है.

पति के दब्बूपन के प्रति लैला के स्वाभिमानी व्यक्तित्व में एक तरह का विद्रोह है. पर इस विद्रोह की क्या दिशा होगी इस कहानी में लाछी एक जगह कहती हैऔरतों की इस जिंदगी में वह इस जकड़ से कभी मुक्त होगी कि नहीं?".  फिल्म को क्रमश: सात अध्यायों में बांटा गया है- सांग ऑफ मैरिजसांग ऑफ माइग्रेशनसांग ऑफ रिग्रेटसांग ऑफ प्लेफुलनेससांग ऑफ एक्ट्रैक्शनसांग ऑफ रियलाइजेशन और सांग ऑफ रिनंसीएशन. आखिर में घर-परिवारनाते-रिश्ते को छोड़निर्वसन लैला प्रकृति के साथ एकमेक हो जाती है. मणि कौल की फिल्मों की बालो’, ‘मल्लिका और लच्छी की तरह ही पुष्पेंद्र की फिल्मों की लजवंती (संघमित्रा हितैषी) और लैला (नवजोत रंधावा) अंतर्मन के द्वंद के साथ स्वतंत्रता की चेतना और मुक्ति कामना से लैस है.

 

Sunday, December 11, 2022

टेलीविजन न्यूज चैनल के सितारे: रवीश कुमार का इस्तीफा


हिंदुस्तान में टेलीविजन न्यूज चैनल के 'स्टार एंकर' फिल्म सितारे से कम लोकप्रिय नहीं हैं. असल में, टीवी के पास महज एक परदा है जिसके मार्फत पिछले दो दशक से ये एंकर रोज हमारे ड्राइंग रूम में हाजिर होते रहे हैं. टेलीविजन के एंकरों की एक खास शैली होती है, जो उन्हें विशिष्ट बनाती है. रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित टेलीविजन के चर्चित पत्रकार-एंकर रवीश कुमार जमीनी और लोक से जुड़े मुद्दों को सहज ढंग से चुटीले अंदाज में पेश करते रहे हैं. सत्ता से ईमानदारी से सवाल पूछना भी इसमें शामिल है. पिछले दिनों देश के एक प्रमुख समाचार चैनल एनडीटीवी इंडिया से उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इस चैनल से वे करीब पच्चीस वर्षों से जुड़े थे. इस्तीफे के बाद सोशल मीडिया पर रवीश के प्रति लोगों का प्रेम उमड़ पड़ा. साथ ही मीडिया और पूंजी के गठजोड़ को लेकर भी आलोचना हुई. यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भले एक एंकर की भूमिका समाचार चैनल में प्रमुख हो, पर जहाँ ‘स्टार वैल्यू’ से उनका कद बढ़ा वहीं टीवी समाचार उद्योग की निर्भरता भी इन पर बढ़ती चली गई. टीआरपी के पीछे आज जो भागदौड़ दिखती है वह भी इसी से जुड़ी हुई है. एनडीटीवी के पूर्व रिपोर्टर संदीप भूषण ने अपनी किताब ‘द इंडियन न्यूजरूम’ में एनडीटीवी के हवाले से स्टार एंकरों के बारे में विस्तार से लिखा है कि किस तरह इनकी वजह से टीवी उद्योग में आज रिपोर्टर की भूमिका सिमट कर रह गई है. किताब में एनडीटीवी की आलोचना भी शामिल है.

जब हम बीस साल पहले पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे तब टीवी पत्रकार बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई का जोर था. पिछले दशक में अर्णब गोस्वामी, रवीश कुमार चर्चा में रहे. रवीश अपनी रिपोर्टिंग के लिए जाने गए, लेकिन बाद में वे प्राइम टाइम में ही सिमट कर रह गए. निस्संदेह रिपोर्टर की छवि का उन्हें प्राइम टाइम में लाभ हुआ. वर्ष 2014 में सत्ता बदलने के बाद भी रवीश सत्ता से बेलाग सच कहने के साहस के साथ खड़े रहे. यह हिंदी पत्रकारिता की एक उपलब्धि रही, रवीश उसके अगुआ है.

सोशल मीडिया के कोलाहल के बीच एक बात दबी रह गई, जिसका जिक्र जरूरी है. टेलीविजन मीडिया बड़ी पूंजी की मांग करता है. शुरुआती दौर से मीडिया पूंजीवाद का उपक्रम रहा है. मीडिया पर नजर रखने वाले जानते थे कि एनडीटीवी देर-सबेर कर्ज के बोझ से डूबेगी ही, हालांकि पारदर्शिता की बात करने वाले मीडिया की अर्थव्यवस्था की जानकारी लोगों के सामने कम ही आ पाती है.

मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैक्लुहान ने लिखा है कि ‘माध्यम ही संदेश’ है. पिछले दिनों देश के कई प्रमुख टेलीविजन एंकर टीवी उद्योग से अलग होकर ऑनलाइन प्लेटफॉर्म (यूट्यूब चैनल) पर दिखाई देने लगे हैं. करण थापर, बरखा दत्त, पुण्य प्रसून वाजपेयी, अजीत अंजुम, आरफा खानम शेरवानी, अभिसार शर्मा आदि की लिस्ट में एक नाम और जुड़ गया है, रवीश का. आने वाले समय में यह नया माध्यम लोकतंत्र के लिए क्या संदेश लेकर आता है, यह देखना रोचक होगा.

Wednesday, December 07, 2022

आलाप लेते ऋषिकेश मुखर्जी के अमिताभ

 


पिछले दिनों अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर आनंद फिल्म का जिक्र करते हुए एक वाकया का उल्लेख किया था कि किस तरह उनके लाल होठों’ को लेकर फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी सेट पर बिफर पड़े थे. उन्हें लगा था कि अमिताभ ने लिपस्टिक लगा रखी है. यह फिल्म जितना उस दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना के लिए याद की जाती है उतना ही उभरते हुए अदाकार अमिताभ बच्चन के लिए. सही मायनों में व्यावसायिक रूप से सफल इस फिल्म से ही अमिताभ पहचाने गए.

ऋषिकेश मुखर्जी (1922-2006) का यह जन्मशती वर्ष भी है. पिछली सदी के सत्तर के दशक में अमिताभ की जो फिल्में आई उसमें ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ आदि ने उन्हें एंग्री यंग मैन’ की छवि में बांध दियाआज यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ ही थे. और ये फिल्में उथल-पुथल से भरे सत्तर के दशक में बन रही थी. हालांकि खुद मुखर्जी अमिताभ की स्टारडम  की छवि से खुश नहीं थे. वे कहते थे कि मसाला फिल्मों के निर्देशकों ने अमिताभ को स्टंटमैन’ बना दिया है. असल मेंसाफ-सुथरी और सहज शैली उनके फिल्मों की विशेषता थीजो मारधाड़हिंसा से कोसो दूर रही. परिवार और घर इन फिल्मों के केंद्र में है. ये ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जो अमिताभ को शास्त्रीय संगीत प्रेमी के रूप में परदे पर लाने का हौसला रखते थे.

सत्तर के दशक में हिंदी सिनेमा में एक साथ तीन धाराएँ-मेनस्ट्रीमपैरलल और मिडिल प्रवाहित हो रही थी. प्रकाश मेहरामनमोहन देसाई जैसे निर्देशको के साथसमांतर सिनेमा के मणि कौलकुमार शहानी के लिए यह दशक जितना जाना जाता हैउतना ही मुखर्जी की ‘मध्यमार्गी’ फिल्मों के लिए भी.

सिनेमा के अध्येता जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब-द वर्ल्ड ऑफ ऋषिकेश मुखर्जी’ में उल्लेख किया है कि मुख्यधारा के फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई और समांतर सिनेमा के निर्देशक कुमार शहानी दोनों के ही मुखर्जी के साथ सहज रिश्ते थे. यह उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जिसकी स्पष्ट छाप उनकी फिल्मों पर है. इस किताब में वर्ष 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा को याद करते हुए शहानी ऋषि दा के घर (अनुपमा) पर जमावड़े का उल्लेख करते हैं: “वहां सौ-दो सौ युवाअधेड़ फिल्मकारों का जमावड़ा था. हमने आपातकाल का विरोध करते हुए एक पत्र इंदिरा गाँधी के नाम तैयार किया. ऐसा नहीं कि उससे कुछ निकला होपर देश में जो राजनीतिक माहौल था उसे लेकर ऋषि दा बहुत चिंतित थे.” उल्लेखनीय है कि अमिताभ बच्चन-रेखा अभिनीत आलाप (1977)’ फिल्म की असफलता के लिए वे आपातकाल को जिम्मेदार ठहराते थे. मुखर्जी की फिल्मोग्राफी में भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता, लेकिन यह एक उल्लेखनीय फिल्म है जहाँ अमिताभ 'स्टार' छवि से अलग एक अभिनेता के रूप में सामने आते हैं.

इस फिल्म में अमिताभ एक शास्त्रीय संगीत प्रेमी की भूमिका में हैंजो पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर वकालत नहीं करता है. यहाँ वकील पिता (ओम प्रकाश) एक पितृसत्ता के रूप में आते हैं, जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. आलोक (अमिताभ) कहता हैमेरी जिंदगी कोई झगड़े में फंसी जमीन तो नहीं है कि पिताजी कानूनी खेल दिखा कर उसके बारे में जो चाहे फैसला कर लें. ये मुकदमा वो नहीं जीत सकते.” इस फिल्म में एक कलाकार अन्याय के खिलाफ खड़ा है. प्रसंगवशवर्ष 1977 में मनमोहन देसाई की अमर अकबर एंथनी’ फिल्म भी रिलीज हुई थी जो उस साल की सबसे सफल फिल्म रही थी. गीत-संगीत के लिहाज से भी यह एक बेहतरीन फिल्म है. यहाँ ‘आलाप’ लेते अमिताभ ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं है बल्कि आलोक हैंइससे पहले ‘अभिमान (1973)’ में वे जया भादुड़ी के साथ एक गायक के रूप में दिखे थे.

70 के दशक में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में मध्यवर्ग को संबोधित करती है. ‘चुपके-चुपके’, ‘गोल माल’, ‘गुड्डी’ में हास्य के साथ मध्यवर्गीय ताने-बानेड्रामा को जिस खूबसूरती से उन्होंने रचा हैवह पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है. बिना ताम-झाम के कहानी कहने की सहज शैलीसामाजिकता और नैतिकता का ताना-बाना उन्हें समकालीन फिल्मकारों से अलग करता है. मध्यमार्गी सिनेमा के योगदान के लिए मुखर्जी को वर्ष 1999 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उल्लेखनीय है कि आनंद (1971) फिल्म से पहले मुखर्जी दिलीप कुमारराज कपूरदेवानंदगुरुदत्त जैसे अभिनेताओं को निर्देशित कर चुके थे.

मुखर्जी जितने कुशल फिल्म निर्देशक थे उतने की कुशल संपादक भी. उन्होंने विमल रॉय की चर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’, ‘मधुमती’ का संपादन किया था. वे विमल रॉय की फिल्मों में सहायक निर्देशक भी थे. वर्ष 1957 में वे पहली फिल्म मुसाफिर के साथ निर्देशन के क्षेत्र में उतरे पर राज कपूर-नूतन अभिनीत ‘अनाड़ी (1959)’ के निर्देशन के साथ उनकी प्रसिद्धि फैलती गई. उन्होंने करीब 40 फिल्मों का निर्देशन किया और वर्ष 1998 में रिलीज हुई 'झूठ बोले कौआ काटेउनकी आखिरी फिल्म थी.

सिंह लिखते हैं कि एक बार सत्तर के दशक में कुमार शहानी ने मुखर्जी से पूछा था कि तकनीक और सिनेमा के अद्यतन सिद्धांतों की जानकारी के बावजूद वे और प्रयोगात्मक चीजों की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए? उन्होंने कहा था कि 'हमारा परिवेश एक सीमा के बाद इसकी इजाजत नहीं देता'. यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मुखर्जी की फिल्में बॉलीवुड की सीमा का अतिक्रमण कर संभावनाओं का विस्तार करती है. उनकी फिल्मों में जो जिंदगी का फलसफा है वह आज भी दर्शकों को अपनी ओर खींचता है.