Tuesday, March 16, 2021

मणि कौल की मल्लिका: आषाढ़ का एक दिन के पचास साल

 


पिछले दिनों फिल्म निर्देशक अरुण खोपकर ने आषाढ़ का एक दिनफिल्म के पचास साल पूरे होने पर कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की थीं. जहाँ हिंदी में आधुनिक नाटक के प्रणेता मोहन राकेश के इस नाट्य कृति की चर्चा होती रहती है, मणि कौल (1944-2011) निर्देशित इस फिल्म की चर्चा छूट जाती है. उसकी रोटी’, ‘दुविधा’, ‘सिद्धेश्वरीकी तरह ही सिनेमाई दृष्टि और भाषा के लिहाज से आषाढ़ का एक दिनहिंदी सिनेमा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है.

इस फिल्म में मल्लिका (रेखा सबनीस) कालिदास (अरुण खोपकर) और विलोम (ओम शिव पुरी) की प्रमुख भूमिका है. मल्लिका कालिदास की प्रेयसी है. हिमालय की वादियों में बसे एक ग्राम प्रांतर में दोनों के बीच साहचर्य से विकसित प्रेम है. कालिदास को उज्जयिनी के राजकवि बनाए जाने की खबर मिलती है. मल्लिका और राजसत्ता को लेकर उनके मन में दुचित्तापन है. वहीं मल्लिका कालिदास को सफल होते देखना चाहती है और उन्हें स्नेह डोर से मुक्त करती है. उज्जयिनी और कश्मीर जाकर कालिदास सत्ता और प्रभुता के बीच रम जाते हैं. वे मल्लिका के पास लौट कर नहीं आते और राजकन्या से शादी कर लेते हैं. और जब वापस लौटते हैं तब तक समय अपना एक चक्र पूरा कर चुका होता है. सत्ता का मोह और रचनाकार का आत्म संघर्ष ऐतिहासिकता के आवरण में इस फिल्म (नाटक) के कथानक को समकालीन बनाता है.

दृश्य, प्रकाश, ध्वनि के संयोजन और परिवेश (मेघ, बारिश, बिजली) के माध्यम से सिनेमा में यह सब साकार हुआ है. कोलाहल के बीच एक रागात्मक शांति पूरी फिल्म पर छाई हुई है. मोहन राकेश के नाटक से इतर एक उदास कविता की तरह यह फिल्म हमारे सामने आती है. फिल्म में भावों की घनीभूत व्यंजना के लिए क्लोज अपका इस्तेमाल किया गया है. मणि कौल के सहयोगी रह चुके, चर्चित फिल्म निर्देशक कमल स्वरूप कहते  हैं कि इस फिल्म में मणि कौल ने विजुअल्सपर ज्यादा ध्यान रखा था. वे कहते हैं, “बजट कम था और उसी के हिसाब से ही फिल्म बनी है. सिंक साउंड में ज्यादा खर्च होता इसलिए नाटक के संवाद ट्रैक को पहले रिकॉर्ड कर लिया गया था. जैसे हम गाना प्ले बैक करते हैं उसी तरह फिल्म में साउंड प्ले बैक करती है. सबनीस भी पहले से सत्यदेब दुबे के प्ले में एक्टिंग करती थीं और बहुत अच्छी अदाकार थीं. मणि को बहुत कुछ रेडिमेड मिल गया था. उन्होंने आउटडोर सेट बनाया. इसमें प्रकृति और अंदर का सेट दोनों आ गया है.

मणि कौल की फिल्में साहित्यिक कृतियों पर बनी, हालांकि सबका आस्वाद अलग है. उनकी फिल्मों में एक उत्तरोतर विकास दिखाई पड़ता है, पर पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत का स्वर सबमें मुखर रहा है. असल में, उनकी फिल्मों में विभिन्न कला रूपों की आवाजाही सहजता से होती है. जहाँ वे भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगे थे और ध्रुपद संगीत के गुरु थे, वहीं वे अपनी कला में फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां और आंद्रेई तार्कोवस्की के प्रभाव को स्वीकार करते थे. वे बातचीत में अक्सर स्व भावकी बात करते थे. सारे प्रभावों के बावजूद जिस स्पेसमें वे अपनी कला  रच थे वह नितांत वैयक्तिक है, जो फिल्म के हर शॉट और फ्रेम में महसूस किया जा सकता है.

 

इस फिल्म में प्रेम पूरी गरिमा और लालित्य के साथ मौजूद है. मल्लिका की आँखें जिस तरह से अंतर्मन के भावों, अंतर्द्वंद को सामने लाती हैं बरबस वह कृष्ण के वियोग में गोपियों के कहे-अंखियां अति अनुरागीकी याद दिलाती है. पर यहाँ आषाढ़ मास में जायसी के नागमती का विरह नहीं है. नागमती कहती हैं-मोहिं बिनु पिउ को आदर देई’.  जबकि फिल्म के शुरुआत में ही मल्लिका कहती है- मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है. वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है?’ इस फिल्म में मल्लिका के अपरूप रूप और सौंदर्य के साथ उसकी चेतना उभर कर सामने आई है.

इंतजार और विछोह

वर्षों पहले एक मुलाकात में मणि कौल ने मुझसे कहा था कि उन्हें मोहन राकेश की कहानी में जो इंतजार और विछोह है, काफी प्रभावित किया था. उन्होंने कहा था कि यह इंतजार हमें अनुभवजन्य समय से दूर ले जाता है, जहाँ एक मिनट भी एक घंटा हो सकता है.  जब वे संगीत की शिक्षा ले रहे थे तब सम और विषम के अंतराल में इस बात को काफी अनुभव करते थे.


इस फिल्म में कई ऐसे दृश्य हैं जहाँ परस्पर संवाद करते पात्रों में अजंता भित्तिचित्र और मिथिला चित्रकला शैली की झलक मिलती है. छायांकन में एक लय है. कमल स्वरूप कहते हैं कि मणि कौल देश-विदेश की पेंटिंग शैली के रेफरेंस को सामने रख कर सचेत होकर फ्रेम बनाते थे. वे सिद्धेश्वरी फिल्म के एक दृश्य का खास तौर पर उदाहरण देते हैं, जहाँ वे पिकासो की पेंटिंग-थ्री म्यूजिशियन, से प्रेरित हैं. खुद मणि कौल हेनरी मातिस के प्रभाव को स्वीकार करते थे.

मणि कौल, एफटीआईआई के उनके समकालीन कुमार शहानी और कैमरामैन के के महाजन की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा में मनोरंजन से अलग सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों को कलात्मक रूप से समाहित किया, जिसे हम समांतर सिनेमा की धारा के नाम से जानते हैं. इसके लिए हिंदी की नयी कहानियों की ओर उन्होंने रुख किया.

उल्लेखनीय है कि आषाढ़ का एक दिनके बाद, वर्ष 1972 में, कुमार शहानी ने निर्मल वर्मा की कहानी माया दर्पणको निर्देशित किया था. दोनों ही फिल्मों को फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था. दोनों निर्देशकों के फिल्म निर्माण की शैली मिलती जुलती भले हो (संगीत, पेंटिंग के इस्तेमाल को लेकर), विषय-वस्तु का ट्रीटमेंट काफी अलहदा है. मसलन, शहानी की तरण (माया दर्पण) फिल्म में सामंतवादी उत्पीड़न को तोड़ती है. जबकि निर्मल वर्मा की कहानी में सामंतवाद के खिलाफ विरोध नहीं दिखता है. शहानी का रुझान मार्क्सवादी विचारों की ओर रहा, जबकि मणि कौल अपनी कला में विचारधारा की सीमा का अतिक्रमण करते रहे. दोनों ही एफटीआईआई, पुणे में ऋत्विक घटक के शिष्य रहे थे. कमल स्वरूप कहते हैं कि मणि कौल राजनीतिक नहीं, रसिक थे.

बहरहाल, 70 और 80 के दशक में समांतर सिनेमा के दौर में बनी फिल्मों का प्रदर्शन मुश्किल था. दर्शकों का एक सीमित वर्ग था. 90 के दशक में होश संभालने वाली हमारी पीढ़ी की पहुँच से ये फिल्में बाहर थीं. मणि कौल से उनकी फिल्मों के बारे में पूछने पर वह बेतकल्लुफी से बात करते थे. उनकी फिल्में अमूमन सिनेमा समारोहों तक ही सीमित थीं. उदयन वाजपेयी से बातचीत करते हुए (1991) उन्होंने 'अभेद आकाश' किताब में स्वीकारा था, “शायद हमें फिल्म देखने की नयी पद्धति विकसित करनी होगी. फिल्मकार तो हैं लेकिन देखने वाले नहीं हैं. अगर देखने वाले हों तो फिल्मो में बहुत बदलाव आएगा. बिना देखने वालों के फिल्मकार नहीं होता.पिछले दशकों में संचार की नई तकनीकी, इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने के बाद प्रयोगधर्मी फिल्मकारों को एक नया दर्शक वर्ग मिला है. एक तरह से समांतर सिनेमा की धारा का विकास देखने को मिल रहा है. मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में भी बदलाव की इस बयार को महसूस किया जा रहा है. आश्चर्य नहीं कि एफटीआईआई से निकले कई युवा फिल्मकार मणि कौल को अपना गुरु मानते हैं.

(https://hindi.news18.com/blogs/arvind_5/fifty-years-of-ashadh-ka-ek-din-movie-by-mani-kaul-on-mohan-rakesh-play-3518123.html)

 

Saturday, March 13, 2021

मीडिया का मानचित्र


पिछले दशकों में सूचना की नयी तकनीकी से लैस भाषाई मीडिया, खास कर हिंदी अखबार, टेलीविजन, ऑनलाइन वेबसाइट ने शहरी केंद्रों से परे दूर-दराज के इलाकों तक नेटवर्क का अप्रत्याशित विस्तार किया है। निस्संदेह, सार्वजनिक दुनिया में मास मीडिया ने बहस-मुबाहिसा को गति दी है और लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है। लेकिन सच यह भी इन्हीं वर्षों में फेक न्यूजऔर दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है, जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ अखबार और टेलीविजन भी आ गए, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन कर उपस्थित हैं।

समकालीन मीडिया परिदृश्य पर सोशल मीडिया और टेलीविजन हावी हैं, हालांकि कोरोना महामारी के बीच समाचार पत्र जैसे पारंपरिक माध्यम की अहमियत फिर से बढ़ी है। पर सवाल है कि इक्कीसवीं सदी में हिंदी के अखबारों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ क्या हैं? क्या ऑनलाइन वेबसाइट अखबारों के पूरक बन कर उभरी हैं या ये टीवी समाचार चैनलों के करीब हैं? समाचार चैनल सच दिखाने और  सत्ता से सच बोलने की हमेशा बात करते हैं। उग्र राष्ट्रवाद के इस दौर में क्या तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर इनका जोर है?  क्या इनकी जवाबदेही नागरिक समाज के प्रति है? सवाल यह भी है कि आज का पाठक/दर्शक खुद को मीडिया के पूरे परिदृश्य में कहाँ खड़ा पाता है

शोध और न्यूज रूम के अपने अनुभवों के आधार पर लेखक ने इस किताब में समकालीन हिंदी मीडिया के सरोकारों और संस्कृतियों का भाषा और कथ्य के मार्फत आलोचनात्मक विवेचन और विश्लेषण किया है। 

समकालीन समाज और मीडिया में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह एक जरूरी किताब है।

प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, ISBN: 978-81-951105-1-3 (PB)

कीमत: 250 रुपए

अमेजन लिंक: https://www.amazon.in/dp/B0919XNV1F?ref=myi_title_dp


(किताब 25 मार्च, 2021 के करीब प्रकाशित होगी)

Sunday, March 07, 2021

मैला आँचल के ‘डागदर बाबू’ की अधूरी कहानी

प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ (4 मार्च 1921- 11 अप्रैल 1977) की जन्मशती मनाई जा रही है. इस बहाने उनके साहित्य पर खूब चर्चा हो रही है. 20वीं सदी के दो प्रमुख साहित्यकार नागार्जुन और रेणु दोनों ही मिथिला से थे. दोनों के साहित्य की कथा भूमि मिथिला का ग्रामीण समाज है. जहाँ नागार्जुन ने मैथिली में थोड़ा-बहुत लिखा, वहीं रेणु का मैथिली में लिखा नहीं मिलता.

केदारनाथ चौधरी ने 'अबारा नहितन' में लिखा है कि जब वे 'ममता गाबय गीत' (मैथिली फिल्म) के मुहूर्त के प्रसंग में रेणु से मिले (1964) तब उन्होंने कहा था- 'नेना मे हम जखन नेपालक विराटनगर मे रही तखन मैथिली मे कइएक टा कथा लिखने छलहूँ. मुदा मैथिली भाषाक क्षेत्र सकुचल, समटल आ एक विशेष जातिक एकाधिकार मे. अपने लिखू अपने पढ़ू.' (बचपन में जब मैं नेपाल के विराटनगर में रहता था तब मैंने मैथिली में कई कथाएँ लिखी. लेकिन मैथिली भाषा का क्षेत्र सीमित और एक विशेष जाति के एकाधिकार में है. खुद लिखिए और खुद पढ़िए). उसी दौर में रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ फिल्म बन रही थी, जिसे बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और शैलेंद्र प्रोड्यूसर थे.
बहरहाल, रेणु ने मैथिली की पहली फिल्म 'कन्यादान' (1965) का संवाद लिखा था और आगे भी मैथिली सिनेमा के लिए कुछ करने की उनमें लालसा थी. यह अलग बात है कि मैथिली सिनेमा का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया. पर उनका जुड़ाव हिंदी सिनेमा से रहा. रेणु के इस रूप का जिक्र नहीं होता.
इसी प्रसंग में, जहाँ 'तीसरी कसम' फिल्म सबको याद है, वहीं मैला आँचल पर बनने वाली फिल्म- डागदर बाबू (डॉक्टर बाबू), जो अधूरी रह गई, उसकी चर्चा नहीं होती. मैला आँचल का कथानक पूर्णिया में स्थित है और कथानायक प्रशांत एक युवा डॉक्टर है. मेरीगंज गाँव के हवाले से जो सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ का चित्रण हुआ है वह इस उपन्यास को कालजयी बनाता है. इस उपन्यास का हर पाठ पाठक के समक्ष एक नए अर्थ के साथ उद्धाटित होता है.
रेणु की लेखनी दृश्यात्मक है. इस वजह से उनके कथा साहित्य को सिनेमा के परदे पर चित्रित करने की पूरी संभावना है. बात ‘तीसरी कसम’ की हो या ‘पंचलाइट’ की. बशर्ते फिल्मकार शैलेंद्र या नवेंदु घोष जैसा पारखी हो. हिंदी के चर्चित आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार ‘रेणु’ की प्रेम कहानी ‘रसप्रिया’ का जिक्र फिल्म निर्माण के प्रसंग में हमेशा करते हैं. वे बताते हैं कि उन्होंने प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक चिदानंद दास गुप्ता से इस कहानी पर फिल्म बनाने का इसरार भी किया था.
मन में सहज रूप से यह सवाल उठता है कि नवेंदु घोष, जिन्होंने ‘तीसरी कसम’ फिल्म की पटकथा लिखी थी, के निर्देशन में बनने वाली इस फिल्म का क्या स्वरूप होता? बिंबो और ध्वनियों के माध्यम से यह फिल्म मैला आँचल कृति को किस तरह नए आयाम में प्रस्तुत करती?
70 के दशक के मध्य में यह फिल्म बननी शुरू हुई थी, पर निर्माता और वितरक के बीच अनबन के चलते इसे अधबीच ही बंद करना पड़ा. उस दौर के लोग डागदर बाबू की शूटिंग और फिल्म के पोस्टर को आज भी याद करते हैं. रेणु के पुत्र दक्षिणेश्वर प्रसाद राय कहते हैं कि फिल्म के 13 रील तैयार हो गए थे. वे बताते हैं कि ‘मायापुरी’ फिल्म पत्रिका में ‘आने वाली फिल्म’ के सेक्शन में इस फिल्म का पोस्टर भी जारी किया गया था. पिछले साल अमिताभ बच्चन ने विवेकानंद के गेट-अप में जया बच्चन की इस फिल्म से एक तस्वीर अपने इंस्टाग्राम पर शेयर की थी, तब लोगों में इसे लेकर उत्सुकता जगी थी. हालांकि उन्होंने गलती से इसे बांग्ला में बनने वाली फिल्म –डागदर बाबू (डॉक्टर बाबू) कह दिया था.
नवेंदु घोष के पुत्र और फिल्म निर्देशक शुभंकर घोष कहते हैं कि उस वक्त मैं एफटीआईआई में छात्र था और अपने पिता को असिस्ट करता था. वे दुखी होकर कहते हैं, “बाम्बे लैब में इस फिल्म के निगेटिव को रखा गया था. 80 के दशक में बंबई में आई बाढ़ में वहाँ रखा निगेटिव खराब हो गया... अब कुछ नहीं बचा है.”
शूटिंग के दिनों को याद करते हुए शुभंकर घोष नॉस्टेलजिक हो जाते हैं. वे कहते हैं “काफी खूबसूरत कास्टिंग थी. धर्मेंद्र, जया बच्चन, उत्पल दत्त, पद्मा खन्ना, काली बनर्जी इससे जुड़े थे. जब रेणु की जन्मभूमि फारबिसगंज में इसकी शूटिंग हो रही थी तब धर्मेंद्र-जया को देखने आने वालों का तांता लगा रहता था. कई लोग पेड़ पर चढ़े होते थे.’ फिल्म के प्रसंग में वे आर डी बर्मन के दिए संगीत का जिक्र खास तौर पर करते हैं. वे कहते हैं कि नंद कुमार मुंशी जो इस फिल्म के निर्माता एस.एच. मुंशी के पुत्र हैं, किसी तरह आरडी बर्मन के संगीत को संरक्षित करने में उनकी सहायता करें. घोष कहते हैं कि फिल्म में पंचम ने असाधारण संगीत दिया था, जो मुंशी परिवार के पास ही रह गया.
यदि यह फिल्म बन के तैयार हो गई होती तो हिंदी सिनेमा की थाती होती. शुभंकर याद करते हुए बताते हैं कि उनके पिता नवेंदु घोष और रेणु अच्छे दोस्त थे. ‘मैला आंचल’ की पॉकेट बुक की प्रति हमेशा अपने पास रखते थे और वर्षों तक उन्होंने उसकी पटकथा पर काम किया था. यहां पर यह जोड़ना उचित होगा कि देवदास, सुजाता, बंदिनी, अभिमान जैसी फिल्मों की पटकथा लिखने का श्रेय नवेंदु घोष को ही है. साथ ‘त्रिशांगी’ फिल्म उन्हीं के निर्देशन में बनी थी, जिसे बेस्ट डायरेक्टर का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.
हालांकि बॉलीवुड में साहित्यिक कृतियो के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता रहा है उसे लेकर रेणु नाखुश रहते थे. तीसरी कसम फिल्म का अंत बदलने का उन पर काफी दबाव बनाया गया था, पर वे राजी नहीं हुए. इसी सिलसिले में रॉबिन शॉ पुष्प ने अपने एक संस्मरण (1992) में नोट किया है कि किस तरह रेणु ने उनसे कहा था कि ‘हो सकता है कि मैं डॉक्टर बाबू न देखूं…’. यह पूछने पर कि क्यों? उन्होंने कहा था- “ पहले समीक्षा पढूंगा...देखने वालों से उनकी राय पूछूंगा.. यदि सब ठीक रहा, तभी देखूंगा. वरना जिस मैला आँचल ने मुझे यश दिया. मान दिया. साहित्य में स्थापित किया...उस कृति के विकृत रूप को देखने का शायद मैं साहस नहीं जुटा पाऊंगा...”
काश रेणु यह फिल्म देख पाते! दुर्भाग्यवश न हमने, न रेणु ने ही यह फिल्म देखी. क्या ही अच्छा होता कि नवेंदु घोष की लिखी पटकथा ही हम देख-पढ़ पाते, पंचम का दिया संगीत ही सुन पाते?

(https://hindi.news18.com पर प्रकाशित)