Sunday, December 22, 2019

नए साल में भारतीय सिनेमा से उम्मीदें


हाल ही में शाहरुख खान ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि ‘हमें यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए कि एक सिनेमा मनोरंजन के लिए है और एक सिनेमा सोच-विचार के लिए है और दोनों ही एक साथ रह सकते हैं.’ इस साल रिलीज हुई बॉलीवुड की फिल्मों पर शाहरुख की यह बात खरा उतरती है.

सिंग्ल स्क्रीन सिनेमाघरों के जाने और मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की आवक से महानगरों, शहरों में नए तरह की सिनेमा की संस्कृति उभरी है. बड़े बजट की मनोरंजक फिल्मों के साथ-साथ ऑफ बीट फिल्में, जो बॉलीवुड के स्टारों की लकदक से दूर हैं, यहाँ दिखाई जा रही हैं. इसमें क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में भी शामिल हैं. लेकिन मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों को ऑनलाइन डिजिटल प्लेटफॉर्म से चुनौती भी मिल रही है. ‘सोनी’ जैसी फिल्म और ‘मेड इन हैवेन’, ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘फैमली मैन’ आदि वेब सिरीज इस साल काफी देखी और सराही गई. नए साल में बॉलीवुड किस तरह दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच पाता है, यह देखना रोचक होगा.

इस साल के शुरुआत में आई आदित्य धर निर्देशित ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही और इस फिल्म के लिए विक्की कौशल को आयुष्मान खुराना (अंधाधुन) के साथ संयुक्त रूप से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. आने वाले साल में आयुष्मान खुराना, विक्की कौशल और राजकुमार राव से उम्मीदें है. वहीं जोया अख्तर के निर्देशन में बनी, रणवीर सिंह और आलिया भट्ट अभिनीत ‘गली बॉय’ फिल्म में हाशिए के समाज के प्रति संवेदना और संघर्ष का यथार्थपरक चित्रण है. साथ ही अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ में आयुष्मान खुराना ने अभिनय से लोगों को एक बार फिर से प्रभावित किया और अप्रत्याशित रूप से यह फिल्म लोगों को सिनेमाघरों तक लाने में कामयाब रही. यह फिल्म जाति और अस्मिता के सवालों के लिए आने वाले वर्षों में भी याद रखी जाएगी. हालांकि राजकुमार राव और कंगना रनौत अभिनीत ‘जजमेंटल है क्या’ कोई खास हलचल नहीं मचा पाई और कमजोर पटकथा ने निराश किया.

कोई भी कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में समकालीन स्वर, खास तौर पर राष्ट्रवादी भावनाएँ, इस साल खूब सुनाई दिया. यह प्रवृत्ति ‘उरी’ और अक्षय कुमार की ‘मिशन मंगल’, ‘केसरी’ जैसी फिल्मों में अभिव्यक्त हुई. हिंदी सिनेमा में राष्ट्रवाद एक विषय के रूप में गाहे-बगाहे चित्रित होता रहा है. 

50-60 के दशक में ‘नया दौर’, ‘मदर इंडिया’, ‘लीडर’ जैसी फिल्मों से लेकर पिछले दशकों में ‘स्वदेश’, ‘लगान’, ‘चक दे इंडिया’, ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी फिल्मों में यह दिखाई दिया था. जवाहरलाल नेहरू के दौर का राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. साल के जाते-जाते राजनीतिक गलियारों और संसद में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की खूब चर्चा हुई, जिसकी अनुगूँज पूरे देश में विश्वविद्यालयों के कैंपस के लेकर सड़कों पर सुनाई पड़ी.

प्रसंगवश, बांग्ला के चर्चित निर्देशक ऋत्विक घटक ने निर्वासन, विस्थापन की समस्या को अपनी फिल्मों में एक नया आयाम दिया था. विभाजन की त्रासदी और राष्ट्रीयता का सवाल घटक की फिल्मों के केंद्र में है, जिसके वे भोक्ता थे. 

आज जब भूमंडलीय ग्राम में निर्वासन, विस्थापन, नागरिकता और शरणार्थियों के सवाल एक नए रूप में उपस्थित हैं, ऋत्विक घटक की फिल्में एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठी हैं. ‘सुवर्णरेखा’ फिल्म के आरंभ में एक पात्र कहता है- यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी? उम्मीद की जानी चाहिए कि बॉलीवुड और खास कर बांग्ला और असमिया फिल्में इन भावनात्मक और सामाजिक मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ चित्रित करेंगी और नए साल को सार्थक सिनेमा से सुशोभित करेंगी.

(प्रभात खबर, 22 दिसंबर 2019)

Sunday, December 08, 2019

समकालीनता को चित्रित करतीं क्षेत्रीय फिल्में



इस साल दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित मलयालम के चर्चित फिल्म निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन की एक फिल्म-सुखयांतम देखी थी. यह फिल्म तीन छोटी कहानियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जिसके केंद्र में आत्महत्या है. पर हर कहानी का अंत सुखद है. हास्य का इस्तेमाल कर निर्देशक ने समकालीन सामाजिक-पारिवारिक संबंधों को सहज ढंग से चित्रित किया है. यह एक मनोरंजक फिल्म है, जो बिना किसी ताम-झाम के प्रेम, संवेदना, जीवन और मौत के सवालों से जूझती है.


खास बात यह है कि सुखयांतमडिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए बनायी गयी है. इसकी अवधि महज 30 मिनट है. अदूर गोपालकृष्णन ने कहा था कि कथ्य और शिल्प को लेकर उन्होंने उसी शिद्दत से काम किया है, जितना वे फीचर फिल्म को लेकर करते हैं. अपने पचास साल के करियर में पहली बार अदूर ने डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए निर्देशन किया है.

हाल के वर्षों में नयी तकनीक, इंटरनेट पर फिल्म के प्रसारण की संभावना ने न सिर्फ सिद्ध फिल्मकारों, बल्कि युवा फिल्मकारों की अभिव्यक्ति को भी गहरे प्रभावित किया है. लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म जलीकट्टूइसका सफल उदाहरण है. पिछले दिनों गोवा में संपन्न हुए भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में इस फिल्म के लिए पेल्लीसेरी को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला. जलीकट्टू की सिने भाषा समकालीनता में लिपटी है.

इसमें कथानक और चरित्र-चित्रण पर कोई जोर नहीं है, और न संवाद प्रमुख है. पहाड़, जंगलों में जो ध्वनि हम सुनते हैं उसका सहज संयोजन फिल्म के वातावरण को रचने में किया गया है. सिनेमेटोग्राफी इस फिल्म को उत्कृष्ट कला के रूप में स्थापित करती है. भैंस की मांस के बहाने प्रकृति और मनुष्य के संबंधों और मानवीय हिंसा का चित्रण है.

इसी तरह हाल ही में रिलीज हुई भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिस भी मांस के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर फिल्म का ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित है, जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.

सिनेमा चूंकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है, इसलिए महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते, पर यह फिल्म अपने अकल्पनीय कथानककी वजह से चर्चा में है. खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने लंच बाक्सफिल्म में भी देखा था, पर आमिस के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है, जो उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की मां है. वह अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह-तरह के मांस खाने को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है.

फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर समकालीन राजनीतिक-सामाजिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एब्सर्ड की तरफ मुड़ जाती है. असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों-समीक्षकों के बीच तीखी बहस जारी है.

बहरहाल, बॉलीवुड से इतर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों में आजकल तकनीकी और कथ्य के स्तर पर कई ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिनकी धमक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महसूस की जा रही है. ये सभी फिल्में बहुस्तरीय और बहुआयामी हैं, जो भारतीय सिनेमा को भी संवृद्ध कर रही है. 

(प्रभात खबर, 8 दिसंबर 2019)




Friday, November 29, 2019

चुन-चुन खाइयो मांस: आमिस

आमिस 

एक बार मैं एक दोस्त के साथ खाना खा रहा था. अचानक से दाल की कटोरी से उसने झपटा मार के कुछ उठाया और मुँह में डाल लिया. जब तक मैं कुछ समझता, हँसते हुए उसने कहा- चिंता मत कीजिए मैं आपको नहीं खिलाऊँगी. दाल में गलती से एक टुकड़ा मछली का आ गया था.

भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म आमिसदेखते हुए यह प्रसंग मेरे मन में आता रहा. प्रसंगवश, मैं वेजिटेरियन हूँ और मेरी दोस्त उत्तर-पूर्व से थी,  जहाँ पर खान-पान की संस्कृति उत्तर भारतीयों से भिन्न है.

इस फिल्म का मुख्य पात्र सुमन एक शोधार्थी है जो एंथ्रापलॉजी विभाग में उत्तर-पूर्व में मांस खाने की संस्कृतियों के ऊपर शोध (पीएचडी) कर रहा है. निर्मली जो पेशे से डॉक्टर है और स्कूल जाते बच्चे की माँ है अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश है. उसका डॉक्टर पति अपने सामाजिक काम से ज्यादातर शहर से बाहर रहता है और निर्मली के जीवन में नीरसता है. उसके जीवन में सुमन का प्रवेश होता है और दोनों के बीच तरह तरह के मांस खाने को लेकर मुलाकातें होती है, प्रेम (?) पनपता है- शास्त्रीय शब्दों में जिसे परकीया प्रेम कहा गया है. लेकिन फिल्म में दोनों के बीच साहचर्य का अवसर कम है और सहसा विकसित प्रेम के इस रूप से खुद को जोड़ना मुश्किल होता है. सिनेमा देश-काल को स्थापित करने में असफल है.  क्या हम इसे खाने के पैशन से विकसित ऑब्सेशन कहें?

खान-पान को लेकर विकसित संबंध को हमने लंच बाक्सफिल्म में भी देखा था, पर आमिस फिल्म के साथ किसी भी तरह की तुलना यहीं खत्म हो जाती है.

इस फिल्म में मांस एक रूपक है जो समकालीन भारतीय राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. पर यह मानवीय प्रेम के आधे-अधूरे जीवन को ही व्यक्त कर पाता है. क्या संपूर्णता की तलाश व्यर्थ है?  क्या दोनों के बीच प्रेम का कोई भविष्य नहीं?

फिल्म में अदाकारी, सिनेमैटोग्राफी, संपादन और बैकग्राउंड संगीत उत्कृष्ट है. सिनेमा गुवाहाटी में अवस्थित (locale) है, जिसे सिनेमा में खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है. सिनेमा चूँकि श्रव्य-दृश्य माध्यम है इस वजह से महज कहानी में घटा कर हम इसे नहीं पढ़ सकते. जाहिर है आमिस के कई पाठ संभव हैं, पर यह फिल्म अपने अकल्पनीय कथानककी वजह से चर्चा में है. जहाँ अंग्रेजी मीडिया में आमिस को लेकर प्रशंसा के स्वर हैं, वहीं असमिया फिल्मों के करीब 85 वर्ष के इतिहास में इस फिल्म को लेकर दर्शकों के बीच तीखी बहस जारी है.

परकीया प्रेम को लेकर पहले भी फिल्में बनती रही हैं, साहित्य लिखा जाता रहा है. फिल्म खान-पान की संस्कृति को लेकर किसी नैतिक दुविधा या समकालीन राजनैतिक शुचिता पर चोट करने से आगे जाकर लोक में व्याप्त तांत्रिक आल-जाल में उलझती जाती है. मिथिला की बात करुँ तो कुछ जातियों में शादी से पहले वर-वधू की अंगुली से थोड़ा सा नाम मात्र का खून (नहछू?) निकाला जाता है, जिसे खाने में मिला कर एक-दूसरे को खिलाया जाता है. यह परंपरा के रूप में आज भी व्याप्त है. मिथिला की तरह असम में भी तंत्र-मंत्र का प्रभाव रहा है और ख़ास तौर पर कामरूप प्रसिद्ध रहा है. फिल्म में मांस के बिंब को प्रेमी-प्रेमिका के (स्व) मांस भक्षण के माध्यम से स्त्री-पुरुष के संयोग की व्याप्ति तक ले जाना, दूर की कौड़ी लाना है. कला में तोड़-फोड़ अभिव्यक्ति के स्तर पर जायज है, पर कल्पना के तीर को इतना दूर खींचना कि तीतर और बटेर की जगह मानव के मांस के टुकड़े हाथ आए तो इसे हम क्या कहेंगे? इसे हम अभिनव प्रयोग तो नहीं ही कह सकते.

प्रेम के स्याह पक्ष को चित्रित करते हुए यह फिल्म आखिर में एब्सर्ड की  तरफ मुड़ जाती है.

प्रेम में कागा से चुन-चुन खाइयो मांसकी बात करते हुए दो अँखियन को छोड़ने की बात भी की गई है जिसे पिया मिलन की आस है. यहाँ तो प्रेम उन आँखों को ही निगलना चाहता है. आँखें ही नहीं बचेंगी तो फिर दर्शक (प्रेमी) देखेगा क्या?

(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Sunday, November 24, 2019

अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का संसार


गोवा में चल रहे भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के पचासवें संस्करण का ऐतिहासिक महत्व है. वर्ष 1952 में जब भारत के चार महानगरों में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन किया गया, यह एशिया का भी पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव था. इसमें 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था, जबकि पचासवें समारोह में 76 देशों के फिल्मकार भाग ले रहे हैं.

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस समारोह के आयोजन में व्यक्तिगत रूचि ली थी. वे दुनिया के सामने सिनेमा के माध्यम से एक स्वतंत्र राष्ट्र की ऐसी छवि प्रस्तुत करना चाह रहे थे जो किसी महाशक्ति के दबदबे में नहीं है. साथ ही देश के फिल्मकारों और सिनेमाप्रेमियों को विश्व सिनेमा की कला से परिचय और विचार-विमर्श का एक मंच उपलब्ध कराना भी उद्देश्य था. गुट निरपेक्षता के सिद्धांत की नींव नेहरू ने 1961 में भले ही डाली हो, वे इस पर 50 के दशक के शुरुआत से ही काम कर रहे थे. पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह को हम इसकी एक कड़ी के रूप में देख सकते हैं.

महात्मा गाँधी और सरदार बल्लभभाई पटेल के विपरीत नेहरू खुद एक सिनेमाप्रेमी थे और नए भारत के निर्माण में सिनेमा की एक महत्वपूर्ण भूमिका देख रहे थे. वे सिनेमा के कूटनीतिक महत्व से परिचित थे. नेहरू ने उद्धाटन भाषण में कहा था कि लोगों के जीवन में सिनेमा एक शक्तिशाली प्रभाव के रूप में उपस्थित है’. उन्होंने सिनेमा के माध्यम से जीवन में कलात्मक और सौंदर्यात्मक मूल्यों को समाहित करने पर जोर दिया था. नेहरू सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल करते थे.

समारोह के पहले संस्करण में राज कपूर की फिल्म आवारा के साथ एनटी रामाराव अभिनीत पाताल भैरवी (तेलुगू)’, वी शांताराम की अमर भूपाली (मराठी)और अग्रदूत की बाबला (बांग्ला)दिखाई गई थी. अमेरिकी निर्देशक फ्रैंक कापरा हॉलीवुड के शिष्टमंडल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. सोवियत संघ से मिखाइल चियायुरली की फिल्म फॉल ऑफ बर्लिनके अतिरिक्त इटली की नव-यथार्थवादी धारा के फिल्मकारों विटोरियो डी सिका की चर्चित बाइसिकिल थिव्सऔर रोबर्टो रोजीलीनी की रोम: ओपन सिटीआदि का भी प्रदर्शन किया गया था. रोजीलीनी के करीबी रहे मकबूल फिदा हुसैन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ओपन सिटी ने दुनिया भर में हलचल मचा दी, लेकिन जब इटैलियन प्रेजिडेंट को पहली बार थिएटर में दिखाई गई तो उन्होंने उस फिल्म की नुमाइश पर पांबदी लगा दी.” 

नेहरू ने रोजीलीनी को भारत के ऊपर फिल्म बनाने का न्यौता दिया, जो इंडिया: मातृ भूमिडाक्यूमेंट्री के रूप में सामने आई. 70 और 80 के दशक में समारोहों के दौरान दिखाई गई दुनिया के नामी फिल्मकारों मसलन, आंद्रे तारकोव्सकी, जोल्तान फाबरी, फेदेरीकी फेलीनी, इंगमार बर्गमान, फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, कोस्ता गावरास, रोमान पोलंस्की आदि की फिल्मों की चर्चा पुराने दौर के लोग आज भी करते हैं. हिंदी के चर्चित कवि कुंवर नारायण ने इन फिल्म महोत्सवों का जिक्र अपनी किताब- लेखक का सिनेमामें बखूबी किया है. हालांकि इंडियन पैनोरमा खंड में व्यावसायिक फिल्मों को शामिल करने को लेकर हाल के वर्षों में सवाल उठते रहे हैं.

कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशित जानू बरुआ कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में देश में फिल्म समारोह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं. व्यावसायिक दृष्टि ज्यादा हावी है, सिनेमा को कला के रूप में देखने-सुनने का अवसर नहीं मिलता. अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह इस मायने में सफल रहा है कि यहाँ सिनेमाप्रेमियों और फिल्मकारों को दुनिया भर के सिनेमा की कला से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है.फिल्म समारोह के पचासवें संस्करण में इस बात का भी लेखा-जोखा  किया जाना चाहिए कि भारतीय फिल्म उद्योग और फिल्मकारों पर इन समारोहों का क्या प्रभाव पड़ा है? भूमंडलीकरण के इस दौर में विदेश नीति में बॉलीवुड के साफ्ट पावरकी खूब चर्चा होती है, सवाल यह भी है कि नेहरू दौर के 'आइडिया ऑफ इंडिया' से  नरेंद्र मोदी के न्यू इंडियातक का सिनेमाई सफर कैसा रहा?

(प्रभात खबर, 24 नवंबर 2019)