Sunday, March 10, 2024

कठपुतली कला में रचा संसार


 पिछले दिनों दिल्ली और चंडीगढ़ में इशारा अंतरराष्ट्रीय कठपुतली नाट्य समारोह का आयोजन किया गया. नाटक के अंतिम दिन दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में दादी पुदुमजी अपनी नई प्रस्तुति ‘बी योरसेल्फ’ लेकर मौजूद थे. क्रिश्चियन एंडरसन की बहुचर्चित कृति ‘द अग्ली डकलिंग’ पर आधारित यह कठपुतली नाटक इस अर्थ में विशिष्ट था कि निर्देशक ने पशु-पक्षियों (कठपुतलियों) को देश के विभिन्न हिस्सों के वस्त्रों मसलन इकत कलमकारी, सिल्क आदि से सजाया था. बुनकरों के विभिन्न रंगों में भारतीय संस्कृति की विविधता मंच पर दिखाई पड़ रही थी. युवा कलाकारों ने अपने अभिनय से इस नाटक को रोचक और मनोरंजक बना दिया.

बच्चों की इस कहानी की सीख बड़ों के लिए भी थी कि हर कोई अपने आप में विशिष्ट होता है और उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए. इस नाटक में हालांकि समकालीन समय और समाज की प्रतिध्वनियाँ भी थीं. आश्चर्य नहीं कि दर्शकों में विभिन्न आयु वर्ग के लोग शामिल थे.
इशारा ट्रस्ट के तहत कठपुतली कला को समर्पित यह 20वाँ समारोह था, जिसके केंद्र में दादी पुदुमजी रहे हैं. पिछले करीब चालीस सालों से कठपुतली कला से जुड़े और पद्मश्री से सम्मानित दादी पदुमजी बातचीत में कहते हैं कि ‘हमने इस समारोह को बहुत छोटे से स्तर पर शुरु किया था, पर धीर-धीरे इसका विस्तार अंतरराष्ट्रीय फलक तक होता गया’. वे जोड़ते हैं कि टिकट से मिली राशि और स्कूलों के सहयोग से यह संभव होता रहा है. साथ ही आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि क्यों उन्हें शो के लिए ‘स्पांसर’ नहीं मिलते.
इसमें कोई संदेह नहीं कि इन वर्षों में इशारा ने देश-विदेश की कठपुतली कला से जुड़े कलाकारो के लिए एक मंच प्रदान किया है. इस बार भी भारत समेत ब्राजील, फ्रांस, कोरिया, रूस, ताइवान, अमेरिका, तुर्की और श्रीलंका के कलाकार समारोह में हिस्सा ले रहे थे. कार्यक्रम में मुझे ग्रीस से आई कुछ महिला कलाकार मिली जो कठपुतली कला के वर्कशॉप में भाग लेने दिल्ली आईं हुई थी. इस समारोह में मौखिक और गैर-मौखिक दोनों तरह की प्रस्तुतियों में विभिन्न विषयों मसलन, प्रेम, मानवता, विविधता के साथ इतिहास और विभिन्न संस्कृतियों का समावेश था.
देश में कठपुतली का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है. पारंपरिक और आधुनिक दोनों तरह की कठपुतली कला का चलन अभी भी बना हुआ है, हालांकि वर्तमान में टेलीविजन और सिनेमा के विस्तार ने कला के इस रूप को लोगों से दूर कर दिया है. फिर भी देश के विभिन्न कोनों में युवा कलाकार अपनी प्रस्तुतियों को लेकर गाहे-बगाहे उपस्थित होते रहते हैं. अनुरुपा रॉय एक ऐसी ही कलाकार है जिन्हें काफी प्रतिष्ठा प्राप्त है. वे अपनी संस्था ‘कठकथा’ के माध्यम से देश भर में प्रस्तुतियों से दर्शकों का मनोरंजन करती रही है. इशारा के प्रोडक्शन की तरह ही अपनी प्रस्तुतियों में वे मल्टी-मीडिया का इस्तेमाल करती हैं.
बहरहाल, यह पूछने पर कि वे इस कला का क्या भविष्य देखते हैं, दादी पुदुमजी कहते हैं कि ‘जो अन्य कलाओं का भविष्य है वही इस कला का भी है. आपको अपना भविष्य खुद बनाना पड़ता है. कलाकारों को नई प्रस्तुतियाँ के साथ आगे आना होगा. उन्हें वर्कशॉप करना होगा.’

Remembering Kumar Shahani, India’s Foremost Avant-Garde Film Director


 For the people of my generation, who grew up in the 1990s, Indian new-wave cinema was a kind of esoteric art and idea. During the early ‘90s in Darbhanga, I still remember seeing a poster of the movie ‘Salim Langde Pe Mat Ro’ and wondering what kind of film it would be.

Truth is, new-wave cinema died in the ‘80s and what we found in the ‘90s, with the opening of the market, was that the genre of Hindi cinema shifted to diaspora and gangster movies. At the same time, with the coming of the internet and YouTube, the movies of parallel cinema, although in bad print, got available online and reached a wider audience.

Interestingly, now, even in Darbhanga, people discuss young filmmakers like Achal Mishra (‘Gamak Ghar’, ‘Dhuin’) and Partha Saurabh (‘Pokhar Ke Dunu Paar’) and their movies. It has got a name — the Darbhanga New Wave. Certainly, the aesthetics of Darbhanga New Wave are influenced by the forefathers of the Indian New Wave cinema of the ‘70s.

Kumar Shahani (1940-2024), who died at the age of 83 in Kolkata recently, was one of India’s foremost avant-garde film directors. When his classic film ‘Maya Darpan’ turned 50 in November 2022, I called him for an interview. He was in Pune and asked me to send questions by email, to which he promptly replied. When the interview was published, I shared the link with him and wrote: “I hope to talk to you at length, when you are back in Delhi.” Alas! It would never happen, but I had the good fortune to interact with him on a few occasions in the past.

If Mani Kaul’s debut film ‘Uski Roti’ and Mrinal Sen’s ‘Bhuvan Shome’ started the New Cinema movement in India, Shahani’s first feature film ‘Maya Darpan [Mirror of Illusions]’, released in 1972, is a classic of parallel cinema. He was known for the formal experimentation in his movies.

Based on famous Hindi writer Nirmal Verma’s eponymous short story, the film depicts the lonely world of the protagonist Taran. But the film goes beyond the story. Taran’s rebellion against feudalism is manifested in dance sequences. Kumar told me that Verma was not happy with it. He said: “Nirmal was conditioned by the films that he had seen. We never saw eye-to-eye on any issue!”

I asked him how he looked back at ‘Maya Darpan’ after 50 years. He replied: “Because of the jubilee of ‘Maya Darpan’, a great deal of interest is being shown around the world in my work, and new queries for future productions from the home of Hollywood have reached me. When ‘Maya Darpan’ was made, the Euro-American response was enthusiastic. It was recognised as a breakthrough in cinematic language — with colour, movement and narrative creating a new musicality, as it were.”

He always struggled to raise finances for his films but never compromised with his style of filmmaking. In his 50-year-long career, besides ‘Maya Darpan’, he only managed to make ‘Tarang’ (1984), ‘Khayal Gatha’ (1989), ‘Kasba’ (1990), ‘Char Adhyay’ (1997), and a few short documentaries. ‘Char Adhyay’, which is based on Rabindranath Tagore’s novel, is about self-determination and violence in pre-independent India. He said to me: “You will find Ritwik (Ghatak) da a lot in this movie.” Although he had Marxist leanings, we found a kind of spiritualism in his movies. He assisted the great French filmmaker Robert Bresson (‘Une Femme Douce’, 1969) when he was in Paris on a fellowship. He was influenced by the concept of Moksha/Nirvana, which we see in Bresson’s films. We don’t find a watertight compartment between ideology and aesthetics in Shahani’s films.

A few years ago, during a conversation about parallel cinema, he told me that we can’t compare popular with parallel because the main purpose of mainstream cinema is to make profits, whereas the kind of movies he and his ilk made was art. He was also critical of shopping Mall cinema culture and viewing a movie there. Like ‘slow reading’, his films ask for ‘slow viewing’. In fact, they ask for a new viewer who is immersed not only in cinema but Indian tradition of music, dance, and painting. His films are an amalgamation of everything that is soaked in the Indian civilisation.

Shahani always discussed his birthplace in Larkana (Pakistan), near Mohenjo-Daro. He considered himself, like Ghatak, a product of the Partition. He said that he had completed a movie based on Gita Govinda — ‘Priye Charuseele’, which is yet to be released. Even during his last days, he was brimming with many ideas.

In 2014, I was at the Indian International Centre (IIC), Delhi to listen to a lecture on Mani Kaul’s films. He was there too. I had a copy of ‘Uncloven Space’, a translation of Kaul’s conversation with Udyan Vajpayee (‘Abhed Aakash’). I had a brief conversation with him about Kaul, Ghatak (his guru at the FTII) and parallel cinema. Later, I asked him to sign the book and write something for my year-old daughter. He did. “Kaithi, hope that you will grow up to be a connoisseur like your father,” he wrote. He had expectations not only from my generation but from the future too!

Monday, February 26, 2024

कुमार शहानी: एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार का जाना


अवांगार्द फिल्मकार और कला विचारक के रूप में कुमार शहानी (1940-2024) की दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान थी. वे हिंदी समांतर सिनेमा के पुरोधा थे. उनकी बहुचर्चित फिल्म माया दर्पण (1972) के पचास साल पूरे होने पर जब मैंने उनसे बातचीत किया था तब भी वे फिल्म बनाने को लेकर उत्सुक थे. उन्होंने मुझे कहा था कि फिल्म के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रुचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है.

अब उनकी फिल्में, लेखन, व्याख्यान और मुलाकातें ही हमारी स्मृतियों में रहेंगी. वे सहज और सौम्य व्यक्ति थे. कुछ वर्ष पहले जब एक बार बातचीत के लिए मैंने उन्हें फोन किया और परिचय देते हुए कहा कि मिलना चाहता हूँ, उन्होंने दोपहर के समय दिल्ली के आईआईसी में बुलाया. मैंने कहा कि—सर, मैं दिन में नौकरी करता हूँ, क्या फोन पर बात हो सकती है. उन्होंने शाम का समय दिया. फिर मैंने पूछा कि छह बजे के बाद यदि बात करुँ तो उन्हें दिक्कत तो नहीं होगी? उन्होंने बेहद शालीनता से कहा कि-नहीं. फिर जोड़ा-नौकरी करना जरूरी है.
‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. वे सिनेमा के विचारक और एक कुशल शिक्षक भी थे. मुझे याद है कि करीब बीस साल पहले उन्होंने जेएनयू में कार्ल थियोडोर ड्रेयर की चर्चित फिल्म द पैशन ऑफ जॉन ऑफ आर्क (1928) पर एक व्याख्यान दिया था.
पिछली सदी के साठ के दशक में समातंर सिनेमा के अन्य चर्चित फिल्मकार मणि कौल के संग उन्होंने पुणे स्थित फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) से फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लिया था. फिल्म संस्थान में उन्हें ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया, वहीं छात्रवृत्ति लेकर जब वे पेरिस गए तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस (ए जेंटल वुमन, 1969)’ फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों ही निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म-निर्माण की शैली उनकी निजी है.
बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन और फॉर्म के प्रति एकनिष्ठता उनकी फिल्मों में जैसा दिखता है, सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है. उन्होंने कहा था कि ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहाँ ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है.
उनकी सभी फिल्मों में ‘फॉर्म’ के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. वे कहते थे ‘रंग हमारे होने की खुशबू को परिभाषित करता है.’ ‘माया दर्पण’ से लेकर ‘चार अध्याय’ तक ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग उल्लेखनीय है.
यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. वे सिनेमा माध्यम पर तकनीक के बढ़ते जोर को लेकर चिंतित रहते थे.
शहानी अक्सर अपने जन्म स्थान लरकाना (सिंध, पाकिस्तान) की चर्चा करते थे. साथ ही रंगों के मेल और भारतीय सभ्यता और संस्कृति में इसकी केंद्रीयता को रेखांकित करते रहे. वे खुद को घटक की तरह ही विभाजन (पार्टीशन) की संतान कहते थे.
‘माया दर्पण’ निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है, पर यह फिल्म उसका अतिक्रमण करती है. शहानी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थे, फिल्म में सामंतवाद का विरोध है. इस फिल्म में उनकी वर्ग-चेतन दृष्टि स्पष्ट दिखती है. जब मैंने फिल्म में कहानी से अलग ‘ट्रीटमेंट’ के बाबत सवाल पूछा था तब उन्होंने कहा था: “मैंने ‘माया दर्पण’ में सामंतवादी उत्पीड़न दिखाने की कोशिश की है. इस फिल्म के अंत में डांस सीक्वेंस है, उसके माध्यम से मैंने इस उत्पीड़न को तोड़ने की कोशिश की है. उस डांस में जो ऊर्जा है वह सामंतवादी व्यवस्था के खिलाफ है. यह काली के रंग में भी है.”
कुमार शहानी कहते थे कि जब आप फिल्म बनाते हैं तब आप एक विशिष्ट काम करने की इच्छा रखते हैं-- खास कर जब आप स्वतंत्रता की बात करते हैं. एक तरह से वैयक्तिक स्वतंत्रता इस फिल्म की मूल भावना है. कला में यह स्वतंत्रता किस रूप में आए, शहानी की यह फिल्म इस बात की खोजबीन करती है.
कुमार शहानी की फिल्मों में बिंब (इमेज) सायास रूप से भारतीय चित्रकला से प्रेरित दिखते हैं. अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह जैसे समकालीन फिल्मकारों पर उनका स्पष्ट प्रभाव है. माया दर्पण के बाद की उनकी फिल्मों का अध्ययन संगीत से उनके जुड़ाव के आधार पर ही किया जा सकता है. उनकी फिल्मों पर हिंदी में गंभीर विवेचना की जरूरत है. ये फिल्में भारतीय सौंदर्यशास्त्र में पगी हैं, राजनीतिक विचारधारा का यहाँ समावेश है. असल में, शहानी दोनों के बीच कुशलता से आवाजाही करते रहे.

Wednesday, February 21, 2024

मीडिया का लोकतंत्र: समीक्षा


 लोकसभा चुनाव के महज कुछ हफ्ते शेष बचे हैं. वर्तमान शासन के दस साल बाद भी विपक्षी पार्टियों के लिए चुनावी रणनीति का कोई ऐसा सिरा दिखाई नहीं दे रहा जिससे कहा जा सके कि मुकाबला दिलचस्प होगा. क्या यह चुनाव बिना किसी चुनौती के संपन्न होगाविपक्षी पार्टी पर भारतीय जनता पार्टी ने मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री कहते फिर रहे हैं कि आएगा तो मोदी ही!

प्रधानमंत्री की छवि एक ब्रांड (मोदी है तो मुमकिन हैमोदी की गारंटी आदि) के रुप में इन वर्षों में पुख्ता हुई है. प्रधानमंत्री के इस कल्ट’ को कारोबारी मीडिया भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. जो प्रधानमंत्री की राजनीति और विचारधारा के आलोचक हैं, वे भी उनकी लोकप्रियता से इंकार नहीं करते. उनकी लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उदारीकरण के साथ हिंदुत्व की जो बयार बही उससे जुड़ता है. भाषाई मीडियाजिसका अप्रत्याशित विकास इन्हीं दशकों में हुआ हैसमाज में आए बदलाव को आत्मसात करता हुआ आगे बढ़ा है. इसी सिलसिले में एक नेटवर्क का विस्तार भी हुआ हैदूर दराज के गाँव-कस्बों तक मीडिया (मुख्यधारा और सोशल) की पहुँच बढ़ी है. विभिन्न लोक कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थी मीडिया के माध्यम से मोदी की लोकलुभावन अपील को अपने तयी देखते-परखते हैं, चुनाव में वोट करते हैं.

चूँकि मीडिया एक पूंजीवादी उपक्रम है (प्रिंट पूंजीवाद)इसलिए मुनाफे की संस्कृति से ही इसका संचालन होता हैलोकहित हाशिए पर ही रहते आए हैं. वैसे प्रकाशन व्यवसाय भी कोई अपवाद नहीं है,  यहाँ भी लेखकों की ब्रांडिंग पर जोर रहता है. उनकी छवि भुनाने की कोशिश होती है. हाल के वर्षों में हिंदी लोकवृत्त में यह प्रवृत्ति बढ़ी है.

बहरहालराम मंदिर निर्माण के बाद हिंदुत्व और विकास की जुगलबंदी का शोर और बढ़ा है. इस शोर के बीच रोजगारबढ़ती असमानताअल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना और संस्थानों के लगातार कमजोर होने की चर्चा सुनाई नहीं देती. स्वतंत्र मीडिया और स्वतंत्रचेता मीडियाकर्मियों पर जो दबिश बढ़ी हैउसके बारे में खुल कर बोलने में आम नागरिकों में हिचक है. सोशल मीडिया में भी एक तरह का सेल्फ-सेंसरशिप है. ऐसे में, मुख्यधारा का मीडिया सरकार के एजेंडे को ही अपना एजेंडा मान कर आगे बढ़ रहा है. हाल के दिनों में अडानी समूह के मीडिया क्षेत्र में बढ़त को हम उनके कारोबारी हित के नजरिए से देख-परख सकते हैं.

वैसे दिल्ली में आने से पहले ही मोदी की ब्रांडिंग शुरू हो गई थीजिसे मीडिया का भरपूर सहयोग मिला था. वर्ष 2012 में चर्चित अमेरिकी पत्रिका टाइम के कवर पृष्ठ पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर छपी थी. साथ ही इंडिया टुडेकारवां और आउटलुक पत्रिकाओं के कवर पर भी नरेंद्र मोदी छाए हुए रहे.  इंडिया टुडे में जहाँ एक ओपिनियन पोल के हवाले से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी को लोगों की पहली पसंद बतायावहीं कारवां और आउटलुक पत्रिका ने मोदी की छवि को लेकर कुछ तल्ख सवाल किए थे. मोदी को लेकर मीडिया के अंदर दो ध्रुव थे. बाद के वर्षों में यह दूरी और बढ़ती गई. हिंदी टेलीविजन मीडिया के हवाले से बात करें तो रवीश कुमार और सुधीर चौधरी इस ध्रुव के ओर छोर कहे जा सकते हैं.

उदारीकरण के बाद भारतीय राष्ट्र-राज्य का चरित्र बदला. कॉरपोरेटमीडिया और राजनीतिक दलों में हर तरफ जोर प्रबंधन पर बढ़ा. मीडिया में जहाँ ब्रांड मैनेजर की अहमियत संपादकों से ज्यादा बढ़ी वहींराजसत्ता में मीडिया मैनेजरों की घुसपैठ किसी भी सक्षम नौकरशाहों से कम नहीं है. समयांतर पत्रिका (मई, 2012) के लिए मोदी और मीडिया’ लेख में मैंने लिखा था:

कोई भी पाठक यदि सरसरी तौर पर भी टाइम के लेख को पढ़े तो उसे समझने में यह देर नहीं लगेगी कि यह एक महज पीआर (जनसंपर्क) का काम है जिसे नरेंद्र मोदी के मीडिया मैनेजरों ने बखूबी अंजाम दिया है.”  

इन वर्षों मीडिया के चरित्र में जो बदलाव हुए हैं, नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग में जो इसकी भूमिका रही हैसोशल मीडिया का जो उभार हुआ है उसका एक लेखा-जोखा पिछले दिनों लेखक विनीत कुमार की प्रकाशित किताब- मीडिया का लोकतंत्र में दिखाई देता है.

जैसा कि शीर्षक और अध्यायों से स्पष्ट है इस किताब में मीडिया और लोकतंत्र बीज शब्द हैं. किसी भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को केंद्रीयता प्राप्त है. इसकी रक्षा का भार नागरिक समाजमीडियान्यायालय और राजनीतिक दलों पर है. मीडिया चूँकि लोकतंत्र में आम जनता की आँख और कान की तरह होते हैंजाहिर है उससे अपेक्षा रहती है कि वह सबकी खबर ले. सबको खबर दे. सवाल है कि क्या मोदी के शासन काल में मीडिया जनता के प्रतिनिधि के रूप में सत्ता के सामने सच कहने में सफल रही? इसका जवाब नकारात्मक ही है. मीडिया की आवाज दबी रही. स्वर हकलाने का ही रहा. आज जोर सेल्फी पत्रकारिता पर है. प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी, संपर्क साध कर पत्रकार-संपादक खुद को धन्य महसूस करते फिरते हैं. कारोबारी मीडिया का जोर सत्ता के साथ सांठगांठ करने पर बढ़ा है. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अखबार और टेलीविजन चैनलों के स्पेशल इवेंट’ हैंजहाँ मंच पर मालिक और संपादक सत्ता’ पर काबिज लोगों के साथ नज़र आते हैं.

यह किताब मीडिया का लोकतंत्रबरास्ते पीआर एजेंसी’, मीडिया नैरेटिवफ़ेक बनाम फैक्ट’, मीडिया राष्ट्रवादअलविदा लोकतंत्र!’ और न्यू मीडियाडेटा पैक का लोकतंत्र जैसे अध्यायों में विभक्त है. इस किताब की भूमिका में विनीत लिखते हैं:

साल 2014 के बाद मीडिया का चरित्र पूरी तरह बदल गया है और अब तक सत्ता से विवेकपूर्ण असहमति को पत्रकारिता माना जाता रहा हैयह क्रम उलटकर सत्ता के साथ होना ही पत्रकारिता हैऐसा कहने से यह किताब रोकती है.” हालांकि इस किताब में जो विवरणउदाहरणसंदर्भ और ब्यौरे हैं, वह लोकवृत्त में पहले से मौजूद हैं. मीडिया के रवैये को लेकर मीडिया के अंदर ही टीका-टिप्पणी और किताबें लिखी जाती रही है. लेखक इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं:

आप जब इसके पन्ने-दर-पन्ने पलटते हुए संदर्भों से गुजरेंगे तो संभव है कि लगेगा इसमें नया क्यायह तो हमें पहले से पता है...”. लेखक की पक्षधरता स्पष्ट है. हिंदुत्ववादी राजनीति और सत्ता के विरोध में वह खड़ा है. लेकिन देश की विशाल आबादी (खास कर उत्तर और पश्चिम भारत) तक मोदी की पहुँच के कारणों पर इसमें विचार नहीं किया गया हैन हीं मीडिया के उपभोक्ताओंनागरिकों की सोच को ही शामिल किया गया है. इस लिहाज से यह एक किताब भी एक इको चैंबर की तरह है, जहाँ हम (लिबरल) सिर्फ अपनी आवाज ही सुनते हैं.

मीडिया के पाठकोंदर्शकों की पसंद को लेकर अकादमिक दुनिया में शोध की पहल नहीं दिखती. विनीत मीडिया शोध और अध्ययन से जुड़े रहे हैंउनसे अपेक्षा थी कि वे दर्शकों की पसंदइच्छा को लेकर इस किताब में चर्चा करते ताकि मोदी की लोकप्रियता के कारणों की एक झलक हमें मिलती. महज उदाहरणोंकिताब के संदर्भों के आधार पर मीडिया के बदलते चरित्र-- जहां जनसंपर्क (पीआर) की भूमिका बढ़ती चली गई है-- की मुकम्मल तस्वीर सामने नहीं आती. हांकिताब में वर्ष 2013 में उत्तरकाशी-केदारनाथ में आई तबाही और मोदी को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया में जो झूठी खबर छपी- मोदी इन रैम्बो एक्टसेव्स 15000’ , को एक केस स्टडी के रूप में विस्तार से विश्लेषण किया गया हैविनीत बताते हैं कि किस तरह एक ही मीडिया संस्थान के दो उपक्रम (प्लेटफॉर्म) अलग-अलग तरीके से खबरों को प्रस्तुत करते हैं और जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे को काटते भी चलते हैं! हालांकि यहाँ पर यह नोट करना जरूरी है कि टाइम्स ग्रुप के लिए इस तरह की खबर सिर्फ पीआर का मसला नहीं रहा है.

बीस साल पहले जब मैं टाइम्स ग्रुप के अखबार नवभारत टाइम्स पर शोध कर रहा थाइस तरह की खबर पेड न्यूज’ की शक्ल में आने लगी थी. वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में यह खुल कर सामने आ गया था. चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से मोटी रकम लेकर पैकेज’ के तहत टाइम्स ग्रुप ने मीडिया नेट कंपनी (2003) और प्राइवेट ट्रीटीज (2005) की शुरुआत कर दी थी. इसका विस्तार से उल्लेख मैंने अपनी किताब हिंदी में समाचार (2013)’ और शोध आलेख राइटिंग खुश खबरहिंदी न्यूज़ पेपर्स इन नियो लिबरल ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी इंडिया’ (2021) में किया है. आश्चर्य है कि विनीत अपने लेख में कहीं भी इस पहलू का जिक्र नहीं करतेजबकी इस अध्याय में विनीत विज्ञापन गुरु (अबकी बार, मोदी सरकार’ वाले) पीयूष पांडे की आत्मकथात्मक किताब पांडेमोनियमपीयूष पांडे ऑन एडवरटाइजिंग (2015) को लेकर अनावश्यक रूप से करीब दस पेज खर्च करते हैं. इसी तरह कई ऐसी किताबों से उदाहरण हैं जिसे संक्षेप में दिया जा सकता था. वैसे यह पूरी किताब ही सेड/शी सेड (किसने क्या कहा) की शैली में ही लिखी गई है, जहाँ पर अद्यतन किताबों के संदर्भ और विवरण तो मिलते हैं पर लेखकीय विश्लेषण का अभाव दिखता है. मीडिया की रिपोर्टिंग में ऐसी छूट की गुंजाइश तो है, पर जब आप शोध/आलोचना कर रहे हैं तो लेखक से अपेक्षा रहती है कि उसकी दृष्टि और तैयारी से पाठक रू-ब-रू होगा.  ऐसे में पूरी किताब में लेखक कहीं पीछे छूट जाता है और अन्य' हावी हो जाते हैं. पाठकों के लिए यह उलझन पैदा करता है. पठनीयता भी प्रभावित होती है. किताब में जिन लेखकों को उद्धृत किया गया, अधिकांश के साथ कोई खंडन-मंडन नहीं है, न ही लेखक की तरफ से सवाल हीं उछाला गया है. एक किताब सारे सवालों का जवाब भले न दे, पाठकों के मन में बीजारोपण तो कर ही सकती है!

इस शताब्दी के दूसरे दशक में जहाँ इंटरनेट के मार्फत आभासी दुनिया में एक अंतरराष्ट्रीय लोकवृत्त के निर्माण की संभावना बनी, वहीं सूचनाओं के आल-जाल में तथ्य और सत्य के बीच की रेखा धुंधली हो गई. यथार्थ और आभासी के बीच फेक न्यूज का ऐसा तंत्र खड़ा हुआ जिसे सत्ता का सहयोग हासिल है. यह अमेरिका से लेकर भारत जैसे लोकतंत्र के लिए चुनौती का विषय बना है. पिछले दिनों अभिनेत्री पूनम पांडेय की मौत की खबर  फेक न्यूज बन कर आई जिसे बीबीसी जैसी संस्थाओं ने भी बिना किसी जांच-परख के स्वीकार कर लिया था.

विनीत अपने लेख मीडिया नैरेटिवफेक बनाम फैक्ट’ में इस मुद्दे से विमर्श रचते हैं. कोरोना के दौरान जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ फेक न्यूज टीवी चैनलों पर फैलाया गया विनीत उसे विश्लेषण की जद में लेते हैं. वे आजतक के कार्यक्रम में दिखाए कोई झुठला नहीं पाएगा राम मंदिर का इतिहासजाने कितना अहम है टाइम कैप्सूल (राम मंदिर के नीचे रखा जाएगा टाइम कैप्सूलदेखें क्या है तैयारीकार्यक्रम की पड़ताल करते हैं. विनीत लिखते हैं:

आजतक की दर्जनों फुटेज देखने के बाद भी एक भी ऐसी तस्वीर नहीं मिली जिससे कि राम जन्मभूमि परिसर में टाइम कैप्सूल डाले जाने संबंधी तैयारी की पुष्टि हो सके. यह स्थिति जी न्यूजरिपब्लिक भारतटाइम्स नाउसभी चैनलों के साथ रही.”

हालांकि इस अध्याय में भाषाई वर्चस्व के बीच हिंग्लिश की शरणस्थली की चर्चा करना विषय-वस्तु के साथ मेल नहीं खाता है. उसके लिए एक अलग स्वतंत्र अध्याय की गुंजाइश थी. खुद लेखक ने लिखा है कि वे इस विषय पर अन्यत्र लिख चुके हैं.

उल्लेखनीय है कि राममंदिर के उद्घाटन समारोह में जैसा कि उम्मीद थीटेलीविजन चैनलों में राम राज्य’ का बोलबाला रहा. उससे पहले ही इंडिया टुडे टीवी चैनल पर राम आएँगे’, टीवी 9 पर मंदिर वहीं बनाएँगे और एनडीटीवी पर राम रिटर्न्स’ जैसे कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे. ऐसा नहीं है कि पहली बार टीवी ने भावनात्मक मुद्दे को लेकर बिना किसी आलोचनात्मक विवेक के कार्यक्रम, बहस आदि किए हो. मोदी के शासनकाल में टीवी में राष्ट्रवाद के ऊपर बहस-मुबाहिसा का जोर बढ़ा है, जहाँ पर समावेशीसामासिक संस्कृति की बात नहीं होती. असल मेंहिंदी समाचार चैनल अपने शुरुआत से ही विचार-विमर्श की जगह सनसनी को अपने केंद्र में रखा. आज उग्र राष्ट्रवाद हिंदुत्व का आवरण ओढ़ कर हमारे सामने है. जैसा कि कुंवर नारायण ने अपनी कविता (अयोध्या, 1992) में लिखा है:

हे राम,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकाव्य!

तुम्हारे बस की नहीं

उस अविवेक पर विजय

जिसके दस बीस नहीं

अब लाखों सर-लाखों हाथ हैं.

यह लाखों सर और लाखों हाथ समकालीन भारतीय मीडिया के हैं. राष्ट्रीय मीडिया सत्ता के साथ हैजिससे नागरिक समाज और विपक्ष को लड़ना है. पर कैसेक्या लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया विपक्ष के लिए एक कारगर हथियार साबित होगाइस किताब का आखिरी अध्याय न्यू मीडियाडेटा पैक का लोकतंत्र’ खबरों और विभिन्न लेखकों की किताबों (राहुल रौशन, अंकित लाल, स्वाति चतुर्वेदी, रोहित चोपड़ा, सिरिल और परंजय गुहा ठाकुरता आदि)  के हवाले से इन्हीं मुद्दों को अपने घेरे में लेता है.

आखिर मेंलेखक ने किताब में नोट किया है कि "कारोबारी मीडिया के लिए लोकतंत्र नागरिकों की हिस्सेदारी से चलनेवाली एक सतत प्रक्रिया न होकरएक प्रबंधन है जिसे कि वो अपने ऑक्सीजन प्रदाता के अनुरूप फेरबदल कर सकते हैं." पर क्या हमारा मीडिया हमारे लोकतंत्र से अलग है? ‘मीडिया का लोकतंत्र में मीडिया की आलोचना तो है पर इस बुनियादी सवाल पर चुप्पी है. जब संकट लोकतंत्र पर हो तब समकालीन मीडिया की कोई भी आलोचना उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के बाद समाजराजनीति और पूंजीवाद (खुफिया पूंजीवाद) में आए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता हैजिसका इस किताब में नितांत अभाव है. 

(प्रभात खबर, 25.02.24)

Sunday, February 04, 2024

दरभंगा घराने के ध्रुपद का सम्मान


 हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद  के लिए दरभंगा-अमता घराने की चर्चा होती रही है. यह घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर राज के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया. बिहार में इसके कद्रदान नहीं रहे.

पिछले दिनों दरभंगा घराने के चर्चित गायक और ध्रुपद के शिक्षक राम कुमार मल्लिक को शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई. 71 वर्षीय मल्लिक दरभंगा में रहते हैं और पंडित विदुर मल्लिक गुरुकुल (दरभंगा) में छात्र-छात्राओं को ध्रुपद में प्रशिक्षण दे रहे हैं. पंडित विदुर मल्लिक उनके पिता और गुरु थे जो 80 के दशक में वृंदावन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी.

इसी घराने में पंडित रामचतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी जैसे प्रसिद्ध गायक हुए हैं, जिन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया. करीब पचास साल के बाद इस घराने के हिस्से पद्म पुरस्कार आया है, जबकि विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक जैसे ध्रुपदिए भी इसके हकदार थे. राम कुमार मल्लिक कहते हैं, यह अचल पद है. सारी दुनिया की संगीत का तत्व समझिए इसे. ख्याल विचलित हो सकता हैध्रुपद नहीं. कनकमुरकी मूर्छना नहीं लगता, यह मीड़ और गमक की चीज है.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. जिस तरह कबीर के पदों के लिए कुमार गंधर्व और मीरा के पदों के लिए किशोरी अमोनकर विख्यात हैंउसी तरह से दरभंगा घराने के गायक विद्यापति के पदों को गाते रहे हैं. मल्लिक कहते हैं चारों पट की गायकी दरभंगा घराने में आपको मिलेगी. ध्रुपद के साथ मैं ख्यालदादराठुमरीगजल-भजनलोकगीत भी गाता हूँ.

वे कहते हैं कि तानसेन के घराने से ही हमारे पूर्वजों ने गायन सीखा था. राधाकृष्ण और कर्ताराम (दो भाई और थे) ने ग्वालियर में रह कर भूपत खान जीजो तानसेन के नाती थेसे बाइस वर्ष तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की जिसके बाद वे नेपाल बादशाह के पास आए. वहाँ वे दरबारी गायक थे. कालांतर में वे दरभंगा राज से जुड़े. इस घराने में पखावज और सितार के भी कुशल कलाकार हुए हैं. मल्लिक बताते हैं कि हमारे घराने में शिवदीन पाठक हुए (मेरे दादाजी के मामा) उनका जो सितार बजता था वह तो विश्व में कोई नहीं बजा पाया. उनकी ऊँगली का रखाव इतना सुंदर (सही) थासब स्वरों के अंदर बद-बदबद-बद होता था. रामेश्वर पाठक ने उन्हीं की छत्रछाया में कुछ-कुछ सीखा था.” रामेश्वर पाठक की चर्चा सितारवादक रविशंकर भी अपनी आत्मकथा में करते हैं. वे सितार के गुर सीखने अमता भी गए थे.  जहाँ बिहार के बेतिया, गया घराने के शास्त्रीय संगीत की आज चर्चा नहीं होती, वहीं दरभंगा घराने की नई पीढ़ी शास्त्रीय संगीत का अलख जगाए हुए हैं. मल्लिक दरभंगा घराने के बारहवीं पीढ़ी के सिद्ध गायक हैं. 

Monday, January 29, 2024

राम कुमार मल्लिक से बातचीत

 


हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद संगीत के लिए बिहार के दरभंगा घराने की चर्चा होती रही है. यह घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर राज के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया. बिहार में इसे कद्रदान नहीं रहे.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में ख्याल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. साथ ही जिस तरह कबीर के पदों के लिए कुमार गंधर्व और मीरा के पदों के लिए किशोरी अमोनकर विख्यात हैंउसी तरह से दरभंगा घराने के गायक विद्यापति के पदों को गाते रहे हैं.

ध्रुपद के सिरमौर राम चतुर मल्लिक (पद्मश्री) के बारे में बड़े-बड़े संगीत साधक आज भी आदर से बात करते हैं. उनके गायन की कई रिकॉर्डिंग यू-टयूब पर उपलब्ध है. संगीत समीक्षक गजेंद्र नारायण सिंह ने उनके बारे में लिखा है- रामचतुर दरअसल गानचतुर थे. गायकी की हर विधा पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी.’ रामचतुर मल्लिक के चचेरे भाई विधुर मल्लिक 80 के दशक में वृदांवन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी. वर्ष 2019 के लिए इस घराने के चर्चित गायक और राम चतुर मल्लिक के शिष्य अभय नारायण मल्लिक (1937-2023) को राष्ट्रीय कालिदास सम्मान (मध्य प्रदेश सरकार) दिया गया. वे इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालयछत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया. इसी घराने के इलाहाबाद में प्रोफेसर प्रेम कुमार मल्लिक को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से पिछले साल नवाजा गया.

पिछले दिनों दरभंगा घराने के वरिष्ठ गायक और ध्रुपद के शिक्षक राम कुमार मल्लिक को शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई. वे दरभंगा में रहते हैं. हाल ही में अरविंद दास ने उनसे विस्तार से बातचीत कीसंपादित अंश प्रस्तुत है:

अरविंद दासदरभंगा घराने के रामचतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी को शास्त्रीय संगीत में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया. आपके पिता एवँ गुरु विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक भी ध्रुपद के प्रसिद्ध गायक हुएपर उन्हें यह सम्मान नहीं मिला. लगभग पचास सालों के बाद पद्मश्री इस घराने के हिस्से आया हैक्या देरी हुई?

राम कुमार मल्लिक:  हांयह सवाल गृह मंत्रालय से पूछा जाना चाहिए. पंडित राम चतुर मल्लिक और सियाराम तिवारी के बाद यह मुझे मिला है. विदुर मल्लिक और अभय नारायण मल्लिक को मिलना चाहिए था.

हो सकता है भारत सरकार की तरफ से या कोई तकनीकी गड़बड़ी रही हो. देर तो हुई है. यह भारत सरकार की गलती है. बाद में ही सही पर मुझे मिला है... मैं उसी घराने का हूँ.

अरविंद दास:  आप दरभंगा-अमता घराने की बारहवीं पीढ़ी के गायक हैं. तेरहवीं पीढ़ी के गायक (मल्लिक ब्रदर्स) अपने गायन को लेकर हमारे बीच मौजूद हैं. कितनी पुरानी दरभंगा घराने की गायन परंपरा है?

राम कुमार मल्लिक:  हमारी संगीत की परंपरा पाँच सौ साल पुरानी है. तानसेन के घराने से ही हमारे पूर्वजों ने गायन सीखा था. राधाकृष्ण और कर्ताराम (दो भाई और थे) ने ग्वालियर में रह कर भूपत खान जीजो तानसेन के नाती थे, से 22 वर्ष तक संगीत की शिक्षा ग्रहण की जिसके बाद वे नेपाल बादशाह के पास आए. वहाँ वे दरबारी गायक थे.

एक समय की बात हैदरभंगा में भीषण अकाल पड़ गया और दरभंगा के शुरुआती महाराज बेनी माधव पता लगाने गए कि कोई ऐसा साधक हो जो अपनी साधना से जलवृष्टि करवा सके. उन्होंने कहा कि जो कुछ मांगेगा उसे वह देंगे. नेपाल बादशाह से मालूम हुआ कि दो भाई संगीत सीख कर आया है जो मेघ-मल्हार गा कर पानी बरसा सकता है. वहां से दोनों भाइयों को बुलाया गया. वे दोनों भाई आए और दरभंगा राज में दरबार लगा. तानपुरा लेकर जब दोनों भाई ने मेघ-मल्हार गाना शुरु किया भंडार कोन से बादल उठा जो फैलता गया. पानी बरसने लगा जो इतना बरसा कि महाराज ने हाथ जोड़ लिया कि अब प्रलय हो जाएगा. दोनों भाई फिर शांत हुए. महाराज ने उनसे कुछ मांगने कहा. दोनों भाइयों ने कहा कि लोभ से मैंने ये साधना ग्रहण नहीं कियाआपकी जो इच्छा हो दें. साढ़े सात सौ बीघा जमीन (जिस पर हम रह रहे हैं) अमता गाँव में उन्हें मिला और बहुत सारी चीजें भी. उन्हीं की पीढ़ी से हम है जो दरभंगा महाराज से जुड़े रहे.

अरविंद दासआपने किनसे ध्रुपद गायन सीखा?

राम कुमार मल्लिकपहले तो अपने दादा जी (पंडित सुखदेव मल्लिक) से सीखा फिर अपने पिता एवँ अपने गुरु विदुर मल्लिक से. मैंने छह वर्ष से ही संगीत-साधना शुरु कर दिया था. बाबा रामचतुर मल्लिक का भी मुझे आशीर्वाद मिला. रामधीन पाठक (खंजड़ी वादक)सियाराम तिवारी ने भी मुझे आशीर्वाद दिया. अपने पिता के साथ अमेरिकायूरोप सहित पूरी दुनिया में मैंने गायन किया. हमारे घराने में शिवदीन पाठक हुए (मेरे दादाजी के मामा) उनका जो सितार बजता था वह तो विश्व में कोई नहीं बजा पाया. उनकी ऊँगली का रखाव इतना सुंदर (सही) थासब स्वरों के अंदर बद-बदबद-बद होता था. रामेश्वर पाठक ने उन्हीं की छत्रछाया में कुछ-कुछ सीखा थाजो रामाशीष पाठक के दादा हुए.

अरविंद दासदरभंगा घराने की प्रसिद्धि ध्रुपद गायन को लेकर है. यह किस प्रकार डागर घराने के ध्रुपद से अलग है. इस घराने की क्या विशिष्टता है?

राम कुमार मल्लिकहमारी गायन शैली अन्य घरानों से बहुत अलग है. हम गौहर-खंडार शैली को अपनाए हैं. वे री त न न तोम नोम...करते हैं. हम ओमहरि ओम अनंत हरि ओम (गाकर सुनाते हैं) से आलाप शुरु होता है. इसके बाद नोम-तोम त न री..यही सब. मीड़ गौहर बानी का काम है और गमक खंडार बानी (गा कर सुनाते हैं). इन दोनों को हमारे पूर्वज गाते थे. मेरे दादा जीपिता जी और हम खुद उसी परंपरा को अपनाए हुए हैं.

अरविंद दासआपके पिता विदुर मल्लिक एक बंदिश गाते थे- राजा रामचंद्र चढयो हैं त्रिकुट पर...

राम कुमार मल्लिक: ये हमारी परंपरा की बंदिश है. यह राधाकृष्ण-कर्ताराम बाबा की बंदिश हैजो चार चरण में पूरी होती है. राग देसी में है:

 राजा रामचंद्र ज्यू चढयो हैं त्रिकुट पर

लंका गढ़ डगमगायो जबहि डंफ बाजे (स्थायी)

श्रवण कनक टंक पर रावण घन मेघनाद

कुंभकर्ण रण बिदारी देव गगन बाजे

बड़े-बड़े योद्धा सब युद्ध करवे को साथ चले

समुद्र तीर डारि के लश्कर ठहरायो है

हनुमान ऐसो वीर लंका को फूक गई

रावण को मार राम पचरंग फहरायो है.

रावण का वध जब राम ने किया उसी का वर्णन हैइस बंदिश में. हमारे यहाँ फर्स्टसेकंडथर्ड और फोर्थ चार आलाप है (इक गुणद्विगुणत्रिगुण और चौगुण). डागर लोग तीन दर्जे का आलाप करते हैंइतना ही फर्क है. डागर की पुरानी परंपरा हैमैं उन्हें अलग नहीं समझ रहा.

अरविंद दासमैथिल भाषी होने के कारण मैं दरभंगा घराने की एक विशिष्टता की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा. शास्त्रीय संगीत में पारंगत होने के बावजूद भी यह घराना मैथिली के लोक कवि विद्यापति को गाता रहा है. मैंने विधुर मल्लिकअभय नारायण मल्लिक और आपको भी गाते सुना. यहाँ पर मैं आपके गाए- सुंदरी तुअ मुख मंगल दाताका जिक्र करना चाहूँगा जो इंटरनेट पर खूब सुना जाता है...

राम कुमार मल्लिक विद्यापति गाने की सीख मुझे पिताजी से मिली. उनके संग्रह से मैंने राग-रागनियों को चुना. दरभंगा आकाशवाणी के लिए भी हमने गाया है. साथ ही मेरे पिताजी का कैसेट है- नाइटिंगल ऑफ मिथिला उसमें आपके विद्यापति के पद आपको मिलेंगे. के पतिया ल जायत रे मोरा प्रियतम पास और कुंज भवन स निकसल रे रोकल गिरधारी आपको वहाँ मिलेगा. मैंने कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ और विद्यापति की नचारी आजु नाथ एक व्रत महासुख लागत हेतू शिव धरु नटभेस हम डमरू बजायब हे’ भी गाया है. ये हमारा अपना संग्रह है. ये सब रागों के अंदर है. ध्रुपद के साथ मैं ख्यालदादराठुमरीगजल-भजनलोकगीत भी गाता हूँ. चारों पट की गायकी दरभंगा घराने में आपको मिलेगी.

अरविंद दासआपकी संगीत यात्रा का केंद्र दरभंगा ही रहा है. साठ-सत्तर के दशक में दरभंगा और पटना में देश भर के संगीतकारों का जमावड़ा रहता हैध्रुपद संगीत समारोह भी होते थे .  बिहार की एक सांगीतिक-सांस्कृतिक पहचान  थीजो बाद के दशक में सिमट गई...

राम कुमार मल्लिक राजनीति हावी होती गई और हम परंपरा को भूल गए.

अरविंद दास:  20वीं सदी में ख्याल का बोलबाला रहाऐसे में ध्रुपद गायकी पिछड़ गई.  21वीं सदी में इसका क्या भविष्य आप देखते हैं.

राम कुमार मल्लिकध्रुपद को कोई हटा नहीं सकता है. यह अचल पद है. सारी दुनिया की संगीत का तत्व समझिए इसे. ख्याल विचलित हो सकता हैध्रुपद नहीं. कनकमुरकी मूर्छना नहीं लगता, यह मीड़ और गमक की चीज है. दरभंगा परंपरा में इसे स्थिर गायकी और चलन के रूप में आप पाएँगे. इस घराने की नयी पीढ़ी के लोग उसी रास्ते पर चल रहे हैं. पिताजी के शिष्य हैं वृजभूषण गोस्वामीसुखदेव चतुर्वेदीराधा गोविंद आदि वे भी इसे अपनाए हुए हैं.  

अरविंद दासलेकिन बिहार के अन्य संगीत घरानों की बात करें तो वह कहीं सुनाई नहीं देता..

राम कुमार मल्लिकगया घराना ठुमरी घराना था. वहाँ बहुत अच्छे गायक जयराम जी थेजो नशा के चलते बर्बाद हो गए. बेतिया घराने में दो-चार कलाकार थे. एक इंद्र किशोर जी हैं जो वृद्ध और असमर्थ हैं. मैं पाँच साल से पंडित विदुर मल्लिक गुरुकुल (दरभंगा) में छात्र-छात्राओं को ट्रेनिंग दे रहा हूँ. लोगों में रुचि जागृत हो रही है. दस-बीस छात्रों को मैंने सिखाया है. अभिषेक मिश्र हैं पटना में. अभिषेक पाठक हैंजिन्हें मैंने सिखाया है. मैं चाहता हूँ छात्रों की संख्या बढ़े.

अरविंद दास: ध्रुपद दरभंगा राज में फला-फूलाक्या बिहार राज्य सरकार से आपकी कोई अपेक्षा है?

राम कुमार मल्लिकमैं क्या कहूँयहाँ तो कुएँ में भांग पड़ी है.



(समालोचन के लिए, आजकल, मार्च में प्रकाशित, पेज 57-60)