Sunday, September 25, 2022

नब्बे साल के शेखर जोशी


नई कहानी आंदोलन के प्रमुख रचनाकार शेखर जोशी ने पिछले दिनों जीवन के नब्बे वर्ष पूरे किए. पिछली सदी के पचास-साठ के दशक में अमरकांत-मार्कण्डेय-शेखर जोशी (इलाहाबाद की त्रयी) उसी तरह चर्चा में रही, जिस तरह राजेंद्र यादव-कमलेश्वर-मोहन राकेश की तिकड़ी. नई कहानी के अधिकांश रचनाकार अब हमारी स्मृतियों में हैं. शेखर जोशी उम्र के इस पड़ाव पर भी रचनाकर्म में लिप्त हैं.

कुछ महीने पहले उनका कविता संग्रह ‘पार्वती’ प्रकाशित हुआ था. पचास के दशक के मध्य के इलाहाबाद प्रवास को याद करते हुए उन्होंने लिखा है, ‘यह समय इलाहाबाद का साहित्यिक दृष्टि से स्वर्णिम कालखंड था.’ इस कविता संग्रह के अलावे ‘न रोको उन्हें, शुभा’ भी प्रकाशित है. ‘पार्वती’ संग्रह में धानरोपाई, विश्वकर्मा पूजा से लेकर निराला, नागार्जुन जैसे कवियों की यादें हैं. साथ ही संग्रह में कवि के बचपन की स्मृतियाँ भी हैं.
पिछले साल उन्होंने अपने बचपन, आस-पड़ोस के समाज को ‘मेरा ओलियागांव’ किताब में दर्ज किया. इस किताब में कुमाऊँ पहाड़ियों के गाँव में बीता लेखक का बचपन है, विछोह है. बचपन से लिपटा हुआ औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है. स्मृतियों में अकेला खड़ा सुंदर देवदारु, कांफल का पेड़ है, बुरुंश के फूल हैं. पूजा-पाठ और तीज-त्यौहार हैं. लोक मन में व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक विभेद भी.
शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार’ 'परिंदे' (निर्मल वर्मा) और 'रसप्रिया' (फणीश्वर नाथ रेणु) के साथ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी जाती हैं. लछमा और गुंसाई हिंदी साहित्य के अविस्मरणीय चरित्र हैं.
‘मेरा ओलियागांव’ में वे अपनी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ और ‘कोसी के घटवार’ के उत्स की चर्चा करते हैं. वे लिखते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने फौजी वर्दियों में रणबांकुरों को जाते देखा था और उन्हें विदा करने आए लोगों का रुदन सुना था. ‘राजे खत्म हो गए’ एक फौजी की बूढ़ी मां पर लिखी कहानी है. साथ ही वे लिखते हैं कि ‘कोसी का घटवार’ के नायक ‘गुंसाई’ का चरित्र इन्हीं फौजियों से प्रेरित रहा हो.
पचास-साठ साल पहले लिखी ‘दाज्यू’, ‘बदबू’, ‘नौरंगी बीमार है’ आदि कहानियां आज भी अपनी संवेदना, जन-जीवन से जुड़ाव, प्रगतिशील मूल्यों और भाषा-शिल्प की वजह से चर्चा में रहती हैं और मर्म को छूती है. उनकी कहानियों में कारखाना मजदूरों, निम्न वर्ग के जीवन और संघर्ष का जो चित्रण है वह हिंदी साहित्य में दुर्लभ है. शेखर जोशी ने कारखानों के मजदूरों के जीवन को बहुत नजदीक से देखा, जो उनकी रचनात्मकता का सहारा पा कर जीवंत हो उठा.
‘बदबू’ कहानी में एक प्रसंग है, जिसमें वे लिखते हैं: 'साथी कामगरों के चेहरों पर असहनीय कष्टों और दैन्य की एक गहरी छाप थी, जो आपस की बातचीत या हँसी-मजाक के क्षणों में भी स्पष्ट झलक पड़ती थी.’ इस कहानी में कारखाने के मजदूर अपने हाथों में लगे कालिख को मिट्टी के तेल और साबुन से छुड़ाते हैं, पर गंध नहीं जाती. धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत पड़ जाती है. पर इस कहानी का अंत बहुत सारे सवाल और संभावनाएँ पाठकों के मन में छोड़ जाता है. उनकी कई कहानियों का मंचन भी हुआ, साथ ही ‘कोसी का घटवार’ और ‘दाज्यू’ पर फिल्में भी बनी है.

Friday, September 23, 2022

समांतर सिनेमा के दौर में व्यावसायिक रूप से सफल फिल्में

पंद्रह साल पहले मैं हिंदी में समांतर सिनेमा के प्रेणता, फिल्म निर्देशक, मणि कौल से उनकी फिल्मों के बारे में बात कर रहा था.  उन्होंने बातचीत के बीच बेतकल्लुफी से मुझसे कहा था- मुझसे ज्यादा एक्सट्रीम में बहुत कम लोग गए. जितनी फिल्में बनाई, सारी फ्लॉप!यह बात मेरे मन में अटक गई. मणि कौल की फिल्मों की चर्चा देश-विदेश के सिनेमा प्रेमियों के बीच आज भी होती है, पर पिछली सदी के 70-80 के दशक में जब वे फिल्में बना रहे थे, तब उनकी फिल्में सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हुई. 

21वीं सदी में अनुराग कश्यप, हंसल मेहता, दिवाकर बनर्जी जैसे निर्देशकों के यहाँ व्यावसायिक और कला फिल्मों के बीच की रेखा धुंधली हुई है. आज विभिन्न भारतीय भाषाओं के कई फिल्म निर्देशकों की फिल्मों पर मणि कौल का असर है. ओटीटी प्लेटफॉर्म और इंटरनेट पर उनकी फिल्में (आषाढ़ का एक दिन, दुविधा आदि) खूब देखी जा रही हैं. उस दौर में ये फिल्में फिल्म समारोहों में तो दिखाई गई, लेकिन आम दर्शक इसे नसीब नहीं हुए.

वर्ष 1969 में मणि कौल की फिल्म उसकी रोटी’, बासु चटर्जी की सारा आकाशऔर मृणाल सेन की भुवन सोमने भारतीय फिल्मों की एक नई धारा की शुरुआत की जिसे समांतर या न्यू वेव सिनेमा कहा गया. फिल्मकार और समीक्षक चिदानंद दास गुप्ता इस धारा की फिल्मों को अनपापुलर फिल्मकहते थे. इस धारा की फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को कई बेहतरीन अभिनेता दिए.

मुख्यधारा का सिनेमा हमेशा से ही बड़ी पूंजी की मांग करता है और वितरक प्रयोगशील सिनेमा पर हाथ डालने से कतराते रहते हैं. वर्ष 1969 में ही फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन’ (फिल्म वित्त निगम) ने प्रतिभावान और संभावनाशील फिल्मकारों की ऑफ बीटफिल्मों को कर्ज देकर सहायता पहुँचाने का निर्देश जारी किया था. इसका लाभ मणि कौल, मृणाल सेन, बासु चटर्जी जैसे निर्देशक उठाने में सफल रहे. इसी दौर में हिंदी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं मसलन, मलयालम, बांगला, कन्नड़ आदि में भी कई बेहतरीन फिल्मकार उभरे जिनकी फिल्में दर्शकों के सामने एक अलग भाषा और सौंदर्यबोध लेकर आई.

समांतर सिनेमा से जुड़े फिल्मकारों के लिए 70 और 80 का दशक मुफीद रहा. पर ऐसा भी नहीं कि इस दौर की सारी फिल्में दर्शकों से दूररही. इस दौर में कई ऐसी फिल्में बनी जो कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही कसौटियों पर सफल कही गई.

 हिंदी के रचनाकार राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाशपर जब बासु चटर्जी ने पहली फिल्म बनाई, तो वह उनकी पहली व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म भी साबित हुई. मध्यवर्गीय परिवार की इस यथार्थवादी कहानी को समीक्षकों के साथ-साथ दर्शकों ने भी खूब ने पसंद किया. इसी तरह उत्पल दत्त अभिनीत भुवन सोमभी सफल रही. इन फिल्मों की कलात्मक और व्यावसायिक सफलता ने हिंदी सिनेमा के निर्देशकों को प्रयोग करने, नए विषयों को टटोलने के लिए प्रोत्साहित किया.

 एफटीआईआई, पुणे से प्रशिक्षित होकर निकले हिंदी के फिल्मकार कुमार शहानी, केतन मेहता, अडूर गोपालकृष्णन (मलयालम), गिरीश कसरावल्ली (कन्नड़), जानू बरुआ (असमिया) और के के महाजन जैसे कैमरामैन ने भारतीय सिनेमा की इस धारा को समृद्ध किया. लेकिन कई ऐसे नाम  भी थे जो एफटीआईआई से बाहर थे, जैसे कि श्याम बेनेगल. उनकी फिल्में व्यावसायिक रूप से सफल होने के साथ ही विभिन्न फिल्म समारोहों में पुरस्कृत भी हुई. श्याम बेनेगल ने फिल्म बनाने के लिए फिल्म वित्त निगम से ऋण नहीं लिया था. उनकी पहली फिल्म 'अंकुर (1974)' और दूसरी फिल्म 'निशांत (1975)' को ब्लेज एडवरटाइजिंगने वित्तीय सहायता दी थी, जबकि तीसरी फिल्म 'मंथन (1976)' गुजरात के दुग्ध सहकारी संस्था के सदस्यों की सहायता से बनी. यह तीनों ही फिल्में व्यावसायिक रूप ले सफल रही. व्यावसायिक रूप से बेनेगल की फिल्मों की तुलना मलयालम फिल्म के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन से की जा सकती है, जिनकी अधिकांश फिल्में बाक्स ऑफिसपर भी सफल रही. उनकी पहली फिल्म स्वयंवरम’ (1972) को चार राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल हुए. इसी तरह एलिप्पथाएम’, ‘अनंतरम’, ‘मुखामुखम’, ‘कथापुरुषनआदि  भी कलात्मक रूप से उत्कृष्ट और विचारोत्तेजक हैं, जिसे देश-विदेश में कई पुरस्कार मिले.

हिंदी सिनेमा की बात करें तो  देश विभाजन की पृष्ठभूमि पर बनी एम एस सथ्यू की 'गर्म हवा (1973)', गोविंद निहलानी की 'आक्रोश (1980)', 'अर्धसत्य (1983)' और केतन मेहता की 'मिर्च मसाला (1988)' भी व्यावसायिक रूप से सफल कही जाएँगी. इन यथार्थपरक फिल्मों में सामाजिक-सांस्कृतिक तत्वों को कलात्मक रूप से समाहित किया गया.

आखिर में, कन्नड़ भाषा में समांतर सिनेमा का सूत्रपात करने वाली फिल्म 'संस्कार (निर्देशक, पट्टाभिराम रेड्डी, 1970)' के बारे में इस फिल्म के मुख्य अभिनेता गिरीश कर्नाड क्या कहते हैं, उस पर एक नजर डालते हैं. अपनी किताब दिस लाइफ एट प्लेमें उन्होंने लिखा है: 'पूरी फिल्म 95 हजार रुपए में बन गई थी. न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म ने अच्छा प्रदर्शन किया, बल्कि उस साल का बेस्ट फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार- स्वर्ण कमल, से भी नवाजा गया.

असल में, समांतर सिनेमा के दौर में महज कुछ हजार रुपए में फिल्में बन रही थी. इसमें 'स्टार' नहीं होते थे. कम बजट की इन फिल्मों का लागत कम होने की वजह से उसकी भरपाई हो जाती थी. साथ ही कई फिल्मों से मुनाफा भी हो जाता था.

समांतर सिनेमा को हम कलात्मक मूल्यों की वजह से ही देखते-परखते हैं. इन फिल्मों की व्यावसायिक सफलता हम आज की या उस दौर में बनी मुख्यधारा की फिल्मों से नहीं कर सकते.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Wednesday, September 14, 2022

प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' के सौ साल

पिछले दिनों किसान आंदोलन के प्रसंग में प्रेमचंद के उपन्यासों को याद किया गया. खास कर प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि को केंद्र में रख कर किसानों के संघर्ष की चर्चा हुई.

प्रेमाश्रम प्रेमचंद का पहला उपन्यास है जिसमें वे किसानों की समस्या, शोषण और संघर्ष को हिंदी पाठकों के सामने लेकर आते हैं. इस लिहाज से प्रेमचंद के सभी उपन्यासों में इसकी अहमियत बढ़ जाती है. वर्ष 1922 में छपा यह उपन्यास सौ साल पूरे कर रहा है.

प्रेमाश्रम के ऊपर शोध करने वाले हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है: “ 1917 से 1920 के बीच लिखे गए किसान साहित्य में प्रेमाश्रम’ अकेली कृति थी जिसमें किसानों के वर्ग संघर्ष को चित्रित किया गया था. जमींदारी प्रथा के खिलाफ किसानों के संघर्ष को चित्रित करने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले लेखक और 1917-20 के जमाने के एकमात्र लेखक थे.” कोई भी रचनाकार अपने समय की हलचलों से अछूता नहीं रहता. साथ ही वह अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायित्व होता है. 

प्रेमचंद के इस उपन्यास में समकालीन औपनिवेशिक-सामंती समाज, अवध के क्षेत्र में बाद में फैले किसान आंदोलन और असहयोग आंदोलन की अनुगूंज है. हालांकि इस उपन्यास में यथार्थवाद पर उनका आदर्शवाद हावी है, पर जमींदारी के खत्म होने को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है.

इस उपन्यास की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है:

संध्या हो गयी है. दिन-भर के थके-माँदे बैल खेतों से आ गये हैं. घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे. लखनपुर में आज परगने के हाकिम की पड़ताल थी. गाँव के नेतागण दिन-भर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे. इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं. लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गाँव है. यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं.

इस उपन्यास में पात्रों की भरमार है. मनोहर, बलराज जैसे किसानों के साथ प्रेमशंकर, ज्ञानशंकर जैसे जमींदार मौजूद हैं. इसके अलावे गायत्री, गौंस खां, कादिर जैसे पात्र भी हैं. लखनपुर गाँव के किसान प्रेमाश्रम के नायक हैं और खलनायक जमींदार वर्ग है. इस गाँव के किसान बेगार, लगान,बेदखली के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं.

औपनिवेशिक भारत में जमींदार और किसान के बीच एक तीसरे वर्ग महाजन वर्ग का तेजी से विकास हुआ. किसान इस कुचक्र में पिस रहा था. इसका निरूपण प्रेमचंद ने अपने बाद के उपन्यास गोदान में कुशलता से किया है.

प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन के दौरान किसानों के सवाल, उनके संगठन की ताकत को अपने उपन्यास के केंद्र में रख रहे थे, जो आजादी के बाद भी हिंदी के रचनाकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा. हिंदी के कई रचनाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़े रहे.

प्रसंगवश, कवि नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार कहा जाता है. गोदान के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास की धारा ग्राम-जीवन से विमुख होकर शहर और अंतर्मन के गुह्य गह्वर में चक्कर काटने लगी थी. नागार्जुन अपने पहले उपन्यास रतिनाथ की चाची (1948) के द्वारा भारतीय ग्रामीण-जीवन के सच को फिर से पकड़ते हैं. नागार्जुन के उपन्यास 'बलचनमा', 'बाबा बटेसरनाथ' और फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' जैसे उपन्यास के प्रकाशन से प्रेमचंद की परंपरा पुष्ट हुई. यह परंपरा समाज और राजनीति को किसानों की दृष्टि से देखने की है.

जाहिर है प्रेमचंद और उनके बाद के रचनाकारों की चेतना में फर्क नजर आता है, जो समय और स्थान के अंतर के कारण स्पष्ट है. पर उनकी चिंता किसानों की स्वाधीनता की ही है. स्वाधीनता के लिए संघर्ष की चेतना नागार्जुन, रेणु जैसे रचनाकारों के यहाँ सबसे तीव्र है. हालांकि यहाँ प्रेमचंद की तुलना में अधिक स्थानीयता है. जहाँ प्रेमचंद उत्तर-प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा के माध्यम से किसानों के संघर्ष की चेतना को अभिव्यक्त किया है वहीं नागार्जुन और रेणु के यहाँ मिथिलांचल के किसानों, खेतिहर मजदूरों की कथा है. यहाँ लोक जीवन और लोक चेतना ज्यादा मुखर है.

आज भी देश की जनसंख्या का करीब साठ प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं. किसानों की समस्या भूमंडलीकरण के बाद उदारीकरण और बाजारवादी व्यवस्था से बिगड़ी है. ऐसे में हमारे समय में प्रेमाश्रम एक नया अर्थ लेकर प्रस्तुत होता है. सौ साल के बाद भी इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी हुई है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)