Monday, June 07, 2021

लोकतंत्र में सरकार और मीडिया के आपसी रिश्ते

आर्टिकल 14 वेबसाइट के एक डेटाबेस के मुताबिक वर्ष 2010 से 2020 तक करीब 10938 लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगे उनमें जो 65 प्रतिशत मामले वर्ष 2014 के बाद प्रकाश में आए हैं. जिन 405 लोगों पर वर्ष 2014 के बाद केस दर्ज हुए उन पर सरकार और राजनेताओं की आलोचना’ की वजह से राजद्रोह का आरोप था.

ऐसे में वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ पर राजद्रोह का मामला सुप्रीम कोर्ट ने रद्द करते हुए जो टिप्पणी की है वह महत्वपूर्ण है. अपने यूट्यूब चैनल में पिछले साल कोरोना महामारी के दौरान मोदी सरकार पर किए गए कुछ टिप्पणियों के लिए शिमलाहिमाचल प्रदेश में उनके खिलाफ राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था. उन्होंने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी. मीडियाकर्मियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की आजादी पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि हर पत्रकार को केदारनाथ सिंह फैसले के तहत सरंक्षण मिला है.’  भारतीय दंड विधान (आईपीसी) में शामिल देशद्रोह की धारा के तहत केस दर्ज करने के बढ़ते मामलों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते सोमवार को कहा था कि ‘राजद्रोह की सीमा को परिभाषित करने का समय आ गया है. उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश के दो तेलुगु चैनलों के खिलाफ राजद्रोह को लेकर दंडात्मक कार्रवाई करने पर रोक लगा दी थी. इन चैनलों पर वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के बागी सांसद के रघु राम कृष्ण राजू के आपत्तिजनक भाषण का प्रसारण करने का आरोप था.

चर्चित केदारनाथ सिंह फैसले (1962) के तहत सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया था कि लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलने के लिए सरकार की आलोचना बेहद जरूरी है. अदालत ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर  टिप्पणी करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. साथ ही जब तक हिंसा फैलाने की मंशा या हिंसा बढ़ाने का तत्व मौजूद नहीं हो वक्तव्य को राजद्रोह नहीं माना जा सकता. हालांकि इस फैसले के बाद भी विभिन्न सरकारों के द्वारा पत्रकारोंएक्टिविस्टों पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज होते रहे हैं. असल में आजादी के बाद ब्रिटिश राज के दौर में बने इस कानून की प्राथमिकता खत्म हो जानी चाहिए थी. महात्मा गाँधी ने नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले कानूनों में आईपीसी के 124 ए को ‘राजकुमार’ (प्रिंस) कहा था. भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के मुताबिक जब कोई व्यक्ति बोले गए या लिखित शब्दोंसंकेतों या दृश्य प्रस्तुति द्वारा या भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति किसी तरह से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने का प्रयास करता हैअसंतोष (Disaffection) उत्पन्न करता है या करने का प्रयत्न करेगा वह राजद्रोह का आरोपी है.

उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में नेटवर्क 18 को दिए एक इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा थामीडिया अपना काम करता है वह करता रहे और मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों कीसरकार के काम-काज का कठोर से कठोर एनालिसिस  होना चाहिए क्रिटिसिज्म होना चाहिएवरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.

लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका वॉचडॉग (पहरुए) की है. पर हाल के वर्षों में सरकार की आलोचना को बर्दाश्त न करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. और यह सोशल मीडिया पर भी खूब दिखाई देता है. सरकार के समर्थक और ट्रोल उस पत्रकार या संस्थान के पीछे पड़ जाते हैं जो सरकार की आलोचना करते हैं. कई बार यह धमकी या प्रताड़ना की शक्ल में सामने आता है. ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति महज भारत की है. हाल ही में पाकिस्तान में भी प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले बढ़े हैं. पर वहाँ यह दबाव सेना और आईएसआई जैसी संस्थाओं के कारण ज्यादा है. जाहिर है सरकार की मिली-भगत भी इसमें है.

किसी भी लोकतंत्र में सरकार और मीडिया के आपसी रिश्ते प्रतिद्वंदी की नहीं होनी चाहिए. मीडिया सरकार के काम-कामनीतियों और संदेश को नागरिकों तक लेकर जाती है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद मीडिया के मार्फत सार्वजनिक बहस-मुबाहिसावाद-विवाद-संवाद की संभावना बढ़ी है. हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दशक में फेक न्यूजमनगढंत खबरों से बहस-मुबाहिसा का जो दायरा फैला है उसे संकुचित करने की कोशिश भी हुई है.

जहाँ विकसित देशों में प्रिंट मीडिया में वृद्धि ढलान पर है वहीं भारत के भाषाई प्रेस में वृद्दि देखी गई है. सैकड़ों टेलीविजन चैनल और ऑनलाइन वेबसाइट उभरे हैं. इसने देशज राजनीति (वर्नाकुलर पॉलिटिक्स) को सुदृढ़ किया है मीडिया के इस पक्ष की चर्चा कम की जाती है. साथ ही मीडिया ने राजनीतिक संचारचुनावों के दौरान राजनीतिक लामबंदी  और राजनेताओं के छवि निर्माण में पिछले दो दशकों में टेलीविजन और ऑनलाइन ने एक बड़ी भूमिका अदा की है. 

(नेटवर्क न्यूज18 हिंदी में प्रकाशित, 6 जून 2021)

 

Saturday, June 05, 2021

सिनेमा को वापस हॉल में आना ही होगा: अडूर गोपालकृष्णन

 


दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्म निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन भारत के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठा दुनिया भर में है। प्रख्यात फिल्म डायरेक्टर सत्यजित रे उनका काम बहुत पसंद करते थे। यह सत्यजित रे की जन्मशती का साल है। इस मौके पर अडूर गोपालकृष्णन से उनकी कलायात्रा पर अरविंद दास ने बात की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:

स्वयंवरम (1972) से सुखायंतम (2019) की लंबी सिनेमाई यात्रा को आप किस रूप में देखते हैं?
आम तौर पर मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखता। फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे से पास करने के सात साल बाद मैंने पहली फिल्म बनाई और उसके बाद एक अंतराल रहा। असल में पूरे फिल्मी करियर में मेरी फिल्मों के बीच एक लंबा अंतराल रहा है। 55 साल के दौरान मैंने 12 फिल्में बनाई है। मैं इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं रहा। जब फिल्म बन रही होती थी, तब इनसाइडर रहता था और जब नहीं बन रही होती थी, तब आउटसाइडर। लोग पूछते हैं कि आपने इतनी कम फिल्में क्यों बनाई, जबकि इंडस्ट्री में इसी दौरान लोगों ने पचास-साठ फिल्में बना डालीं। सत्यजीत रे ने भी मुझसे एक बार कहा था कि मुझे कम से कम एक फिल्म हर साल बनानी चाहिए, वह मेरा काम पसंद करते थे। मैंने उनसे कहा था कि मेरा भी यह सपना है। पर मैं जिस तरह के विचार को लेकर आगे बढ़ता हूं, यह हो नहीं पाता। एक विचार पर काम करने और उससे बाहर निकलने दोनों में मुझे काफी वक्त लगता है।

पांच साल लग जाते हैं एक फिल्म को परदे पर लाने में?
हां, कभी-कभी तो सात-आठ साल। पर ऐसा मैं इरादतन नहीं करता। असल में इस इंडस्ट्री में सारी चीजें हमारे खिलाफ काम कर रही होती हैं। यहां वेरायटी एंटरटेनमेंट (गीत-नृत्य) पर जोर रहता है, जबकि मेरे यहां सीधी-सादी और आडंबरहीन चीजें हैं जो दर्शकों के जीवन, मेरे जीवन, समाज से जुड़ी हैं। सौभाग्य से मेरी फिल्मों को हमेशा दर्शक मिले हैं और फिल्में रिलीज हुई हैं। कभी दर्शकों ने इसे रिजेक्ट नहीं किया। बड़े प्रॉडक्शन की फिल्मों की तरह ही इसका प्रचार-प्रसार हुआ। मेरे दर्शक केरल के बाहर देश-विदेश में फैले हैं। मैंने कोई समझौता किसी भी फिल्म में नहीं किया। जो भी मैंने बनाया उस पर मेरा पूरा नियंत्रण रहा। मेरे लिए खुश होना ज्यादा जरूरी है। मुझे किसी प्रकार का खेद नहीं है। हर फिल्म मेरे लिए प्रिय है।



सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन के साथ आपके कैसे संबंध थे? इन तीनों निर्देशकों की कौन सी फिल्म आपको सबसे ज्यादा पसंद आई?
सत्यजीत रे मेरे गुरु समान थे। मेरे काम को लेकर हमेशा उन्होंने अच्छी बातें कहीं। ऋत्विक घटक के साथ मेरे निजी संबंध नहीं थे, हालांकि वे मेरे शिक्षक रहे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उनकी वजह से फिल्म इंस्टिट्यूट में सिनेमा के बारे में काफी कुछ पढ़ा। वे गजब के फिल्मकार थे। मृणाल सेन मेरे लिए बड़े भाई जैसे थे। रे और सेन के साथ मेरे संबंध प्रेम से भरे थे। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि भारतीय सिनेमा की इन तीन विभूतियों को मैंने देखा-जाना। रे की 'अपू त्रयी', 'अपराजितो' मुझे खास तौर पर अच्छी लगी। मृणाल सेन की 'एक दिन प्रतिदिन' और ऋत्विक घटक की 'मेघे ढाका तारा' मेरी पसंदीदा फिल्में हैं।

आपने एक जगह लिखा है कि 'सिनेमा मेरे लिए महज कहानी को दोहराना नहीं है'। आपके लिए सिनेमा में कौन का तत्व सबसे अहम है?
फिल्म, असल में, मेरे लिए दर्शकों के साथ एक अनुभव साझा करना है। और ये अनुभव साझा करने लायक होने चाहिए। मेरी फिल्में मेरी संस्कृति को दिखाती है। मैं अपने समाज का हिस्सा हूं, कोई आउडसाइडर नहीं। फिल्मकार को अनूठे रूप से नई चीजें कहनी होती हैं। मैं कभी खुद को नहीं दोहराता। यह बोरिंग है। सिनेमा का विकास एक महान कलात्मक चीज को हासिल करने की इच्छा के फलस्वरूप हुआ है। हम आस-पास घट रही घटना से खुद को अनभिज्ञ नहीं रख सकते हैं।



स्वतंत्रता/मुक्ति का सवाल आपकी फिल्में स्वयंवरम, एलिप्पथाएम, मतिलुकल में है। जबकि फिल्म अनंतरम की रचना प्रक्रिया जटिल है। यहां यथार्थ और कल्पना की रेखा गड्डमड्ड है...
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अनंतरम' रचने की प्रक्रिया के बारे में बताऊं। सवाल है कि हम कैसे रचें? शुरुआत में आप अपने अनुभव के ऊपर काम करते हैं। यदि आप कलात्मक व्यक्ति हैं तो उस अनुभव को आप किसी रूप में व्यवस्थित करते हैं और फिर यहां कल्पना की भूमिका आती है। सो सारा कुछ यहां मिल जाता है। अनुभव जस के तस रूप में नहीं आता। उसमें भी बदलाव होता है। हर इंसान के अंदर इंट्रोवर्ट और एक्सट्रोवर्ट मौजूद रहता है। इस फिल्म में 'अजयन' एक ऐसा ही चरित्र है। यदि आप कहानी देखेंगे तो यहां कोई विभेद नहीं है, यह एक-दूसरे का पूरक है। दर्शक गैप्स को खुद भर लेते हैं और कहानी गढ़ते हैं।

हाल में रिलीज हुई मलायम फिल्म 'द ग्रेट इंडियन किचन' देखते हुए मुझे सामंती व्यवस्था के ऊपर बनी आपकी फिल्म एलिप्पथाएम की याद आई...


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एलिप्पथाएम' की शुरुआत मेरे मन में आए इस विचार से हुई कि हमारे आस-पास जो चीजें हैं उस पर कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त करते हैं। फिर मुझे खुद ही जवाब मिल गया कि यदि हम प्रतिक्रिया देना शुरु करें तो हमारे लिए यह असुविधाजनक होगा। और फिर हम मानने लगते हैं कि कोई दिक्कत नहीं है, ये चीजें मौजूद ही नहीं हैं। 'उन्नी' का चरित्र ऐसा ही है। यह केरल समाज में सामंती संयुक्त परिवार के विघटन के दौर की कहानी है, पचास-साठ के दशक का देश काल है। उन्नी अपने आस-पास की घटना से विमुख है और खुद में सिमटा पड़ा है।

कोविड के दौर में सिनेमा का क्या भविष्य आप देखते हैं?
अभी लोग लैपटॉप, टीवी, मोबाइल पर सिनेमा देख रहे हैं, पर सिनेमा को वापस हॉल में आना ही होगा। यह एक सामूहिक अनुभव है। छोटे परदे पर आप दृश्य, ध्वनि की बारीकियों से वंचित हो जाते हैं। घर में बहुत तरह के व्यवधान भी मौजूद रहते हैं।

(नवभारत टाइम्स, 5.6.21)